हुश्शू / पाँचवाँ दौरा (गर्काबा) / रतननाथ सरशार

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करेंगे प्‍यारे से प्‍यार अपने, किसी के बाबा का डर नहीं है।

पिएँगे मय मस्जिदों में जा कर किसी की खाला का घर नहीं है!

एक खुशनुमा बाग में ठीक दोपहर के वक्‍त एक रईस बैठे हुए बड़े शौक और जौक के साथ शराब का शगल कर रहे थे। शीशे के कई गिरास करीने के साथ चुने हुए थे, और बोतलें तालाब में पैर रही थीं। और थोड़ी दूर पर कई बावर्ची हर तरह के कबाब पका रहे थे और हजूर रईस ठाठ के साथ बैठे हुए मजे-मजे से खा रहे थे।

इतने में एक खिदमतगार ने अर्ज की कि - हजूर, अकेला सो बावला, दुकेला सो तंग, तिकेला सो खटपट, चौकेला सो जंग। और शराब का शगल तो तनहाई का शगल नहीं है। जब तक दो-चार दोस्‍त न बैठे हों, तब तक लुत्‍फ इसका क्‍या?

रईस ने कहा - अच्‍छा, जाके फलाँ-फलाँ दोस्‍त को बुलाओ। यह न कहना कि यहाँ क्‍या हो रहा है। सिर्फ इतना कहना कि आपको अभी-अभी बुलाया है। बड़ा जरूरी काम है। साथ ही लाओ।

खिदमतगार जहाँ-जहाँ गया, और रर्इस का नाम लिया कि उन्‍होंने तलब किया है, वहाँ पहले सुननेवाले को बहुत ही ताज्‍जुब हुआ कि वहाँ कहाँ !

1 - अरे उनका तो पता ही नहीं था कहीं!

2 - यह तुमने किसका नाम लिया है?

3 - पूछो तो कि क्‍यों बुलाया है?

खिदमतगार - मुझको मना कर दिया है कि न बताना, कि कहाँ हैं, और न यह कहना कि क्‍या कर रहे हैं, मगर यह कह देना कि बड़ा जरूरी काम है, जल्‍द चलिए।

1 - और किस-किसको बुलाया है?

2 - बैठ जाओ और सब हाल बताओ।

3 - तुम बताते क्‍यों नहीं?

खि - अब चलके हजूर आप ही देख लें न। आप तीनों साहब चलें, मैं और जगह जाता हूँ। मगर जल्‍द जाइए।

खिदमतगार तो रवाना हुआ, और ये तीनों आदमी पालकी गाड़ी पर सवार हो कर चले। वहाँ पहुँचे तो आदमियों से दरियाफ्त किया कि कहाँ हैं?

जवाब - जी, वह सामने तालाब पर हैं।

सवाल - वहाँ हौज पर इस दोपहरिया और गर्मी में क्‍या हो रहा है?

ज - सरकार जाके देख लें।

स - कब से बैठे हैं?

ज - मालूम नहीं।

स - (दूसरे नौकर से) तुम जानते हो, जी?

ज - हजूर, कोई नहीं जानता। हम नौकर नीच लोग हैं।

स - क्‍या तुमको मना कर दिया है कि न बताना?

ज - क्‍या मालूम, सरकार।

इस पर एक दोस्‍त ने कहा - अरे मियाँ इस हुज्‍जत से क्‍या फायदा? सामने ही तो नहर है। चलके देख लो, ना।

सब के सब चलके तालाब के पास पहुँचे, और धक से रह गए।

1 - अरे!! यह हम सपना देख रहे हैं कि सचमुच आप खुद-बदौलत सामने बैठे हैं! या खुदा!

2 - (मारे हँसी के) मार डाला!

3 - (ताज्‍जुब के साथ) अजी हजरत, तसलीम!

1 - अरे मियाँ, यह क्‍या हो रहा है?

रईस - आपका नाम भी अंधों की फेहरिस्‍त में लिख लिया। बीरबल ने एक दिन बादशाह से कहा - हजूर आपके शहर में सब अंधे ही अंधे हैं। और सबूत इसका यों दिया कि एक दिन ऐन चौराहे पर बैठ कर मूँज की रस्‍सी बटने लगे। अब जो आता है, वह पूछता है : राजा बीरबल, यह क्‍या हो रहा है? बीरबल ने उन सब को अकबर के पास भेज दिया और कहा : जहाँपनाह, साफ ये लोग देख रहे थे कि मैं रस्‍सी बट रहा हूँ, और जो जाता है वह पूछता है - राजा बीरबल, यह क्‍या कर रहे हो! इसी तरह आप लोग भी आँखों के अंधे, नाम नयनसुख हैं!

1 - अरे यार, तुम और शराब?

2 - और यह दोपहरिया और यह गर्मी!!

3 - अरे वाह उस्‍ताद, मानता हूँ!

इतन में रईस ने तीन गिलासों में शराब उँडेली और बरफ का पानी मिलाके दिए और बुलंद आवाज में कहा :

बिनोश बादह! कि अय्यामे - मगम न खाहद माँद, चुनाँ न माँद चुनीं नेजहम न खाहद माँद!

(सारांश - पियो! पियो! कि दुख का नाम न रहे और मेरे-तेरे का झगड़ा ही निबट जाय!)

बिनोश! बिनोश! बिनोश! बिरादर!

साकी के मैं जरूर डराने से डर गया!

जामे-शराब लाए भी! - साकी किधर गया?

अरे, यह मौसम तोबा करने का नहीं। बहार जोश पर है!

बगल में हूँ तोबा दबाए हुए!

