हिन्दुस्तान की डायरी / दीर्घ नारायण

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’हाँ सर! पढ़ लिया, बहुत ही खतरनाक डायरी है’ - दूसरी तरफ से पूछे गये बेसब्री भरे सवाल का जवाब दे रहा था मेजर इस्माइल, बाघा बॉर्डर में तैनात पाकिस्तानी रेंजर का जांबाज़ अफसर। ’मजमून का लब्बोलुबाब क्या है’फताब अगर इसको किताब की शक्ल में रिलीज करवा देगा या अखबारो में छप जाएगा तो समझिए मुल्क में नई बहस छिड़ जाएगी’-एक हाथ में मोबाइल, दूसरे हाथ में डायरी थामे मेजर इस्माइल परेशान हो उठा; वह छोटी सी डायरी काफी वजनी होने लगी थी। ’डायरी ज़ब्त कर लो और आफताब को जाने दो’ -लाइन में दूसरी तरफ वाले साहब खासे हड़बड़ी में थे। ’लेकिन सर, वह तो डायरी लिये बग़ैर जाने को राजी नहीं है’ ’तो साले को डिटेन कर लो दो-तीन दिनों के लिए, और स्टेशन डायरी में इन्ट्री मार दो- मुल्क से गद्दारी भरे मटेरियल बरामद हुई है....आईएसआई हेडक्वाटर आजकल वैसे भी हमारे रेंजरों के दिन-रात की खासी मेहनत के बावजूद नाखुश चल रहा हैं; स्साले बार्डर में दिन-रात गोला दागो और यहाँ कैपीटल में इंटेलीजेन्स वालों की गालियाँ खाओं’-दिल का भड़ास निकालकर फरमान जारी करते हुए बॉस ने लाइन काट दी।

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आफताब आलम, लाहौर से सटे इलाही क़स्बे का बाशिन्दा। पेशे से दर्जी, एवन टेलर का मालिक; चालीस-पचास साल तक इसी टेलरिंग की बदौलत पहले उसके अब्बा ने, फिर उसने एक बड़े परिवार का इज़्ज़त से गुज़ारा किया। सभी मर्दों को ज़रूरी तालीम दिलायी, अल्लाह की मेहरबानी से दोनो बेटे पंजाब गवर्नमेंट में नौकरी पा गये; तरक्की पाकर अब दरमियानी दर्जे के अफसरान हैं, रिटायरमेन्ट के करीब आकर। तीनों बेटियों की शादी खुशहाल परिवार में कर दी थी, अब तो तीनों अपने-अपने नाती-नातिनों, पोतें-पोतियों के संग जि़न्दगी के आखिरी पड़ाव की ओर चल पड़े हैं।

खुद आफताब भी तो खासे उम्रदराज हो चले हैं, चौरासी-पचासी साल की उम्र कोई कम होती है क्या! पर नज़रें तो जैसे उम्र को मात दे दिया हो; भरा-पूरा परिवार, माली हालत दुरूस्त, बावजूद इसके सुबह और दोपहर को दो-दो घंटे एवन टेलर में, मशीन के सुई-धागे उसकी नजरों को कभी धोखा नहीं दे सकते। हक़ीक़त में एवन टेलर को हर दिन खोलना थोडा-बहुत चलाना और बन्द करना उसका जूनून है; हाँ, उसके ज़ेहन में बसा जूनून...सन अड़तालीस में हिन्दुस्तान के मेरठ से पूरे कुनबे के साथ लाहौर तक का खौफनाक सफर, साल-दो साल तक की फ़ाक़ाकसी, लाहौर के इस किनारे से उस किनारे तक काम-धन्धे के लिए घर के सभी मर्दो का दर-दर की ठोकरें खाना, दाने-दाने को मोहताज कुनबा, परदानशीं औरतों का बुर्के में निकलकर मस्जिद-मौलवियों से ज़कात पाकर दिन गुजारना.....हालाँकि आफताब ठीक-ठाक

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तालीमयाफ्ता था, आजादी के यादगार साल में मेरठ कॉलेज से इन्टर फाइनल कर चुका था, पर पाकिस्तान में मोहाजिरों की तालीमी डिग्रियों की जगह कूड़ेदान में बतायी जाती थी। फिर तो इलाही क़स्बे में खड़े किये गये वही एवन टेलर उन सबों के लिए मुकम्मल आसरा बना था... सो, एवन टेलर से उसका रिश्ता पुराना है, रूहानी रिश्ता।

एक नया मुल्क बनते ही पूरे पाकिस्तान की फि़ज़ां में हिन्दुस्तान के लिए नफरत ही नफरत फैलने लगी थी, वक्त के साथ नफरत की हवा साफ होने के बजाय और जहरीली होती गई। शुरूआती दौर में ही वहां के सियासतदानों पर भूत सवार हो चला था, अपनी-अपनी सियासी ज़मीन लहलहाने खातिर हिन्दुस्तान को दुश्मन मुल्क बताते फिरने का भूत। आफताब भी तो नफरत की उस फिजां में सवार हो लिया था। हिन्दुस्तान से लाहौर पहुँचा एक नौजवान बहुत जल्द ही पाकिस्तानियों की जुबान में एक जाना- पहचाना नाम बन गया, ऐसा नौजवान जिसके दिल और जुबान से इन्डिया के लिए नफरत की दरिया निकलती है। पंजाब प्रांत के सभी हुक्मरान आफताब आलम के मुरीद हुआ करते थे- आखिर मोहाजिरों में ऐसे कितने चेहरे हैं जिनके दिलों में हिन्दुस्तान के लिए आग धधकती रहती हो। इसी खातिर तो उसे सन दो हजार में रावलपिण्डी में पोशीदा तौर पर जिहादियों के बीच ’पाकिस्तान का जुबानी जनरल’ के ऐज़ाज़ से नवाज़ा गया था, यानि हिन्दुस्तान के खिलाफ पचास सालों तक ज़ुबानी जंग लड़ते रहने वाला लड़ाका। यह बात दीगर है कि अब उसकी उम्र अस्सी पार कर चुकी है,

