हृदय-सिंहासन / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
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"जा रहा हूँ पारो, चिट्ठी लिखूँगा।"

यह बात सूनाखला का गतिनाहक गत शताब्दी के चालीसवें दशक में पारो को कहकर गया था। वह एक साल के लिए कहकर गया था, मगर डेढ़ साल के बाद लौटा था। जिस अंधेरी रात को वह घर लौटा था, उस रात मूसलाधार बारिश हो रही थी। घर लौटकर उसने क्या देखा?

रहने दीजिए उन बातों को। उन बोतों की पुनरावृत्ति करने में क्या लाभ? उस दिन के बाद धरती पर कम से कम बीस से पच्चीस हजार बार सूर्योदय तथा सूर्यास्त हुआ होगा। कितनी मूसलाधार बारिश वाली रातें बीती होगी। उड़ीसा राज्य ने कितने तूफान, चक्रवात, दुर्भिक्ष, अनिवृष्टि तथा अनावृष्टि को झेलने का अनुभव प्राप्त किया होगा! कितने उत्थान-पतन, स्वतंत्रता, वोट, गणतंत्रता, प्रगति, स्कूल, कॉलेज, कम्प्यूटर, टी.वी, मीडिया, कोकाकोला तथा आर्थिक- वैश्वीकरण के इंद्रधनुषों को इस राज्य ने देखा होगा! फिर भी इस राज्य में कुछ भी नहीं बदला हो जैसे। क्या कुछ बदलाव आया? इतना ही कि भूखे-दरिद्रों को किसी ने बी.पी.एल का नाम दे दिया, तो किसी ने अनाहार मृत्यु का नाम बदलकर कुपोषण-जनित मृत्यु रख दिया। दरिद्रय को छिपाने के लिए एक नाम खोज निकाला के बी.के (कालाहांडी-बोलांगीर-कोरापुट)। उसके बाद भी उड़ीसा में कोई बदलाव नहीं आया। ऐतिहासिक शूरवीर उड़िया लोगों का कंकाल जैसा शरीर अभी भी दिखाई देता है। गरीबी से बचने के लिए आज भी हजारों-हजारों उड़िया लोग अपना पैतृक गाँव छोड़कर जाते हैं यह कहते हुए, "जा रहा हूँ पारो, चिट्ठी लिखूँगा।"

उन हजारों गति नाहक और पारो की तरह इस कहानी के नायक और नायिका की भूमिका कोई अलग नहीं है। इस कहानी का वर्णन करने से पहले मैं उडीसा के महान कहानीकार स्वर्गीय गोदावरी महापात्र को प्रणाम करता हूँ। उनकी भाषा के माधुर्य का एक भी कण अगर इस अकिंचन की कलम में होता, तो यह लेखक अपने आपको धन्य मानता। पाठकगण, आप मेरे इस अधम कार्य और अश्रद्धा भाव को क्षमा कीजिएगा।

जिस दिन गति नाहक सूरत गया था, उस दिन तपती धूप में भुवनेश्वर जल रहा था। उडीसा छोडने से पहले एक अजीब-सी मोहमाया में फँस गया था गति नाहक।दुनिया का सबसे पिछड़ा राज्य उड़ीसा, उडीसा का सबसे पिछड़ा गाँव सूनाखला और उस गाँव में रहती थी उसकी पारो। यह तो ठीक ऐसी ही बात हुई जैसे सात हाथ पानी के नीचे नौ हाथ दलदल, उस दलदल के नीचे पड़ी एक सिंदूर की पेटी और उस पेटी में कैद है एक भँवरी।

पंजाबी सलवार कुरती पहने हुए, साँवला रंग, बिखरे हुए बाल, कुपोषण के कारण एक दम पतले-पतले हाथ और पैर, उसकी आँखों के तले की सफेदी खून की कमी का संकेत कर रही थी। उसकी माँ सूखी मछली बेचती थी। मगर गति नाहक को वह सबसे सुंदर और अच्छी लग रही थी। उसने शेक्सपियर को कभी नहीं पढा था, अगर वह उसे पढता तो जरुर कहता "कल सुबह होते ही सूनाखला के कौएँ, बिल्ली, कुत्तें सभी पारो को देख पाएँगे और केवल मैं नहीं देख पाऊँगा।"

