हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श / सुधेश

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हिन्दी साहित्य में पिछले कुछ वर्षों से नारी विमर्श की चर्चा होती रही है और यह उपन्यासों और कहानियों के सन्दर्भ में अधिक देखी और दिखाई जा रही है। विमर्श कोई भी बुरा नहीं होता, क्योंकि साहित्य का एक मात्र उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं है बल्कि अनेक प्रासंगिक विषयों पर चर्चा,,चिन्तन मनन और विमर्श भी है। यदि साहित्य लिखना और पढ़ना मात्र दिमाग़ी ऐयाशी नहीं है अथवा ठाली बैठे ठलुओं की समय काटने की जुगाड़ नहीं है तो जीवन में उठने वाले अनेक प्रश्नों से उलझना ही पड़ेगा। यदि और कोई इन से पीछा छुड़ा भी ले पर साहित्यकार इन पर सोच विचार किये बिना नहीं रह सकता। यह सोचविचार ही आजकल विमर्श के नाम से जाना जाता है। पर विचार विमर्श साहित्य की ज़रूरी आवश्यकता है।

एक प्रश्न यह है कि विमर्श किस का? एक उत्तर यह दिया जाता है कि नारी द्वारा किया गया नारी विषयक विमर्श। दूसरा उत्तर यह हो सकता है कि नारी के विषय में लेखकों और लेखिकाओं का विमर्श। पर अक्सर यह देखते हैं नारी विमर्श लेखिकाओं से ही जोड़ा जाता है, जो एक संकीर्ण दृष्टिकोण है। विमर्श किसका? तो मेरा उत्तर है विचार या विचारों का विमर्शही विमर्श है। विमर्श विचार हीन नहीं हो सकता। व्यक्तिगत रुचि या आग्रह को किसी गम्भीर विमर्श में केन्द्रीय स्थान हासिल नहीं हो सकता। विमर्श किसी शेखचिल्ली की चखचख या काल्पनिक उड़ान नहीं होता। विमर्श की धुरी विचार है।

और विचार धारा? मेरे विचार में विमर्श विचार धारा केन्द्रित भी हो सकता है पर उस की प्रकृति साहित्य केन्द्रित विमर्श से अलग होगी। यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि विचार धारा साहित्य नहीं है, यद्यपि साहित्य किसी विचार धारा से प्रेरणा ले सकता है। साहित्य का आधार जीवन और जगत है। जगत में मनोजगत भी शामिल है। विचार धारा का आधार कोई सिद्धान्त, विचार सरणि या पुष्ट विचार होता है, जो जीवन के अनुभवों से ही निकलता हैं। अब नारी विमर्श को लें। नारी विमर्श क्या है? यदि नारी के रूप का चित्रण मात्र अथवा नारी के मनोविकारों, हावभावों आदि का चित्रण मात्र अथवा नारी की अतृप्त कामनाओं का चित्रण मात्र नारी विमर्श है तो यह तो साहित्य के आदिकाल से होता आ रहा है और रीतिकालीन साहित्य इस के लिए बदनाम है। यह तो घासलेटी साहित्य अथवा गुलशन नन्दा जैसे अनेक आधुनिक लेखकों की पुस्तकों में प्राय: मिल जाता है। पर गम्भीर आलोचक और साहित्य चिन्तक इसे साहित्य नहीं मानते, जो उचित ही है। तो नारी विमर्श है क्या? पहले जो साहित्य लिखा गया क्या उस में नारी विमर्श नहीं था? भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ब्रज भाषा और खड़ी बोली में जो साहित्य लिखा क्या उस में भक्ति, देश प्रेम, सामाजिक सुधार के साथ कोई नारी विमर्श नहीं है? महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में मैथिली शरण गुप्त, हरिऔध आदि रचनाकार क्या नारी की समस्याओं से अनभिज्ञ थे? गुप्त ने साकेत महाकाव्य में उर्मिला की जो पीडा व्यंजित की अथवा हरिऔध ने अपने महाकाव्य वैदेही वनवास में सीता आदि नारी पात्रों की मनोदशाओं का जो मार्मिक वर्णन किया क्या उस में कोई नारी विमर्श नहीं है? बंग महिला के नाम से जिस लेखिका ने कहानियाँ लिखीं, प्रेम चन्द ने अपनी अनेक कहानियों और उपन्यासों में, विशेषत: सेवासदन उपन्यास में, क्या नारी विमर्श ग़ायब है? भगवती चरण के उपन्यास रेखाचित्र, यशपाल के उपन्यास दिव्या, जैनेन्द्र के उपन्यास त्यागपत्र आदि में क्या कोई नारी विमर्श नहीं हुआ? इन प्रश्नों के उत्तरों से हम नारी विमर्श की आधुनिक अवधारणा की ओर बढ सकेंगे।