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ज़ुबां की लौ और रौ कमज़ोर पड़ चुकी है... बहरहाल, बेटों की बनायी नई हवेली और एवन टेलर के बीच ही क़ैद कर लिया है अपने को पिछले पन्द्रह-बीस सालों से।

न जाने इस कैद सी जिन्दगी में रफता-रफता इन्डिया कैसे तैरने-उतरने लगा, पुरानी बातों-बेहिसाब यादों के घोडे़ पर सवार होकर। उम्र के इस पड़ाव में उसके अन्दर हिन्दुस्तान की मुहब्बत ने ऐसा जज्बा भरा कि उसने मेरठ जिले के अपने पुस्तैनी गाँव किठौर आकर ही दम लिया। हिन्दुस्तान आने का वीजा हासिल करने में उसे कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी; पाकिस्तान की खुफिया रिपोर्ट मे उसका नाम ’हिन्दोस्तान के दुश्मन’ की फेहरिश्त में अभी तक दर्ज था, तो इन्डिया के इन्टेलीजेन्स डिपार्टमेन्ट की ’भारत के विरूध्द खतरनाक मंसूबे पालनेवाले पाकिस्तानी’ के पाँच साला लिस्ट से उसका नाम गुम हो चुका था।

हिन्दुस्तान आने से पहले ही वह भारत में एक मशहूर और इस्तकबाल किए जाने वाला चेहरा बन चुका था। हिन्दुस्तानी मीडिया ने आफताब आलम को कुछ यूँ लपक लिया था - ’मेरठ के किठौर में जन्मा, पला-बढ़ा-पढ़ा और मेरठ कॉलेज से सन उन्नीस सौ सैतालीस में इन्टर कर चुका चौरासी बर्षीय आफताब आलम यानि अविभाजित भारत से इन्टर कर पन्द्रह अगस्त सैतालिस को तिरंगे को सलामी देने के बाद पाकिस्तान चले जाने वाले अन्तिम जीवित हिन्दुस्तानी’। फिर तो लाहौर से बस में सवार होकर वाघा

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बॉर्डर पहुँचते ही भारत की तरफ आसमान में सचमुच आफताब चमकने लगा था, उम्मीदभरे एक कारगर अलमबरदार की तरह।

कोई एक-डेढ़ महीने ही रहा वह हिन्दुस्तान में; हिन्दुस्तान में तो क्या, अपने गाँव किठौर-मेरठ जिले के दूसरे हिस्से में अपने रिशतेदारों-आशनाओ और जान पहचान के गाँवों में तथा मेरठ शहर की गलियों में घुमता-भटकता रहा, अपनी पुरानी याददाश्त पर जोर डाल-डालकर। बचपन एवं जवानी की सरजमीं-सड़क-शहर में सूरज को उगते-डुबते देखकर वह भूल सा गया, कि वह कभी हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान जा बसा है; बल्कि अपने कॉलेज रोड से गुजरते हुए उसे लगता था पाकिस्तान नाम का कोई मुल्क बना ही नहीं है; उसके दिमाग में अपने पसंदीदा सब्जेक्ट जुगराफिया की किताबों में छपे तब के हिन्दुस्तान का नक्शा ही उभरने लगा था। यूँ तो किठौर में वह अपने चचाजान के पोते सरताज के घर ठहरा था, पर किठौर और ईर्द-गिर्द के गाँवों में अपने रिश्तेदारों-परिचितों के घरों में भी काफी दिन बिताये। वह जहाँ भी गया-ठहरा भरपूर इज्जत और मेहमाननवाज़ी होती रही।

मेरठ शहर में तो वह मस्तमौला बना फिरता रहा। अपने जमाने की गलियों, कॉलेज की इमारतों, अबू लेन में पंजाबी छोले- भटुरे, मछेरान में सलीम फिश फ्राय, घंटा-घरवाले मोहन पान कॉर्नर ...अपने क़याम के और भी ऐसे कई जगहों को अपनी थकी ऑखों में कैद सनीमा के सहारे सरज़मीं पर देखकर जी भरना चाहता था। पर हर दिन शाम को परवान चढ़ चुके हिन्दुस्तानियत

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की चादर ओढ़े अपने कयामगाह पर पहुँचता था- क्या बॅंटवारे के बाद यहाँ की हुकूमत ने वो सारी नूरी जगहें जमींदोज कर दी! बहरहाल जल्द ही वह सबूत सहित समझ गया, आज का हिन्दुस्तान वह हिन्दुस्तान नहीं है, जिसे वह छोड़ गया था; यकीनन पाकिस्तान से कई गुना ज्यादा तरक्क़ीयाफ्ता मुल्क है। अपने पैदाईशी-जिले मेरठ की पुरानी आब-वो-हवा में मशगुल रहते- रहते हिन्दुस्तान की ताज़ी हवा के खूबसूरत एहसास को अपने इन्तक़ाल तक महसूस करना चाहता था वह। इसलिए अपने सफरनामे को पाकिस्तान से साथ लाये हरे रंग वाली डायरी में क़मलबन्द करना नहीं भूलता। हालाँकि लाहौर से रूख़्सत होते वक्त पाकिस्तानी इंटेलीजेन्स के एक अफसर ने वो हरी डायरी उसे थमाते हुए हिदायत दी थी, ’मेरठ इन्डियन आर्मी का बड़ा ठिकाना है, उसके ईद-गिर्द रहकर आर्मी के खुफिया ठिकानों और आर्मी के ख़ास-खास हरकतों की बानगी को हू-ब-हू उतार लाना इस डायरी में’। वाजिब ही, मुल्क के लिए वफादारी दिखाते हुए मेरठ छावनी के थोडे़ अन्दरूनी हिस्सों की सैर करने में भी कामयाब रहा, अपनी डायरी में इन्डियन आर्मी के बारे में लिखना भी शुरू किया था, पर बात दो-ढाई पन्ने से आगे बढ़ नहीं पाई; वजह मेरठ की जनता न तो आर्मी के काम-काज में दखल देती थी न ही आर्मी के बारे में किसी से खबरें साझा करना पसन्द करती थी।

