हुलिया / हरि भटनागर

Gadya Kosh से
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दोपहर को जब मालिक नहीं आया, मोटर गैराज में काम करने वाले तेरह बरस के नारू को लगा कि अब नहीं आएगा। इसलिए भी कि दोपहर को न आने पर मालिक अक्सर आता नहीं था। अभी-अभी उसने और उसके चार साथियों ने जो क़रीब-क़रीब उसी की उमर के थे, मिलकर आठ-दस गाड़ियाँ धो-धाकर भन्नाट की थीं। अब उनके पास फ़िलहाल काम न था, इसलिए फ़ालतू बैठे थे।

सभी साथी जब बीड़ियाँ धौंकने लगे और उस लड़की की हँस-हँसकर बातें करने लगे जो ऊँची एड़ी की सैंडिल, कसे कपड़े पहने जिनमें से उसका समूचा शरीर फाड़कर निकल पड़ना चाह रहा था - लहराती हुई निकली, नारू बाँह खुजलाता हुआ, यूँ ही, नीम के पेड़ की ओर बढ़ा, जहाँ दो-चार रोज़ से एक नाई बैठने लगा था। नाई बूढ़ा था और चुँधी आँखों वाला। गाल उसका हमेशा फड़कता ही रहता मानों किसी मच्छर या गन्दी मक्खी ने काट खाया हो। टाट के एक छोटे-से टुकड़े पर बैठा वह ऊँघ रहा था। ज़मीन पर नीम से टिका दो बालिस्ता आईना था। उसके आस-पास हजामत बनाने के सामान थे। जगह-जगह बारीक काले, सफे़द बाल बिखरे थे। साबुन की गन्ध थी। लगता था कि अभी कुछ देर पहले किसी की हजामत बनाई गई है। नारू तफ़रीहन, वहाँ खड़ा हो गया था जब आईने में उसे किसी नाले से निकाला हुआ मैला सना चैला नज़र आया। आईने में उसे वह चैला ख़राब लगा। जब चैला हिला और लगा कि यह चैला नहीं, उसका अपना पैर है तो उसे इन्तहा दुख हुआ। उसका पैर ऐसा कैसे हो गया? बैठकर वह इस पर सोचने ही जा रहा था कि आईने में उसे अपना चेहरा दिखा। कहीं दूसरे का चेहरा तो नहीं - इस ख़्याल से उसने पलटकर पीछे देखा - कोई न था। यक़ीन तो नहीं हुआ लेकिन जब चेहरा कई बार हिलाया-डुलाया तो यक़ीन हुआ। यह उसका ही चेहरा है। सालों पहले उसने अम्मी के छोटे-से, चटके आईने में अपना चेहरा देखा था। उस वक़्त उसके चेहरे पर लाली थी। आँखों की पुतलियाँ काली और गटे सफे़द थे। बाल छोटे-छोटे थे और ललछौंह। इस वक़्त वह नारू न होकर बीमार बन्दर बल्कि उससे बदतर लग रहा था। आँखें अन्दर को धँसी थीं। मुँह पर सफे़दी और झुर्रियाँ थीं। बाल बिखरे और लटों की शक्ल में निहायत गन्दे थे। हाथ-पैरों और गले-गरदन और छाती के गिर्द मैल की काली परत दिखती थी जिसे नाख़ून से आसानी से खुरचा जा सकता था। बनियाइन तेल-मोबीआयल सनी, पानी से तर थी। उसे धक्का-सा लगा। गाड़ी को साफ़-दन्नाक करने वाला वह ख़ुद ऐसे हुलिए में है! छि है!!!