कलेजे से बोतल लगाए हुए!

1 - लाला जोती परशाद साहब हजूर ही का नाम है?

जो - जनाब, खाकसार ही को कहते हैं।

2 - अरे, भई यह क्‍या काया-पलट हुई!

जो - मिजाज ही तो है, तबीअत ही तो है।

3 - वल्‍लाह, अगर हम अपनी आँखों न देखते तो किस मरदूद को यकीन आता! अरे, यह तुमको पहले क्‍या सूझी थी और अब क्‍या सूझी हैं?

जो - बादह बिनोश! इन बातों को जाने दो! अरे, कबाब लाओ! लो जी, और जाम लो! आज हम आप सब साहबों को रँगेंगे।

इन दोस्‍तों में से एक की नजर जो तालाब की तरफ पड़ी तो कहा - ओ हो हो हो! अरे यारो, इधर तो देखो! यह तालाब में क्‍या हो रहा है?

भई ये तो कई बोतलें पैर रही हैं।

सब खिलखिला कर हँस पड़े। एक ने कहा - जो बात की खुदा की कसम लाजवाब की! पापोश में लगाई किरन आफताब की!

दूसरा बोला - बते-मय (दारू की बत्तख) इसी का नाम है :

तीसरा - क्‍या आज पैराकी का मेला है?

1 - भई, खूब कही।

2 - वल्‍लाह, यह फबती बे मसल हुई!

3 - जो कहता हूँ ऐसी ही कहता हूँ! यह मालूम होता है कि पैराक लोग मल्‍लाही चीर रहे हैं, खड़ी लगा रहे हैं। यह गोता लगाया, वो उभरे! कभी उभरे, कभी डूबे महे-नौ की किश्‍ती!

जो - मैं गौर करता हूँ, वल्‍लाह, यह क्‍या पागलपन था! लाहौल विला कुव्‍वत! यह दिमाग को बैठे-बैठे क्‍या हो गया था! बोतलेवाले की बोतलें तोड़ डालीं, कलवार की दुकान की दुकान को गारत कर डाला। मठूरें, बोतलें, पीपे, तोड़ डाले, औंधा दिए। उसके आदमी को हिरनवाली सरा दौड़ा दिया। एक मकान की ईंटें बेच डालीं, कड़ियाँ खुदवाके पटेल लीं। एक जुर्म थोड़ा ही किया।

गुलचीं ने दो गुनाह किए एक छोड़ के बुलबुल का दिन शिकस्‍ता किया गुल को तोड़के!

1 - यह हमने नहीं सुना था? क्‍या किया? कलवार की दुकान लुटा दी?

जो - एक दुकान लूटना क्‍या मानी? अरे, मकान किराये पर लिया, और ईंटें,‍ कड़ियाँ और शहतीर और जोड़ियाँ - सब के कोड़े कर डाले!

1 - वल्‍लाह, सच कहते हो?

जो - कसम खुदा की, सच कहता हूँ।

2 - और मालिक-मकान से क्‍या कहा?

जो - उस सुसरे को अब खबर हुई होगी। आग हो गया होगा। सर पीट लिया होगा।

2 - जिसका मकान, खुदवा के बेच लोगे, वह क्‍या कहेगा?

3 - गजब किया, वल्‍लाह! आप कै़द हो जायँगे एक रोज! लाहौल विला कुव्‍वत!

1- वह तुमको जानता है?

जो - हाँ जानता है कि हमारा नाम चुलबुली सिंह है और जात के हम ठाकुर हैं। और मुल्‍तान में मकान है।

जिसने सुना वह लोट गया।

1 - मालिक-मकान को इन सब बातों का यकीन हो गया?

2 - बड़ा पागल है, भई!

3 - अब आखिर उसका कुछ हसर मालूम हुआ कि तुम्‍हारी तहकीकात कर रहा है, तलाश कर रहा है। जिसके हाथ तुमने बेचा वह क्‍या कहेगा?

जो - न तो वह हमारा नाम जानता है, न शक्‍ल पहचानता है। हम जब दुकान पर गए तो सर पर मुँडासा, पाँव में पंजाबी जूता, एक चुस्‍त घुटन्‍ना और हाथों में मोटे-मोटे कड़े। पूरे सिख बने हुए।

1 - अच्‍छा गप्‍पा दिया! जनून की हरकत थी।

2 - अच्‍छा अब तुम कुछ दिन छिपे रहो!

3 - पूरा फौजदारी का मुकदमा है। कई बरस को भेज दिए जाओ! क्‍या गजब किया!

जो - भई, अब नशा न खराब करो! जो बीत गई उसको छोड़ो! और हमसे आपको या किसी को शिकायत का कौन-सा मौका है? सिड़ी तो थे ही। सिड़ी की दाद न फरियाद : सिड़ी मार बैठेगा। हमने कुछ होश-हवाश में थोड़ा ही ऐसा किया!

1 - अच्‍छा जी, जाम चले। भई ये कबाब बड़े मजे़दार हैं।

2 - ऐसी उम्‍दा गजक है कि बस क्‍या कहिए!

3 - ओ यस, यस! अच्‍छा, अब यह बताओ कि वह कलवार कौन था जिसकी दुकान आपने गारत की?