हाँ, एक बार डायरी लिखनी शुरू कर दी तो उसे भरता ही गया; अपने गाँव, रिश्तेदारों के गाँव, अपने रिश्तेदारों-परिचितों- मिलनेवालों-मेरठ की गलियों की एक-एक तफसील लिख डाली थी

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उस डायरी में। खासकर परिचितों-रिस्तेदारों के साथ होती रहती रोज़ाना गुफ़्तगु को सिलसिलेवार ढंग से डायरी में कलमबन्द कर डाली थी। स्कूल के जमाने में पढ़ाये गये व्हेनशांग, फाहियान, इत्सिंग जैसे विलायती मुसाफिरों के हिन्दुस्तानी-सफरनामें उसके ज़ेहन में अभी भी जिन्दा थे। सो उन्हीं मुसाफिरों के माफिक, अपनी इस डायरी को वह आज के हिन्दुस्तान को समझने का ’बेहतरीन सफरनामा’ के तौर पर पाकिस्तान में छपवाना चाहता था। जाँए-पैदाईश की रूहानी यादों की दरिया में बहते हुए ही उसने उस हरी डायरी के ऊपर लिख डाला था ’जन्नत की डायरी।’ तब आफताब को भला क्या पता था, यही टाइटल उसे खासी मुसीबत में डालेगा।

....सचमुच, यह मुसीबत ही तो थी। अस्सी पार कर चुका एक उम्रदराज़! हिन्दुस्तान को हमेशा के लिए अलविदा कहते हुए, अपने बचपन और जवानी के दिनों की ज़मीं-आसमान-हवा-दरिया-दरख्त- फिजां-फना याद करते-करते बाघा बॉर्डर पार किया। पाकिस्तानी रेंजर के जवान उसके आसबाब की तलाशी ले चुके, कुछ भी क़ाबिल-ए-एतराज़ तो नहीं था उसके पास; बस एक छोटी-सी हरी डायरी के पीछे लाल-पीले हुए जा रहे है पाकिस्तानी रेंजर के अफसरान। डायरी पलटते ही आग-बबूला हो उठे थे रेंजर के साहेबान ’क्यों बे खुसठ, आ रहे हो जहन्नुम से और ढो रहे हो जन्नत की डायरी! इस ज़हर की पोटली की जॉंच होगी, कहीं हिन्दुस्तान के इंटलीजेन्स वालों ने तुम्हारे दिमाग को हिन्दुस्तानी फितुर से धो तो नहीं दिया है’। ’इस डायरी में हिन्दुस्तान में

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गुज़ारे लम्हों को हरफों में ढाला है, अपने कुछ रिश्तेदारों की जुबानी बयां किया है, बस’ -आफताब ने अपने तईं सच बता दिया; वह डायरी के बग़ैर एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहता था। सो रेंजर चेक-पोस्ट के बरामदे में धरना देने सा हुलिया बनाकर बैठ गया, अपनी दिलरूबा डायरी के वापस हाथ में आने तक के इनतजार में । ....’अरे सर, मैं इसे क्या डिटेन करुँगा, वह तो खुद ही धरने पर बैठ गया है हमारे पोस्ट में ’ पशोपेश में पडे़ मेजर इस्माइल को मोबाइल में फिर से मशगुल होना पड़ा, अपने बॉस से एक मुमकिन हल तलाशने की उम्मीद में। ’आखिर उस डायरी में लिखा क्या है, अबतक तो तुम फटाफट पढ़ भी लेते’। ’सर बुडढा आफताब साफ-साफ लिखा होता तो झट से पढ़ भी लेता; वैसे बीच-बीच से पढ़ लिया है मैंने, हिन्दुस्तान में अपने रिश्तेदारो की गुफ़्तगू ही रिकार्ड किया मालूम होता है। हिन्दी-उर्दू में लिखी हरफें इतनी टेढ़ी- मेड़ी हैं कि पूछिये मत, लगता है जैसे हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बॉर्डर को जगह-जगह से तोड़-मरोड़कर डायरी में खींच दिया है; हाँ डायरी के ऊपर में साफ-साफ लिखा है जन्नत की डायरी’ - हिन्दी से बेखबर और उर्दू में कमज़ोर मेजर इस्माइल सचमुच परेशान हो उठा था। ’तुम्हें फिक्रमंद होना चाहिए इस्माइल, अगर उस डायरी में हिन्दुस्तान की जरा भी तरफदारी की गई है और लाहौर में किसी अखबारनवीस के हाथ लग गयी तो भारी आफत ही समझो। तुम्हें पता है न, किसी पाकिस्तानी के मुँह से हिन्दुस्तान की तारीफें सुनना हमारे फॉरेन मिनिस्ट्री और आईएसआई हेडक्वाटर को बिल्कूल पसंद नहीं है’ 9

