हिसाब / लतिका बत्रा

Gadya Kosh से
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सुबह सुबह कितना काम रहता है। दोनों बच्चों को स्कूल जाने में देर हो रही थी। कुछ ही देर में पति के दफ़्तर जाने का समय भी हो जाये गा। ना तो अभी तक नाश्ता पूरी तरह से तैयार था ना ही टिफ़िन पैक हुये थे। श्वेता हड़बड़ाई हुई जल्दी-जल्दी काम निबटा रहा थी। सारी किचन फैली पड़ी थी। रात के झूठे बर्तन भी ऐसे ही सिंक में पड़े थे। खाना बनाते-बनाते श्वेता को कभी कढछी धोनी पड़ रही थी तो कभी फ्राई पेन। रसोई का काम संभालने वाली उस की सहायिका कमला आज बिना बताये छुट्टी मार गई थी। श्वेता के हाथ जितनी शीघ्रता से काम निबटा रहे थे, उतनी ही तेज़ी से मन में उमड़ घुमड़ भी चल रही थी। वह सोच रही थी कि एक दिन कमला ना आये तो पता चलती है उस की अहमियत। सुबह के सारे काम कैसे निबटा देती है वह, पता ही नहीं चलता। कहने को सारा लंच और नाश्ता मैं बनाती हूँ पर उस के पीछे कमला का कितना बड़ा योगदान है ये तो तभी पता चलता है जब वह छुट्टी पर चली जाती है। प्याज़ लहसुन छीलना, टमाटर धो कर काट देना, मटर छील देना, सब्ज़ी काटना, दाल चावल धो देना, आटा गूँथना जैसे असंख्य काम जो उस की उपस्थिति में नगण्य से लगते थे, उस के अनुपस्थित होते ही विकराल चुनौती बन जाते है। आज तो बच्चों को बस ब्रैड आमलेट से ही काम चलाना हो गा। उस ने घड़ी की और देखते हुये सोचा। शीघ्रता से नाश्ता बना कर उसने कोल्ड कॉफ़ी भी बना डाली। तभी डोर बैल बजी।

"हाय। कमला तो नहीं आ गई। मीनू, दरवाज़ा खोल तो ज़रा।" उस ने अपनी बेटी को आवाज़ दी।

कमला नहीं, बाहर रामवती खड़ी थी। रामवती उस के यहाँ कपड़े धोने और साफ़ सफ़ाई का काम करती थी। थोड़ी अक्खड स्वभाव की थी, पर काम अच्छा करती थी। आते ही रामवती ने ज़ोर से उसे पुकारा, "भाभी, जल्दी से डस्टिंग निबटा लो अपनी। तब तक मैं कपड़ों धो लूँ। जब मैं झाड़ूँ लगाऊँ, तो बीच में आ कर झाड़ पौंच ना शुरू कर देना। मुझे बहुत देर हो जाती है। पीछे-पीछे घूम कर आज कल तुम मेरा बड़ा दिमाग़ ख़राब करती हो।"

झाड़ पौंच करने वाली लड़की गुलाबी आज कल छुट्टी पर है। उसे वायरल हो गया है। तो आज कल डस्टिंग करने की ज़िम्मेदारी भी श्वेता पर ही थी। उस का दिमाग़ वैसे ही घूमा हुआ था आज सुबह से। पर झल्लाई हुई श्वेता ने इस समय अपनी ज़ुबान बंद रखने में ही अपनी भलाई समझी। रामवती की चिरौरी-सी करती हुई बोली " रामवती, देख ना आज कमला आई ही नहीं है। सारे बर्तन फैले पड़े है और खाना भी तैयार नहीं है। तू प्लीज़

मेरी मदद कर ना। नहीं तो सब भूखे ही चले जायें गे घर से। "

रामवती कुछ ना नूकुर करती, उस से पहले ही श्वेता ने कहा, "रामवती ऐसा कर, तू कपड़े मत धो आज। कल मैं तेरे साथ मिल कर मशीन लगा कर सारे कपड़े धुलवा दूँगी, आ जा जल्दी से किचन में।"

राम वती को उस पर तरस आ ही गया। वो कपड़े छोड़ कर किचन में आ गई। सारा काम समय से निबट गया। बच्चे स्कूल और पति दफ़्तर चलें गये। अब श्वेता ने चैन की साँस ली और अपने लिये नाश्ता चाय बनाने लगी।

आज इसे भी दे देती हूँ चाय नाश्ता। श्वेता ने मन में सोचा और अपने लिये चढ़ाई चाय में थोड़ा और पानी दूध, चीनी पत्ती डाल दी। 'खाने के लिये इसे क्या दूँ।' ये सोचते हुये श्वेता के हाथ बिस्कुट नमकीन के डिब्बे खोजने के लिये उठे। आज इसी की वजह से सारा काम समय से निबट गया, नहीं तो दोपहर तक किचन में ही जुटे रहना पड़ता।