जो - उसका हाल फिर कहेंगे। पहले यह तो सुनिए कि हमने उससे कहा क्‍या कि हम कौन हैं; हम सदर बाजार के ठेकेदार हैं। मुर्गी और अंडो का ठेका।

इस पर बड़ा फरमाइशी कहकहा पड़ा। कि इतने में वह दोस्‍त भी आए, जिनको खितमतगार बुलाने गया था - एक वकील, दूसरे डाक्‍टर। देखते हैं तो लाला जोती परशाद जो इस कदर परहेजगार और शराब के दुश्‍मन हो गए थे, वह हौज पर बैठे पी रहे हैं। डाक्‍टर ने कहा -

पीते देर, न तोबा करते : अच्‍छे हम हैं, अच्‍छी तोबा!

वकील ने हँस कर कहा - मिजाज शरीफ! - आखिर यह काया-पलट कैसी हो गई, यार?

जो - यह हमको डाक्‍टर साहब से दरयाफ्तकरना चाहिए!

डाक्‍टर - जब आपके दिमाग का इम्‍तहान लिया जाय तो मालूम हो।

जो - मगर आपलोगों ने बड़ी देर की।

वकील - हमारे पास एक कलवार आ गया। रोता था बेचारा। उसको कोई शरीफजादे गप्‍पा दे गए। और गहरा चरका दिया है। ऐसा, कि न कभी देखा, न सुना। वाह रे हमारे शहर! भई, अजब मुकाम है? अरे मियाँ, किराये पर मकान लिया, मकान को खुदवा के लकड़ी-ईंट सब पलेट डाली। और अब पता नहीं।

1 - कौन शख्‍स था भई?

2 - (जा. की तरफ खुफिया इशारा करके) अजी कोई होगा! लो डाक्‍टर जाम पियो। जो जैसा करेगा वह वैसा पाएगा। मकान पटेल लिया, पटेल लिया। इन्‍सान की तबीअत का भी कोई ठिकाना नहीं। कभी कुछ, कभी कुछ।

मगर लाला जोतीपरशाद साहब की तबीअत का भी रंग देखिए। इनकी तबीअत ने गिरगिट को भी मात कर दिया। धूप-छाँव की भी कोई हकीकत नहीं रही। घड़ी में कुछ है! जमाने की तरह रंग बदलनेवाले ऐसे ही होते हैं। या तो शराब के नाम से नफरत थी, बोतल की सूरत के दुश्‍मन। यहाँ तक की घर में पेशाब की शीशी तक तोड़ डाली, कलवारीखाने में जा के दाँद मचाई। और अब यह कैफियत है कि रंद बदमस्‍त जमा हैं, और दिल्‍लगी हो रही है, और चुहल हो रही है, और दौर चल रहा है। मजाक हो ही रहा था कि एक दोस्‍त ने कहा -

भाई साहब,

गुल बेरुखे - यार खुश न बाशद,

ब - बादह बहार खुश न बाशद

दूसरा बोला - हमारा भी साद है।

तीसरे ने कहा - हम भी रेजोल्‍यूशन को सेक हैंड करते हैं।

लाला जोतीपरशाद ने फौरन लाला रुख नाम की एक औरत को, जो जवान और खूबसूरत थी और अच्‍छा गाती थी, बुलवाया। दोस्‍तों ने पूछा - यार, यह पीती है? उन्‍होंने कहा - हाँ, खूब पीती है। एक बोला - बे इसके सोहबत का लुत्‍फ कहाँ? दूसरे ने कहा -वाह, वह माशूक क्‍या, जो इसका शगल न करे। गूँगी सोहबत किस काम की!

एक दोस्‍त ने नशे की हालत में यों उपच की ली - क्‍या ही समाँ है जाँफिजाँ : रिंद है जमा जा-ब-जा बाग है एक दिलकशा : सौते-हजार (बुलबुल का तराना) दिलरुबा बज्‍म में है, अजीब रंग : बजती कहीं है जलतरंग गाती है कोई शोख-शंग : तन-तनतन तनन-तना! बन के चली कोई दुल्‍हन : तन के चला कोई सजन है कोई नल, कोई दमन : बुलबुलो-गुल हैं एकजा मर्द हैं, मस्‍त और गनी : औरतें सब बनी-ठनी कोई बना, कोई बनी : रंगे-शराब है जमा साकीए-लाला फाम है : लाला-रुख उसका नाम है हाथ में सबके जाम है : उसपे गजक का है मजा

1 - भई पोचगोई (हलके मजाक की शायरी) में तुम सब से बढ़ गए।

2 - क्‍या दाद दी है, माशेअल्‍लाह।

3 - पागल हैं ये। वल्‍लाह, यह तर्ज हमको बहुत पसंद है।

2 - मजाक तो है ही, मगर उम्‍दा मजाक है। भोंडा मजाक नहीं है।

बन के चली कोई दुल्‍हन : तन के चला कोई सजन

है कोई नल, कोई दमन : बुलबुलो-गुल हैं एकजा

1 - इसमें क्‍या लुत्‍फ है?

2 - आपकी ऐसी-तैसी! हाँ दिल्‍लगी के दो चार लफ्ज अगर निकाल दिए जायँ, और उनकी जगह पर मुनासिब लफ्ज लाए जायँ तो फिर देखिए कि कैसी फड़कती हुई गजल, चोटी की, हो जाती है।

1 - अबे जा! फड़कती हुई गजल तूने सुनी भी नहीं है -

किससे उस शोख ने की रात को हाथापाई

नौरतन आज जो ढलका है तेरे बाजू पर!

2 - खुदा की मार!

3 - लाहौल विला कुव्‍वत!

4 - पहले मिसरे में तो उस शोख है, और दूसरे में तेरे बाजू पर, छी! शायरी है!!