दिमाग में उसके यकायक एक विचार आया और वह चहक उठा। सिर को उसने पीछे, पीठ की तरफ़ छोड़ा और ठठाकर हँसते हुए दो-चार क़दम बढ़ा। इस प्रक्रिया में वह नाई से टकरा गया और उसके ऊपर गिरते-गिरते बचा। इस बीच उसने बनियाइन उतार ली और उसे लहराता हुआ दौड़ पड़ा। वह अपना हुलिया दुरुस्त करेगा - एक बेहतर इन्सान बनेगा! यह बात उसे पुलकित कर रही थी और वह हवा भरे जाते ट्यूब की तरह फूलता जा रहा था। बड़ा-सा पुल, कोयले की सिलसिलेवार दुकानें, कबाड़खाना, चिकमण्डी जहाँ लोगों के हल्ले के बीच कूड़े के ढेर पर चील-कौवों और कुत्तों की मार-काट थी - तालाब का छोर, मस्जिद और वह घोड़ा जिसके मुँह पर चारे का थैला बँधा था, पार हुए और वह चक्करदार गलियों के जाल को पीछे छोड़ता एक छोटे-से टपरे के सामने रुका जो कि उसका अपना घर था। टपरे के सामने नाली थी जिस पर असंख्य मच्छर भनभना रहे थे। नाली फलाँग कर वह टपरे के पास आया। दरवाज़ा यानी टटरा तारों से बँधा था। वह ताला था। बैठकर उसने ताले को खोला अैर टटरे को खिसकाकर अन्दर घुसा। थोड़ी देर में जब निकला, हाथ में उसके लौकी के बिए बराबर साबुन था।

कूदता हुआ, दुलकी चाल में वह बम्बे पर गया। बम्बे में टोंटी नहीं थी। उसकी जगह किसी ने लकड़ी ठोंक रखी थी। नारू ने पहले शराफत से लकड़ी निकालने की कोशिश की, फिर थोड़ा गुस्सा कर पत्थर से ठोंका-पीटी की, इस पर भी जब लकड़ी ने अपनी ऐड़ न छोड़ी तो वह मइयो-बहन पर उतर आया और उसने उस पर एक करारी लात दे मारी। लात पड़ते ही पानी फौवारे की शक्ल में बह निकला। एक धार ऊपर को उछल रही थी, दूसरी नीचे। नीचे वाली धार मोटी थी जिसे छूकर उसने पानी के सर्द-गर्म होने का अन्दाज़ लगाया। पानी ठण्डा था। उसमें सिहरन-सी तैर गई। लेकिन दूसरे ही क्षण वह धार के नीचे बैठा था पालथी मारकर। थोड़ी देर में उसने बदन में साबुन मलना शुरू किया।

काफी देर तक वह नहाता रहा। जब मैल की जगह बदन पर सुर्ख ददोरे बन गए और पाँच-छः औरतें बाल्टी-मटके लिए उसके हटने का इन्तज़ार करने लगीं, वह हटा और सिर से पानी काँछता, कूदता हुआ उसी दुलकी चाल से टपरे में घुस गया।

अम्मी की बहुत ही पुरानी, गली-सी धोती से जो छूने से फट रही थी, बदन पोंछने के बाद ख़्याल आया कि उसके पास एक नीली कमीज़ है जिसे अम्मी पिछले दिनों इज्तिमा से ख़रीदकर लाई थी। उसमें बटन लगाने थे और दो-एक जगह रफू करना था। अम्मी ने यह कमीज़ ईद के लिए ख़रीदी थी। और समय निकाल कर दुरुस्त कर दी थी। ईद पर नहीं, आज वह उसे पहनेगा! ईद से बढ़कर है आज का दिन! कमीज़ की खोज में लग गया वह।

