हिन्दी भाषा फ़िल्म से चलेगी या साहित्य से? / बुद्धिनाथ मिश्र

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विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में ही यह आभास हो गया कि इसकी भावी दशा-दिशा क्या होगी। मारिशस के संस्कृति मंत्री ने अपने प्रभावशाली भाषण में स्वीकार किया कि ‘मैने हिन्दी भाषा कक्षाओं में पुस्तकें पढ़कर नहीं, बल्कि हिन्दी फिल्में और टीवी सीरियल देखकर सीखी। ’ अच्छी बात है। बहुत-से हिन्दीतरभाषी लोग कामचलाऊ हिन्दी फ़िल्मी गानों से सीख लेते हैं। हिन्दी फ़िल्मों ने और फ़िल्मी गानों ने हिन्दी बोलने-समझनेवालों की संख्या बहुत बढ़ायी है, इसमें कोई सन्देह नहीं। जिन देशों में हिन्दीभाषी नहीं के बराबर हैं और जहाँ के निवासी हिन्दी बिलकुल नहीं जानते हैं, वहाँ भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से पहुँचे हिन्दी फिल्मों के सुमधुर गाने उनके होठों पर नाचते-थिरकते दीखते हैं।

रूस में मैं जहाँ भी गया, सड़क पर चलते नौजवानों से लेकर दूकानदार तक मुझे भारतीय समझकर मेरा स्वागत ‘सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ गीत गाकर किया। जोहान्सबर्ग में भी बहुत-से नौजवान राह चलते मिले, जो हमें भारतीय समझकर हिन्दी के जुमलों से हमारा अभिनन्दन करते थे। ‘नमस्ते’ शब्द तो एक तरह से सार्वभौम हो गया है। अफ़्रीकीभाषी मेरा ड्राइवर ‘ओपा’ भी पहले ‘नमस्ते’ करता था, फिर ‘गुड मॉर्निंग’ या ‘गुड ईवनिंग’ । उसके बाद वह टूटी-फूटी अंग्रेज़ी से ही काम चलाता था। ताशकन्द में भी मेरा गाइड रुस्तम ‘नमस्ते’ के बाद ‘सलाम वालेकुम’ कहता था और कोलकाता में एक छोटी-सी कश्मीरी बच्ची पामा ने मुझे कभी सिखा दिया था कि इसका जवाब ‘वालेकुम अस्सलाम’ कहकर दीजिये। इन दोनो वाक्यों का अर्थ है ‘अल्लाह आपको सलामत रखे। ’ सो, मैं भी रुस्तम का सही अभिवादन करता था, जिससे वह बड़ा खुश होता था। वह अरबी-फारसी मिश्रित हिन्दी बोलता था, जिसे समझने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती थी।

फ़िल्मों के बाद टीवी चैनलों ने भी हिन्दी का प्रचार -प्रसार खूब किया। जब दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू हुआ और उसमें हर रविवार को ‘रामायण’ और ‘ महाभारत’ जैसे लोकप्रिय धारावाहिक प्रसारित हुए, तो उन्हे देखने के लिए हिन्दीतर प्रदेशों में भी लोग आतुर रहते थे। मुसलिम मुहालों में भी क्या बूढ़े, क्या बच्चे, सभी इन धारावाहिकों के माध्यम से भारतीय अतीत को जानने के लिए उत्सुक रहते थे। इन धारावाहिकों ने इतिहास के अलावा प्राचीन भाषा से भी लोगों को परिचित कराया। ‘पिताश्री’ ‘माताश्री’ जैसे सम्बोधन और तमाम संस्कृत शब्द इन धारावाहिकों के प्रसारण के बाद ही समाज में फिर से प्रचलित हुए। हो सकता है कि आज भी कुछ इस प्रकार के धारावाहिक प्रसारित होते होंगे, जिन्हे देखते हुए लोग अनायास ही हिन्दी के नये शब्द सीख लेते हों।

लेकिन विश्व हिन्दी सम्मेलन के बाद के वक्ता लगभग एक स्वर से जब हिन्दी के विकास का सारा श्रेय फ़िल्मों और टीवी चैनलों को देने लगे और य्हाँ तक कहने लगे कि साहित्यकारों का इसमें कोई योगदान नहीं है, तब हमें लगा कि सम्मेलन की गुणवत्ता में प्रथम-द्वितीय सम्मेलनों की तुलना में कितनी कमी आयी है। आठवें (न्यूयार्क) सम्मेलन में एक फ़िल्मी हस्ती गुलज़ार को बुला लिया गया था और पूरा उद्घाटन समारोह उनकी जीहजूरी में वक्ताओं ने जाया कर दिया था। जोहान्सवर्ग सम्मेलन में यह अच्छी बात हुई कि किसी फ़िल्मी हस्ती को नहीं बुलाया गया। मगर जो वक्ता हिन्दी के प्रचार-प्रसार का सारा श्रेय फ़िल्मों को देते हुए साहित्यकारों के निकम्मेपन को गरिया रहे थे, उनकी बुद्धि पर तरस आना स्वाभाविक था। इस सम्मेलन के आयोजन में अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा की भूमिका उल्लेखनीय रही। यहाँ तक कि इस सम्मेलन के दैनिक बुलेटिन के प्रकाशन का दायित्व भी इसी विश्वविद्यालय को सौंपा गया था। इस विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. विभूति नारायण राय ने एक बार नहीं, दो-दो बार अपने भाषणों में कह गये कि ‘हिन्दी को पहली बार राष्ट्रभाषा महात्मा गांधी ने कहा था’।