जोती - मोहमल (निरर्थक) शेर है। भोंडा मजाक है।

3 - भोंडा सा भोंडा।

इतने में एक साहब जो जीने पर बैठे थे, हौज में लुढ़क गए : जल्‍ले-जलाल हू! एक गोता खाया - मुबारक! दूसरा खाया - मुबारक शुद! किसी तरह दो गोते खाके उभरे! खुद भी हँसे और हाजरीन ने भी कहकहा लगाया। जितने आदमी बैठे थे, मारे हँसी के लोटने लगे। और लालारुख ने तालियाँ बजा कर खूब जोर से कहकहा लगाया, और वह बहुत ही झेंपे। एक ने कहा - भई, खूब शुद! दूसरा बोला -

कश्तिये-जाफर जटल्‍ली दर-भँवर उफ्तादा अस्‍त डुबका-डुबका मी कुनद, ए अज-तवज्‍जह पारकुन!

तीसरे ने कहा - मालूम होता है कि हौज के पैराकुओं से मुकाबला करने गए थे। जरा डाक्‍टर को दिखा तो लो। हड्डी-पसली तो बच गई, या मरम्‍मत-वरम्‍मत की जरूरत है। हाथ शिकस्‍ता बहर (उखड़ा-उखड़ा छंद), और पाँव तैमूरलंग, और टाँग से लंगड़दीन, घोड़े का जीन!

ये बातें हो ही रही थीं कि लाला जोती परशाद साहब बहादुर के चचाजान इधर आ निकले। अब फरमाइए। उनको कौन रोके, सीधे दर्राए हुए घुस गए। देखते क्‍या हैं कि हौज पर जश्‍न हो रहा है। शराब की बोतलें भी पैर रही हैं और लोग भी धुत और गैन बैठे हुए हैं, और शेरो-शायरी भी हो रही है। और एक चमक्‍को भी बनी-ठनी बैठी है। उनको देख कर लालारुख भागने लगी, मगर चचाजान ने कहा -

यह क्‍यों? ये भागती क्‍यों हैं? बुला लो!

डाक्‍टर साहब ने कहा - किबला-ओ-काबा, ये गाने के लिए बुलवाई गई है।

चचा - क्‍या मुजायका है। ...जोती परशाद मिजाज कैसा है?

जो - किबला-ओ-काबा! एक जाम हजूर मेरे हाथ से पी लें!

चचा - लाओ बेटा। बड़ी खुशी से!

च - (पी कर) अब यह कहिए डाक्‍टर साहब, इनका मिजाज कैसा है?

डाक्‍टर - यकीन तो है, मिजाज रास्‍ते पर आ रहा है।

1 - अब इत्‍मीमान रखिए।

2 - मैं हजूर को मुबारकबाद देना चाहता हूँ।

चचा - है तो ऐसी ही बात।

जो - घर में इत्तला कर दीजिए कि अब दिमाग सही हो गया।

चचा - शुक्र है खुदा का।

एक साहब जो हौज में गोते खा चुके थे, उसके बाद कमरे में जाके लेटे थे, अब चौंक पड़े और एक बेतुकी हाँक लगाई - गरगरागर! फरफराफर! टाँय टाँय गरफिश्‍श्! टल्‍लेनवीसी भई टल्‍लेनवीसी!

जोती परशाद के चाचा ने हँस कर कहा - जंगबाज खाँ हैं!

'जंगबाज खाँ' इन्‍होने शराब का नाम रख दिया था - बल्कि शराब की उस हालत को, जिसमें इन्‍सान अपने आपे में नहीं रहता है, और बेकैफ हो जाता है। यह बेतुकी हाँक जो इन्‍होने लगाई, तो चचा समझ गए कि जंगबाज खानी हालत है।

वह हजरत अब कमरे से बाहर आए और लालारुख को देख कर कहा - लो जाने-जाँ, एक बोसा हमको दे डालो - बस एक! ज्‍यादा चूमाचाटी नहीं।

उस पर वकील साहब ने उठ कर कान में कहा - अरे भाई, यह क्‍या अंधेर करते हो! जोती परशाद के चचा आए हैं!

जवाब - जोतीपरशाद की ऐसी-तैसी!

- अरे मियाँ उनके चचा आए हैं।

जवाब - चचा की भी ऐसी तैसी।

- हाँय!! क्‍या जनून हो गया है!

जवाब - जनून और चचा दोनों की!

- (मुँह हाथों से बंद करके) अरे चुप!

चचा ने कहा - कहने दीजिए। इस वक्‍त इनकी माफ है! अंधे की दाद न फरियाद! अंधा मार बैठेगा!

उन्‍होने फरमाया - फरियाद की भी ऐसी-तैसी। अंधे की भी ऐसी-तैसी।

चचा ने जो यह कैफियत देखी तो समझे कि लड़कों की सोहबत में बैठना अच्‍छा नहीं होता। यहाँ से चलना चाहिए; और उठके चले गए। जोती परशाद ने अपनी वहशत का पूरा-पूरा हाल दोस्‍तों से बयान कर दिया कि बोतलवाले की बोतलें तोड़ीं और उसको झाऊलाल के पुल दौड़ाया और कलवार की दुकान की सारी कारगुजारी कह सुनाई, कि यों मठूरें तोड़ीं और बोतलों के औने-पौने किए और रेत भर दी, और उसके आदमी को दही- बड़े लेने को दौड़ाया - और चिराग गुल करके पगड़ी गायब कर दी। मारे हँसी के लोट-लोट गए।

उस दिन बारह बजे रात तक सब पिया किए, और पीते-पीते बदमस्‍त हुए कि किसी के हवास नहीं। सब चूर चूर।

1 - अरे यार खुर्दन (खाने-पीने का सामान) कहाँ है?