’लेकिन सर, यदि इस सीनियर सिटीजन को यहॉ चेक-पोस्ट पर एक-दो दिन बिठाये रखा और बात मीडिया तक पहुँच गयी तो दोहरी आफत आ जायेगी; एक उम्रदराज़ को जानबूझकर परेशान करने का इल्जाम तो लगेगा ही, साथ में ’जन्नत की डायरी’ खुद- व-खुद मीडिया में शाऐ हो जायेगी’-मेजर इस्माइल जल्दी से किसी नतीजे तक पहुँचनेचाहते थे। ”उस बुडढे को कुछ घंटे के लिए सब्र करने बोलो, मैं आइएसआई हेडक्वाटर से मशविरा करता हूँ। मेरे ख्याल से आईएसआई के इन्टरनल इंटेलीजेन्स के हेड मेजर जनरल इरफान ताहिर आजकल इन्डिया बॉर्डर के मुआयने में लगे हैं, उनके कन्फीडेन्सियल जर्नी प्लान के हिसाब से वे आज प्वाइंट नाईन पर होंगे। प्वाइंट नाईन तुम्हारे चेक-पोस्ट से ज्यादा दूर नहीं है, उनसे बात करके कन्फर्म करता हूँ। ’जन्नत की डायरी’ का मसला उनके नॉलेज में लाता हूँ। यदि वे प्वाइंट नाईन में है तो डायरी उनके हवाले करो, उनकी तसल्ली होगी तो डायरी आफताब को वापस कर देना वर्ना जैसा वे कहे वैसा करो। तब तक के लिए आफताब को बोलो आफताब जैसी गर्मी दिखाना बन्द कर चाँद जैसी नरमी से बैठा रहे”-रेंजर के बॉस अपनी जिम्मेदारी से सौ फीसदी वाकि़फ थे। तारीकी से कबल ही डायरी जनरल ताहिर के हाथ में आ चुकी थी, उसमें लिखी बातों के दावेदार आफताब आलम को भी पिछे से प्वांइट नाईन पर बुला लिया गया था, डायरी के लफ्ज़ों को बेहतर ढंग से समझने के लिए। एक बन्द कमरे में जनरल ताहिर, उसके मातहत ब्रिगेडियर अनवर और कर्नल बरकत ने 'जन्नत की डायरी' पर नजरें जमा दी, जैसे वह डायरी न होकर हिन्दुस्तान का

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नक्शा हो। जनरल ताहिर ने डायरी को हाथ से तौला, जैसे हिन्दुस्तान को तौल रहा हो, फिर उसे सूंघते हुए फलसफियाना अन्दाज़ में बोले- ''लगता है डायरी लिखनेवाला हक़ीक़त बयानी पसन्द रूहानी किस्म का इन्सान है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, इसके पन्नों में लिखे हरफों में हिन्दुस्तान की खुशबू बसी हैं''। ब्रिगेडियर अनवर और कर्नल बरकत ने फक्र महसूस किया आईएसआई में डेपुटेशन पाकर, जिसके आला ओहदेदारों में ग़ज़ब की क़ाबिलियत होती है; खासकर हिन्दुस्तान की तासिर की परख करने में, वो भी हिन्दुस्तान से आयी चीजों को छू भर देने से, यहॉ तक कि वहाँ से आती हवा के रंगत से भी। जनरल ताहिर ने पूरी डायरी कोई घंटे भर में इत्मीनान से पढ़ डाली, बीच-बीच में अपने ब्रिगेडियर और कर्नल के कारगर उर्दू तालीम की बदौलत। डायरी के मिजाज से रू- ब-रू होने के बाद जनरल ताहिर ने उसके खास-खास हिस्सों को पेन्सिल से अन्डरलाइन्ड किया, तब उसे पाकिस्तान के मतलब के हिसाब से दुबारा पढ़ा ।

पन्द्रह मार्च 2014

आबू लेन की शाम कितनी नरगिसी थी, माशा अल्लाह! पैसठ-छियासठ साल बाद फिर वो शाम देखी। हमारे ज़माने में कुछ ही दुकानें होती थी, आज तो दो-तीन किलोमीटर सदर बाज़ार तक रंग-बिरंगी दुकानें छा गयी है; सड़क पर लोगों की चहल कदमी और मस्ती वही! या अल्लाह! लड़कियों-औरतों की शोख अदाएँ और

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मार्केटिंग के लिए वही पुराना जुनून! इस किनारे से उस किनारे तक दो-तीन दफा पैदल चाल से थक गया तो पंजाबी छोले-भटुरे में खाकर-बैठकर जिस्म सुस्ताया। वाह, क्या खूब! दुकान की साज- सजावट नयी मगर खुशबू बिल्कूल वही, हैरतअंगेज। मेरठ में रहनेवाले हमारी अगली नस्ल और उसके बाद की नस्ल भी, सममुच आप सभी खुशकिस्मत हो... सामने बेंच पर चाट खा रहे नौजवान की क़द-वो-क़ामत बयां कर रहा था वह फौज में है। पंजाबी छोले-भटुरे के लजीज़ प्रिपरेशन से बातचीत शुरू हुई तो इन्डियन आर्मी तक आ पहुँची। यही चाहता था मैं। फौजी जसबीर सिंह से पता चला, यहाँ मैरठ कैन्ट में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। मैंने कहा, कई अन्दरूनी सड़कों पर घुम आया हूँ तो बताया, घुमने की मनाही नहीं है, पर हर घुमनेवालों पर कड़ी नजर रहती है, जरा भी शक होने पर सीधे बैरक के अन्दर। सियाचीन ग्लेशियर पर जानलेवा चौकसी से लेकर लहुलुहान कश्मीर जैसे नाज़ुक मसले पर दोस्ताना गुफ्तगु हुई। मेरे बात करने का हिन्दुस्तानी रूझान और मेरी उम्र का लिहाज़ कर उस फौजी ने बेबाक ढंग से हक़ीक़त का इज़हार किया। जसबीर के लफ्ज़ो में, -"पाकिस्तान कश्मीर में बचकानी हरकतें कर रहा है, वह चाहे हर-दिन छोटी-छोटी मुठभेड़ को अंजाम देता रहे या फिर हर दस साल में एक बड़ा जंग लड़ ले, अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो पायेगा -यदि पाकिस्तान मजहब के आधार पर कश्मीर पर हक़ जताता है या उसे एक आज़ाद मुल्क के तौर पर देखना चाहता है फिर तो आने वाले दिनो में हमें साल-दर-साल कोई-न-कोई इलाके पाकिस्तान को सौंपना पड़ेगा -या हर दस-बीस