एक प्रश्न यह भी है कि क्या नारियों द्वारा लिखित साहित्य में ही नारी विमर्श हुआ है और पुरुष लेखकों द्वारा लिखित साहित्य नारी विमर्श से शून्य है? असल में बीसवीं शती में जब से अनेक लेखिकाएँ उभरी हैं और उन्हें पर्याप्त प्रसिद्धि मिली है, तब से साहित्य में नारी विमर्श की अधिक चर्चा होने लगी है। आज कल अनेक लेखिकाएँ कहानी और उपन्यास लिख रही हैं और उन की रचनाओं में नारी विषयक समस्याओं का खुला चित्रण हो रहा है। ( नारी की समस्याओं पर पुरुष लेखकों ने भी लिखा है और अब भी लिख रहे हैं और प्रामाणिक ढंग से लिख रहे हैं, पर लेखिकाएँ समझती हैं कि नारी ही नारी की समस्याएं समझ सकती है।) ऐसे में लगता है कि नारी विमर्श केवल नारियों द्वारा लिखित साहित्य में और विशेषकर उन के गल्प साहित्य में ही रूपायित हो रहा है और पुरुष लेखकों द्वारा नारी समस्याओं पर लिखित साहित्य उस से बाहर है। यह नारी विमर्श की सीमित अवधारणा है जिस से बहुत से लोग सहमत नहीं हैं। फिर हम यह भी देखते हैं कि अनेक नई कवयित्रियाँ अपनी समस्याओं पर खुली और बेबाक कविताएँ लिख रही हैं जिन के आधार पर वे चर्चा का विषय बनी हुई हैं। क्या उन की कविताएँ नारी विमर्श का हिस्सा बन पाई हैं या नहीं? सच यह है कि अभी हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श केवल नारियों के गल्प साहित्य की चर्चा तक सीमित हैं और उस में पुरुष लेखकों द्वारा नारी समस्याओं पर लिखित साहित्य की प्राय: चर्चा नहीं की जाती। अमृत लाल नागर का उपन्यास अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल, जिस की नायिका ब्राह्मण हो कर भी अछूत बन गई या बना दी गई, नारी विमर्श से बाहर समझा जाता है। इसी प्रकार विष्णु प्रभाकर का उपन्यास अर्द्ध नारीश्वर, जो नारी के बलात्कार की समस्या पर केन्द्रित है, नारी विमर्श का मील का पत्थर नहीं माना जाता। इन के स्थान पर मृदुला गर्ग, उषा प्रियम्बदा मंजुल भगत, ममता कालिया, चित्रा मुदगल,मैत्रेयी पुष्पा आदि के अनेक उपन्यास और कहानियाँ नारी विमर्श के केन्द्र बने हुए हैं।

राजेन्द्र यादव की पत्रिका हंस के माध्यम से अनेक लेखिकाओं को प्रकाश ही नहीं मिला बल्कि प्रसिद्धि भी मिली। यादव ने लेखिकाओं को बडी संख्या में छापा, जो प्रशंसनीय है, और इतना ही नहीं हंस को नारी विमर्श की पत्रिका बना दिया। यह काम अन्य पत्रिकाओं के माध्यम से भी हुआ, जैसै कहानियाँ, नई कहानियाँ, माया, सारिका आदि पत्रिकाओं से।