पुरी से ओखा जाने वाली ट्रेन में साधारण टिकट लेकर एक सामान्य डिब्बे में चढ़ गया था गति नाहक। तालचर पहुँचते समय नयागढ़ के सुर बेवती ने उसको कहा, "टी.टी. के साथ मेरी बात हुई है कि अगर सौ रुपए दोगे तो तुम्हें एस.टू बोगी में एक सीट मिल जाएगी। और तुम आराम से सोते हुए सूरत चले जाओगे।

उस समय तक गति नाहक को ना तो रेलगाड़ी के बारे में कोई विशेष जानकारी थी, ना ही वह रिजर्वेशन के बारे में कुछ जानता था। वह उसकी पहली रेलयात्रा थी सूनाखला से सूरत तक। सूरत के कलिंग नगर में केन्द्रपाड़ा के सुंदर मुदली से एक सौ बीस रुपए मासिक भाड़े पर एक झुग्गी झोंपडी किराए पर लेना, कटक मिल में केजुअल मजदूर के रूप में काम करना, सब-कुछ तो इसने पहली बार किया था। लेकिन एक पल भी वह पारो को नहीं भूला था। पता नहीं ऐसा क्या आकर्षण था बिखरे बालों वाली, काली-कलूटी, अस्थि पिंजर जैसी पारो के शरीर में।

उडीसा में बाढ और चक्रवात के बारे में गति नाहक ने सूरत में सुना था। कोरापुट के लोग पेट भरने के लिए आम की गुठलियों का जाऊ खा रहे हैं, रायगढ़ा में नक्सलवादी नेताओं को मौत के घाट उतार रहै हैं, बोलांगीर के लोग अपनी जमीन-जायदाद छोड़कर रिक्शा चलाने के लिए रायपुर जा रहे हैं। कालाहांडी में एक छोटे बच्चे का दाम बीस रुपए से भी नीचे आ गया है। टी.वी.के न्यूज चैनलों में हर दिन उडीसा के बारे में इस तरह की खबरें प्रसारित हो रही हैं।

दूसरी तरफ सूरत में भी कारखाने बंद होने की कगार पर है। कुछ कारखानों का आधुनिकीकरण हो गया है, इसलिए वहाँ से मजदूरों की छँटनी भी होना शुरु हो गई है। कुछ जगहों पर स्थानीय गुजराती लोगों ने बाहर के लोगों तथा मुसलमानों के खिलाफ आंदोलन शुरु कर दिया है उसमें कुछ उड़िया श्रमिक भी हताहत हुए हैं। यही देखकर एक दिन गतिनाहक ने निर्णय लिया कि परदेस की इस भूमि पर रहकर आत्म-सम्मान बेचने से बेहतर है अपने गाँव लौट जाना। खूनाखला की मिट्टी पर सोना उगाया जा सकता है। गुजरात की काली पथरीली मिट्टी में खेती की पैदावार को देखकर उसके अंदर एक नया आत्म- विश्वास पैदा हो गया था। उसने इस चीज को बड़े ध्यान से देखा था, भूकंप से हुई भयंकर तबाही के बाद भी गुजराती लोगों ने हिम्मत नहीं हारी थी। जिस साहस के साथ उन्होंने फिर से घर बनाए तथा जिस साहस के साथ उन्होंने फिर से अपना सिर ऊँचा किया। उनका यह साहस सबक लेने योग्य उदाहरण था गति नाहक के लिए। वह उडीसा पर लगे इस कलंक को धोने के लिए सूनाखला लौट आया।

गति नाहक जिस समय अपने गाँव पहुँचा, उस समय ना तो कोई बाढ़ थी, ना कोई चक्रवात था, नाही मूसलाधार बारिश की वह रात थी, ना ही नक्सलवादियों का आतंक था और ना ही गाँव वाले 'जाऊ ' खा रहे थे। कहीं पर बच्चों को बेचने की बात भी नहीं सुनाई पड़ रही थी। बल्कि गाँव में नाटक खेले जा रहे थे. गाँव की गलियों में ट्रेकर द्वारा ओपेरा का प्रचार हो रहा था "सुंदरी गई है सुंदरगढ़"। गाँव के लड़के स्वयंसेवी बने हुए थे। इधर-उधर भागदौड़ कर रहे थे। नृत्य की एक रिकार्डिंग में चालीस अद्र्धनग्न लडकियाँ नृत्य कर रही थीं। गाँव वाले सभी आत्म-विभोर होकर उस नृत्य को देख रहे थे।