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सालों में हिन्दुस्तान की छाती पर नये-नये मुल्क की आग भड़कती रहेगी -इससे तो अच्छा है कि हम भी उस भारत के नक्शे को हकीक़त में बदल दें जैसा दो-ढाई हज़ार साल पहले हुआ करता था -मैं तो एक अदना सुबेदार हूँ, पर जहां तक मुझे पता है हिदुस्तान का ऐसा कोई खतरनाक इरादा नहीं है –हाँ, इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं, हम अपनी एक इंच ज़मीन भी किसी को छीनने नहीं देंगे, चाहे कोई हज़ार तो क्या दस हज़ार साल तक लड़ता रहे...!" जसबीर की आँखों से बरसते बुलन्द इरादों से ज़ाहिर है, पाकिस्तान को अपनी हिन्दुस्तानी पॉलिसी का नया बाब लिखना चाहिए ।

22 मार्च

हमारा गाँव किठौर। आज सुबह दस बजे से ही गाँव की सैर शुरू किया, नाश्ता करके। अन्सारी टोला, भूइयां टोला, पठान टोला, कहार बस्ती, बाल्मिकी बस्ती तक घूम आया। हर टोला-हर घर के लोगों ने मुझे आँखों पर बिठा लिया। मेरे लिए हैरत और खुशी का लम्हा था, हर घर के लोग मुझसे वाकि़फ थे, मेरे किठौर आने से पहले ही। जिस दरवाज़े पर भी खड़ा हुआ, दरवाजे पर से लोग घर- आंगन के लोगों को आवाज़ देने लगते थे -अरे देखो, पाकिस्तान से अपने ताऊ/दद्दा/बडे़ भैया अफताब आया है। महसूस होता था, पाकिस्तान कोई मुल्क नहीं बगल का गाँव हो। मैं हक्का-बक्का, इस बुजुर्ग के लिए गॉव वालों के दिलों में एसी बेपनाह मोहब्बत! लगा, अपने गाँव आकर फिर से जवान हो गया हूँ.... भूइयां टोला का पुराना कुंआ, कहार टोला का इमली का दरख़्त, बाल्मिकी बस्ती

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का सांप वाला सेमल पेड़, अन्सारी टोला का मछली धार... थोडे- बहुत तब्दीली के साथ सभी आज भी मौजूद है, सलामत हैं अपने उम्र की पहचान के साथ। हॉ, प्राइमरी स्कूल किठौर अब भरपूर जवान हो चुका है, आलिशान इमारतों में राजकीय हाई स्कूल किठौर वाले बोर्ड के साथ। तालीम के मामले में एक और तबदीली आई है, गाँव के बाहर आम सड़क के जुनूब में एक मदरसे का का़यम होना ... बहरहाल, लोगों के हुजूम के साथ घुमता रहा; बग़ैर थके, दिन-भर। लगभग हर दरवाज़े पर चाय-पानी-नाश्ता-पान-सुपाड़ी- दावत-भात के लिए जिद होती रही। शायद पूरी जि़न्दगी में इतनी दफा न तो नाश्ता किया होगा और ना ही दावत। यक़ीन नहीं हो रहा छियासठ साल पहले जिस गाँव को बेवफा समझकर हमेशा के लिए अलविदा कह चुके थे, वहाँ के लोग आज भी इतनी जि़न्दादिली और मुहब्बत से पेश आ रहे हैं, मेरे लिए-हमारे खानदान की इतमिनान बख़्स के लिए। ऐसा है मेरा गाँव किठौर! दुनिया का सबसे खूबसूरत गाँव, जन्नत की बस्ती!

11 अप्रैल

मेरी खाला का गाँव अगवानपुर, दरिया-ए-गंगा के मशरक़ी किनारे पर आबाद एक बडा सा खुशहाल गाँव। तरक्क़ी तो उस गाँव की तकदीर में पहले से ही थी, अब तो शबाब पर है। उस ज़माने में हम मुसलमान भले ही यह न मानते हों, पर अब यक़ीन हो गया है गंगा सचमुच माँ है, अगवानपुर वालों की अज़ली माँ....

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खाला के लड़के अपनी सही उम्र गुज़ार कर दुनिया से रुखसत हो चुके हैं; बड़े वाले जियाउर भैया के बेटे अमन छावनी बोर्ड मेरठ में क्लर्क हैं, रिटायरमेन्ट के करीब; छोटे वाले मतिउर का बेटा अखलाक़ मेरठ कॉलेज में लैब इन्चार्ज है। मझोले वाले की सिर्फ तीन बेटियां थी, अलग-अलग गाँवों में शादी हैं। अमन और अखलाक़ छ: बजे तक घर लौटते हैं, मैं तो पाँच बजे ही उनके घर हाजि़र था। बचपन की यादों में खाला के गाँव-घर में गोता लगाते हुए गहरी नींद का मज़ा लिया, गंगा किनारे के गाँव में.... हाँ, ताज्जुब के साथ ज़ेहन में नोट करने वाली जो बात है, वह कहीं भूल न जाऊँ; शाम को अखलाक़ के बैठकखाने में अच्छा- खासा मजमा लगा था। खुले तौर पर हिन्दु-मुस्लिम हिन्दुस्तान- पाकिस्तान पर घंटो मुबहासा होती रही, वैसे भी अगवानपुर खासी मुस्लिम आबादी वाला गाँव है। इस मुबहासे के दरम्यान दो-तीन लोगों के बेबाकाना ख़्याल क़ाबिले गौर हैं। भले ही पाकिस्तान में कोई इस पर यक़ीन न करें, मगर शकूर मास्टर ठीक ही फरमा रहे थे-इस्लाम जितना हिन्दुस्तान में सलामत है उतना दुनिया के दूसरे किसी मुल्क में नहीं। दानिश मियाँ ने तो शायद पते की बात कही थी-अगर दुनिया में इस्लाम को बदनामी से बचाना है, इसे मजबूती देनी है, पैगम्बर साहब के पैगाम को दूर तलक ले जाना है तो पूरी इस्लामी दुनिया को हिन्दुस्तानी मुसलमान के पाक और मॉडर्न नजरिये वाला रुख-रास्ता अ‍ख्तियार करना होगा। दौराने गुफतगू फ़कीर मोहम्मद तो खासे भड़क उठे थे -पाकिस्तान को ढोल पीटना बन्द करना चाहिए कि हिन्दुस्तान में इस्लाम खतरे में है, हक़ीक़त में हिन्दुस्तानी मुसलमानों को सबसे ज़्यादा खतरा पाकिस्तान से