2 - 'खुर्दन' - खाना। 'बखुद' - खा तू! 'मीखुरम' - खाता हूँ मैं! 'मीखुरी' - खाता है तू!

3 - सैयाँ भए कुतवाल; अब डर काहे का!

4 - यार शराब अब नहीं है!

5 - बस अब फिजूल है। बहुत हो गई।

जो - भाई साहब, आज तो रात भर उड़ेगी।

1 - कुछ मरना थोड़े ही है। हाँ खाना मँगवाइए!

2 - खाने के साथ कुछ होना चाहिए!

3 - सैयाँ भए कोतवाल!

4 - इनको सबसे ज्‍यादा तेज है। इनको अब न मिले!

इतने में कबाब और पूरियाँ आईं।

डाक्‍टर - मैं इन हिंदुओं की पूरियों से जलता हूँ।

लालारुख - और हमको कबाबों के साथ पूरी ही अच्‍छी मालूम होती है। गर्मागम कबाब और गर्मागम पूरी और चटनी!

वकील - भजिया तो जैसी हिंदू हलवाइयों के यहाँ होती है, वैसी कहीं नहीं होती। लाख तदबीर करो वह जायका नहीं आता।

1 - अब इस वक्‍त सब गैन हैं। मगर इतने हवास हैं कि बातें कर रहे हैं। अगर एक दौर कड़क के और चला, तो बस -

सागर को मेरे हाथ से लेना कि चला मैं!

3 - सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का! अरे सैयाँ - ओ सैयाँ!

जो - (हँस कर) - इनकी तो रसीद आ गई।

1 - जी हाँ, पहुँच गई।

2 - अभी नहीं। अभी खजूर में हैं। एक जाम की कसर है।

3 - (बहुत खिलखिला कर हँसे) - सैयाँ भए कोतवाल रे!

इतने में लालारुख कमरे के अंदर गई और इधर-उधर से ढूँढ़ कर बरांडी की बोतल ले ही आई!

1 - अरे यार मार डाला! अब सब डूबे!

2 - डूबे तो हैं ही। यह कहो कि अब पता भी न मिलेगा! अब तक तो खैर सहारे से उभर भी सकते थे। मगर अब ऐसे डूबेंगे कि - गर्काब! बल्‍के : गड़काब!

जो - हाँ सामान तो ऐसे ही नजर आते हैं। ये पा कहाँ से गई?

लालारुख - हम तो पाताल की खबर लानेवाले हैं।

जो - मगर तुम्‍हारी थाह किसी ने न पाई!

3 - सैयाँ भए कोतवाल! अरे, हाँ।

1 - इनको न देना, नहीं ये कोतवाली ही जाएँगे!

इस फिकरे पर सब ने कहकहा लगाया। मगर वह गाया ही किए - 'सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का!' लालारुख ने सबसे पहले इन्‍हीं को जाम दिया। बाद में खुद लिया। और यों ही एक के बाद एक दौर चलने लगा। और जिन-जिनको बहुत तेज नहीं हुई थी उन्‍होंने खाना भी खाया। जो किसी कदर चूर थे, उन्‍होंने कुछ यों ही से दो-चार निवाले खाए; और जो सैयाँ भए कोतवाल की तरह सातवें आसमान की सैर कर रहे थे, उनके यहाँ रमजान-शरीफ ने डेरे डाल दिए! सैयाँ तो लौट गए। उनका पता नहीं। बहुत दूर निकल गए। और छकड़े पर लादे नहीं गए, रेल पर गए। स्‍पेशल ट्रेन पर। मारामार। इनके बाद दूसरे साहब भी रवाना बाशद। मगर ये भटियारे के टट्टू पर गए। उस तेजी और फर्राटे के साथ नहीं गए। दो बजे तक जमी। उसके बाद दो के सिवाय किसी को उठने-सरकने की ताकत न रही। जिन दो के हवास बाकी थे उनमें एक लालारुख और एक डाक्‍टर नूर खाँ थे।

लालारुख - आज बड़ी पिलाई हुई।

डा - मगर तुम भी कितनी चंचल हो!

ला - चंचल सी चंचल! फूफी-अम्‍मा कहती हैं, लालारुख! क्‍या जाने तू माँ के पेट में नौ महीने तक क्‍यों कर रही : बोटी-बोटी फड़कती है। मैंने कहा - शोखी तो मेरी घुट्टी में पड़ी है :

मामूर हूँ शोखी से शरारत से भरी हूँ! धानी मेरी पोशाक है, मैं सब्‍जपरी हूँ!

डा - सब कहते हैं बड़ी चंचल छोकरी है!

ला - छोकरी! च-खुश!! अच्‍छे-अच्‍छों को छोकरा बनाके छोड़ दूँ!

डा - (हँस कर) है तो ऐसा ही!

इतने में आवाज आई - 'सैयाँ भए कोतवाल!' और लालारुख के मुँह से फौरन निकला - अरे, ये फिर जीते हो गए!' इस पर डाक्‍टर जोर से हँस पड़े और कहा - ऐन मुर्दा तो जिंदा हुआ!

बस एक बार गा कर फिर जो सोए तो जागना सुबह तक कसम है! सोए, तो उठना मालूम! - मुर्दों से शर्त बाँध कर सोए! डाक्‍टर और लालारुख ने फिर थोड़ी-थोड़ी पी, और खूब सरूर गठे।

कोई चार बजे के करीब लाला जोती परशाद साहब की आँख खुली और खिदमतगारों को जगा कर हुक्‍म दिया कि कोठरी खोल कर उन बोतलों में से जो गाँव से खिंच कर आई हैं, एक बोतल निकाल लाओ। डाक्‍टर ने पूछा - कहाँ खिंची, भई? उन्‍होंने कहा - कोई आठ बरस हुए हमने इजाजत ले कर खिंचवाई थी; और चार साल तक दफनाई गई।

डाक्‍टर ने कहा - बे मिसाल होगी! इसका क्‍या कहना! नुस्‍खा किसने दिया था?