श्वेता का ह्रदय रामवती के प्रति कृतज्ञ होने लगा।

'नहीं, बिस्कुट नहीं। आज इसे भी नाश्ता ही बना देती हूँ।'

श्वेता ने जल्दी से थोड़ा-सा प्याज़ धनिया हरी मिर्च काटी और ट्रे में से एक अंडा उठा कर तोड़ा और कटोरे में डाला। दूसरा अंडा उठाने के लिये उस का हाथ पुन: ट्रे की ओर बढ़ा तो उस के दिमाग़ ने तुरंत उसे रोक दिया। 'एक ही बहुत है। प्याज़ टमाटर भी तो डाल रही हूँ। एक अंडेका अच्छा ख़ासा बन जाता है आमलेट। साथ में ब्रैड पीस भी तो हैं।' श्वेता का मन कृपण होने लगा। वह ये बात खुद से भी छिपाते हुये मन ही मन स्वंय को सफ़ाई देने लगी। अंडे कितने मंहगें हो गये है। इतनी मंहगाईमें रोजरोज कामवाली बाइयों को नाश्ता चाय देना संभव ही नहीं है। आज तो ये रामवती अकेली है तो चलो दे भी रही हूँ इसे, रोज तीन-तीन बाइयाँ होती है। सब को कौन दे नाश्ता चाय।

"एक हो तो दे भी दें" , तीन-तीन को कौन दे। "

ये क्या सोच बैठी थी श्वेता। उस के हाथ से बर्तन छूटते-छूटते बचा। अतीत के विवर से, मेघ गर्जन के समान ये शब्द—"एक हो तो दे भी दें, तीन-तीन को कौन दे"

एक गूँज के समान प्रतिध्वनित हो कर श्वेता के गिर्द घूमने लगे। ये एक हताश झुँझलाया हुआ पुरूष स्वर था। उस के अपने पिता का स्वर। हू ब हू यही शब्द तो कहे थे पिता ने बरसों पहले।

"एक हो तो दे भी दे, तीन-तीन को कौन दे।"

यकयक एक जलता हुआ अंगारा जैसे छू गया श्वेता को। उस के स्मृतिपटल पर अतीत का वह पन्ना लहरा गया जब उसने अपने बाबू जी के मुँह से पहली बार ये शब्द सुने थे। ये ही तो वह कुछ शब्द थे जिन के कारण श्वेता और उस के बाबू जी के आपसी स्नेह और दुलार से भरे रिश्ते में कटुता का ज़हर घुल गया था।

श्वेता अपने माँ बाबू जी की पाँच संतानों में चौथे नंबर की थी। तीन बहनें उस से बड़ी थी और एक भाई उस से छोटा। श्वेता जब पैदा हुई थी तो सब को बड़ा आघात लगा था। तीन लड़कियाँ पहले ही थी एक और आ गई। किन्तु वह बाबु जी ही थे जिन्हों ने इस अनचाही नवजात कन्या को सब से पहले गोद में उठाया था। पता नहीं उसके नन्हें से चेहरे में क्या ऐसा देखा था बाबू जी ने कि उन्हों ने पुत्र ना पैदा कर पाने के ग़म में रोती कलपती पत्नी को समझाया था "सावित्री, देख इस कन्या का मुख। बड़ी भाग्य शाली है ये कन्या। देखना अपने पीछे ये हमारे कुलदीप को ले कर आये गी। विश्वास रख।" बड़ी कठिनाई से माँ स्वंय को तैयार कर पाई थी पहली बार श्वेता को सीने से लगाने को।

जब माँ पाँचवी बार गर्भ वती हुई तो बाबू जी पता नहीं किस ईश्वरीय संकेत को पा कर बिलकुल निश्चिंत व शांत थे। पर माँ पूरा समय बहुत उद्विग्न और अशांत थी। इस बार भी बेटी हो गई तो क्या होगा? इस दुश्चिन्ता ने उन की रातों की नींद उड़ा रखी थी। बाबू जी का विश्वास काम कर गया इस बार। माँ ने पुत्र कोजन्म दिया और श्वेता के भाग्यशाली कन्या होने पर पक्की मोहर लग गई। पिता कि लाड़ली अब माँ की दुलारी भी बन गई। गोरी चिट्टी श्वेता यूँ भी अपनी तीनों बड़ी बहनों व माँ बाबू जी से नितांत अलग थी। गोरा रंग, भूरी आँखें

