हुक्का-पानी / अमितेश्वर

Gadya Kosh से
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चौपड़ खेलते लोगों में सन्नाटा छा गया। कौड़ियाँ फेंकने और गोटियाँ चलने का क्रम अचानक टूट गया। आँखों में अविश्वास लिए सब भिल्लन का मुँह देखते रह गए। उन्हें भिल्लन बड़ा ही रहस्यमय लगा।

— तू सच बोल रहा है? — सालेऽऽ बेपर की तो नईं हाँकता? — नसा तो नईं किया बे?

अचानक चारों ओर से भिल्लन पर प्रश्न उछलने लगे। लेकिन भिल्लन निर्विकार कान में खोंसी बीड़ी निकाल जलाने लगे। उसकी बात का किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था। सब सोच रहे थे — ऐसा कैसे हो सके है। ऐसा तो होई नईं सके। कईं कबी किसी के संग भगी लुगाई बिना पुलिस-कचैरी के वापस आई है। ऊ भी अपनी मर्जी सू। और अगर आ भी गई है तो जंगलिया ने गुपचुप उसकू घर में कैसे रख लिया। आखिर बिरादरी भी कोई चीज है। पंचों का कुछ डर ही नईं लगा सुसरे कू। जब भगी थी तो बिरादरी याद आई थी। पंच याद आए थे। साला चौधरी के बैठके में टसुए बहा-बहा के बोला था — मेरी बऊ भग गई है अबदुल्ला के संग। उसे वहाँ सू निकलवाओ, मुसलमानी बन जाएगी, नाक कट जागी बिरादरी की। ...अब सुसरी छिनाला करके लौट आई खुद, तो चुपचाप घर में रख ली। ऐसा कैसे हो सके है। नईं ये साला भिल्लन जरूर चण्डूखाने की उड़ा रा है। जरूर सुसरा भांग के नसे में बैड़ फैंकरा है। पक्का नसेड़ी है। रोज़ नसा करे है। लगे है आज बूटी ने खोपड़ी की खपरैल तोड़ दई है, तभई तो...।

— तोकू कैसे पता चला? — मोकू? मैंने अपनी आँख से देखा है वाकू। — कहाँ? — वाके खसम जंगलिया के घर, और कहाँ। — अच्छाऽऽ! किया करई थी? — रोटी पो रई थी, जंगलिया और बालक खा रए थे। — किया...? इस स्साले जंगलिया की यू मजाल। साले ने नाकई कटवा दई पूरी बिरादरी की...। — मुसलमान के संग भगी लुगाई फिर घर में डाल लई सुसरे ने...। — अजी... बिरादरी के सर जूता मारा य जूता। — बिरादरी को जूता मारना हँसी-ठट्ठा है का। जमन दो आज पंचात चौपाल पे, करो साले जंगलिया का हुक्का-पानी बन्द। — जंगलिया के संग-संग वाकी लुगाई कू बी तो सबक मिले। — हाँ हाँ, सुसरी की चुटिया काट के, काला मूँ करके गधा पे निकालो। जात पंचात कू का समझा है — अलग खटिया पर हुक्का गुड़गुड़ाते चौधरी तिरबैनी ने तुरप जड़ी। और हुक्के में एक तगड़ा दम मार धुआँ छोड़ते वह बड़बड़ाया — जमाने कू खीर हमकू छाछ बी नईं। ससुरी।

अब खेल आगे नहीं चल सकता था। चौपड़ की फड़ उठ गई। भिल्लन ने बीड़ी के टोंटे को पुन: जलाने का प्रयास किया। लेकिन हवा के झोंके से तीली बुझ गई और उसने झुंझलाकर टोंटा फैंक दिया।