कहा - नुस्‍खा एक हकीम का लिखा हुआ है। गाजर और मुंडी और सौंफ, और गुड़हल के फूल और केउड़ा और मुर्ग और तीतर और बकरी का गोश्‍त और चिड़े, और बहुत सी ठंडी चीजें हैं। और रंग सुनहरी; और बू का नाम नहीं। बल्‍कि खुशबू। डकार ऐसी उम्‍दा कि वाह!

थोड़ी देर में आदमी बोतल ले कर आया।

ला - अरे, अब तड़के-तड़के न पी!

जो - आज की माफ है। लाओ जी!

डा - बडे दहादत्त पीनेवाले हो भई!

ला - सब न पियो। कहा मानो! नहीं, मर जाओगे।

डा - कैसी पागलपने की बातें करती हो!

ला - अब ये माननेवाले हैं भला! - तुम न पियो!

जो - वाह, ये न पिएँ, तो छाती पे चढ़के पिलाऊँ। हम तो डूबें, आप लोग मजे में हैं यह कौन बात है! सब के पहले तो मैं लालारुख ही को दूँगा। लीजिए; इनकार किया और मैं आग हो गया, बस!

ला - (जाम ले कर) इनकार इस चीज से नौसिखिये करते हैं। यहाँ हरदम बर्क। बर्कदम। (पी कर) वाह, क्‍या चीज है, वल्‍लाह!

जो - अब इन मुर्दो को तो जगाओ, डाक्‍टर!

डा - इस काम में लालारुख ही बर्क हैं!

ला - ए हम तो जगा दें इनके गड़े मुर्दों को!

सब के पहले सैयाँ को जगाया। वही, जो बार-बार चौंक-चौंक उठते थे और गाते थे, सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का! दो-चार बार जगाया, न जागे तो लालारुख ने कहा - यह मुआ मुर्दों से शर्त बाँधके सोया है! (पानी लोटे से सर पर डाल कर) हत्तेरे की!

वह कुलबुला के उठ बैठे।

ला - बंदगी, बड़े मियाँ! मिजाज अच्‍छे?

जवाब - (मुस्‍करा कर) सोने दो, तबीअत सुस्‍त है। तोबा ही भली!

ला - अरे, इससे तो सुस्‍ती जाती रहती है।

जो - हाँ, हाँ; आग का जला, आग से ही अच्‍छा होता है।

जवाब - और साँप का काटा रस्‍सी से डरता है।

डा - नहीं, इस वक्‍त थोड़ी-सी जरूर लेनी चाहिए।

ला - लो डाक्‍टर ने भी कह दिया, अब क्‍या है!

जवाब - अच्‍छा लाओ। पंच कहें बिल्‍ली तो बिल्‍ली ही सही। (पी कर) खुदा की कसम, आँखें खुल गईं। आबे-हयात है! यह कहाँ से आई, भई? यह तो नई चीज है। वल्‍लाह, क्‍या जायका है!

जो - अब औरों को भी जिंदा करो!

ला - पहले डाक्‍टर को तो दो!

डाक्‍टर ने बगैर पानी मिलाए पी, और बड़ी तारीफ की। कहा - राह-रूह इसी का नाम है। अव्‍वल तो खुशबूदार, दूसरे बढ़िया जायका। तीसरे फायदा करनेवाली जरूर होगी। अल्‍कोहल इसमें कम है। और चौ‍थे, वह साफ किया हुआ! बहुत ही साफ किया हुआ! अब इसके मुकाबले में न तो बरांडी की कोई हकीकत है, न आपकी व्हिस्‍की की! भई, एक जाम पानी भी मिलाके भी दो!

एक जाम पानी मिलाके भी पिया; और डाक्‍टर ने बड़ी तारीफ की। और लालारुख ने भी कहा - मैं तो सूरत के देखते ही खुश हो गई थी। इसके बाद सब एक सिरे से जगाए गए, और वही शराब उड़ने लगी। उस रोज भी रात-दिन यही शगल रहा। बराबर दौर पर दौर। और वही उसी दिन की हालत, कि किसी ने खाना खाया, और किसी ने कुछ नहीं। और कोई किसी रंग और कोई किसी तरंग में। सब मस्‍त। उस रोज यह अलबत्ता हुआ कि एक लालारुख के अलावा दो और आईं। एक गोरी साकिन और दूसरी जलाई देहातिन। वही हू-हक! वही चहलपहल।

तीसरे दिन सलाह हुई कि शहर में पूरा-पूरा सोहबत का लुत्‍फ नहीं। कहीं देहात में उन सबको ले कर चलना चाहिए। ताकि बिलकुल आजादी हो! सबने इस पर साद कर दिया।

डाक्‍टर और वकील तो शरीक न हो सके; उनको अपना-अपना काम था। और सब दोस्‍त, मय तीनों रंडियाँ शोखो-शंग के, एक बाग में गए, जो शहर से कोई तीन कोस पर था। वहाँ झोटे पड़े। मियाँ हुश्‍शू एक झूले पर लालारुख को लिए झूल रहे हैं। कोई दोस्‍त जौलाई से पेंग बढ़ा रहे हैं। कोई गोरी साकन को दम दे रहा है, राह पर ला रहा है। खाने-पीने की इफरात। मेवे हर किस्‍म में मौजूद। तमाम दुनिया के मजे और ऐश! चाहे नंगे नाचें, चाहे गाएँ-बजाएँ - ढोल बजाएँ। खूब धमाचौकड़ी मची। मियाँ हुश्‍शू दो दिन तक बेहोश : किसी वक्‍त होश आने ही नहीं देते हैं।

सर पटकता हूँ - पिला दे मये-सरजोश मुझे! साकिया दौड़ कि फिर आने लगा होश मुझे!