और घुंघराले बालों वाली नन्ही-सी श्वेता बिलकुल अपनी दादी की प्रतिकृति थी। श्वेता के प्रति बाबू जी के अतिरिक्त स्नेह का ये भी एक बहुत बड़ा कारण था। पुत्र के जन्म के बाद से ही माँ लगातार अस्वस्थ थी। पूरे गर्भकाल में, पुत्रकामना के लिये रखे गये अनेकानेक व्रत उपवासों ने और चिन्ता ने उन के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डाला था। माँ काफ़ी कमज़ोर हो गई थी। अतः दो साल की नन्ही श्वेता तथा नवजात भाई को समंभालने की ज़िम्मेदारी तेरहा बरस की सब से बड़ी बेटी मोना के कंधों पर आ गई थी, वही दूसरे नं की सोनम जो उस समय मात्र ग्याहरां वर्ष की थी, घर का काम काज निबटाने में बड़ी बहन की सहायता में जुटी रहती। 6साल की, अबोध बालिका अर्पिता हर समय माँ को बिस्तर पर लेटे देख कर सहमी-सी रहती। बाबू जी माँ का पूरा ध्यान रखते। इन सब के अथक प्रयासों और पुत्र प्राप्ति की प्रसन्नता ने माँ को शीघ्र ही उबार लिया और घर धीरे-धीरे अपने पुराने ढर्रे पर लौटने लगा। किन्तु मोना और सोनम को माँ की अस्वस्थता का ये काल सदा-सदा के लिये अल्हड़ बचपन की दहलीज़ से खींच कर इतना बड़ा बना गया था कि वे दोनों फिर कभी गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों से मुहँ ना मोड़ सकी। दोंनो भरसक माँ का हाथ बँटाती और छोटे भाई बहनों को भी संभालती। इतनी बड़ी गृहस्थी और बाबू जी की सिमित आय के चलते उपजी आर्थिक तंगी को भी वे दोनों समझने लगी थी।

बाबू जी के लिये उन के बच्चे कभी बोझ नहीं थे। धन की कमी की पूर्ति वे अपने प्यार व दुलार से करते। हाथ कितना भी तंग क्यों ना हो, ऐसा एक दिन भी ना होता था कि दफ़्तर से लौटते समय उन के हाथ ख़ाली हों। रूमाल में कभी खील बतासे बँधे होते तो कभी लेमन चूस या चना मुरमरा। इस किंचित-सी भेंट को पा कर बच्चों के चेहरे पर छा जाने वाला उल्लास और उन की किल्लकारियाँ ही बाबू जी की ताक़त वा हिम्मत थी। बच्चों के खिले चेहरे देख कर उन की दिन भर की थकान पल भर में तिरोहित हो जाती। दोनों बड़ी लड़कियों के लिये बेशक ये वस्तुयें उतनी अहमियत नहीं रखती थी, पर उन में घुला बाबु जी स्नेह उन के लिये भी अनमोल था। हर रोज़ शाम को बाबू जी की साईकिल की घंटी सुनते ही नन्ही श्वेता और मोहित दौड़ पड़ते दरवाज़ों की ओर। चिटकनी तक हाथ पहुँचता नहीं था तो जाली के दरवाज़े से मुँह सटा कर दोनों दरवाज़ा पीटने लगते, ' बाबू जी आ गये। बाबू जी आ गये। " दरवाज़ा खुलते हीदोनों मचलने लगते गोदी में चढ़ने को।

रात को खाने से पहले, रोज़ बाबू जी की पाठशाला लगती। चारों लड़कियाँ अपनो बस्ते किताबें ले कर उन्हें घेर कर बैठ जाती। मोहित उन की गोद में आ चढ़ता। जब तक माँ रात के भोजन की तैयारी करती बाबू जी बच्चों को तरह-तरह के क़िस्से कहानियाँ सुनाते, बच्चों से उनके स्कूल के क़िस्से, चुटकुले, मस्ती और शरारतों की बातें सुनते। पढ़ाई लिखाई का लेखा जोखा लेते। किसी बच्चे को डाँटते तो किसी को मिलती शाबाशी। बाबू जी ने शुरू से ही ऐसा अभ्यास डाला था कि बच्चे अपने दिल की बात उन से खुल कर कह सकें। घर में आर्थिक तंगी हो, पर परिवार मेआपसी सामंजस्य और प्रेम हो तो कैसे गृहस्थी सुचारू रूप से चलता है, श्वेता का परिवार इस का सटीक उदहारण था। खाना परोसते समय माँ बाबू जी के चेहरे पर थकान देख लेती और अक्सर उन्हें टोकती और दफ़्तर से आ कर कुछ देर आराम कर लेने को कहती। पर बाबू जी अपनी दिनचर्या का ये सब से ख़ूबसूरत पल गँवाना नहीं चाहते थे। वह हंस कर माँ को कहते, "सावित्री, ये लड़कियाँ नहीं, चिड़ियाँ हैं। वह दिन दूर नहीं जब ये एक-एक कर उड़ जायेंगी। फिर मोहित के ब्याह के बाद तुम्हारी बहु गृहस्थी संभाले गी, मैं और तुम आराम ही तो करें गें तब। मोना और सोनम बाबू जी की बात का अर्थ समझ कर, नज़रें झुकाये, शर्माती मुस्कुराती रहती। पर दबंग स्वभाव की अर्पिता बाबू जी से उलझ जाती। कहती," ना जी, हमें नहीं जाना कहीं भी उड़ कर। अपन तो यहींठीक हैं। "

