हिन्दी का अलख कैसे जगाएँ? / सपना मांगलिक

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हम अपनी मातृभाषा बोलने में ठीक वैसे ही शर्माते हैं जैसे कि एक मजदूर औरत के खून पसीने कि कमाई से पढ़ लिखकर बाबू बना बेटा अपनी उसी मजदूर माँ को, माँ कहते हुए शर्माता है। हिन्दी उस रानी की तरह है जिसे बाहर के राष्ट्र अपनी पटरानी बनाना चाहते हैं और उसका अपना राज्य और जनता उसे नौकरानी का तमगा दे चुकी है। आज हिन्दी के घर में ही हिन्दी की दुर्गति हो रही है क्योंकि हम जैसे भारतवासी अपनी मातृभाषा की उपेक्षा कर फिरंगी बोलियों को बोलना ज़्यादा श्रेष्ठ और गौरवान्वित करने वाला कार्य समझते हैं और तो और आज भारत में साठ प्रतिशत व्यक्तियों को पूरी वर्णमाला सुनाने को कहा जाए तो वह निश्चित ही कहीं न कहीं ज़रूर अटकेंगे ऐसा मेरा दावा है। क्योंकि हममें से अधिकांश ने न तो इसका व्याकरण कभी पढने और समझने की कोशिश की और न ही इसकी शब्दावली से हम परिचित हैं। और जैसे-तैसे लिखने की कोशिश भी करते हैं तो लेखन में त्रुटियाँ ही त्रुटियाँ दिखाई देती हैं। भाषा की इसी अज्ञानता और अल्पज्ञान ने हमें हमारी संस्कृति और दुनिया की सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक भाषा से भी दूर कर दिया है। जिसके कारण हमारी पहचान तो नष्ट हो ही रही है अपितु फिरंगी भाषा में सोचने की कोशिश भी दासता की प्रवृति को जन्म दे रही है। हम बिना सोचे समझे उस फिरंगी भाषा की शरण में चले गए हैं जो कभी हमें अपने मन, आत्मा, विचार, एवं व्यवहार से तादात्मय स्थापित नहीं करने देगी। बल्कि एक ख़राब जी०पी०एस मशीन की भाँती सदैव दिशाभ्रमित करती रहेगी।

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि जो सबका दास होता है, वही उनका सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच-नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच-नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। ठीक उसी प्रकार हिन्दी भी वह सभी क्षेत्रीय और पुरातन भाषाओं को अपनाकर आगे बढती है एक सरित प्रवाह की तरह इस भाषा का प्रवाह है इसलिए जितने भी लोग और राष्ट्र आज हिन्दी को निम्न दृष्टि से देख रहे हैं, निश्चित ही एक दिन हिन्दी की जयजयकार करेंगे। और ऐसा हो भी रहा है जबसे सूचना तकनीकों ने भारत में अपने पैर पसारे हैं हमारी हिन्दी भाषा भी नौकरानी से महारानी बनाने की ओर अग्रसर हो चली है। इस केक्टस के पेड़ की टहनियों से भी उम्मीद की कोपलें फूट रही हैं। क्योंकि हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है, मगर आज भी उसकी पठनीयता, उसका साहित्य सिसकियाँ भर रहा है।

क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है? इसमें दोष भाषा का नहीं, बल्कि बाज़ार का है। वैसे भी बाज़ार का सीधा-सा नियम है बेचना। इस बेचने से कोई भाषा कैसे बच सकती है? मगर अफ़सोस हमारे देश के सरकारी अफसर और राजनेता और युवा-पीढ़ी के मार्ग दर्शक अपनी ही हिन्दी को माथे की बिंदी बनने से रोक रहे हैं इसके जगभर में चमचमाने से इन्हें गुरेज है।संक्षेप में हिन्दी की हालत भी भारत की कन्याओं जैसी ही है। जिसे उसके कुछ अपने गर्भ में ही औजारों से नोंच नोंच कर बाहर कर रहे हैं। और कुछ विकृत हिंगलिश मानसिकता वाले उसे बलात्कार का शिकार बना रहे हैं। विदेशी दौरों जो हिन्दी के संबर्धन के लिए सरकार करोड़ों रुपये खर्च करके आयोजित करती है, उन्हीं दौरों पर उसी सरकार के मुलाजिम हिन्दी के बजाय इंग्लिश को प्रधानता दे, विश्व में अपनी पहचान और गरिमा को तार-तार करते हैं। सरकार हर वर्ष हिन्दी अपनाने का न केवल आग्रह करती है बल्कि १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस भी मनाती है। अब सवाल यह उठता है कि सरकार कि कथनी और करनी में इतना अन्तर क्यों है?