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ही है। अखलाक़ ने तो वाजिब ही मेरी तरफ इशारा करके मामला उठाया था-यहाँ हिन्दुस्तान में मुसलमानों के लिए तरक्की के सारे रास्ते खुले हैं, यहाँ से पाकिस्तान हिजरत करने वाले मुसलमानों को पाकिस्तान ने तो ठीक से कबूल भी नहीं किया है, तरक्की का तो सवाल ही नहीं उठता'। अखलाक़ की बातों से मेरे अन्दर पाकिस्तान में गुज़ारे तकलीफदेह सालों के जख्म फिर से जिन्दा हो उठे। खैर!

19 अप्रैल,

भटीपुरा चौधरियों की बड़ी बस्ती हुआ करती थी, अब तो एक बेहतरीन क़स्बे की शकल में नज़र आ रहा है; हमारे गाँव से यही कोई पाँच-सात किलोमीटर की दूरी पर। चौधरी महेशचन्द्र का बड़ा ही इज़्ज़तदार खानदान हुआ करता था, हमारे अब्बा के खासुल- खास और भरोसेमंद; दोनों एक ही स्कूल में उस्ताद हुआ करते थे, समझिए एक पान दो टुकडे़ं। उनके एक ही लड़के थे, शशिनन्दन चौधरी, हम दोनों मेरठ कॉलेज के जाने-पहचाने चेहरे हुआ करते थे। पैसठ साल तक हम हिन्दुस्तान से बेतार से कटे रहे। कल मैं यूँ ही चल पड़ा था भटीपुरा, शशि की सलामती की ख़्वाहिस लिए। काफी कुछ बदल चुके इस गाँव में भी शशि के घर तक पहुँचने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। वहाँ जाकर पता चला, शशि तो भरी जवानी में सन पचपन में ही चल बसा था; शादी के चार-पाँच बरस बाद ही, बीवी की गोद में एक बेटा छोड़कर। वही बेटा अब मेरठ-

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मुरादाबाद में बड़ा ठेकेदार है, राजीव प्रताप चौधरी। राजीव ने मेरे पॉव ऐसे छुए जैसे मैं शशि की शकल में वापस लौट आया हूँ। उसने बताया, हमारी दोस्ती की काफी कसीदें गढ़ा करता था शशि अपनी घरवाली के सामने; बेचारी भाभी भी कुछेक साल पहले गुज़र गई। आह! कुछ साल पहले ही हिन्दुस्तान आने की क्यों नहीं सूझी! राजीव की जिद को मैं नकार न सका, शायद अपने घर मुझे कयाम कराकर शशि की रूह को सुकून दिलाना चाहता हो। रात को खाने से पहले और बाद भी, उसके दरवाज़े पर लोगों का जमावडा़ लगा रहा, मुझे देखने-मुझसे मिलने-हाल-चाल पूछने की होड़ सी मची रही पूरी शाम। उस शाम तो समझिए हिन्दुस्तान- पाकिस्तान की नासमझी का दुबारा जनम हो रहा था-सन सैतालिस के बँटवारे से शुरू करते हुए सन पैसठ, सन एकहत्तर, कारगिल की लड़ाई तक उन लड़ाइयों के गोले-भाले और भी तीखे होकर फिर से निकल रहे थे लोगों की जुबां से। सौ मुँह-सौ बातें। पर दो लोगों की चर्चा को डायरी में नोट कर पाकिस्तान पहुँचाना जायज और जरूरी जिम्मेदारी समझता हूँ... समीर मिश्रा ने खड़ा होकर सवाल किया तो पूरे दरवाज़े पर अलग-अलग मसलों पर फैला शोर-वो-गुल धड़ाम से गिर पड़ा, ''अच्छा, आप लोग ये बताइये, पूरे संसार में कौनसा देश पाकिस्तान का सबसे बडा शुभचिंतक है?'' मैं अवाक, किसी ने भी अमेरिका या चीन का नाम नहीं लिया। लोगों के बीच से आवाज़ आने लगी - पाकिस्तान की ऑंखों में पट्टी बंधी है, उसे भला क्या दिखेगा कौन असली कौन नकली। फिर समीर ने दोनों हाथ फैलाते हुए एलानिया अंदाज़ में बोला-इस धरती में पाकिस्तान