बाबू जी उसे चिढ़ाते हुये कहते, "अच्छा, उड़ कर नहीं, तो डोली में बैठ कर तो जाओगी ना।"

"ससुराल। ना बाबा ना। वहाँ तो सास होगी। चुल्हा चौका करना पड़े गा। उपर से सास के ताने सुनने पड़ेंगे। देखते नहीं हो टी वी में। सासें कैसे काम करवाती है और हर समयों फटकारती रहती है।"

अर्पिता मुँह बिचकाती।

सोनम से रहा नहीं जाता। वह झट से बोल उठती, "अरे। तू ताने सुने गी किसी के भी। ये तो खुद ही सास को चक्करघिन्नी-सा घूमा देगी।"

सब हंस पड़ते। माँ सोनम के सिर पर प्यार से चपत लगाते हुये कहती, "ना ना बिट्टो। ऐसे नहीं कहते।"

छोटी-सी श्वेता को ये हँसी ठ्टठा बिलकुल समझ नहीं आता। उसे तो बसएक ही बात समझ आती कि वह एक चिड़िया है। बाबूजी की चिड़िया। उसे फुर्र से उड़ जाना है। वह तुरंत उन की गोद से उतरती और दोंनों बाँहें फैलाकर पूरे कमरे में गोल-गोल चक्कर काटती। "देखो माँ, देखो बाबू जी मैं चिड़िया बन गई। ये देखो मेरे पंख, अब मैं उड़ जाऊँ गी।" बाबू जी प्यार से उसे गोद में ले लेते और सीने से लगा कर कहते, "हाँ मेरी रानी चिड़िया उड़ जाये गी।"

श्वेता बाबू जी की बाँहों में घिरी, सो जाती। सपने में वह स्वय को चिड़ियों के झुंड के साथ विशाल नीले गगन में किलोल करता पाती। अगले दिन उठ कर वह सब से पहले अपने पंख खोजती। "माँ मेरे पंख कहाँ गये?"

मेरी रानी चिड़िया के पंख बाबू जी ने संभाल कर रखे है। जब उड़ना होगा तो दे देंगे। माँ कहती।

पर रानी चिड़िया को उड़ने के लिये बाबू जी से पंख माँगने की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। परिस्थितियों ने ऐसा मोड़ लिया कि कल्पनाओं के पंख धू-धू कर जल गये। जिन विशाल वट वृक्ष से बाबू जी को वह अपना सम्बल मान कर निर्द्वद्व किलोल करती डोलने का साहस कर पाती थी, उन के एक वाक्य ने मानों उस के पंख क़तर कर कठोर धरती पर ला पटका था। सब से बुरी बात ये थी कि किसी को उस की पीड़ा का एहसास तक नहीं था।