आज हिन्दी की जो सबसे बड़ी दुर्दशा का कारन हैं वह हैं खुद इस भाषा के प्रचारक। यह प्रचारक हिन्दी का प्रचार करने के बहाने से कुकुरमत्तों की तरह से हिन्दी कि संस्थाएं खोलकर बैठ गए हैं इनका ध्येय जबकि सरकार से अनुदान हड़पना, चेहरा चमकाना और बड़े बड़े कार्यक्रमों का आयोजन कर प्रायोजकों से और प्रचार के भूखे साहित्यकार एवं लेखकों से बेहिसाब धन लूटना है। आज स्थिति कुछ ऐसी बन गयी है कि जब हिन्दी का कोई लेखक या प्रचारक किसी से मिलता है तो सामने वाले को लगता है कि कहीं हिन्दी के प्रचार के नाम पर पैसे ऐंठने तो नहीं आया। और लोग उससे दूर भागने लगते हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में हिन्दी की दुर्दशा साफ़ नजर आई। विदेशी तो विदेशी, भारतीय सैनिक अधिकारियों ने भी मंच पर अंग्रेज़ी का दामन नहीं छोड़ा। सच तो यह है कि हिन्दी भाषी लोग ख़ुद ही हिन्दी के सब से बड़े दुश्मन हैं क्योंकि वह किसी भी ऐसी घटना का कभी विरोध नहीं करते। हर रोज़ हिन्दी का जिस प्रकार से गला घोंटा जाता है यह भी सिर्फ़ इसलिए हो रहा है क्योंकि हिन्दी का पाठक हिन्दी के समर्थन का कहीं बीड़ा नहीं उठाता और उसके प्रयोग में कोई योगदान नहीं देता। बड़े शहरों में हिन्दी से जुड़े साहित्यिक आयोजन दर्शकों के अभाव में दम तोड़ रहे हैं जब कि वहीं अंग्रेज़ी से जुड़े आयोजनों में बेतरतीब भीड़ उमड़ जाती है। हमारे आगरा में होने वाला ताज महोत्सव हो या प्रसिद्ध जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल हर जगह हिन्दी को उपेक्षित कर अंग्रेजी को ताज पहनाया जाता है।

पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता कि स्तम्भ कही जाने वाली कई पत्रिकाएँ पाठकों की उपेक्षा के कारण दम तोड़ चुकी हैं जब कि अंग्रेज़ी की हर स्तरहीन और संस्कार विहीन पत्रिका भी फलफूल रही है क्योंकि अंग्रेज़ी कि दासता हमारी मानसिक कमजोरी बन चुकी है। हम किसी प्रकार से अंग्रेज़ी के विरोधी हैं, बल्कि हम तो सभी भाषाओं के हिमायती हैं लेकिन हमारा आग्रह सिर्फ़ इतना है कि राष्ट्रभाषा का यथोचित सम्मान करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि यह हमारी अस्मत और पहचान से जुडी हुई है। किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए और उसकि अपनी विशिष्ट पहचान के लिए, उसकि राष्ट्र भाषा का सार्वजनिक प्रयोग बहुत ज़रूरी है पर अफ़सोस कि हम आज भी दूसरों के मापदंडो से अपने को तोलते हैं और आज़ाद होते हुए भी गुलामों कि तरह जीते हैं, जब तक हम अपनी मातृभाषा को ह्रदय से नहीं अपनाएंगे उसकी इज्जत नहीं कर्तेंगे उससे सामंजस्य नहीं बिठायेंगे तबतक इस देश में अंग्रेजों की पूँछ अंग्रेजी आग लगाती रहेगी और भस्म कर देगी हमारे साहित्य को हमारी भाषा के नामोनिशान को हमारी गरिमा को और विश्व कि उस एकमात्र वैज्ञानिक, सहज -सरल भाषा को जो जैसे पढ़ी जाती है वैसी ही लिखी जाती है और ठीक वैसे ही बोली भी जाती है।

