हिन्दी गद्य शैली का विकास की 'भूमिका' / रामचन्द्र शुक्ल

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हिन्दी गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर हुए बहुत दिन हो गए। उसके भीतर विविध शैलियों का विकास भी अब पूरा पूरा देखने में आ रहा है। वह समय आ गया है कि लेखकों की भिन्न भिन्न शैलियों की विशेषताओं का सम्यक् निरूपण और पर्यालोचन हो। इस ओर पहला प्रयत्न श्रीयुत पंडित रमाकान्त त्रिपाठी, एम. ए. अध्यापक, जसवन्त कॉलेज, जोधापुर ने अपनी 'हिन्दी गद्य मीमांसा' द्वारा किया। इसके लिए वे अवश्य धन्यवाद के पात्र हैं-चाहे उनके प्रकट किए हुए कुछ विचारों से बहुत से लोग सन्तुष्ट या सहमत न हों। इतना मानने में तो किसी को आगा पीछा न होना चाहिए कि आरम्भ से लेकर आज तक के बहुत से गद्य लेखकों की भाषासम्बसन्धी कुछ विशेषताओं का व्यवस्थित दिग्दर्शन कराते हुए त्रिपाठीजी ने प्रत्येक के दो दो, तीन तीन लेख नमूनों के तौर पर हमारे सामने रखें हैं। शैली समीक्षक मिंटो की प्रसिध्द अंगरेजी पुस्तक के ढंग पर उन्होंने आरम्भ में भाषा सम्बन्धी कुछ विवेचन और शैलियों का सामान्य वर्गीकरण भी किया है। पर उनका उद्देश्य नमूनों का संग्रह जान पड़ता है।

इस पुस्तक का लक्ष्य त्रिपाठीजी की पुस्तक के लक्ष्य से कुछ भिन्न है। नमूनों के रूप में लेखकोंका संग्रह इसका उद्देश्य नहीं। इसमें हिन्दी गद्य का विकास क्रम दिखाकर भिन्न भिन्न लेखकों की प्रवृत्तियों के स्पष्टीकरण और वाग्विधन की विशेषताओं के अन्वेषण का अधिक और विस्तृत प्रयास किया गया है। लेखकोंके अंश स्थान स्थान पर निरूपित तथ्यों के उदाहरण स्वरूप ही उध्दृत किए गए हैं। विवेचन कहाँ तक ठीक हुआ है, विशेषताओं की परख में कहाँ तक सफलता हुई है, इसका निर्णय तो भिन्न भिन्न लेखकों की वाग्विभूति का विशेष अनुभव करने वाले महानुभावों के अनुमोदन द्वारा कुछ काल में ही हो सकेगा। पर इतना कहा जा सकता है कि बहुत सी संलक्ष्य विशेषताओं की ओर ध्यान आकर्षित करके लेखक ने और सूक्ष्म अनुसंधन की आवश्यकता प्रकट कर दी है।

हिन्दी के वर्तमान लेखकों में से कुछ में तो शैली की विशिष्टता, उनकी निज की भावपध्दति और विचारपध्दति के अनुरूप अभिव्यंजना के स्वाभाविक विकास द्वारा आई है और कुछ में बाहर के अनुकरण द्वारा। विशिष्टता की उत्पत्ति के ये दोनों विधान भाषा में साथ साथ चलते हैं और आवश्यक हैं। पर शैली की विशिष्टता के विन्यास के पूर्व भाषा की सामान्य योग्यता अपेक्षित होती है। आजकल हिन्दी लिखने वालों की संख्या सौभाग्य से उत्तरोत्तर बढ़ रही है। पर यह देखकर दु:ख होता है कि इनमें से बहुत, पहले ही विशिष्टता के प्रार्थी दिखाई पड़ते हैं। शैली कोई हो, वाक्यचरना की व्यवस्था, भाषा की शुध्दता और प्रयोगों की समीचीनता सर्वत्र आवश्यक है। जब तक ये बातें न सध जायँ तब तक लिखने का अधिकार ही न समझना चाहिए। इनके बिना भाषा लिखने पढ़ने की भाषा ही नहीं है जिसकी शैली आदि का विचार होता है। न अज्ञता या सच्चाेई कोई विशिष्टता कही जा सकती है, न दोष या अशुध्दि कोई नवीन शैली। अपनी बुध्दि की निष्क्रियता और भाषा की सच्चाैई के बीच केवल देशी विदेशी समीक्षाओं की शैली के अनुकरण द्वारा विशिष्टता प्रदर्शन का प्रयत्न झूठी नकल या धोखेबाजी ही कहा जायगा। पर आजकल कोई पत्रिका उठाइए, उसमें कहीं न कहीं 'कविस्वप्न' आदि की बातें बड़े करामाती ढंग से बड़ी गम्भीर मुद्रा के साथ, ऐसे ऐसे वाक्यों में कही हुई मिलेंगी-