जब पारो ने सुना, गति घर आ गया है, उसका मन प्रफुल्लित हो उठा। वह उसको देखने के लिए दौड़कर नहीं आई, वरन अपने बाल सँवारने लगी. आज वह ओपेरा देखने जाएगी, इसलिए उसने अपने बाल शैम्पू से धोए थे। उसने अपने चेहरे पर बहुत पहले से खरीदी हुई क्रीम और पाउडर लगाया। फेरीवाले से लिपिस्टिक खरीदकर उसने अपने होठों पर लगाईं और सुंदर रंग की साड़ी पहन कर वह ओपेरा देखने के लिए चल पडी। सूरथ मलिक ने उसके लिए ओपेरा के पास की व्यवस्था कर ली थी।

सूरथ मलिक ओपेरा पार्टी का एक स्वंयसेवक है। राजनीति में नया-नया कदम रखा है। देखते-देखते वह विधायक का करीबी आदमी भी बन गया है। वह अगले साल पंचायत-चुनाव में वार्ड मेम्बर के लिए खड़ा होने की सोच रहा है। जब पारो ओपेरा पार्टी के तम्बू के पास पहुँची तब उसके बिखरे बाल, उसका काला-कलूटा चेहरा, उसका कंकालनुमा शरीर और नहीं दिखाई दे रहा था। तम्बू के बाहर रोशनी में सूरथ मलिक खडा होकर सोच रहा था, पारो किसी अप्सरा से कम नहीं दिख रही है। स्टेज पर बज रहे बेहेला, क्लारियोनेट, ब्यांगों, ट्रांगों की मधुर संगीत लहरियों में पारो का प्रोफाइल उसके मन को बेहद आकर्षित कर रहा था। उसे मन ही मन लग रहा था अगर पारो उसकी जिंदगी में नहीं आई तो उसका जीना व्यर्थ हो जाएगा। पारो सूरथ मलिक को वहाँ देखकर मंद-मंद मुस्काई। उसकी मंद-मंद मुस्कराहट में मानो पारिजात के फूलों की वर्षा हो रही हो। फूलों की इसी महक में, ओपेरा की मद्दम रोशनी में सूरथ को उसके जीवन की सुंदरतम अनुभूति का अह्सास हुआ।

जब गति नाहक को पता चला, पारो ओपेरा देखने जा रही है और सूरथ मलिक ने उसके लिए पास का प्रबंध किया है। यह सुनकर उसका मन उदास हो गया। उसे लग रहा था, जैसे कोई हिंदी फिल्मों के दुख-दर्द भरे गीत उसके ह्मदय में कोई गा रहा हो। घर जाकर उसने अपनी अटैची खोली तथा वह बारह कैरेट सोने के उस हार को ध्यान से देखने लगा, जिसे वह पारो के लिए खरीदकर लाया था। फिर एक बार एकटकी लगाकर उस हार को देखने लगा, धीरे से उसको स्पर्श किया और वापिस रख दिया।

जिस रात को पारो ओपेरा देखने गई, उस रात गति नाहक पखाल का एक कौर भी नहीं खा पाया। चुपचाप वह औंधे मुँह सो गया। घर वाले सोच रहे थे इतनी दूर ट्रेन से आ रहा है, थक गया होगा, इसलिए सो रहा है। थकान मिटाने के बाद अपने आप उठ जाएगा। लेकिन दूसरे दिन भी गति नाहक नहीं उठा। उसके दूसरे दिन और उसके दूसरे दिन भी वह उठ नहीं पाया। पारो को गति नाहक की इस बीमारी के बारे में पता चला, तब भी वह उसको देखने नहीं गई। डाक्टर को बुलाया गया। जाँच करने के बाद डाक्टर ने कहा, उसको सैलाइन चढ़ाना पडेगा। गाँववालों ने गति नाहक को खटिया सहित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में भर्ती करवा दिया। वहाँ स्टोर में सैलाइन नहीं था। जब इसके घर वाले सैलाइन खरीदकर लाए, उस समय तक नर्स की छुट्टी हो गई थी। गति नाहक ऐसे ही स्वास्थ्य केन्द्र के बरामदे में पडा रहा। दूसरे दिन डॉक्टर ने कहा, "इसको नयागढ़ ले जाइए।" नयागढ़ ले जाने की बात सुनकर सारे साथी इधर-उधर चले गए।