ये तब की बात है जब अर्पिता का विवाह हुये कुछ ही महीने हुये थे। इस विवाह ने बाबू जी को आर्थिक, मानसिक और शारीरिक, तीनों तरह से तोड़ दिया था। दोनों बड़ी लड़कियों के विवाह कैसे हो गये, पता भी नहीं चला था। क्योंकि मोना ने घर के हालात समझते हुये, बहुत पहले से ही अपनी पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना आरम्भ कर दिया था। अपनी बी एड की पूरी पढ़ाई भी अपने दम पर की और शादी होने तक बच्चों को पढ़ाने का सिलसिला जारी रहा था। सोनम को सिलाई कढ़ाई का शौक़ था। उस ने अपनी स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ एक सरकारी सिलाई कला केन्द्र में प्रवेश ले लिया था। शुरूआत उसने अपनी बहनों के सूट फ्राकें सिलने से की। फिर मुहल्ले से उसे सिलाई का काम मिलने लगा। धीरे-धीरे काम बढ़ने लगा और कमाई भी। सोनम ने अब दो कारीगर भी रख लिये थे। अब वह बुटीक वाली सोनम कहलाती थी। इतनी योग्य और मेहनती बेटियों के स्वाभिमानी पिता ने उन की कमाई का एक रुपया भी कभी घर पर ख़र्च नहीं क्या था। सारा धन वह उन के विवाह के लिये जोड़ते रहे थे। तभी तो दोनों के विवाह बड़े अच्छे से निबट गये थे। सोनम का ससुराल दूसरे शहर में था इस लिये उस के लिये विवाह के बाद बुटीक चलाना अब संभव नहीं था। जमा जमाया काम बंद करना भी अक़्लमंदी नहीं थी। श्वेता अभी छोटी थी और माँ को इस काम की कुछ समझ ही नहीं थी। बची अर्पिता, तो उस ने भी साफ़ मना कर दिया कि उसके बस का नहीं है बुटीक चलाना। वस्तुतः उसके बस का तो कुछ भी नहीं था करना। ना तो उसने कभी घर के किसी काम में हाथ बँटाया था ना बाहर के। यहाँ तक की पढ़ाई लिखाई में भी दिल नहीं लगता था उस का। उसका सारा ध्यान बस सजने सँवरने, फ़िल्मी पत्रिकाये पढ़ने, सहेलियों के साथ गप्पें मारने में ही था। बारहवीं कक्षा जैसे तैसे पास कर के वह तो आगे पढ़ना ही नहीं चाहती थी, पर बाबू जी के डर से उसने प्राईवेट कॉलेज में प्रवेश ले लिया था। जब दो साल एक ही कक्षा में फ़ेल हुई तो माँ ने बड़ी मिन्नते और हाथ पैर जोड़ कर बाबू जी को मना लिया कि अर्पिता का विवाह कर दिया जाये।

अब अर्पिता के विवाह की चिन्ता में बाबू जी के माथे की रेखायें गहराने लगी थी। बुटीक की कमाई बंद होने से परिवार को प्रत्क्षयतः तो कोई अंत नहीं पड़ा था क्योंकि वहाँ से अर्जित धन को तो बाबूजी ने बड़े से बड़े पारिवारिक संकट में भी नहीं छुआ था। घर तो तब भी उन की कमाई से ही चलता था और अब भी। पर अब उन्हें अपनी मुट्ठी भर आय से अर्पिता के विवाह के लिये धन भी जोड़ना था। श्वेता कि पढ़ाई की भी चिन्ता थी उन्हें। वह जानते थे कि श्वेता मेडिकल की तैयारी करना चाहती है। डॉक्टर बनना चाहती है। यहाँ हालात ये थे कि खाने

को ही पूरा नहीं पड़ता था। अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा ना कर पा सकने की हताशा उन्हें खाये जा रही थी। निराशा और हार के एहसास ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया था। इसी उहापोह में अर्पिता के लिये एक बड़ा अच्छा रिश्ता आया। घर बार बहुत अच्छा था और लड़का भी बहुत अच्छी सरकारी नौकरी पर लगा था। सब से बड़ी बात कि उन्हों ने खुद आगे बढ़ कर ये रिश्ता माँगा था। इन्कार की कोई वजह ही नहीं बनती थी। बाबू जी ने अपनी दोनों बड़ी बेटियों और दामादों से भी सलाह की। सब की यही राय थी कि इस रिश्ते को छोड़ना समझदारी नहीं है। अर्पिता का रिश्ता पक्का होगया। जैसे-जैसे विवाह का दिन निकट आ रहा था माँ बाबूजी की बेचैनी बढ़ रही थी। कितनी तैयारियाँ करनी थी। कपड़े ज़ेवर, लेन देन, बारात का स्वागत, कैसे होगा ये सब। अंततः बाबू जी को वही करना पड़ा जो वह नहीं करना चाहते थे। उन्हें उधार लेना पड़ा घर गिरवी रख कर। विवाह अच्छे से निबट गया। अर्पिता ससुराल चली गई। पीछे छोड़ गई अन्त हीन चिन्ताओं के जाल जिन में फँसे माँ बाबूजी जितना छूटने की कोशिश करते और उलझते जाते।

