हिन्दू कौन? / कमलेश कमल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विश्व के सबसे प्राचीन धर्म 'हिंदू' के नाम की उत्पत्ति, इतिहास और प्रयोग को लेकर बहुधा स्पष्टता का अभाव दिखता है। जबकि 5000 वर्ष पूर्व किसी और धर्म का अस्तित्व ही नहीं मिलता, इस शब्द की उत्पत्ति को ही विधर्मियों द्वारा कई भ्रामक तथ्यों से जोड़ दिया गया। ऐसे में आवश्यकता है तार्किक रूप से सप्रमाण सत्य को स्थापित करने की।

इस पृष्ठभूमि में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न तो यही है कि "हिंदू कौन है" ? दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि हिंदू शब्द की उत्पत्ति कब हुई और कैसे हुई?

अभी हाल तक मार्क्सवादी इतिहासकारों ने यह प्रचारित-प्रसारित किया कि 'हिंदू' शब्द पूर्व-मध्यकाल में पहली बार प्रयुक्त हुआ जब अरबों ने 'सिंधु' को 'हिंदू' कहा क्योंकि वे 'स' को 'ह' उच्चारित कर देते हैं। उनका तर्क है कि इस तरह से सिंधु-प्रदेश को हिन्दू-प्रदेश और वहाँ रहने वाले को 'हिंदू' कहा लगा। मतलब यह कि यहाँ के लोग अपने आप को पहले से कुछ कहते ही नहीं थे, दूसरों ने हिंदू कह दिया, तो हिन्दू कहलाने लगे। अब इससे बेतुकी बात और क्या हो सकती है? भाई ईरानियों, अरबों के पूर्व हम स्वयं को क्या कहते थे और जो कहते थे उसे इनके द्वारा हिन्दू कहने पर क्यों छोड़ दिया? तार्किक रूप से देखें, तो इसका मतलब यह निकलता है कि उस ज़माने में जब रेडियो नहीं, टीवी नहीं, समाचार-पत्र, नहीं, इंटरनेट नहीं, संचार के साधन नहीं, तब भी दूर-दराज़ के गाँवों के लोग तक अपने आप को जो पहले से कहते थे, उसे छोड़कर हिन्दू कहने लगे। अतः, यह तर्क ध्वस्त होता है कि हिन्दू शब्द विदेशियों की देन है। सच यह है कि यहाँ के लोगों के लिए प्रमुखता से हिन्दू शब्द ही प्रयुक्त होता था।

राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति और इसके प्रयोग को लेकर अनेकानेक शोध किए और जो बात सामने आई वह यह कि हिंदू शब्द का प्रयोग बहुत पहले से होता रहा है, जिसके अनेकानेक प्रमाण भी मौजूद हैं। पारसियों के धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में हिंदू शब्द का प्रयोग मिलता है जिसका रचनाकाल 1000 ईसा-पूर्व है। वैसे, हिन्दू शब्द इससे भी बहुत पुराना है। हाँ, यह भी तथ्य है कि ईरानी भी 'स' को 'ह' करते थे, जैसे अवेस्ता में ही 'असुर' को 'अहुर' लिखा गया है। पर यह भी सच है कि संस्कृत को हंस्कृत कहीं नहीं लिखा गया है, न अवेस्ता में, न अरबी-फ़ारसी में। इसी तरह पाकिस्तान के सिंध को सिंध ही कहा गया, हिन्द नहीं।

ऐतिहासिक रूप में देखें, तो 310 ईसा-पूर्व के पहलवी अभिलेख में भी हिंदू शब्द का उल्लेख है। 485-465 ईसा-पूर्व में डेरियस के उत्तराधिकारी जेरेक्स के अभिलेख में भी 'हिंदू' शब्द है। इतना ही नहीं पाँचवी शताब्दी में भारत आए चीनी-यात्री फाह्यान और सातवीं शताब्दी में आए ह्वेनसांग ने अपने यात्रा-वृतान्तों में 'यिन्तु' अथवा 'ही-ए-न्तु' शब्द का जिक्र किया है, जोकि हिंदू शब्द का ही चीनी रूपांतरण है। इस संदर्भ में एक मत यह भी है कि चीन में इन्दु (चंद्रमा) को 'एन्तु' कहा जाता है और उन्होंने देखा कि हम ज्योतिष, नक्षत्र आदि के लिए चंद्रमा को मानते हैं, इसलिए उन्होंने हमें 'एन्तु' कहा। यह दूर की कौड़ी लगती है। यहाँ के लोग अपने आप को हिन्दू कहते थे, इसलिए उन्होंने ही-एन्तु कहा। लेकिन सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि हिन्दी शब्द भारतीय है और बहुत पहले से प्रयुक्त होता रहा है-तब से जब दावा करने वाली इन संस्कृतियों का प्रादुर्भाव तक नहीं हुआ था।