उधर पारो दूसरे दिन भी ओपेरा देखने जा रही थी। सूरथ मलिक मंद-मंद मुस्कराते हुए उसका पीछा करता था। उसका नाम बी.पी.एल तालिका में चढ़ जो गया था। इंदिरा आवास योजना में उसके नाम से एक घर भी बन रहा था। सूरथ मलिक के प्रयासों की वजह से उसको गाँव में आंगन बाडी वर्कर के रुप में नौकरी भी मिल गई थी। घर में दाल-चावल के बोरें, वेक्सीन के डिब्बें, गर्भ-निरोधक गोलियाँ तथा कान्डोम के पैकेट इत्यादि पड़े रहते थे। उस समय उसे गति नाहक की याद कैसे आती? पारो की माँ पुराने जमाने की थी। गति नाहक की माँ के साथ वह मकर-संक्रान्ति के दिन 'कुमुद' बैठी थी। अर्थात् मित्रता के सूत्र में बँध गई थी। उन्होंने प्रतीक्षा की थी, समय आने पर गति और पारो की शादी करने की। शायद इसी वजह से गति और पारो के बीच दोस्ती बढती गई। एक दिन पारो की माँ गति नाहक से कहने लगी, "बेटे, काम- धाम करके कुछ कमाते, कुछ आमदनी करते। तभी न पारो तुम्हारे घर जाएगी। तुम तो व्यर्थ में इधर-उधर घूमकर समय बिता रहे हो। रात-दिन 'पारो! पारो!' की रट्ट लगाने से भी मैं तुम्हारी कुछ भी मदद नहीं कर पाउंगी।" पारो की माँ की बात सुनकर गति नाहक सोचने लगा और कुछ ही दिनों बाद उसने सूरत जाने का मन बना लिया। सूरत में वह किसी कपडे की मिल में काम करेगा, खूब सारे पैसे कमाएगा और फिर लौटकर पारो से वह शादी रचाएगा।

इसी दौरान पारो के रंग-ढंग बदल गए थे। वह आँगनवाडी में एक वर्कर बन गई। महीने में एक बार मीटिंग के लिए उसे बी.डी.ओ. आफिस जाना पड़ता था. जैसे कुछ ही दिनों में उसके पंख निकल आए हो। पारो की माँ को यह समझ में आ गया था, पारो गति नाहक को और पसंद नहीं करेगी। उसे उड़ना आ गया है। ऐसा भी सुनने को मिल रहा था कि होमगार्ड की नौकरी में लडकियों को भी लिया जाएगा। सूरथ मलिक ने पारो/के लिए पैरवी करना शुरु कर दिया है। पारो अब पुलिस की तरह खाकी कपड़े पहनेगी और गाँव वालों के ऊपर शासन करेगी।

एक दिन पारो की माँ ने पारो को अपने पास बुलाया और कहने लगी, "पारो, ये सब बातें ठीक है क्या?"

"कौनसी बातें, माँ?"

"मैं गति के बारे में कह रही थी।"

"गति नाहक मेरा क्या लगता है?"

"उसकी माँ को मैने वचन दिया है।" पारो की माँ विनीत-भाव से कहने लगी।

"वचन दिया है तो मैं क्या कर सकती हूँ? मैने तो कोई वचन नहीं दिया। वचन तुमने दिया है, तो शादी भी तुम्हीं कर लो।"

"कुलक्षणी!" पारो की माँ गुस्से से चिल्ला उठी। वह जान गई थी, पारो अब और उसकी बात नहीं मानेगी। गति से वह और शादी नहीं करेगी।

प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के बरामदे में गति नाहक का अधमरा शरीर पड़ा हुआ था। वह अपने सीने से चिपका कर रखा था लाल रंग की एक पोटली को। पोटली के अंदर था सोने का हार, कानों की बालियाँ और पतली चूड़ियों की एक जोड़ी। अस्पष्ट रुप से उसके मुँह से आवाज निकल रही थी, "पारो! पारो!"

सूनाखला में चारों तरफ यह बात फैल गई थी कि गति नाहक और बचने वाला नहीं है। उसका समय खत्म होने जा रहा है। पारो की माँ बीच-बीच में जाकर उसको कभी जौ का पानी तो कभी सूजी का तरल हलवा चम्मच से खिलाकर आती थी। लेकिन पारो का कहीं कोई दर्शन नहीं हो रहा था। यब सब बातें सुनने से सूरथ मलिक को भी कष्ट हो रहा था। एक दिन उसने पारो से कहा, "देख पारो, गति नाहक के अध्याय को यहीं समाप्त कर देना चाहिए अन्यथा ठीक नहीं होगा, मैं कह देता हूँ।"