हिन्दी को बोलने वालों की संख्या के आधार पर विश्व की प्रथम भाषा होने का दर्जा दिया जाता है। डॉ। जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने हिन्दी को उसका हक़ दिलवाने के क्रम में काफी मेहनत मशक्कत भी की है। लेकिन अधिकारिक तौर पर हिन्दी को यह दर्जा नहीं दिया जा सका है। यद्यपि विभिन्न सर्वेक्षणों में हिन्दी विश्व की पाँच सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में स्थान पाती रही है। आज हिन्दी को बहुत से लोग राष्ट्रभाषा के रूप में देखते हैं। कुछ इसे राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं। जबकि कुछ का मानना है कि हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है।हिन्दी का क्षेत्र विस्तृत है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही विस्तृत नहीं है कि वह ज़्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज़्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।

राजभाषा शब्द सरकारी कामकाज की भाषा के लिए प्रयुक्त होता है होता है। भारतीय संविधान में इसे परिभाषित किया गया है। अनुच्छेद 343 के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी होगी और अंकों का स्वरूप भारतीय अंकों का अंतरराष्टीय स्वरूप होगा। ध्यान रहे देवनागरी अन्य भारतीय भाषाओं यथा मराठी, नेपाली आदि की भी लिपि है। इस प्रकार केंद्र सरकार के कार्यालयों, उपक्रमों, निकायों व संस्थाओं की कार्यालयी भाषा हिन्दी है। जो राजभाषा के रूप में परिभाषित है।लेकिन राजभाषा होने के वावजूद भी हिन्दी अबतक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं पा सकी है। राष्ट्रभाषा से अभिप्राय: है किसी राष्ट्र की सर्वमान्य भाषा। क्या हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है? यद्यपि हिन्दी का व्यवहार संपूर्ण भारतवर्ष में होता है, लेकिन हिन्दी भाषा को भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं कहा गया है। चूँकि भारतवर्ष सांस्कृतिक, भौगोलिक और भाषाई दृष्टि से विविधताओं का देश है। इस राष्ट्र में किसी एक भाषा का बहुमत से सर्वमान्य होना निश्चित नहीं है। इसलिए भारतीय संविधान में देश की चुनिंदा भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में रखा है। शुरु में इनकी संख्या 16 थी, जो आज बढ़ कर 22 हो गई हैं। ये सब भाषाएँ भारत की अधिकृत भाषाएँ हैं, जिनमें भारत देश की सरकारों का काम होता है। भारतीय मुद्रा नोट पर 16 भाषाओं में नोट का मूल्य अंकित रहता है और भारत सरकार इन सभी भाषाओं के विकास के लिए संविधान अनुसार प्रतिबद्ध है। आज हिन्दी का परचम पूरे विश्व में फैलाने की ज़रूरत है हमारे युवा संचार क्रांति के माध्यम से इसका बीड़ा उठा चुके हैं बस अब बारी सरकारी महकमों और क़ानून की है जो हिन्दी में राजकीय कार्य करवाकर और आधिकारिक रूप में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर उसे वह सम्मान दें जिसकी वह हकदार है और जिसके लिए वह काफी समय से प्रयासरत भी है। और अंत में अपनी ही लिखी एक कविता से अपना मंतंव्य आपके समक्ष रखती हूँ –

लेखनी से एक नया अलख अब जगाना है

मेरा साथ दो मेरे प्यारे देशवासियों

मुझे राज भाषा को राष्ट्र भाषा बनाना है

हिंदी की कीर्ति पताका जगभर में फहराना है

बाबन अक्षरों को हर गले का हार बनाना है

मेरा साथ दो मेरे प्यारे देशवासियों

मुझे अपनी मातृभाषा को न्याय दिलाना है

अंग्रेजियत को भारत से खदेड़ दूर भगाना है

हर सरकारी महकमें का कामकाज अब

राजभाषा हिन्दी में ही करवाना है

मेरा साथ दो मेरे प्यारे देशवासियों

मुझे इंडिया को अबसे भारतवर्ष बनाना है