तो इन पत्रिकाओं से ऐसा वातावरण बना कि यह धारणा प्रचलित हो गई कि नारी विमर्श की ध्वजवाहिका केवल लेखिकाएँ हैं, लेखक अर्थात पुरुष लेखक नहीं। कवयित्रियों द्वारा लिखित नई चेतना की कविताएँ नारी विमर्श में पीछे रह गईं या कर दी गईं। तो यह एकदूसरी विसंगति है नारी विमर्श के सन्दर्भ में।

यह देखना भी रोचक है कि किन समस्याओं, विषयों के चित्रण नारी विमर्श के अन्तर्गत प्राय: हुए। नारी की समस्याओं का चित्रण नारी विमर्श का केन्द्र बना यह स्वाभाविक था। पर नारी की अनेक समस्याएँ हैं। भारत में क्या विश्व में नारी जितनी शोषित, प्रताड़ित, दलित और अपमानित की जाती है, वह अवर्णनीय है। लेकिन देखा जाता है कि अनेक लेखिकाएँ विवाह विच्छेद, विवाह की असंगत या विसंगतदशाओं दुर्दशाओं, मुक्त यौनाचार की स्वच्छन्दता या उस की आकांक्षा, आधुनिकता के मोहजाल, प्रदर्शन प्रियता आदि के रोचक, यथार्थ या प्रकृत चित्रण को अधिक प्रमुखता दे रही हैं या देती हुई लगती हैं। तात्पर्य यह कि काम सम्बन्ध केन्द्र में हैं और अन्य समस्याओं को गौण स्थान पर रखा गया है। असल में इस का कारण पश्चिम की आधुनिकता का आक्रमण है। इस में कोई सन्देह नहीं कि भारत में नारी काम कुण्ठित अधिक है, क्योंकि वह पुरुष की तुलना में कठोर सामाजिक बन्धनों में जकड़ी है और उसे कामतृप्ति की खुली छूट नहीं है। सामाजिक बन्धन पुरुष के लिए भी हैं, पर वह घर से बाहर निकलता है, जबकि नारी अक्सर घर में बन्दी है ( यद्यपि अब नारी के बन्धन शहरों में ढीले रो रहे हैं )। इस प्रकार लेखिकाएँ यदि अपनी रचनाओं में कामकुण्ठित नारियों की त्रासदी को लिखती हैं, तो स्वाभाविक है, जो यथार्थ पर आधृत है। लेकिन यह भी देखागया है कि लोकप्रियता पाने के मोह में कुछ लेखिकाओं नें आवश्यकता से अधिक अश्लील वर्णन से परहेज़ नहीं किया है, बल्कि सैक्स का चटखारा लाने की सायास तरकीबें लड़ाई हैं, जिस से उन की रचनाओं को अधिक पाठक और प्रकाशक भी मिले हैं। ऐसी कहानियाँ हंस में खूब छपीं और उन्हें नारी विमर्श के अन्तर्गत राजेन्द्र यादव ने खूब छापा। इस से हंस की लोकप्रियता भी बढ़ी। यहाँ मैं एक दूसरा प्रश्न उठाना चाहता हूँ। क्या आज नारी की एक मात्र या प्रमुख समस्या काम कुण्ठा है? बाल विवाह, भ्रूण हत्या, बलात्कार, अशिक्षा, बालिका मज़दूरी, कुपोषण आदि अनेक समस्याएँ बच्ची, किशोरी, युवती, विवाहित और अविवाहित नारी झेलती है। क्या इन पर लेखिकाओं ने लिखा और लिखा भी तो कितना? क्या ये समस्याएँ नारी विमर्श का हिस्सा बनीं? यदि बनीं भी तब भी मुझे लगता है कि कामकुण्ठित मन की त्रासदी हिन्दी के गल्प साहित्य पर छाई रही। लगता है कि प्रभावशाली लेखिकाओं ने नारी विमर्श पर अधिकार जमाने की कोशिश की।