टपरे में घुसते ही नीम-अन्धेरा छा जाता था। एकदम से घुसने पर लगता कि किसी सुरंग में आ गए हैं। लेकिन धीरे-धीरे हल्का उजाला छा जाता था। इस पर भी ज़्यादातर अन्दाज़ से काम लिया जाता था। नारू खोज में लगा था और कमीज़ थी कि मिल नहीं रही थी। ऊपर से डोरी टूट गई जिस पर कपड़े टँगे थे। उसमें यकायक डर समा गया रस्सी के टूटने का। अम्मी को पता न लगे, नहीं वह धुनक डालेगी - इस ख़्याल से वह डोरी को बाँधने लगा। लेकिन डोरी में गाँठ नहीं लग रही थी। गाँठ लगाने पर वह छोटी हो रही थी। आख़िरकार वह खीझ गया। जो होगा, देखा जाएगा - बुदबुदाते हुए उसने डोरी छोड़ दी और कपड़े की ढेरी लिए टटरे के पास आया। नीली कमीज़ ऊपर दिख गई। कमीज़ को जब उसने झाड़कर देखा उसमें बड़े-बड़े छिद्दे थे। चूहों ने बीच-बीच में उसे खा लिया था। उसने सोचा था कि कमीज़ में वह हीरो लगेगा। मगर यहाँ चूहों ने हीरो को कबाड़ी में बदल दिया था। अब क्या पहने वह? पूरी कमीज़ बरबाद हो गई थी। रफू से भी काम नहीं चल सकता था। उसे अम्मी पर बेहद ग़्ाुस्सा आया जो इस वक़्त काग़ज़-पन्नियाँ बटोर रही होगी, कन्धे पर बोरा लादे, चुड़ैल की तरह! एक कमीज़ को वह सँभालकर नहीं रख सकी! हद है! ज़रा भी अकल नहीं है उसमें! बाप ने तभी उसे घर से हकाल दिया लात मार के और दूसरी लुगाई रख ली। ...वह बड़बड़ा रहा था, तभी उसे छोटा-सा झिलमिल सुनहरा शाल मिल गया जो साबुत था और बला का सुन्दर। कमीज़ के ऊपर इसे ओढ़कर वह अपनी इच्छा पूरी कर सकता है। वह ख़ुश हुआ। यकायक उसे आईने का ध्यान आया। वह खोजने लगा। लेकिन वह मिल नहीं रहा था। हालाँकि इस कोशिश में चूल्हे के डिब्बा-डिबिये गिर गए। कूल्हे पर आहिस्ता से रगड़कर उसने आईना साफ़ किया। इस तरह सँभाल कर कि चिटका आईना कहीं काट न खाए।

आईने में उसे जो कुछ दिखा, वह अच्छा था, उत्साहवर्धक। यही वजह थी कि वह फ़िल्मी गीत की कोई कड़ी होंठों को गोल करके सीटी में गा उठा। कपड़ों को लात से किनारे किया और उँगलियों से बाल काढ़े। छिद्देभरी कमीज़ पहनी। उस पर सुनहरा शाल डाला और थोड़ा तिरछा हुआ उसी तरह जैसे फ़ोटो में उसने शाहरुख को देखा था। दायाँ हाथ होंठों पर जमाया मानों उँगलियों में सिगरेट फँसी हो और बिना टटरा लगाए, तार कसे, वह झुग्गी से बाहर निकला - सीटी बजाता हुआ।

उसे लगा कि नाली के उस पार जंगी झुका हुआ जैसे कि वह पीठ पर बतौड़ी की वजह से चलता है - सामने आ खड़ा हुआ और उसे अजीबोगरीब निगाह से देख रहा है, आश्चर्य से खुले होंठों पर उंगलियाँ रखे।

नारू ने उसे ज़ोरों से झिड़का - क्या देख रहा है बे, ऐसे चूतियों की तरह!

जंगी ने हकलाते हुए कहा - मैं, मैं नारू को देख रहा हूँ या...

नारू अकड़ता बोला - अबे चूतिए! मैं नारू थोड़े हूँ! मैं शाहरुख खान हूँ! शाहरुख खान!!!

- क्या? - जंगी ठठाकर हँस पड़ा - शाहरुख खान! बो तो बम्बे में रहता है। यहाँ कहाँ?

- तू चूतियई रहेगा हमेशा! - नारू ने कहा - शाहरुख खान बम्बे में नहीं, तेरे सामने है, झकलेट!!!

किसी के चीखने-चिल्लाने से उसकी तन्द्रा भंग हुई। देखा तो बस्ती के बहुत सारे औरत मर्द-बच्चे थे जो कै़दियों की तरह एक-दूसरे से बँधे टपरों के बीच की निहायत ही सकरी कुलिया में जानवरों की तरह चीख-चिल्लाकर बतिया रहे थे। उसने महसूस किया कि उसको देखकर यकायक सब चुप हो गए हैं। फुसफुसी-सी फैल गई है उनके बीच। कुहनी मारते हुए वे आँखों से इशारे कर रहे हैं।

वह तन गया। कालर छुआ और इस तरह चला जैसे पिछली दफा बस्ती में आया आफिसर चला था।

कनखियों से देखता हुआ वह तेज़ी से आगे बढ़ा। कुहनियाँ और इशारे चल रहे थे। एक बिखरे बालों वाली औरत अपने लड़के को शायद इसलिए चीखते हुए लतियाने लगी थी क्योंकि वह नारू की उमर का था और नालायक! जबकि नारू क्या से क्या हो गया!