फूलो ने अपने झोंपड़े के दरवाजे की ओट से झाँका। सामने चौपाल पर नीम के नीचे पंचायत हो रही थी। सौ-सवा सौ आदमियों का जमघट। सारी चौपाल खचाखच भरी हुई। उसने सोचा — इतेक लोग तो सांग-तमासे, भजन-कीर्थन में बी नाँय आते हों। कोई मर जाय तो अर्थी के संग बी नाँय जाएँ। रोटी, जसोटन, बकरा होवे में बी कुछ रूस मटक्के बैठ जावें हैं। पर आज! ... आज तो जैसे सबी की भैंस खुली हैं। बिरादरी के चोर कू सजा जो सुनानी है। — और फूलो काँप गई सिर से पैर तक। चौधरी की भेड़िए जैसी गुर्राती आवाज़ उसके कानों में पिघले हुए शीशे की तरह घुसी जा रही थी। जंगलिया, उसका पति, चौपाल से नीचे, पंचों के जूतों में हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर अजीब-सी दयनीयता उग आई थी। उसे जंगलिया के चेहरे को देखकर उस बकरे की याद हो आई, जिसे दो महीने पहले उसके पीहर में कालका के नाम पर काटा गया था। लोग जंगलिया को हिकारत की नजर से देख रहे थे।

हुक्का गुड़गुड़ाते चौधरी के होठों पर कुटिल मुस्कराहट खेल रही थी। ...कुत्ता — वह बड़बड़ा उठी। उसके चेहरे पर भय और घृणा की मिली-जुली रेखाएँ खिंच गईं। — जंगलिया — चौधरी की गुर्राहट उसके कानों से टकराई। — तैने सारी बिरादरी की नाक कटवा दई है। तोकू...


और वह सोचने लगी — बिरादरी की नाक का खयाल कब सू होन लगा चौधरी कू। ऐसा किया कर दिया जंगलिया ने। और उसे जंगलिया पर गुस्सा आया — वो क्यों नईं पूँछता चौधरी सू। मैं वाकी जगह होती तो पूँछती — चौधरी, बिरादरी की नाक वा दिन काँ थी जा दिन तैने अपनी चचेरी भैन के ही पैर भारी कर दिए थे, या जब यू घीसू, जो इतेक बढ़-बढ़ के बोल रा है, खुद जा चढ़ा था अपने बेटा की राण्ड पै। बिचारी सरम की मारी कुएँ में डूब मरी थी। छोटे-छोटे चार फूल से बालक छोड़े थे वाने।

— चौधरी जी, जो चाहो सो डण्ड ले लो पर...। — उसने देखा जंगलिया हाथ जोड़े चौधरी के आगे गिड़गिड़ा रहा था। उसकी आँखों में भिखारियों जैसी याचना तैर रही थी। वह तड़प उठी। उसने सोचा — फूलो, यू किया कर दिया तूने। तेरी वजह सू तेरे आदमी कू कितेक जलील होना पड़ रा है। ...और वह उस क्षण को कोसने लगी जब अबदुल्ला के संग भागी थी। उसकी आँखों में अबदुल्ला का चेहरा कौंध गया। गोरा रंग, इत्र लगे, चमचमाते कपड़े, जेब में चमकती नोटों की गड्डी। ...और उसे वह घटना याद हो आई। उस दिन...


