हैप्पीनेस एक भ्रम है / जयप्रकाश चौकसे

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हैप्पीनेस एक भ्रम है
प्रकाशन तिथि : 25 अगस्त 2018

फिल्मकार आनंद एल राय अपने नाम के अनुरूप ही फिल्मों में निर्मल आनंद प्रस्तुत करते हैं। उनकी मनोरंजक पात्र हैप्पी फिल्म के पहले भाग में पाकिस्तान पहुंच गई थी और इस भाग में उन्होंने उसको चीन भेजा है। इस बार हैप्पी नामक दो नायिकाएं हैं। अगर हम फिल्म को भोजन के रूप में वर्णित करने का प्रयास करें तो लब्बोलुआब यह है कि चीनी भोजन में चिली सॉस होता है और इस फिल्म में चिली सॉस कम डाला गया है। जिस कारण फिल्म उतनी ही स्वादहीन है, जितना कि मूल चीनी भोजन होता है। भारत में चायनीज फूड में देशी तड़के के कारण उसका जायका स्वादिष्ट होता है। हर विदेशी चीज भारत में आकर अपने मूल चरित्र से कुछ अलग ही हो जाती है। भारत की मिक्सी कुछ अधिक पीसती है।

यह फिल्म प्याज की तरह है सो सारे छिलके उतारते हुए यह बात सामने आती है कि चीन पाकिस्तान को अपने पलड़े में रखकर भारत को तन्हा करना चाहता है। फिल्म का आधार इस तरह बनाया गया है कि चीन पाकिस्तान में एक पॉवर प्लांट डालना चाहता है और वहां की सरकार ने अनुंबध पर दस्तखत नहीं किए हैं। चीन चाहता है कि यह काम जल्दी हो जाए। उन्हें ज्ञात है कि भारत की हैप्पी नामक लड़की का पाकिस्तान के एक राजनीतिक परिवार पर अच्छा खासा प्रभाव है।

अत: उस हैप्पी को अपने एजेंट के रूप में इस्तेमाल करने के लिए उसका अपहरण कर चीन लाना चाहते हैं परंतु उनके एजेंट समान नाम होने के कारण अन्य हैप्पी को उठा लाते हैं। भाग के एक सारे पात्रों को ही उन्होंने शंघाई में इकट्‌ठा किया है। फिल्म में प्रस्तुत शंघाई बहुत हद तक दिल्ली के चांदनी चौक की तरह दिखाई पड़ता है। कभी-कभी वह हिस्सा दिल्ली की पराठे वाली गली की तरह भी प्रस्तुत हुआ है। चीन में रोपित खलनायक भी दरअसल, पंजाब का ही एक बंदा है और बड़ी गाढ़ी उर्दू बोलता है। पहले भाग का पुलिस वाला भी इस भाग में उर्दू ही बोलता है। इसलिए फिल्म के मध्यांतर में यह लिखा होता है कि उर्दू में मध्यांतर को 'वक्फा' बोलते हैं। फिल्म की पटकथा में इस बार भाग एक की कसावट नहीं है परंतु संवाद मजेदार हैं। यहीं बात संगीत पर भी लागू होती है। आनंद एल राय की हर फिल्म की तरह इस फिल्म में भी जिमी शेरगिल ने विश्वसनीय अभिनय किया है। वे हर फिल्म में कुंवारे ही रह जाते हैं। इस फिल्म में उनके रोग का सही निदान किया गया है कि जिमी शेरगिल अभिनीत पात्र को शादी से अपना ध्यान हटाकर पहले प्रेम में पड़ना चाहिए तो रास्ता बन जाएगा। इस भाग में पहले वाले भाग के कुछ अंश दोहराए गए हैं। मसलन यह संवाद कि मधुबाला से तो सभी प्यार करते हैं परंतु मुद्दा यह है कि मधुबाला किसे प्यार करती हैं।

आनंद एल राय ने पहली बार समलैंगिकता के लिजलिजेपन को भी अपनी फिल्म में ठूंसा है परंतु सारे मामले ही सतही बन कर रह जाते हैं। यह फिल्म तो कुछ ऐसी है कि मानों सीधे हाथ से बल्लेबाजी करने वाला कोई बल्लेबाज बाएं हाथ से खेले। बहरहाल, मुद्‌दा यह है कि हैप्पीनेस सभी देशों में आम जीवन से नदारद होती जा रही है। कमोबेश ऐसा लगता है मानों आनंद भी महज रस्म अदायगी होकर रह गया है। अवाम को अपनी विचार शैली में सिलिकॉन चिप की तरह आनंद को भी प्लांट करना होता है और अब आनंद का अभिनय करते रहना ही हमारी नियति बन गया है।

प्राय: फिल्मकार अपनी किसी सफलता को नुस्खा बनाने का प्रयास करते हैं। इस तरह फ्रेंचाइजी गढ़ी जाती है। अधिकांश दर्शक इसी फ्रेंचाइजी की ओर आकर्षित होते हैं। किसी भी सफल फिल्म के भाग दो को भाग एक से अधिक मनोरंजक बनाना आसान नहीं होता। आनंद एल राय ने 'तनु वेड्स मनु' का भाग दो मनोरंजक गढ़ा था परन्तु 'हैप्पीनेस' में चूक हो गई है। बहरहाल, चटपटे संवाद और विश्वसनीय अभिनय पारी को संभालने का प्रयास करते हैं। परंतु किसी भी टीम को पुछल्ले बल्लेबाजों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।