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का सबसे बड़ा शुभचिंतक है इन्डिया! बस पाकिस्तान इसे हकीकत को जानबूझकर नहीं मान रहा हैं। आजादी से ही हमारी सरकार की हमेशा कोशिश रही है, पाकिस्तान तरक्की के रास्ते पर तेजी से बढ़े, पर अफसोस वहॉ के हुक्मरान इस उल्टा प्रचारित कराती रहती हैं। शत्रुघ्न प्रसाद ने बड़ी समझदारी की बात कही थी - हिन्दुस्तान का हर शख्स पाकिस्तान में अमन-चैन और तरक्क़ी की ख़्वाहिस रखता है, जिस दिन पाकिस्तान इस सच्चाई को गांठ में बांध लेगा, वह तरक्क़ी की बुलन्दी पर पहुँच जायेगा। संतोष चौधरी तो उखड़ ही गया था-- अरे! वहाँ की फौज और सरकारें पाकिस्तानी अवाम को जानबूझकर अंधेरे में रखा है -हिन्दुस्तान हमला करनेवाला है -हिन्दुस्तानी फौज चल पड़ी है- हिन्दुस्तान का हौवा खड़ा करके ही तो इतनी भारी-भरकम फौज अपनी मनमर्जी कर रही है वहाँ। जयदेव सिंह की उम्मीद भरी बातों के साथ चर्चा खत्म हुई थी -कोई बात नहीं, वो दिन जरूर आयेगा, जब पाकिस्तान की अवाम खुद-ब-खुद सरकार के कान में नारे लगाएगी -हिन्दुस्तान का हौवा दिखाना बन्द करो- इन्डिया कभी हम पर हमला नहीं करेगा -हमारे खून-पसीनें की कमाई गोला-बारूद में फूंकना बन्द करो....इन्शा अल्लाह, वह दिन जितनी जल्दी आये, पाकिस्तान के हक में उतना ही अच्छा होगा।

जेहन में हदीश की चन्द आयतें आ रही हैं; हुजुर साहब के फरमान काबिले-ए-गौर है, रोज़मर्रा जि़न्दगी में इंसान को जिन लोगों से सब से ज्यादा वास्ता पड़ता है वो उसके हमसाये हैं। कुरान मजीद में जहां मां, बाप, मिंया, बीवी और दूसरे रिश्तेदारों के

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साथ हुस्न सलूक और अच्छे बर्ताव का हुक्म दिया गया है वहां पड़ोसियों से हुस्न सलूक की खसूसी तलक़ीन फर्माई गई है। मुझे ताज्जुब हो रहा है कि आखिर दोनों मुल्क कुरान शरीफ में हमसायों के लिए कही गयी बातों पर गौर क्यों नही कर रहा है। खासकर ये आयतें तो हुक्मरानों को जरुर पढ़नी चाहिए - वअ़्रबुदुल्ला-ह व ला तिशरिकू बिही शैअंव्-व बिल-वालिदैनि इहसानंव्-व-बि-जि़ल्कुरबा वल्यतामा वल्मसाकीनी वल्जारि जि़ल्- क़ुरबा वल्जारिल-जुनुबि वस्साहिबी बिल्-जम्बि वब्निस्सबीलि व मा म- लकत् ऐमानुकुम्, इन्नल्ला-ह ला यहिब्बु मन् का-न मुख़्तालन् फख़ूरा। *

  • (और अल्लाह की इबादत करो, और उसके साथ किसी को शरीक

ना करो, और माँ बाप से अच्छा सलूक करो, और कुराबातदारों (यानि रिश्तेदारों) से और यतीमों और मुहताजों से, और कुराबत (यानि पास वाले हमसाया यानि पड़ोसी) से और अजनबी हमसाया (यानि दूर के पड़ोसी) से और हम मजलिस (यानि पास बैठने वाले या पहलू के साथी) और राह के मुसाफिरों से और मिल्क (कनीज़, ग़ुलाम) के साथ एहसान करो कि खुदा तकब्बुर करने वाले को दोस्त नहीं रखता यानि पसन्द नहीं करता। पारह-5,सूरह- अन्निसा,आयत-36)

23 अप्रैल 2014

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आज की रात नींद कोसो दूर है; कल मेरठ मेरी आँखों से ओझल होने वाला है, शायद इसी वजह से। पर इस हक़ीक़त से जी हल्का हो गया है, कि बार्डर के इस तरफ के लोग हमारे मुल्क के लिए इतने फिक्रमन्द है। पर आफसोस, बार्डर के उस तरफ पूरे अवाम को हिन्दुस्तानियों की नेक नीयत से अन्जान रखा जा रहा है। खैर इन्सा-अल्लाह, पाकिस्तान की जनता जल्द ही इस हक़ीक़त से रू-ब-रू होगी।

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'जन्नत की डायरी' पढ़ते-पढ़ते मेजर जेनरल ताहिर की आँखों में खून उतर आया; डायरी बन्द किया, ऐसे घूरने लगा डायरी को जैसे हिन्दुस्तान के किसी मिसाइल स्टेशन को देख रहा हो रडार में। खुद पर क़ाबू पाया, फिर खुद ही मुस्कुरा उठे- 'हिन्दुस्तान की तरफ से पैग़ाम-ए-अमन की न जाने कितनी ही कोशिशें हमने बार्डर क्रास करने से पहले ही हवा में उड़ा दिया है, फिर ये तो पन्नों में क़ैद चन्द अल्फाज़ हैं। क्यों, क्या ख़्याल है आपका बिग्रेडियर साहब' 'डायरी में लिखी बातें हैं तो खतरनाक पर इससे हमारे सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा' 'सेहत पर फर्क नहीं पडे़गा? बिल्कुल ग़लत! इसे एक मामूली डायरी समझने की भूल मत करना। यह डायरी नहीं, हिन्दुस्तानियों के मन को पढ़ने-जानने का आईना है, अमन- वो-चैन के पैग़ाम से भरा बड़ा दस्तावेज है यह डायरी। इन्डिया के वज़ीर-ए-आजम व सदर-ए-जम्हूरिया के मुँह से निकले अमन-चैन