नारू मुस्कुराया और उसकी यह मुस्कुराहट काफ़ी देर तक बनी रही जबकि लड़के के रोने-चीखने की आवाज़ काफ़ी पीछे बेजान होकर छूट गई थी। यही नहीं, कूड़े के ढेर पर बसी उसकी बस्ती, उसके रहवासी और चील-कौवों का हुजूम सब पीछे छूट गया था। उसने पलटकर देखा - धूप में सब कुछ गर्दो-गुबार में डूबा था।

उसने सोचा कि वह गैराज की तरफ़ चले। वहाँ अपना नक्शा तो दिखाए अपने हीरोहोण्डों को! फिर सोचा कि नहीं, वह वहाँ नहीं जाएगा। बाज़ार में घूमेगा। मस्ती करेगा।

जिस मुकाम पर अब वह है, वहाँ से सुन्दर-सी कालोनी शुरू होती थी। साफ़-सुन्दर, एक से रंग में पुते मकान। बाहर बड़ा-सा गेट। हरी-हरी घास। रंग-बिरंगे फूल और मकानों पर चढ़ी लताएँ। नारू यहाँ से क़रीब-क़रीब रोज़ाना गुज़रता था डरता हुआ। पता नहीं क्यों उसे लगता कि वह चोर-गिरहकट है। आज महसूस हुआ कि वह चोर-गिरहकट जैसा कुछ नहीं। एक अच्छा इन्सान है जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। ऐसा सोचता, तना हुआ वह कालोनी से गुज़रा। लोग उसे देख रहे थे, आपस में खुसफुस कर रहे थे, इससे बेखबर वह आगे बढ़ा।

जब वह रुका, कालोनी काफ़ी पीछे गर्द में डूबे, फूटे मर्तवान-सी चमक रही थी। तारकोल की सड़क पर जगह-जगह बेजान-सी छाँह लेटी थी, लगता था, पानी फैला है।

वह आगे बढ़ा।

सामने कूड़े का पहाड़ तना था। कूड़े के ढेर में उसे कुछ हिलता दिखाई दिया। ग़ौर से देखा तो दो लड़के थे। कूड़े में खोए हुए लगते थे। कन्धों पर बोरा लादे वे झुके हुए थे। कुछ बीन रहे थे। दोनों एक उमर के लगते थे। उनमें कुछ सजीव था तो वे आँखें थीं जिन्हें नचाते हुए वे एक-दूसरे से इशारे कर रहे थे। नारू को उनकी आँखों के सामने कुछ हिलता दिखा। ये हाथ थे जिन्हें वे हिला रहे थे। शायद सलाम कर रहे थे।

नारू को लड़कों का सलाम करना अच्छा लगा। ख़ुशी से भर उठा। कुछ है वह, पुलिस इंस्पेक्टर जैसा! यह विचार आते ही वह यकायक ज़ोरों से गरजा। उसका गरजना था कि लड़के भयभीत हो गए और बोरों को छोड़ भाग खड़े हुए। कूड़े को वे छोटे-छोटे पाँव से फलाँगते जा रहे थे। जगह औंधक-नीची थी इसलिए वे लड़खड़ा जाते। गिरने-गिरने को होते किन्तु सँभल जाते थे।

थोड़ी देर में दोनों पुल के नीचे खो गए। पता नहीं क्यों नारू को उनका खोना ख़राब लगा। सोचने लगा कि हो सकता है, थोड़े इन्तज़ार के बाद दोनों आएँ। लेकिन जब नहीं आए तो वह पुल की ओर बढ़ा।

पुल के बीचोंबीच आकर वह खड़ा हो गया। गरदन निकालकर उसने पुल के नीचे झाँका। घास में छिपा नाला हल्की गूँज के साथ बह रहा था। नारू को काफ़ी पहले की घटना याद हो आई जब वह नाला फलाँगना चाहता था, फलाँग नहीं पाता था। नाले में गिर जाता था। साथ के दूसरे लड़के थे जो एक सपाटे में कूद जाते थे। सिर्फ़ वही था जो कूद नहीं पाता था। इस वक़्त उसे अपने मन की साध पूरी करने की इच्छा हुई। लेकिन अपने रुआब का ख़्याल कर उसने अपनी इच्छा को दबा दिया।