अब बात बेबात बाबू जी झुंझला जाते थे। क्रोध में आ कर बेवजह माँ पर चिल्लाते रहते। बाबू जी की पाठशाला तो कब की छिन्न भिन्न हो चुकी थी। मोहित और श्वेता बाबू जी का खिन्न मूड देख कर इधर उधर छिपते फिरते थे। मोहित जैसे अचानक से बड़ा हो गया था। उसकी रूचियाँ और व्यवहार बदल रहे थे। घर का पूरा माहौल ही बदल गया था। क़र्ज़ा उतारने को लिये बाबू जी ने पार्ट टाईम नौकरी पकड़ ली थी। अब वह पाँच बजे अपने दफ़्तर से निकलते और साडे पाँच बजे तक दूसरी नौकरी पर पहुँच जाते। वहाँ वे रात के नौ बजे तक ड्यूटी करते। उन की साईकिल का स्थान एक पुराने दो पहिया स्कूटर ने ले लिया था। ताकि एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचने में समय व्यर्थ ना हो। माँ ने भी घर पर यथा संभव कटौतियाँ करनी आरम्भ कर दी थी। इतना सब होने के बाद भी, बाबू जी रात को घर लौटते समय पौटली में कुछ ना कुछ बँधवा कर लाते। पुरानी आदत थी। रोज़ रात जब वे घर लौटते तो स्कूटर काहार्न सुनते ही श्वेता दरवाज़ा खोल देती। पोटली स्कूटर की डिक्की में रखी होती। बाबू जी जब स्वंय बच्चों की चिल्ल पौं के बीच खड़े हो कर मिठाई बाटते थे, वह दिन तो कब के हवा हुये। वह अब श्वेता कि ओर चाबी उछाल देते। यंत्रवत श्वेता डिक्की खोल कर पोटली निकाल लेती, निस्संग भाव से भीतर रख देती। उस पोटली में से रस तो कब का समाप्त हो चुका था, अब पेट्रोल की गंध भी बस गई थी। श्वेता को उबकाई आने लगती। माँ कई बार इन उल जलूल चीज़ों पर पैसे बरबाद करने पर बाबू जा से नाराज़ भी हो जाती पर बाबू जी की पुरानी आदत छूटती ही नहीं थी।

श्वेता बहुत गुमसुम रहने लगी थी। घर के जो हालात थे, उसे नहीं लगता था कि वह मेडिकल में प्रवेश ले पाये गी। उस की कक्षा कि लगभग सभी छात्राओं ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा कि तैयारी के लिये कोचिंग आरंभ कर दी थी। श्वेता इतनी मोटी फ़ीस भर पाने में असमर्थ थी। पर उस ने हार नहीं मानी। वह अपनी सहेलियों से नोट्स ले कर बड़ी मेहनत से परीक्षा कि तैयारी कर रही थी। पर भीतर ही भीतर कहीं उसे अपने डॉ बनने के सपने धराशायी होते भी दिख रहे थे। धन का अभाव उस के भीतर आक्रोश और अवसाद बन का पनप रहा था। काश उस के बाबू जी ने अपनी बेटियों के विवाह के अतिरिक्त कभी उन के उज्ज्वल भविष्य, व उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के बारे में भी सोचा होता। उसे याद आता, जब बाबू जी सब बच्चों को बिठा कर स्वंय पढ़ाते थे तो भी उन की वार्ता का अन्तिम चरण बेटियों के विवाह से ही जुड़ा होता था। श्वेता अपने भीतर एक अधूरे सपने को पालती पोसती विचित्र-सी छटपटाहट से घिरी रहती।

मार्च का महीना था। होली आने वाली थी। अर्पिता कि अपने ससुराल में ये पहली होली थी। उनके यहांरिवाज था कि होली पर बहु के मायके से नेग आता है। बेटी दामाद व सास ससुर के कपड़े, फल मिठाई नगदी और जो कुछ भी वह अपनी तरफ़ से देना चाहें। अर्पिता ने फ़ोन कर ये सब माँ को बताया और साथ ही ये भी ताक़ीद कर दी कि ", माँ सामान ढंग का भेजना, ससुराल में मेरी नाक ना कटवा देना।" श्वेता के यहाँ तो ऐसा कोई रिवाज था नहीं। दोनों बड़ी बेटियों के ससुराल वालों ने भी कभी ऐसा माँग नहीं रखी थी। पर अब जब इन लोगों ने स्वय आगे बढ़ कर माँग रखी है तो पूरी तो करनी ही पड़े गी। इस आकस्मिक व आनापेक्षित ख़र्च से निबटने के लिये पति को पुन: क़र्ज़ उठाना होगा ये माँ जानती थी। पर उस की चिंता का एक कारण और भी था। वे अपनी बड़ी बेटियों के बारे में सोच रही थी। माना कि उन के ससुराल से कभी कोई मांग नहीं आई थी, पर मायेके से, अपनी ओर से आगे बढ़कर कभी कुछ भेजा गया हो उनके ससुराल, ऐसा कभी नहीं हुआ था। पता नहीं दोनों बेटियाँ कैसे पर्दे ढकती होगी अपने मायके के। माँ उधेड़ बुन में थी कि कैसे वह बाबू जी के सामने अर्पिता के ससुराल वालों की माँगे रखेगी। साथ ही मोना सोनम के लिये भी कुछ सामान, फल मिठाई आदी भेजने होंगे। एक को दें और दूसरी बेटियों को ना दें, ये बात माँ के गले से नहीं उतर रही थी। रोज़ की तरह जब बाबू जी जब घर लौटे तो श्वेता ने दरवाज़ा खोला और उन के लिये नींबू पानी बना लाई। माँ ने हिम्मत बटोर कर बात शुरू की।

