हिन्दुस्तानी दावत / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी

Gadya Kosh से
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मसूरी ढाई महीने रहा। राजा साहब से मित्रता तथा घनिष्ठता बढ़ती गयी। हम लोगों का कार्यक्रम सब एक साथ ही होता था। साथ सिनेमा, साथ नाच, साथ टहलना। केवल भोजन अलग-अलग होता था। राजा साहब का अपना रसोई बनानेवाला था और मैं होटल में खाता था।

एक दिन मैंने राजा साहब से पूछा कि आपका विवाह हो गया है? राजा साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ और मुझसे पूछा कि ऐसा प्रश्न आपने क्यों किया? पैंतीस साल की मेरी अवस्था और अब भी विवाह न होगा? मैंने कहा - 'क्या पैंतीस साल में विवाह होना आवश्यक है?' वह बोले - 'हमारे यहाँ का धर्म है कि विवाह कम ही अवस्था में हो जाये।' तब मैंने कहा - 'आप अपनी स्त्री को साथ क्यों नहीं लाये?' राजा साहब ने कहा कि मेरी स्त्री शिक्षित नहीं है और आजकल के सभ्य समाज के रहन-सहन, बोल-चाल का उसे पता नहीं। इसलिये उसे अपने साथ लाना उपहास-सा जान पड़ेगा। मैंने पूछा कि आपने उसे पढ़ाने का उद्योग क्यों नहीं किया? उन्होंने कहा कि बात यह है कि वह हिंदी जानती है और थोड़ा संस्कृत जानती है। परन्तु शिक्षा इसी को तो नहीं कहते। उसे यह नहीं पता कि काँटा दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है कि बायें से? जूते की एड़ी डेढ़ इंच ऊँची होना चाहिये कि ढाई? काकटेल को कितनी बार हिलाना चाहिये और हाथ मिलाने के समय कितने जोर से हाथ दबाना ठीक होगा। भला कैसे शिक्षित कहें? कई बार कहा, किन्तु उसने व्हिस्की नहीं पी, शैम्पेन तक नहीं पी। भला हिंदी और संस्कृत पढ़कर क्या लाभ हुआ? क्या पूजा-पाठ करना है? इसी से मैं साथ नहीं लाया। हम लोगों के साथ कैसे निर्वाह होता? हमारी राय में स्त्रियों में आजकल इतने गुणों की आवश्यकता है - नाच सकें, भाषण दे सकें, मेज पर खा सकें, सिगरेट और शराब पी सकें और इसके अतिरिक्त यदि वह मोटर तथा बन्दूक चला सकें तो और भी अच्छा है। खेद है, कि मेरी स्त्री को इन आवश्यक बातों की शिक्षा नहीं है।

मैंने कहा - 'आपके आदर्श सचमुच ऊँचे हैं।' मैंने उनके साथ सहानुभूति भी दिखायी। राजा साहब सचमुच सहानुभूति के पात्र थे। जैसा मुझे पता चला, राजा साहब ने स्कूल में केवल पाँचवें दर्जे तक की शिक्षा प्राप्त की थी, किन्तु उनके रहन-सहन से स्पष्ट होता था कि यूरोप की कई बार सैर की है। यूरोप की सब शराबों का नाम उन्हें ज्ञात था। हंटले पामर के जितने प्रकार के बिस्कुट थे, सबका नाम वह गिना सकते थे और वह उतनी ही चपलता से नाच सकते थे जितने विलायत के लार्ड का लड़का।

एक दिन राजा साहब ने कहा कि आज आप मेरे यहाँ देशी भोजन कीजिये।

मैंने खाने की स्वीकृति दे दी। अपने जीवन में पहली बार देशी भोजन उस दिन किया। रात में आठ बजे जब घूमकर लौटे तब हम लोग भोजन के लिये बैठे। केवल हम और राजा साहब ही इस अवसर पर थे क्योंकि हमने विशेष रूप से कह दिया था कि और कोई न रहे। राजा साहब के रसोइये ने उस दिन बड़ा परिश्रम किया था। मैं जब खाने के लिये कमरे में गया तब देखा कि मेज पर एक बरात लगी है। सब वस्तुऐं एक साथ रखी हैं। बीस पियालों में मांस तथा वनस्पति की तरकारियां थीं। ग्यारह प्रकार के अचार थे, सब देशी; और छः तरह की चटनियाँ थीं। फल थे, फिर देशी मिठाइयाँ थी, जो बारह-तेरह प्रकार की रही होंगी।

राजा साहब ने कहा कि इस प्रकार का भोजन तो हम लोग हाथ से करते हैं, किन्तु आप काँटे से खा सकते हैं। यह सब सामग्री तो केवल साधारण थी। मुख्य खाने की वस्तु तो एक गोल चिपटी-सी आटे की बनी तश्तरी थी। जिसे काट-काटकर और किसी तरल वस्तु में डुबोकर खाना था। यह तश्तरी घी में पकायी हुई थी। मैंने इसे छुरी से काटकर और जैसे राजा साहब ने बताया था डुबो कर काँटे से मुँह में रखा।