इस आलोचना के बावजूद हिन्दी के गल्प साहित्य में नारी विमर्श का सकारात्मक पक्ष भी है, जिस के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। अनेक ऐसी लेखिकाएँ हैं जिन की रचनाओं में नारी जीवन के अनेक अनछुए रूपों, पक्षों, समस्याओं को उजागर किया गया है। ऐसी लेखिकाओं में मुझे राज़ी सेठ, सुषम बेदी, उषा प्रियम्वदा, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, मन्नू भण्डारी, प्रभाखेतान, उषा राजे सक्सेना, नासिरा शर्मा, कृणा अग्निहोत्री, मंजुल भगत आदिके नाम याद आ रहे हैं। ऐसी अन्य लेखिकाएँ भी हैं। राज़ी सेठ के उपन्यासों, कहानियों में विषय की विविधता है। इसी प्रकार मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों, कहानियों में नारी, विशेषत: गाँव की नारी की अशिक्षा, विविध प्रकार के शोषण, विषमता और अन्य समस्याओं का बेबाक चित्रण है। उन की बेबाक आत्मकथा ने भी नारी विमर्श के फलक को विस्तृत किया है। प्रभा खेतान के उपन्यास और आत्मकथा नारी विमर्श के विस्तृत फलक को रूपायित करते हैं। अनेक लेखिकाएँ प्रवासी भारतीय के रूप में हिन्दी के गल्प साहित्य को समृद्ध कर रही हैं, जिन की कहानियों, उपन्यासों और कविताओं मे नारी विमर्श बहुमुखी रूपाकार ले रहा है। इन की रचनाओं में अतीत स्मृतियाँ, विदेशी परिवेश की समस्याएँ, टूटते बनते नारीपुरुष सम्बन्ध, भारतीय संस्कृति से बिछड़ने के दंश, नई पीढ़ी की उच्छृंखलता आदि अनेक समस्याएँ चित्रित हुई हैं। इन की रचनाओं से नारी विमर्श विस्तृत हुआ है, जो नारीकी काम कुण्ठाओं तक सीमित नहीं रहा है। यह प्रवासी लेखिकाओं के साथ अनेक भारतीय ( अर्थात भारत में रहने वाली ) लेखिकाओं के बारे में भी कहा जा सकता है। इन प्रवासी लेखिकाओं में सुषम बेदी, उषा प्रियम्वदा, सुधा ओम ढींगरा, उषा राजे सक्सेना आदि उल्लेखनीय हैं। इन लेखिकाओं के गल्प साहित्य में नारी विमर्श व्यापक फलक लिये हुए है। अतीत स्मरण, भारत से बिछुड़ने की एक अनकही बेचैनी, विदेशी परिवेश में एक अजनबीपन की अनुभूति इन के साहित्य में छाई हुई है। क्या यह नारी विमर्श का हिस्सा नहीं है। ज़रूर है क्योंकि नारी देश में या विदेश में जो कुछ सुखदुख भोगती है वह भी उस के जीवन से जुडा है।

इस विषय में एक बात और। दक्षिण भारत और भारत के अहिन्दी भाषी प्रदेशों में अनेक लेखिकाएँ नारी विषयक लेखन कर रही हैं। उन्हें अब तक नारी विमर्श के प्रसंग में याद नहीं किया जाता। इस के लिएं मैं उत्तर भारतीय लेखिकाओं को दोष नहीं देता, क्योंकि यह उत्तरदायित्व मुख्य रूप से आलोचकों और नारी विमर्श का झण्डा उठाने वालों का है, जिन में पत्रिकाओं के सम्पादक भी शामिल है। अन्त में इतना कि किसी भी साहित्यिक विमर्श को एकांगी नहीं होना चाहिये। वह समावेशी और व्यापक होना चाहिये। नारी विमर्श को लेखिकाओं तक सीमित करना भी अनुपयुक्त है। जिन पुरुष लेखकों ने नारी की समस्याओं पर प्रामाणिक ढंग से लिखा है, उन के लेखन को भी नारी विमर्श का हिस्सा मानना चाहिये।