"सुनिये, आज अर्पिता का फ़ोन आया था।"

"अच्छा, सब ठीक है उन के वहाँ" बाबू जी ने पूछा।

"हाँ सब ठीक है।" माँ बोली "वह कह रही थी कि होली आ रही है, तो उन के वहाँ कुछ नेग भेजना होगा। फल मिठाई कपड़े वगैहरा।"

"ये कौन-सा नया रिवाज है।" बाबू जी बौखला गये।

"उन्हों ने माँगा है तो देना तो पड़े गा" माँ ठंडी साँस भर कर चुप हो गई।

भीतर ही भीतर बाबु जी भी जानते थे कि माँगा है तो देना ही पड़ेगा। उनकी पेशानी पर चिन्ता कि रेखा कुछ और गहरी हो गई थी। तभी माँ ने अपने मन उहापोह भी खोल कर सामने रख दी।

"सुनिये, अर्पिता को देंगे तो बाक़ी दोनों बच्चियों के घर भी कुछ भेजना चाहिए।" माँ ने डरते-डरते कहा।

पहले से ही बौखलाये बाबू जी आवाक रह गये। माँ की बात सुन कर उन के पैरों के नीचे से ज़मीन ही सरक गई।

कहाँ तो एक बेटी को निबटाने का आसरा नहीं और माँ है कि बाक़ी दोनों का रोना ले कर बैठ गई थी। बाबू जी के ग़ुस्से का पारावार ना रहा।

"मोहित की माँ।" बाबू जी ग़ुस्से से चिल्लाये।

ग़ुस्से में वह माँ को नाम से नहीं बुलाते थे, मोहित की माँ ही कह कर बुलाते थे।

"मोहित की माँ! मैंने बेटियों को पढ़ाया लिखाया, पाल पोस कर बड़ा किया इतना पैसा ख़र्च कर उन का ब्याह किया, बस मेरी ज़िम्मेदारी ख़त्म। कह दो अर्पिता से हम नहीं कर सकते उस के ससुराल वालों की माँगें और रही बात मोना और सोनम की, तो तुम आगे बढ़ कर नये-नये रीति रिवाज ना शुरू करो।"

श्वेता डरी सहमी-सी एक कोने में दुबकी, माँ बाबू जी की सारी बातें सुन रही थी। वो बाबू जी की सारी बातों से सहमत थी। आज एक माँग पूरी करें गे तो कल दूसरी माँग उठेगी। बेचारे बाबू जी कहाँ तक पूरी करते रहेंगे इस तरह की जायज़ नाजायज़ माँगें। श्वेता का ह्रदय बाबू जी की बेबसी और लाचारी देख कर द्रवित हो उठा। अपनी पढ़ाई को ले कर उस के मन में बाबू जी के लिये जितना भी रोष था, उसे इस पल उपजी करुणा ने ढक लिया था। पर तभी बाबू जी के अगले ही वाक्य ने श्वेता के कानों में पिघला हुआ शीशा उँडेल दिया—

"एक हो तो दे भी दें, तीन-तीन को कौन दे।"

उस के बाद एक गुंजती हुई-सी आवाज़ ने रही सही कसर भी पूरी कर दी।

"अभी तो चौथी भी बैठी है। उसे भी तो निबटाना है।"

ये कह कर बाबू जी ने अपना वाक्य ही नहीं समाप्त किया, श्वेता के पूरे अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया था।

उसे यक़ीन नहीं हो रहा था अपने कानों पर कि ये शब्द उसके बाबू ने कहे हैं।

"एक हो तो दे भी दें, तीन-तीन को कौन दें।"

"अभी तो चौथी भी बैठी है। उसे भी तो निबटाना है।"