सब से ज्‍यादा बेकैफ हुश्‍शू थे। यहाँ तक कि दिल धड़कने लगा; और मारे प्‍यास के दम निकलने लगा। होठ हरदम खुश्‍क। पानी की सुराहियों पर सुराहियाँ खाली कर दी मगर होठ और हलक तर न हुए। और हों कहाँ से? दिन-रात बोतल मुँह से लगी हुई। कोई दम उससे खाली ही नहीं।

हुश्‍शू - अरे यार, कोई तो हमको ऐसी शय पिलाओ कि जरा हलक तर हो : होठ काँटा हो गए!

1 - बर्फ बराबर मिलाते जाओ!

2 - अब तुम सोने का ध्‍यान करो!

3 - सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का!

वाह वा! इनकी तो जान पर बनी हुई है और एक साहब सलाह देते हैं कि सोने का ध्‍यान करो! क्‍या अच्‍छा वक्‍त आराम का निकाला है! - कि वह दूसरे साहब फरमाते हैं : सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का! क्‍या खूब मौका गाने का मिला है!

लाला जोती परशाद का बुरा हाल था। खिदमतगार उनकी इजाजत के बगैर गाड़ी पर सवार हो कर शहर से डाक्‍टर को बुला लाया। डाक्‍टर ने आके देखा तो बुरा हाल था।

डाक्‍टर - क्‍या हाल है?

हुश्‍शू - (आहिस्‍ता से) बुरा हाल है।

डाक्‍टर - हद हो गई होगी? यह बड़ा ऐब है...

हुश्‍शू - जान पर बनी हुई है। उफ!

डाक्‍टर - (माथे पर हाथ रख कर) गर्म है। (नब्‍ज देख कर) तेज बुखार है। जबान देखूँ! अच्‍छा। बस, अभी कसेरू का शरबत बनवाओ। उम्‍दा चीनी और केवड़े और बर्फ के साथ पी लो। देखो अभी तस्‍कीन हुई जाती है। इस चीज के लिए कसेरू अक्‍सीर है।

डाक्‍टर - साहब के हुक्‍म के मुताबिक खिदमतगार शरबत तैयार करने चला, तो कई आदमियों ने उसे बुलाया और टोंका; क्‍योंकि सबके सब गोली खाए हुए थे, और सबको दवा की जरूरत थी; दो दिन तक शराब उड़ती रही।

1 - अरे भई, इधर आना। कसेरू का शरबत जरा ज्‍यादा लाना।

2 - हम भी पिएँगे।

3 - और पिएगा कौन नहीं?

खिदमतगार - मैं एक घड़ा भर लिए आता हूँ। सब साहब पिएँ।

डाक्‍टर - हाँ, इससे कम में कुछ भी न होगा। सब के सब कलेजे फूँक के आए हैं।

हुश्‍शू - मौत का सामना है।

यह कह कर हुश्‍शू उठे ही थे कि चक्‍कर आ गया, और गिरे तो बेहोश हो गए। दो - चार मिनट में जब गशी की हालत रफा हो गई तो आँख खोली और पानी माँगा। डाक्‍टर ने कहा - अब कसेरू का शरबत ही पीजिए। बर्फ और केवड़ा डाल के लुत्‍फ देगा। और कसेरू से ठंडक पहुँचेगी। जिन लोगों को इसका शौक है और इरकी हद कर देते हैं उनका यही हाल होता है। और जोती परशाद तो हुश्‍शू ही हैं। छोड़ दी तो इस गधेपन के साथ कि बोतलें और मठूरें चकनाचूर करने लगे। इसको तोड़ उसको फोड़, दहम-धँस! हम हुश्‍शू लिखते हैं तो पीते नहीं, औरा पीने पर आए तो भलमनसी के खिलाफ, अक्‍ल से दुश्‍मनी। भला यह भी कोई अक्‍लमंदी है कि दो-दो तीन-तीन दिन, आठों पहर वही एक हालत। सुबह, शाम, दोपहर, तीसरा पहर जब देखो चढ़ी रहती है। अफरातफरी इसी का नाम है।

एक हफ्ते तक लाला जोती परशाद साहब हुश्‍शू खटिया से न उठ सके। यार-दोस्‍त और घर के सबों को उनकी तरफ से फिक्र हो गई, कि खुदा ही खैर करे। रोज दो वक्‍त डाक्‍टर आते थे। और आपस में सलाह लिखते थे, और एक कंपाउंडर हरदम पास रहता था। आठवें रोज उनकी तबीअत जरा सँभली। डाक्‍टर ने सलाह दी कि एकदम से शराब न छोड़ दो। एकदम से तर्क कर देना नुक्‍सान पहुँचाता है। मगर उन्‍होंने एक न सुनी, और एकदम से तर्क कर दी। नतीजा यह हुआ कि हाथ-पाँव टूटने लगे। भूख बहुत कम हो गई। रात को नींद नहीं आती थी। दो महीने पूरे बेहद कमजोर रहे, और बाग से बाहर न निकले। दिन-रात बाग में रहते थे। अगर कोई मिलने गया तो जरा देर के लिए मिल लिए, वर्ना किसी से सरोकार नहीं। लेकिन खिदमतगारों और नौकरों को ताकीद थी कि खबरदार शराब पीके हमारे सामने न आना। बोतल किसी किस्‍म की न हो! तेल तक कुप्‍पी में आए : हमको इसके नाम और जाम और बर्तनों तक से नफरत है!