अपने जीवन में ऐसी वस्तु तो कभी खायी न थी। मसाले और मिर्चों का उदारतापूर्वक प्रयोग किया गया था। पहले तो मैंने समझा कि मुँह में किसी ने आग रखी दी है। राजा साहब के कहने से मैंने मुख में एक मिठाई रखी। कुछ जीभ को सुख मिला। मेरी आँखों में आँसू भर गये थे। नाक में भी जल का संचार होने लगा था। राजा साहब के कई बार कहने पर मैंने फिर एक टुकड़ा दूसरी वस्तु में डुबो कर खाया। यह पहले से कम तेज थी। इस प्रकार से मैंने थोड़ी-थोड़ी सभी वस्तुयें चखीं।

भारतीय भोजन का अर्थ होता है - घी, मसाला और मिर्चों का उदारतापूर्वक व्यवहार। जान पड़ता है यहाँ यह वस्तुयें बहुत सस्ती मिलती हैं। एक बात और समझ में आयी। ऐसे भोजन से जीभ बहुत पैनी हो जाती है। यही कारण जान पड़ता है कि भारतीय लोग बोलने में बड़े पटु होते हैं। बड़े-बड़े वक्ता यहाँ पाये जाते हैं।

और ऐसे ही भोजन का पूरक यहाँ की मिठाइयाँ होती हैं। दोनों सीमांत पर पहुँच जाती हैं। मिठाइयाँ खाइये, मिठाइयों से कुछ घबराहट हो तो भोजन कीजिये।

अचार और चटनियाँ भी बड़ी स्वादिष्ट बनायी जाती हैं। मेरा तो मन हुआ कि केवल दो वस्तुयें खाऊँ। एक का नाम था हलुवा। वह आटे, घी, चीनी, केसर और संसार-भर के मेवे से बनाया जाता है। राजा साहब ने इसे बड़ी विधि से बनवाया था। हलुवा यद्यपि पेय नहीं है क्योंकि यह तरल नहीं होता है; इसे खाने में दाँतों को परिश्रम नहीं करना पड़ता और मुँह में रखते ही धीरे-धीरे गले की ओर खिसकने लगता है। हम किसी यूरोपीय भोजन की सुगन्ध की इसकी सुगन्ध से तुलना नहीं कर सकते। इसमें एक गुण और है। खाते जाइये परन्तु जान नहीं पड़ता कि खाया है। जिसने इस भोजन का आविष्कार किया होगा, वह बड़ा ही चतुर और बुद्धिमान व्यक्ति रहा होगा। मुझे तो सबसे अधिक यही पसन्द आया और सभी भोजन छोड़कर दो प्लेट इसी की मैंने खायीं। जैसे प्लासी का युद्ध बिना लड़े अंग्रेजों ने जीत लिया उसी प्रकार बिना जीभ हिलाये और दाँतों को चलाये दो प्लेट हलुवा मेरे उदर में पहुँच गया। मांस इत्यादि की प्रायः सभी प्लेटें रह गयीं। अचार भी बड़े खट्टे हैं। उनके खाने के लिये भी विशेष साहस की आवश्यकता होती है।

जब भोजन कर चुका तब फलों की बारी आयी। राजा साहब ने अपने बाग से आम मँगवाये थे। उन्होंने मुझसे वही खाने के लिये कहा। मैंने बहुत पहले सुन रखा था कि यहाँ का आम बहुत विख्यात और स्वादिष्ट फल होता है, परन्तु साक्षात्कार पहले-पहल हुआ। इसे छुरी से छीलकर खाते हैं। देखने में इसके टुकड़े सुनहले रंग के होते हैं। केले की भाँति यह खाने में कोमल होता है। परन्तु स्वाद? कोई वस्तु ऐसी नहीं होती जिससे इसकी तुलना की जाये। मुझे कविता करने की शक्ति नहीं है इसलिये इसका गुण नहीं कह सकता। किन्तु कुछ यों कह सकता हूँ। जैसे कवियों में शेक्सपियर, सिपाहियों में नेपोलियन, अखबारों में टाइम्स और मछलियों में व्हेल होती है, इसी प्रकार आम सब फलों में बड़ा है! यदि भारत पर शासन करने के लिये और कोई कारण नहीं हो तो केवल आम के ही लिये हम लोगों को भारत पर शासन करना आवश्यक है और जब स्वराज्य दिया जाये तब सब शर्तों के साथ यह भी एक शर्त रहे कि प्रत्येक फस्ल में यहाँ से दो जहाज आम इंग्लैंड भेजा जाये।