तो बेटियाँ एक बोझ भर थी बाबू जी के लिये? आजतक जो लाड़ प्यार उन्हों ने दिया वह दिखावा मात्र था। इतना बड़ा दोगला पन। ऐसी दोहरी मानसिकता। एक चोट पड़ी तो सारा सच सामने आ गया। श्वेता के भीतर सब कुछ भरभरा कर टूट रहा था। उस की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। जैसे उस के सर के उपर से छत उड़ गई हो। वह अपने पिता पर बोझ है ये सोच-सोच कर उसे स्वंय से घृणा हो रही थी। अब इस घर के भोजन का एक कौर भी गले से नीचे उतारना उस को लिये भारी पड़ रहा था। डॉ बनने का सपना तो धूल धूसरित हो ही चुका था, अब उसने शीघ्र से शीघ्र अपने पैरों पर खड़े होने का निर्णय लिया। बिना आगा पीछा सोचे उसने जो भी पहली नौकरी जो मिली, स्वीकार कर ली। श्वेता जो डॉक्टर बनना चाहती थी, एक बड़े से स्टोर में सेल्स गर्ल बन गई। पढ़ाई, घर वालों का विरोध और अपना भविष्य अब उस के लिये कोई मायने नहीं रखते थे। । किसी पर बोझ ना बने रहने के एहसास ने बाक़ी के सारे आवेगों संवेगों पर विजय पा ली थी। शीघ्र ही उस की मित्रता उस स्टोर के मैनेजर संकेत से हो गई, जो समय के साथ प्रेम में बदल गई। 18 वर्ष की होते ही श्वेता ने चुपचाप संकेत के साथ कोर्ट मैरिज कर ली। पता चलने पर माँ बाबू जी बहुत नाराज़ हुये, पर श्वेता जिस पथ पर अग्रसर हो चुकी थी वहाँ से पीछे मुड़ कर देखना असंभव था। हार कर माँ बाबू जी ने संकेत को अपना दामाद स्वीकार कर लिया। विवाह के तीन चार साल तक, माँ बाबू जी के कई बार बुलाने पर भी श्वेता कभी मायके नहीं गई। यहाँ तक कि मीनू के पैदा होने की ख़बर भी उन को अपना बड़ी बेटियों से पता चली। एक बार माँ बहुत बीमार पड़ गई थी, तो श्वेता स्वंय को रोक ना पाई और माँ से मिलने मायके आई थी। मोहित के विवाह पर भी वह मेहमानों की तरह आई। उसने माँ बाबू जी के लाख कहने पर भी, एक पैसा बधाई का नहीं लिया। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी उस के मन से बाबू जी के प्रति रोष कम नहीं हुआ था। उन्हें देखते ही उस के कानों में वही शब्द घूमने लगते।

"एक हो तो दे भी दें, तीन-तीन को कौन दे।"

अभी तो चौथी भी बैठी है। उसे भी निबटाना है। "

और आज अनायास ही उस के अपने मुँह से वही शब्द निकले तो उस की आत्मा काँप गई। वह स्वंय को बाबू जी के स्थान पर रख कर देखने लगी। आज उसके पास उस के पास धन दौलत सुख ऐश्वर्य सब कुछ है। फिर भी वह इतनी काँट छाँट कर चलती है चाय नाश्ते जैसी छोटी-छोटी चीज़ों का भी हिसाब रखती है। उस के बाबू जी तो कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहते थे। फिर भी पूरी नहीं पड़ती थी। अन्नपूर्णा-सी माँ की रसोई कैसे इतनी बड़ी गृहस्थी और अतिथियों के लिये खुली रहती थी, ये माँ ही जानती थी। श्वेता सोच में डूबी थी कि उस की तो एक ही बेटी है, वह भी बहुत छोटी है अभी, फिर भी श्वेता अभी से उस के विवाह के लिये जोड़ तोड़ करने में अपनी पूरी शक्ति लगाये दे रही है, बाबू जी ने तो आर्थिक तंगी में भी तीन-तीन विवाह निबटाये थे। वर्षों से जमा लावा आंसूं बन कर पिघल रहा था। आज श्वेता बाबू जी के उस कटु वाक्य के पीछे की वेदना देख भी पा रही थी और समझ भी पा रही थी। क़र्ज़ में डूबे, निराश, हारे हुऐ व्यक्ति के मुहं से एक कड़वी बात क्या निकल गई, श्वेता उन से उम्र भर का रिश्ता ही तोड़ बैठी। बाबू जी के प्रति श्वेता के मन में जमा कलुष खुरच-खुरच कर उतर रहा था। उसे याद आ रहे थे वह पल जब वह बाबू जी के सीने पर सिर टिका कर, दुनिया कि हर दुष्चिन्ता से दूर, कैसे सकून की नींद सो जाती थी। उस ने अपनी आँखें बंद कर ली और सिर कुर्सी के बैक पर टिका दिया। उसे महसूस हुआ मानो बाबू जी की उग्लियाँ उस का माथा सहला रही हैं। वह एक झटके से उठी, अपने आँसू पौंचे। फिर शांत चित हो कर अपना फ़ोन उठाया और बाबू जी का नं डायल करने लगी!