'वे अपने दिमाग के अन्दर घुसते ही स्वप्न को अपने आलोक में अपना सौन्दर्य न बिखेरने देकर अपने जादू से उसे तुरन्त बेहोश कर दिए हैं।'

जब से श्रीयुत पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' से अपना हाथ खींचा तब से मैदान में नए नए उतरनेवाले लेखकों के लिए अपनी भाषा सम्बं धी प्रारम्भिक योग्यता की जाँच के लिए कोई साधन ही नहीं रह गया। लेखक तो लेखक, प्रयाग की एक मासिक पत्रिका ने अभी हाल ही में अपना अशुध्द जीवन समाप्त किया है। आज हिन्दी में मासिक पत्रिकाओं की कमी नहीं है। उनमें से दो एक ही यदि पूरी चौकसी रखें तो सदोष भाषा का यह प्रवाह बहुत कुछ रुक सकता है।

वर्तमान गद्य लेखकों की प्रवृत्तियों की ओर ध्यान देने पर तीन प्रकार की शैलियाँ लक्षित होती हैं-विचारप्रधान, भावप्रधान, और उभयात्मक। एक ही लेखक की अन्तर्वृत्ति कभी विचारोन्मुख होती है और कभी भावोन्मुख। अत: उसकी भाषा भी कहीं एक ढंग पकड़ती है, कहीं दूसरा। पर सामान्य प्रवृत्ति के विचार से उनकी शैली उक्त तीन विभागों में से किसी एक के अन्तर्गत रखी जा सकती है। बंगभाषा के प्रभाव से इधर भावात्मक भाषा विधान की ओर बहुत से लेखकों का झुकाव दिखाई पड़ता है जिनमें से कई एक को पूरी सफलता भी प्राप्त हुई है। इस सम्बन्ध में मुझे यही कहना है कि भाषा की शक्ति का विकास दोनों क्षेत्रों में वांछित है-विचार के क्षेत्र में और भाव के क्षेत्र में भी। भाषा जब विचार की गति के रूप में चलती है तब प्रस्तुत तथ्यों के प्रति उसके हृदय में आनन्द, करुणा, हास, क्रोध इत्यादि जागृत होते हैं। ये दोनों विधान अन्त:करण के विकास के लिए आवश्यक हैं और भाषा की शक्ति सूचित करते हैं। मेरे विचार में इन दोनों के अपेक्षित योग में ही भाषा की पूर्ण विभूति प्रकट होती है।

पहली बात है तथ्यों का उद्धाटन, फिर उनके प्रति उपयुक्त भावों का प्रर्वत्ताकन। यदि भाषा विचार की पध्दति एकदम छोड़ देगी तो वह कुछ बँधी हुई बातों पर ही भावावेश की उछलकूद तमाशे के ढर्रे पर दिखाया करेगी। उसमें न गुरुत्व रहेगा, न सच्चाई। भावों की सच्ची और स्वाभाविक क्रीड़ा के लिए ज्ञान प्रसार द्वारा जब नई नई जमीन निकलती आती है तभी भाषा वास्तव में अपनी पूरी कला दिखाती जान पड़ती है। इस पुस्तक में लेखक ने बहुत कुछ मार्मिक दृष्टि से काम लिया है और लेखकों की बहुत सी विशेषताओं का अच्छा उद्धाटन किया है। यद्यपि बहुत से लेखकों के सम्बन्ध में एक ही ढंग की प्रचलित और रूढ़ पदावली कहीं कहीं स्वच्छन्द समीक्षण का मार्ग छेंकती सी जान पड़ती है। इसका कारण, मेरे देखने में, सूक्ष्म विभेदों की व्यंजना के लिए अपेक्षित शब्दसामग्री की कमी है। आशा है सूक्ष्मदृष्टि-संपन्न लेखकों के सतत व्यवहार से मँजकर हमारी भाषा यह कमी शीघ्र पूरी कर लेगी।

अन्त में मुझे यही कहना है कि शर्माजी (जगन्नाथ प्रसाद शर्मा) की इस कृति के भीतर शैली समीक्षा के प्रवर्तन की बड़ी भव्य सम्भावना दिखाई पड़ती है जिससे आशा होती है कि हमारी हिन्दी में साहित्य के इस अंग का स्फुरण भी बहुत शीघ्र उसी सजीवता के साथ होगा जिस सजीवता के साथ और और अंगों का हो रहा है। काशी विश्वविद्यालय के भीतर उनके साथ मेरा जो सम्बन्ध रहा है उसके कारण मुझे उनके इस सदुद्योग पर जितना हर्ष है उतना ही गर्व भी। मुझे पूरा भरोसा है कि वे हिन्दी साहित्य क्षेत्र के वर्तमान अंधाधुंध से न घबरा कर स्वच्छ दृष्टि के साथ उसके भीतर प्रवेश करेंगे और अपना कोई मार्ग निकालेंगे।

(सन् 1930 ई.)

[ चिन्तामणि, भाग-4 ]