हिन्दी ब्लॉगिंग : नए दौर में सोशल नेट्वर्किंग की आलेखमुखी विधा / संतलाल करुण

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बात जब नव परिवर्तनों के दौर की है और वह भी हिन्दी वेब-लॉग यानि ब्लॉगिंग के संबंध में तो 21 अप्रैल, 2003 की तारीख अमिट पद-चिह्न की तरह उल्लेखनीय है कि उस रोज दिन-भर की हलचल के उपरान्त मध्याह्न की ओर पाँव बढ़ा चुकी रात्रि के 22:21 बजे हिन्दी के प्रथम ब्लॉगर, मोहाली, पंजाब निवासी आलोक ने अपने ब्लॉग ‘9 2 11’ पर अपना पहला ब्लॉग-आलेख पोस्ट किया। उनकी पहली पोस्ट भी कम दिलचस्प नहीं है —

“सोमवार, अप्रैल 21, 2003 22:21

चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी ? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा। काम करने को बहुत हैं, क्या करें क्या नहीं, समझ नहीं आता। बस रोज कुछ न कुछ करते रहना है, देखते हैं कहाँ पहुँचते हैं। अब होते हैं ९ २ ११, दस बज गए। आलोक।”

तब से अब तक लगभग इन दस वर्षों में जन-संचार भी ख़ूब न केवल सिर चढ़ कर बोला है, बल्कि दिलोदिमाग पर ताता-थैया भी करता रहा है— माइक्रोसॉफ्ट का विन्डोज़-विस्टा, विन्डोज़-7 तथा 8, एमएस ऑफिस-2004, 2008 तथा 2011, उन्नत पर्सनल कम्प्यूटर, लैपटॉप, टेबलेट, पॉमटॉप, उन्नत मोबाइल, उन्नत सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग, पेजिंग, ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, नेट-बैंकिंग, सेटेलाईट टीवी, टीवी चैनलों की भरमार, हाई टेक हिन्दी फ़िल्में, दिल्ली मेट्रो आदि इसी दौर में देश-वासियों और देश-दुनिया के साथ हिन्दी-भाषियों के भी रोजमर्रा के काम-काज, घर-बार और दैनिक जीवन के प्रयोग-अनुप्रयोग में बहुतायत रूप में शामिल हुए।

और नव परिवर्तनों के इस दौर में अन्तर्राष्ट्रीय ब्लॉगिंग की व्यापक रूप-रेखा के बीच देशी मुद्रा सँवारते हुए और उससे अलग-विलग नया चेहरा गढ़ते हुए हिन्दी ब्लॉगिंग वैश्विक जनसंचार-मंच पर अपनी अद्भुत अस्मिता के साथ आ उभरी। यह सोशल नेट्वर्किंग की सर्वाधिक खरी, संपुष्ट, तार्किक और समाधानात्मक विधा है। यह आलेखमुखी होकर भी तात्कालिक और प्रासंगिक मुद्दों को हाथों-हाथ लेने में तनिक भी देर नहीं लगाती। यह अन्य नेटवर्कों की भाँति विध्वंसक आग न लगाकर अधिकतर संसार खड़ा करने की बात करती है। यह अपने समवेत रूप-स्वरूप में पार्थ को दिए गुरु-गंभीर सन्देश की तरह समाजिक सोच को मोड़ सकती है। अन्य नेटवर्कों के साथ हिन्दी ब्लॉगिंग का भी व्यापक प्रभाव था कि स्वामी रामदेव के जनान्दोलन को मिला समर्थन कितना अभूतपूर्व था, जिसमें दिल्ली के रामलीला-मैदान के साथ-साथ सारा देश एकाकार-सा हो गया। हिन्दी ब्लॉगिंग का भी असर था कि राष्ट्रभ्राता अन्ना हजारे को इतना ढेर-सारा जन-समर्थन मिला कि दिल्ली हिलने-सी लगी और कूटनीतिक ही सही, भरी संसद को खड़े होकर सैल्यूट करना पड़ा। दामिनी-गुड़िया की घटनाओं के समय ब्लॉगिंग, ट्विटिंग आदि ने जन-जन की ऐसी एकजुटता तैयार कर दी कि पुलिस, दिल्ली-प्रशासन, केन्द्र सरकार और देश के क़ानून को अंतत: घुटने टेकने पड़े, दण्ड-संहिता में संधोधन तक करना पड़ा और न्यायालय को ऐतिहासिक निर्णय देते हुए एक साथ चार बलात्कारी आरोपियों को म्रत्यु-दण्ड देना पड़ा।

हिन्दी ब्लॉगिंग हिन्दी-क्षेत्रों से उद्भूत क्षेत्रीयता के साथ राष्टीय-अंतर्राष्ट्रीय चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। किन्तु अन्य नेटवर्कों के समान हिन्दी ब्लॉगिंग की दृष्टि भी सदैव सकारात्मक नहीं होती। गत वर्ष लखनऊ, मुम्बई, दिल्ली आदि शहरों में जिस तरह आतंकवादी भावना का साथ देने के लिए नवयुवक सड़कों पर उतर आए थे, वह हिन्दी-भाषी लॉगिंग, ब्लॉगिंग आदि का बड़ा भयावह रूप था। जागरण जंक्शन पर ही प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक का सामना एक ऐसे ब्लॉगर से हुआ जो टिप्पणी पर टिप्पणी के साथ अभद्रता और अश्लीलता पर अमादा दिखाई दिए और उनके साथ उत्तर-प्रत्युत्तर के क्रम से स्वयं को अलग करना पड़ा। अतएव इस क्षेत्र में अधिकांश योगदान विवेकशील नागरिकों का होना चाहिए, ताकि देश और समाज के हित में उनकी स्वस्थ चेतना हिन्दी ब्लॉगिंग को आगे बढ़ा सके।

किन्तु जैसे जलजले के तीव्र बहाव में कूड़े-करकट-जैसे शक्तिहीन अस्तित्व कहाँ बह-ढह जाते हैं कुछ पता नहीं चलता, वैसे हिन्दी ब्लॉगिंग का जो भाग समय की धारा में विलीन हो जाएगा, वह जीवनपरक तथा दूरगामी सन्देश का हिस्सा नहीं हो सकता। हाँ, जो तैरेगा, पैर टेकेगा, थमेगा और कहीं खड़ा हो सकेगा, वह अवश्य समय की शिला पर निशान छोड़ेगा; कवि के शब्दों में —

“यह स्रोतस्विनी की कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,

प्रवाहिनी बन जाए —

तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत हो कर

फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।”

(अज्ञेय, नदी के द्वीप)