हमलोग जो राजभाषा हिन्दी से पिछले तीन दशकों से जुड़े हुए हैं, यही जानते रहे कि हिन्दी को सबसे पहले ‘राष्ट्रभाषा’ आचार्य केशव चन्द्र सेन ने नाम दिया था। उस समय महात्मा गांधी का कोई अस्तित्व ही नहीं था। मगर राय साहब औस अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, जिसकी स्थापना का संकल्प 1975 के प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन(नागपुर) में लिया गया था। वे अधिकारी व्यक्ति हैं। चाहे जिसको जो श्रेय दे दें। हिन्दी के एक कांग्रेसी चाटुकार ने तो इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय राजीव गांधी को दे दिया। उनको सही जानकारी न हो, ऐसी बात नहीं है। उनको किसी न किसी रूप में एक बार राजीव गांधी का नाम लेना था । अगर वर्धा विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय नहीं देते, तो विश्व हिन्दी सम्मेलन के सूत्रपात का श्रेय ही वे माँ की जगह बेटे को दे देते। वे इसी खातिर दिल्ली के अस्पताल से ह्वील चेयर बैठकर सीधे सभास्थल पहुँचे थे।

इस सम्मेलन में देश-विदेश के तमाम हिन्दी विद्वान और साहित्यकार उपस्थित थे। अनेक देशों के ऐसे विद्वान वहाँ आमन्त्रित थे, जिन्होने हिन्दी शिक्षण को अपने जीवन का अन्तिम ध्येय मान लिया है। उस उद्घाटन सत्र के बाद ही सभागार के बाहर जिन नरदेव वेदालंकार की आवक्ष प्रतिमा का अनावरण किया गया, वे कोई फ़िल्मी हस्ती नहीं थे, बल्कि दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी के शिक्षण-प्रशिक्षण का सूत्रपात करनेवाले और हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए सारा जीवन होम कर देनेवाले महान भारतीय थे। उनके अवदान का कोई महत्व नहीं है और उन हीरो-हीरोइनों के योगदान का महत्व है, जो स्वयं हिन्दी लिख-पढ भी नहीं पाते, जिनका संवाद रोमन लिपि में लिखा होता है, जो अपने साक्षात्कार में न हिन्दी बोल पाते हैं और न चाहते हैं कि वे फ़िल्मी पर्दे के अतिरिक्त कहीं हिन्दी में बोलते पाये जाएँ। जिनकी अकूत सम्पत्ति हिन्दी की बदौलत है, मगर जो अपने ऐश्वर्य का दिखावा करने के लिए अंग्रेज़ी बोलना जरूरी समझते हैं। यह अलग बात है कि अंग्रेज़ी भी वे उतनी ही बोलते हैं, जितनी उन्होने ‘स्पीकिंग कोर्स’ में सीखी है। लिखने कहिए तो अगल-बगल झाँकने लगेंगे।

जिन वक्ताओं ने साहित्य की तुलना में फ़िल्मों को हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अधिकताम अंक दिये, वे भूल गये कि उस दक्षिण अफ्रीका में हैं, जहाँ गिरमिटिया मजदूर के रूप में आये मजदूरों की भाषा और संस्कृति की रक्षा साहित्य ने की थी, किसी फ़िल्म ने नहीं। गोस्वामी तुलसीदास का ‘रामचरित मानस’ उन मजदूरों के साथ न होता तो न वे उस अमानुषिक यातना को झेल पाते और न अपनी भाषा-संस्कृति को ही बचा पाते। दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया भारतीयों को अपनी मातृभाषा की शिक्षा के लिए प्रशासन की ओर से कॊई सहयोग नहीं मिला, तब वे अपने अल्प साधनों से हिन्दी भाषा, धर्म और संस्कृति का प्रचार करने लगे। उन्होने इसके लिए हिन्दी पाठशालाएँ खोलीं, जहाँ रामायण के माध्यम से धर्म यानी भारतीय आचार-विचार का प्रचार हुआ और रामायण सभाओं द्वारा हिन्दी भाषा की शिक्षा दी गयी। यह केवल एक देश की बात नहीं थी। सन्‌ 1834 से 1911 तक लाखों की संख्या में भारतीय किसान-मजदूर मारिशस , फिजी, ट्रीनीदाद, गुयाना, सूरीनाम और दक्षिण अफ्रीका में शर्तबन्द मजदूर के रूप में खेतों में काम करने के लिए ब्रिटिश शासकों द्वारा भेजे गये।