उस दिन जंगलिया ने कच्ची पीकर उसे खूब मारा था। हाड़-गोड़ तोड़ दिए थे और खुद फिर पीने चला गया था चौधरी के घर। उसने बच्चों को पीट-पीटकर सुला दिया था। जब अबदुल्ला जंगलिया को मिलने के बहाने आया तो वह झटोले में पड़ी सुबक रही थी। अबदुल्ला का खेत उसके बाग के बराबर में ही था। वह अक्सर जंगलिया से मिलने आता था। दोनों खूब पीते थे। जब अबदुल्ला आता तो अपने संग बकरे की कच्ची तीमन भी लाता। दोनों पीते और वह तीमन पकाती। अबदुल्ला उसकी ओर मीठी-मीठी नजरों से देखता रहता। और एक दिन जब जंगलिया बाग में नहीं था तब अबदुल्ला ने आकर कहा था — फूलो जान, मैं तुझपे मरता हूँ। उसने उसे दुतकार दिया था। ...लेकिन वह दिन! गाज गिरे उस दिन पर। पत्थर पड़ गए थे अकल पर। बिना आगा-पीछा सोचे भाग ली थी अबदुल्ला के संग। बच्चे भी संग न चलने दिए हरामी ने। भला बिन बछड़ों के कहीं गाय टिकी है। बन्द कर दिया था कमीने ने कोठरी में। कहता था राज कराऊँगा। ...भला हो लालबाबू का, जो निकाल लाए उसके चंगुल से। पढ़े-लिखे आदमी थे, पहुँच वाले थे। सो आ गई, आई क्या इस आने से तो अच्छा होता, कहीं कुआँ-पोखर में जान दे देती। पर बच्चों की ममता... फाँसी बन के पड़ गई गले में। आदमी का डर था, जाने क्या कहेगा, क्या होगा। ...पर ऐसा गऊ, देखते ही आँसू भर लाया। पैर पकड़ लिए लालबाबू के। किए की खुद माफी माँगने लगा। ...उसने सोचा था, मारेगा, कूटेगा। वह सब सह लेगी, मना लेगी। पर वह तो खुद अपने आपको ही दोषी मान रहा था। कैसा अजीब-सा लगा था उसे। जंगलिया की और बच्चों की हालत देख कलेजा मुँह को आ गया था। बच्चों की कौली भर वह बिलख उठी थी। पर अब। वह गुस्से में भर सोचने लगी... इन बिरादरी के ठीकेदारों सू कौन निबटे अब? लालबाबू होते तो कुछ करते। पर ऐसे बखत में वो बी बाहर चले गए। ये तो नोच-नोच के खा जाएँगे...


— जंगलिया! तूने बिरादरी के सिर पे जूता मारा य। ...भगी लुगाई फिर घर में डाल लई। बिरादरी का फैसला है, तेरा हुक्का-पानी बन्द...। — नईं-नईं, चौधरी जी ऐसा मत करो। ...मैं सबके जूतान कू सिर पे उठाने कू तैयार हूँ। काली गाय हूँ बिरादरी की... जात सू मत निकालो। मेरे बच्चन का किया होएगा — जंगलिया के चेहरे पर निरीहता उग आई। फूलो ने देखा, जंगलिया चौधरी के पैरों में अपनी टोपी रख रहा है। उसका खून खौलने लगा। उसे अपनी कनपटी की नसें चटकती-सी महसूस हुईं। — ठीक है। ...तोकू बिरादरी में रखने का एकई तरीका है। ...सोच ले — चौधरी की मूँछें फड़फड़ाईं। — बोलो ...चौधरी जी। ...मेरी खाल के जू...। — नईं, खाल-वाल नईं। ...तू अपनी लुगाई कू भरी पंचात में काला मूँ करके, चुटिया काट के, गधे पे निकालेगा। ...बोल मंजूर?

फूलो को लगा चौधरी का मुँह किसी अजगर की तरह है, जो विषैली आग उगल रहा है। उसे अपनी कमर में कीड़े रेंगते महसूस हुए। लगा, जैसे सारे बदन में काँटें उग आए हैं। क्षणांश में उसे लगा, भरी पंचायत में उसके बाल मूँडे जा रहे हैं, मुँह काला किया जा रहा है, लोग ठट्ठा कर रहे हैं, टुकुआ कुम्हार के गधे पर बैठाकर उसका झल्लूस निकाला जा रहा है, एक आदमी कनस्तर पीटता आगे-आगे चल रहा है, हाथ-हाथ भर का घूँघट निकाले औरतें उस पर हँस रही हैं — देखो... देखो..., गधे पर छिनाल जा रई है, खसम-पूत छोड़के भागी थी यार के संग... काला मूँ करके निकाली बिरादरी ने। बच्चे तालियाँ पीटते, शोर मचाते पीछे-पीछे चल रहे हैं ...शोर... शोर ही शोर। उसे लगता है वह बिल्कुल नंगी हो गई है। शर्म के मारे धरती में गड़ी जा रही है। चौधरी का भेड़िए-सा गुर्राता चेहरा उसकी ओर झपट रहा है...।