पारो मृत्यु शैय्या पर सोए गति नाहक को आखिरकर मिलने गई। उस समय शाम ढल रही थी। स्वास्थ्य केन्द्र के बरामदे में मच्छर ही मच्छर नजर आ रहे थे। डॉक्टर, फर्मासिस्ट सभी अपना-अपना काम करके वहाँ से जा चुके थे। बरामदे में थे केवल दो आवारा कुत्ते और एक गति नाहक। उसी समय पारो वहाँ पहुँची और गति नाहक से पूछने लगी, "गति भाई, ये सब क्या हो रहा है?" पारो को देखकर गति की आंखों में एक अजीब-चमक पैदा हो गई। उन चमकती आँखों से आँसू गिरने लगे।

पारो का मन गति नाहक को रोता देख पिघल गया। वह कहने लगी, "छिः, छिः ऐसे कोई रोता है।"

गति नाहक ने कुछ कहने की चेष्टा की मगर उसके मुँह से गँ गँ के अस्पष्ट शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं निकल सका।

पारो ने फिर कहा, "ऐसा क्यों कर रहे हो मैं तुम्हारी क्या लगती हूँ? मुझे मेरा जीवन जीने दो, गति भाई।"

गति फिर से कुछ कहने का प्रयास करने लगा। उसने अपने ईशारों से कुछ समझाने की चेष्टा की। मगर पारो नहीं समझ पाई। वह कहने लगी, "प्रेम यह क्या चीज होती है गति भाई? पेट की भूख के सामने प्रेम बहुत ही तुच्छ लगता है। आप समझते क्यों नहीं हो इस बात को? जिंदा रहने के लिए आकाश में चाँद नहीं भी होगा तो भी चलेगा, मगर पेट में रोटी नहीं हुई तो चलेगा क्या?"

पता नहीं, गति को कुछ समझ में आया अथवा नहीं. उसने अपने हाथ की मुट्ठी में पकडी हुई लाल पोटली को पारो की तरफ बढ़ा दिया। एक बार पारो ने उसे खोलकर देखा, फिर पहले की तरह बंद करके पोटली को गति नाहक के हाथों में पकडा दिया। वह कहने लगी, "ये सब अपने पास ही रखो, गति भाई। आप क्या सोचते हो मेरे हृदय -सिंहासन में खाली सोने की प्रतिभा बैठी हुई है? नहीं, मेरे हृदय के भीतर एक तडप है, जीवन जीने की ईच्छा, जिजीविषा। आपको यह चीज समझ में नहीं आएगी। इन सोने के गहनों का मोह मुझे कभी भी नहीं था। और अभी भी नहीं है। मुझे समझ पाना बहुत ही कठिन काम है।"

लाल पोटली को गति नाहक के हाथ में थमाकर पारो लौट आई थी उस दिन। उसके बाद घटित हुई थी वह आश्चर्य-जनक घटना। मानो गति नाहक के शेष जीवकोषों में किसी ने भर दिया हो जिजीविषा का तरल प्रवाह। किसी ने सारी संभावनाओं को झुठलाकर अखबारों की हेडलाइन होने जा रहे गति नाहक को अखबारों के पृष्ठों में से खींचकर गाँव के रास्ते पर नीचे सीधा खड़ाकर दिया हो। लोगों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। अगर यह जगन्नाथ महाप्रभु की भूमि उड़ीसा नहीं होती तो आज के युग में ऐसे चमत्कार दूसरी जगहों पर संभव नहीं थे। युग-युग से अशिक्षा, अत्याचार, अनाहार, उसके ऊपर प्राकृतिक विपदाएँ बाढ़, चक्रवात, अकाल की मार, राजनैतिक पतन, हर प्रकार के दुष्कर्म, भ्रष्टाचार और घोटाले पर घोटालों के बावजूद भी यहाँ पर लोग जिंदा रहते हैं उस जनता जनार्दन प्रभु चकाडोला की अपार कृपा से इस स्वर्गभूमि में नारकीय जिंदगी जीने के लिए। गति नाहक को एक नई जिंदगी प्राप्त हुई। वह उड़ीसा की इन बातों को भूलकर फिर से भुवनेश्वर दौड़ा पुरी ओखा ट्रेन पकडने के लिए।