उन गिरमिटिया मजदूरों में से न जाने कितने रास्ते में ही भूखे-प्यासे मर गये और उनके शवों को समुद्री जीवों का आहार बनने के लिए फेंक दिया गया। मैने मारिशस में वह घाट देखा है, जहाँ लम्बी समुद्री यात्रा के कारण अधमरे मजदूरों को उतारकर एक सप्ताह तक चिकित्सा कर चलने-फिरने लायक बनाया जाता था। उसके बाद उन्हे गन्ने के खेतों में दिन-रात खटने के लिए भेज दिया जाता था। पूरी कहानी आप मारिशस के हिन्दी कथाकर अभिमन्यु अनत के ‘लाल पसीना’ उपन्यास में पढ़ सकते हैं। शर्तबन्द श्रमिकों की उन नारकीय यातनाओं और विषम जीवन को देखते हुए कथाकार गिरिराज किशोर द्वारा दक्षिण अफ्रीका के नाताल नगर में २० साल रहकर गुजराती व्यापारियों की ओर से बैरिस्टरी करनेवाले मओहन दास गांधी को ‘पहला गिरमिटिया’ कहना अत्यन्त भ्रामक है।

दक्षिण अफ्रीका में सन्‌ 1860 में जो गिरमिटिया मजदूर झूठा सपना दिखाकर लाये गये थे, वे अधिकतर पूर्वी उ.प्र. और पश्चिमी बिहार के थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी या अवधी थी। यद्यपि भाग्य के मारे वे श्रमिक निरक्षर थे, पर अशिक्षित नहीं थे। उन्हे अपने आचार-विचार और अपनी भाषा पर गर्व था। वे भोजपुरी बोलते थे, अवधी के ‘रामायण’ का पारायण करते थे और ब्रज में लिखे कृष्ण-भक्ति के पदों को गाते थे। उनके स्वामियों या सरकारों को उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक जरूरतों में कोई रुचि नहीं थी। इस सम्बन्ध में डॉ.हेनिंग का कथन ध्यान देने योग्य है:प्रशासन शैक्षिक सुविधाएँ देने मे अनिच्छा प्रकट करता था। परिणामतः1870 से 1880 तकभारतीयों की शिक्षा-व्यवस्था उनके सामाजिक प्रयत्नों पर निर्भर थी। ’दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध स्वामी भवानीदयाल ने 1947में ‘प्रवासी की आत्मकथा’ नाम से एक ग्रन्थ लिखा था, जिसमें विभिन्न देशों में अत्यन्त कठिन परिस्थिति में जी रहे गिरमिटिया मजदूरों के जीवन का वर्णन कुछ यों किया है:

“कितने तो उस गुलामी के जीवन से ऊबकर नदी में डुब मरे, कितने फाँसी की डोरी पर झूल पड़े और कितने ही विषपान कर अपमान से छुटकारा पा गये। वास्तव में उन अभागे भारतीयों की करुण-कथा इतनी विस्तृत, हृदय-विदारक और मर्म-स्पर्शी है कि यदि पृथ्वी को पत्र और समुद्र को स्याही बनाकर लिखने बैठे तो भी उसे यथावत्‌ अंकित करना असम्भव है। ’

इन सबके बावजूद उन भारतीय श्रमिकों ने अपनी भाषा को छाती से चिपकाकर रखा, क्योंकि उस भाषा में ही उनकी संस्कृति, जीवन मूल्यों और परम्पराओं की आत्मा बसती थी। वे निरक्षर मजदूर वाचिक परम्परा से प्राप्त साहित्य पिटक में संरक्षित ज्ञान का आश्रय लेकर धार्मिक चर्चा में अपने अवकाश के मूल्यवान क्षणों को बिताते थे। तुलसी रामायण एक ओर जहाँ उनकी आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत था, वहीं उसकी कथाएँ मनरंजन और मनोरंजन का सुलभ साधन थीं; साथ ही अपनी भाषा सीखने के लिए ‘मानस’ पाठ्य-पुस्तक की भूमिका भी निभाता था। रामायण के कारण ही दक्षिण अफ्रीका में धर्म-परिवर्तन की लहर उठने के बावजूद भारतवंशी हिन्दू परिवार बड़े गौरव से अपने पारम्परिक धर्म का पालन कर रहे हैं।

ऐसी दक्षिण अफ्रीका की धरती पर यदि कोई राजनेता या तथाकथित सनदी विद्वान हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय फ़िल्मों-टीवी सीरियलों को दे और भाषा के विकास में साहित्य की भूमिका की उपेक्षा करे, तो यह मानना ही पड़ेगा कि साक्षर भले हो, मगर शिक्षित नहीं।