— नईंऽऽऽ चौधरी! — उसने देखा जंगलिया लगभग चीख उठा है — ये नईं हो सके। ...फूलो मेरी ब्याहता है। भाँमर पड़ी हैं मेरी वाके संग... मेरे बच्चों की माँ है वो... मेरे जीते जी...। — और उसे लगा जंगलिया की आँखों से चिंगारियाँ-सी फूटने लगीं हैं। जबड़े गुस्से में भिंच गए हैं और गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं। और कुछ देर पहले चेहरे पर उगी निरीहता न जाने कहाँ लुप्त हो गई है और उसका स्थान आक्रोश ने ले लिया है।

पंचायत में हड़बौंग-सा मच गया। किसी ने सोचा भी नहीं था कि अभी थोड़ी देर पहले गिड़गिड़ाने वाला जंगलिया ऐसा विकट रूप धारण कर लेगा। वह घायल चीते-सा चौधरी की ओर झपटा। लगा जंगलिया चौधरी को कुत्ते की तरह भंभोड़ डालेगा, उठाकर पटक देगा, चढ़ बैठेगा छाती पर। ...लेकिन अचानक चार-पाँच लोगों ने अपनी फौलादी गिरफ्त में जकड़ लिया उसे। उसकी आँखें वहशियाना ढंग से सुलग उठी थीं। वह उन लोगों की पकड़ से निकलने के लिए हाथ-पैर चलाने लगा। फूलो ने देखा, वह जितना हाथ-पैर चला रहा था, लोगों की पकड़ उतनी ही और मजबूत होती जा रही थी। वह गालियाँ बकने लगा — स्सालों छोड़ देओ मोकू... हरामजादों...खून पी जाऊँगा एकक का। ...ऐसी पंचात, बिरादर मूत पे रखि है मेरे। ...जब मैं राजी हूँ अपनी लुगाई सू, तो तुम कौन खसोटे हो काला मूँ करने वाले वाका। मोकू सब मालूम है चौधरी के मन की।

वह बके जा रहा था। लोग अवाक से उसका मुँह देख रहे थे। कुछ चेहरों पर उत्तेजना भी झलकने लगी थी। एक चींटी विद्रोह करे — यह कैसे सहा जा सकता था। चौधरी के गालों की बोटियाँ क्रोध में फड़फड़ाईं — बाँध दो मुसक साले की। ...बिरादरी कू...पंच परमेसुर कू मूत पे मार रा है। ...वाकी यू मजाल। बाँध के गेर दो ...खींच लो साले की लुगाई कू बाहर... करो काला मूँ छिनाल का...।


और फूलो को लगा — इकला अभिमन्नू घिर गया है चकामऊ में। कोई सनीपी नईं है जो कैरो दल में मदद करे। उसे अपनी नसों में खून खौलता-सा महसूस हुआ। आँखें भट्टी की तरह जलती-सी लगीं। साँस धौंकनी की तरह चलने लगी। दाँत भिंच गए। उसने चूंची चिंचोड़ते छोटे को एक ओर पटका, लहंगे की लांग लगाई और ओढ़नी का मुण्डासा बाँध, लाठी ले, बिफ़री शेरनी-सी निकल आई बाहर। जब तक कोई समझे, कुछ करे, वह चौधरी तिरबैनी के आगे रखे फ़र्शी हुक्के को उठा चौपाल के फ़र्श पर धड़ाम से फोड़ते हुए चीखी — आओ... आओ, मेरे बाप-भय्यन के चोदों, करो अपनी मैया का काला मूँ — और उसने लाठी हवा में लहरा कर चौपाल के फर्श पर मारी — देखूँ, कैसे मरद हो। करो अपने बाप का हुक्का-पानी बन्द...।

...और अगले पाँच मिनटों में चौपाल खाली हो गई। रह गए केवल फर्श पर बिछी जाजिम, जंगलिया, गालियाँ बकती फूलो और फूटा हुआ पंचायती हुक्का। जंगलिया ने हिकारत से हुक्के पर थूका और फिर फूलो का हाथ पकड़ चल दिया।