इधर सूरथ मलिक ने देखा, उसके रास्ते का काँटा साफ हो गया है। लेकिन पारो तो जैसे कि चीज बडी हो मस्त-मस्त। अगर उसको जल्दी घर नहीं लाया गया तो वह हाथ से निकल जाएगी, इसलिए और इंतजार नही करके सीधे उसके पास जाकर शादी का प्रस्ताव रखा गति नाहक ने। उसे पूर्ण विश्वास था पारो शादी के लिए राजी हो जाएगी। नहीं करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। क्या नहीं है उसके पास? पिताजी के पैसे हैं, हाथ में स्पलेंडर मोटर

साईकिल है, पाँव में रीबोक के जूते पहने हुए हैं, सामने अच्छा राजनैतिक भविष्य है, गति नाहक से ज्यादा सुंदर चेहरा भी है। जब सब कुछ है तो पारो क्यों मना करेगी?

पहली बार पारों ने इस प्रस्ताव पर कुछ भी नहीं कहा। दूसरी बार भी वह चुप रही। मगर जब तीसरी बार उसने यह प्रस्ताव रखा तो वह कहने लगी, "सूरथ भाई, मेरे पास ऐसी क्या चीज है जिस वजह से आप मेरे साथ शादी करना चाहते हो?"

"तुम्हारे पास क्या चीज नहीं है, पारो! तुम्हारे गुण, तुम्हारा सुंदर मन, तुम्हारा रूप-लावण्य, सब कुछ तो है तुम्हारे पास।"

पारो हँसने लगी, "सूरथ भाई, मन की बात कह रहे हो। दुनिया में सबसे बड़ा धोखेबाज है, अगर कोई तो वह है मन। मेरा यह मन कल गति भाई में लगा था, आज तुम्हारे साथ कल किसी और का हो जाएगा। कल किसी तीसरे का नहीं होगा उसकी क्या गारंटी है?

रही अब गुण की बात, परिस्थितियों ने ही किसी को देवी सीता बना दिया तो किसी को राक्षसी शूर्पनखा। याद रखो, सूरथ भाई, सीता और शूर्पनखा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और यह शरीर? आइए, मैं आपको इसकी एक झलक दिखा देती हूँ।"

यह कहकर पारो उठकर खडी हो गई। उसने घर का दरवाजा बंद कर लिया। पहले उसने अपना सलवार खोला, फिर कुर्ता उतारा, फिर शमीज, फिर ब्रा और अंत में चड्डी भी खोल दी। पूरी तरह नंगी खड़ी होकर कहने लगी, "ठीक से देखो, सूरथ भाई, मेरी तरफ। ये हैं कुपोषण की मार झेलते हुए स्तन, अस्थि-मज्जा रहित शरीर की सारी हड्डी -पसलियाँ, काली चमडी, रुखे बाल। जरा मेरे मुँह के नजदीक आओ, मुँह से पायरिया की दुर्गंध सूँघ पाओगे। ऐसे शरीर को लेकर कोई सुखी रह सकता है क्या?"

सूरथ मलिक ने अपनी आँखें बंद कर ली दुःख से, शरम से, क्षोभ से और अपमान से। तुरंत दरवाजा खोलकर वह बाहर निकल गया। पारो अपने कपडे पहनने लगी। कपड़े पहनने के बाद अच्छी तरह से कंघी की, मुँह पर पाउडर लगाया तथा होंठों पर लिपिस्टक लगाई। सूरथ मलिक तो मर्द है. मर्दों का क्या विश्वास? हो सकता है पारो के लिए इंदिरा आवास योजना में बनने वाला घर रद्ध हो जाए। हो सकता है, बी.पी.एल सूची से उसका नाम काट दिया जाए। हो सकता है आँगनवाड़ी वर्कर से उसे हटा दिया जाए। आँगन वाडी वर्कर होने के कारण घर में दाल चावल की बोरियों के ढेर लग रहे थे, वे सब बंद हो जाए।

पारो जानती है सूरथ मलिक दुनिया में अकेला मर्द नहीं है। यह दुनिया मर्दों से भरी पडी है। अगर वह उन लोगों के साथ रहेगी तो इंदिरा आवास योजना का घर उसके नाम में रहेगा. आँगनवाड़ी का काम उससे कोई छुडा नहीं पाएगा। होमगार्ड की नौकरी भी उसको मिलेगी, अवश्य मिलेगी। इस दुनिया में सूरथ मलिक जैसे मर्दों की कमी नहीं है, इसलिए आज पारो ने फिर से होंठों पर लिपिस्टिक लगाई है। उन सभी के लिए है उसका यह उत्तेजक श्रृंगार।