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की अपील को हम तो बनावटी कहकर खारिज कर द़ेते हैं, सियासत का हिस्सा बना डालते हैं, लेकिन इस डायरी में लिखी चन्द इबारतें इतनी वजनदार है कि हमारे महकमे की सारी ताकतें उसे शिकस्त नहीं दे सकती। पूरी डायरी को रहने दो, अगर सिर्फ निशानज़द हिस्सा ही पाकिस्तानी मीडिया ने अवाम के बीच परोस दिया तो! जानते हो इसका अन्जाम? क्यों कर्नल बरकत!'' - बोलते-बोलते जनरल ताहिर ने हिन्दुस्तान की तरफ मुँह कर लिया, मसले के तह पर उतरने के लिए । 'अपने मुल्क की अवाम हिन्दुस्तानियों के जरिये कही गयी इस तरह की चन्द बातों पर शायद ही यक़ीन करें' - कर्नल बरकत को फख्र रहा है, आईएसआई की लम्बी कामयाब पॉलिसी पर। 'कर्नल यू ऑर एब्स्यूलेटली रांग! क्या तुम्हें एहसास नहीं है, हमारी पैंसठ साल की पॉलिसी अब अवाम को ज्यादा वज़नी लगने लगा है। हमारे हुक्मरान तो पहले से ही वाकिफ है, कि हिन्दुस्तान हम पर कभी भी पहला अटैक नहीं करेगा; जनता को भी अगर पक्के तौर पर यक़ीन हो जाएगा कि इण्डिया हमारा दुश्मन नहीं दोस्त है, तो समझो हमारी क्या हालत होगी' सच ही जनरल ताहिर को आईएसआई में दूर की सोच रखने वाले अफसर के रूप में जाना जाता रहा है। 'जनता को अब तक जारी पॉलिसी पर कायम रखना जरूरी है, अदरवाइज़ मुल्क का जो मुँह अभी तक मगरिब की जानिब रहा है, उसे आहिस्ता-आहिस्ता मशरिक की जानिब घुमा देगी यह डायरी' ब्रिगेडियर अनवर डायरी में समाये जिन्न के अंजाम को भांप चुके थे।

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’ब्रिगेडियर साहब, जस्ट कम टु द प्वाइंट! जिस दिन पूरा मुल्क मान लेगा, कि हिन्दुस्तान हमारी खैरखाह चाहता है, पाकिस्तान के अन्दर इण्डिया के खिलाफ काम करने वाले सैकडों दफ़ातिर-अडडे हमें बन्द करने पडेंगे, फिर तो अमेरिका-चीन से मिलनेवाले लाखों डालर की इमदाद तो बन्द होगी ही होगी। हम-तुम अच्छी तरह जानते हैं, फौज के खुले बजट की बदौलत हमारे आफीसर्स दफ्तर से लेकर घर तक बादशाह है। बाकी बातों को छोड़ भी दो, खून में दौड़ रहे एन्टी इन्डियन जज्बे को तो नहीं छोड़ सकते न; हिन्दुस्तान से हज़ारों साल तक लड़ते रहने के जुनून में जीने का मजा ही कुछ और है जी’। मेजर जनरल ताहिर के चेहरे पर हल्की मुस्कान खिल गयी, इत्मीनान की मुस्कान।

’जन्नत की डायरी’ जब्त कर ली गई; पाकिस्तानियों के दिमाग में अड़सठ साल से उगाए गए जहन्नुम के खौफ को जि़न्दा रखने के लिए। आफताब को बैरंग लौट जाने का हुक्म जारी हुआ। बाघा बार्डर तक जाने के लिए उसे फौजी गाड़ी में बैठने का ईशारा किया गया। गाड़ी की ओर बढ़ते हुए आफताब के झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान की रेखाएँ उभर आयी थी और आँखों में इत्मीनान की झलक। जनरल ताहिर को समझते देर नहीं लगी, आफताब के अन्दर के बुलन्द हौसले और चेहरे की रौनक बयां कर रही है - डायरी में लिखी एक-एक बातों का खुद गवाह है, खुद जिया है और फिर लिखा है, घर लौटकर दुबारा इत्मीनान से ’जन्नत की डायरी’ लिख डालेगा....जनरल ताहिर को झटका सा लगा। पाकिस्तानी अवाम में जब-तब पैदा होते रहते जम्हुरियत की खुशबू में वहाँ की

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फौज का दम घुँटता रहा है, वाजिबही, आफताब के चेहरे पर चमकते कामयाबी के निशान उसे ललकारने लगा। फिर, उसके चेहरे में नफरत की लकींर खींचती गयी... स्साले बुढढे़ लोगों में तब्दीलीव की इतनी बेताबी है, फिर तो पूरे मुल्क को हिन्दुस्तान के करीब लाने में यंग पाकिस्तान को कितनी देर लगेगी। जनरल ताहिर ने गाड़ी के ड्राइवर को आँखों की गोलाई के घुमाव से साफ ईशारा किया ...

अलस्सुबह प्वांइट ग्यारह पर आफताब की लाश बॉर्डर के तार-बाड़ के करीब पड़ी थी। पाकिस्तानी अख़बारों में मोटे-मोटे लफज़ों में ख़बरो की सुर्खियाँ थी,’हिन्दुस्तानी फौज की गोलीबारी से एक बुजुर्ग की मौत’। हिन्दुस्तान के अखबारो में आफताब की शहादत कोई खबर नहीं बन पायी थी; शायद तारीख के पन्नो में ज़रूर जगह बना पायेगी। भले ही आफताब पाकिस्तान की गोली से शहीद हुआ हो, पर हक़ीक़त में साझी विरासत के आखिरी ’अमन के सफ़ीर’ हिन्दुस्तान की बोली पर कुर्बान हुआ था; तभी तो दोनों मुल्कों के बीच अमन की पैरोकारी करते रहने वाले एक छोटे अखबार ने हिम्मत जुटाकर, डर-डराकर छोटे कॉलम में खबर दी थी; अपने बचाव की गुंजाईस रखते हुए -’गांधी की गोली से अंतिम हिन्दुस्तानी हताहत’।