भाषा-विज्ञान की दृष्टि से देखें, तो भी सिंधु से हिंदू होना वैदिक-व्याकरण के अनुकूल ही है। वैदिक व्याकरण में शब्द की उत्पत्ति का आधार ध्वनि विज्ञान है। इस ध्वनि विज्ञान में 'स' का 'ह' और 'ह' का 'स' परिवर्तन दिखता है। तथ्य है कि सरिता शब्द की उत्पत्ति 'हरित' शब्द से हुई है। निघंटु का दृष्टान्त है-"सरितों हरितो भवंति।" लिखा है। इतना ही नहीं सरस्वती को 'हरस्वती' कई जगह लिखा गया है। ऋग्वेद में भी सरस्वती को हरस्वती लिखा गया है। शब्दकल्पद्रुम में भी "हिन्दुहिंदूश्च हिंदवः" मिलता है। अगर अफगानिस्तान आदि क्षेत्र के लोग हिंदुकुश, आदि शब्द का प्रयोग करते थे, तो वहाँ आरंभ में अरबी या फ़ारसी नहीं लौकिक संस्कृत आदि ही बोली जाती थी। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि महान संस्कृत वैयाकरण पाणिनि कंधार (अफ़गानिस्तान) के ही थे।

अब प्रश्न है कि हिंदू कौन है? हिन्दू का क्या अर्थ है? तो इसका उत्तर है-"हीनम नाशयति इति हिन्दू।" जो आपको सीमित करता है, बाँधता है, हीनता का बोध देता है, उससे मुक्त होना है। हिंदू होने का अर्थ ही है कि आपने अपनी हीनताओं को विनष्ट कर दिया है, आप अमृत के पुत्र हो गए हैं-अमृतस्य पुत्र: !

हाँ, इसके अलावा आर्य (श्रेष्ठ) का प्रयोग होता था जो हिन्दू के अर्थ का ही पर्यायवाची है। एक अन्य शब्द 'सनातनी' का भी प्रयोग होता रहा जिसका अर्थ भी वही है-जो सदा रहे, हीन न हो, नष्ट न हो।

बृहस्पति आगम में तो हिंदुस्तान की परिभाषा तक दी गई है जिसे उन मार्क्सवादी इतिहासकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो इसे अरबों की देन बताते रहे-"हिमालयात् समारंभ्य भावत् इन्दु सरोवरम्। तद्देव निर्मितम् देशम् हिंदुस्तानम् प्रचक्षते॥"-इसका अर्थ है-हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव-निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है। यह एक बड़ा प्रमाण है।

वैसे, इसी आगम के एक श्लोक में वर्णित है:-

ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:

गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।

हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।

इसका अर्थ भी हर हिन्दू को समझना चाहिए- 'ॐकार' जिसका मूल मंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है तथा हिंसा कि जो निंदा करता है, वह हिन्दू है। यह है हिन्दू धर्म जो हिंसा में विश्वास नहीं रखता। यह अलग बात है जिन अरबी-फ़ारसी लुटेरों ने हमें लूटा उन्होंने ही हिन्दू का विकृत अर्थ अपने शब्दकोशों में दिया। ग़यास नामी कोश में हिन्दू का अर्थ जहाँ चोर, डाकू, रहजन (लुटेरा) , ग़ुलाम आदि दिया गया है, वहीं चमन बेनज़ीर में हिन्दू का अर्थ काफ़िर, रहजन आदि दिया गया है। यह ऐसा ही है कि चोरी भी करे और गाल भी बजावे। सनद रहे, हम हीन नहीं है, इसलिए हिन्दू हैं।

इससे स्पष्ट है कि 'हिंदू' शब्द अरबों की देन नहीं है, अपितु अगर अरबी और फ़ारसी में भी 'स' का 'ह' होता है, तो यह संस्कृत का प्रभाव है। भारोपीय परिवार की अधिकांश भाषाओं के मूल में संस्कृत है, यह स्थापित तथ्य है। वामपंथी इतिहासकारों ने इस तथ्य की अपेक्षा कि और हिंदू शब्द को ईरानियों, अरबों की देन बता दिया।

आप जिसे भजते हैं, वही हो जाते हैं। सोहम! तो हिंदू जिन देवी-देवताओं को भजते हैं, उनके गुणों को ही अपने में अंगीकार करते हैं। ऐसे में हिंदू हीन कैसे हो सकता है? राम की संतान, कृष्ण की संतान, शिव की संतान 'हीनता-बोध' से ग्रस्त कैसे रह सकती है? अस्तु, स्पष्ट है कि जो हीनता त्याग दे, वह हिंदू। जो क्षुद्रताओं का त्याग करे, वह हिंदू। जो उदात्त हो, वह हिन्दू। जो जंजीरों में जकड़ा न हो, वह हिंदू। अब प्रश्न उठता है कि इस हीनता का नाश कैसे होगा? इसका उत्तर है अज्ञान को मिटाकर। न ही ज्ञानेनसदृशं पवित्रमिह विद्यते। ज्ञान से बढ़कर पवित्र और कुछ भी नहीं। अतः, उस ज्ञान की अग्नि से अज्ञान को हटाकर हीनता का त्याग करना है। इसका अर्थ है-संसार नहीं त्यागना है, संसार का मोह त्यागना है, भोग नहीं त्यागना है, वासना त्यागना है, त्याग के साथ भोग करना है-"तेन त्यक्तेन भुंजीथा:।"

निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि "हीनम नाशयति इति हिन्दू" ही हिन्दू का निहितार्थ भी है और ध्येय भी।