कार के ट्यूब जितना सूरज जब क्षितिज में धीरे-धीरे बैठ रहा था, नारू न्यू मार्केट की तरफ़ बढ़ा जहाँ दुकानें रोशनी में चमक रही थीं। चैड़ी-सी सड़क थी जिसके एक तरफ़ लाइन से अनगिनत कारें और स्कूटरें खड़ी थीं और दूसरी तरफ़ काँच के दरवाज़ों वाली दुकानें थीं। बहुत ही सुन्दर, चमकते कपड़ों से सजे-धजे-स्त्री-पुरुष दुकानों का दरवाज़ा ठेलकर आ-जा रहे थे।

नारू जिस दुकान के बाहर खड़ा था, वह सोने-चाँदी की दुकान थी। दुकान में इतनी रोशनी थी मानों हजारों सूरज को कै़द कर लिया गया हो। थोड़ा आगे अर्धवृत्ताकार घेरे में आइसक्रीम की दुकानें थीं जहाँ लोग हँसते-खिलखिलाते हुए आइसक्रीम खा रहे थे और पेप्सी पी रहे थे। दुकानों के सामने तीन-चार गुब्बारे वाले थे जो बड़े से अड्डों में बेहिसाब गुब्बारों के तोते, बन्दर बाँधे थे और चुटकियों से गुब्बारे बजाते जाते थे। उनके ही सामने दस-पन्द्रह नवयुवक थे जो अपनी-अपनी मोटर-साइकिल और स्कूटरों पर बैठे सिगरेट फूँकते हुए ठहाके लगा रहे थे।

एक लड़के ने जिसकी कमीज़ के सारे बटन खुले थे और जिसमें से उसकी सुन्दर छाती चमक रही थी, कहा - आज शाहरुख खान शहर में है।

दूसरे लड़के ने हँसते हुए कहा - मुझे तो उसका शाल जँचता है।

तीसरे ने कहा - क्या रुआब से चलता है यार! जी करता है क़दमों पर बिछ जाऊँ।

नारू ने तिरछे चलते हुए कनखियों से लड़कों को देखते हुए मन में आह्लादित होकर कहा - क़दमों में बिछने की ज़रूरत नहीं है। इत्तई काफ़ी है।

एक नवविवाहित जोड़ा ख़ूबसूरत लिबासों में एक-दूसरे का पंजा जकड़े खिलखिलाता जा रहा था। नारू मुस्कुराता उनके समानान्तर चला। किसी बात पर नवयुवती ही-ही कर हँसी। नारू भी उसी अन्दाज़ में ही-ही कर हँस पड़ा। थोड़ी देर बाद जब नवयुवक ने खी-खी करते हुए ज़ोरों का ठहाका लगाया तो नारू ने भी खी-खी की और ज़ोरों का ठहाका दे मारा।

यकायक नवयुवक ने देखा, कोई लड़का उसके बराबर चलता हुआ उसकी नकल कर रहा है तो वह सहसा रुक गया। उसको रुकता देख नारू भी रुक गया। नवयुवक ने तनकर नारू को घूर कर देखा तो नारू ने भी नवयुवक को उसी तरह घूर कर देखा।

नवयुवक ने ज़मीन पर जूते चटकाए तो नारू ने भी अपने नंगे पैर की एड़ी चटका दी।

इस पर नवयुवती खिलखिलाकर हँस पड़ी तो नारू भी उसकी तरह खिलखिलाकर हँस पड़ा।

नारू की हरकत पर नवयुवती हँस-हँसकर दुहरी हुई जा रही थी। नारू भी उसी की तरह हँस-हँसकर दुहरा होने लगा।

यकायक नवयुवक ने नवयुवती के पंजे में अपना पंजा फँसाया और एक तरफ़ को मुड़ गया।

नारू ने हवा में पंजा लहराया और उसी तरह कल्पना में नवयुवती के पंजों में अपना पंजा फँसाया और दूसरी तरफ़ मुड़ गया।

वह काफ़ी देर तक हँसता रहा और हँसता चला गया।