एक इनके दोस्‍त शैतान ने मिजाजपुरसी की तो ऐसे बेतहाशे बाग से भागे कि मंजिलों पता ही नहीं। जाते-जाते एक पार्क में पहुँचे। शाम का वक्‍त था, कोई साढ़े सात बजे। हरी-हरी दूब पर तकल्‍लुफ के साथ खाने की मेज और कुर्सियाँ चुनी हुई थीं और साहब लोग और मिसें और मेमें खाना खा रहे थे, और सार्जन्‍ट का पहरा था। कोई उधर जाने नहीं पाता था। मगर आप उनकी आँख में खाक-धूल झोंक कर धँस ही तो पड़े, और एक सिरे से टंबलर और गिलास तोड़ने शुरू किए। सब अचंभे में - कि या इलाही, यह कैसी बला सर पर आन टूटी! गिरफ्तार हुए। लोगों ने पहचाना। कहा - हजूर, यह फलाँ रईस के भतीजे हैं। साहब कमिश्‍नर इनके चचा को जानते थे। उनको फौरन बुलवाया, और कहा - आप कल भतीजे को फौरन पागलखाने भेजिए। इस वक्‍त इन्‍होंने बड़ी बेजा हरकत की। दो मेम साहब को गश आ गया; और एक खानसामा के सर पर बोतल तोड़ी। वह बेचैन है। आप इनका इलाज अपने आप न कर सकेंगे। बेहतर, कुछ दिन पागलखाने में रहने दीजिए, और वहाँ इलाज कीजिए।

चचा ने साहब मजिस्‍ट्रेट से कहा कि मुझे आप के हुक्‍म की तालीम में कोई उज्र नहीं। लेकिन फिक्र यह है कि पागलखाने गया तो औरतें कुढ़-कुढ़के मर जायँगी। बस इसका खयाल है। मैं कल मजिस्‍ट्रेटी में दरख्‍वास्‍त दे दूँगा कि मुझे इजाजत दी जाए कि पागल के पाँवों में जंजीर डाल कर के हिरासत में रक्‍खूँ।

साहब कमिश्‍नर ने इस राय को मुनासिब समझा, और दूसरे रोज मियाँ हुश्‍शू को किसी बहाने से मजिस्‍ट्रेटी ले गए। मजिस्‍ट्रेट ने इनका नाम दरियाफ्त किया। इन्‍होंने अपना कार्ड दिया। उन्‍होंने कई सवाल किए, सब का जवाब दिया। फिलासफी के मसले पूछे। ये बर्कदम : हर सवाल का जवाब मौजूद। हिस्‍ट्री में बहस की। ये पूरे उतरे। तब उन्‍होंने झल्‍लाके कहा - वेल, इसको कौन पागल कहता है?

लोग आगे बढ़के कहने ही को थे कि इत्तफाक से दफ्तरी साहब के इजलास पर दवात में रोशनाई डालने को लाया। बोतल का देखना था कि ये जन से इजलास पर थे; और जाते ही दफ्तरी के हाथ से छीनी, और फेंकी - तो सौ टुकड़े। साहब के कपड़ों पर रोशनाई ही रोशनाई! सरिश्‍तेदार पर रेल के वर्कशाप के खलासी की फबती होती थी। एक वकील साहब दाढ़ी सुर्ख-सुर्ख रँगा कर बहस कर रहे थे। रोशनाई कुछ 'रेशे-मुबारक' (दाढ़ी) पर, कुछ हलक से उतर गई! कोर्ट-मोहर्रिर, कान्‍स्‍टेबिल, चपरासी सब इजलास पर पहुँचे, और इनको ले आए। और साहब ने सरिश्‍तेदार को इशारा कर दिया कि हुक्‍म लिख दो कि जंजीर पाँव में पिन्‍हाने की इजाजत है।

दूसरे दिन चचा जो उनको ढूँढ़ते हैं तो इनका कहीं पता नहीं। समझे, कि हमारा वहशी निकल गया।

उस दिन तो अच्‍छी तरह आए, खाना खाया और कोई बात अक्‍ल के खिलाफ नहीं की। चचा ने दोस्‍तों और घरवालों की राय से यह तय किया कि आज इनको यों ही आराम करने दो, कल से कार्रवाई की जायगी। ये आधी रात को वहाँ से अपनी गाड़ी पर सवार हो कर एक होटल में जाके रहे। और सुबह को वहाँ से सौदागरों की दुकान पर तशरीफ ले गए। और इधर-उधर बहुत-कुछ खरीदारी की। रईस आदमी समझ कर सबने इनकी इज्‍जत-आबरू की। किसी को दस से सात दिए और तीन का रुक्‍का लिख दिया, किसी को हुक्‍म दिया कि फलाँ मुकाम पर आदमी को बिल ले कर भेज दो। किसी को कहा - बिल और सामान आज शाम को हमारे पास भेज दो! कोई कहीं गया, कोई कहीं; और ये जो लंबे हुए तो सीधे उसी उसी होटल पहुँचे। लेता मरे कि देता। दूसरे दिन इनकी पागलपने की खबर शहर भर में मशहूर हो गई। लोग पहले ही से जानते थे कि सिड़ी है।