होमो-इरेक्ट्सकालीन / दीर्घ नारायण

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अरे! इस झील को आज क्या हो गया है! मैं तो पिछले पच्चीस वर्षों से इसका करीबी शागिर्द रहा हूँ। सूर्योदय व सूर्यास्त बेला में स्वच्छ नीला आकाश तो इसके पूरे विस्तार में समाया रहता है; निश्चिततः सदियों के सहगामिनी हैं। आज भी आसमान पूरा-पूरा साफ है, दूर-दूर तक बादल का कोई टुकड़ा नहीं, बदरी की कोई आहट नहीं। पर झील में आसमान की एक झलक भी नजर नहीं आ रही है। जरा नजदीक से झील की गहराई में नजर गड़ाकर देख तो लूँ। अरे! ये क्या? जहाँ कल तक आसमान की नीलिमा अंगड़ाई ले रही थी, आज कोई काली छाया सी क्यों और कैसे पसरी जा रही है। मैं तो वर्षों-वर्षों से झील के इस किनारे से उस किनारे तक होते हुए आगे की पहाड़ियों-जंगलों और उससे आगे खेत-खलिहानों तक नित-नित टहलता रहा हूँ; सुबह-शाम। मित्र- मण्डली की हमजोली में। जब सभी व्यस्त होते हैं तो अकेला ही निकल पड़ता हूँ। पर आज तो अकेले-अकेले इस झील के किनारे टहलना मन में घबराहट उत्पन्न करती जा रही है; आखिर झील के स्वच्छ पानी के नीचे लम्बी काली साया को देर तक कैसे निहार सकता हूँ। तो क्या आज झील रूठ गयी है या आकाश कहीं खो गया है! तो फिर आज झील के उस छोर तक जाने के बजाय पीछे वाली पगडंडी पकड़कर पहाड़ी तक पहुँचना ठीक रहेगा। पगडंडी वाला रास्ता लम्बा जरूर है पर पहाड़ी के नीचे चहलकदमी का विशेष आनन्द भी तो है।

हाँ, अब ठीक है। वो रही पहाड़ी। अंधेरा जरूर पाँव पसार रहा है, पर पहाड़ की तलहटी में शुद्ध हवा के सेवन का विकल्प है क्या कोई! पर!पर!!उफ! हवा में यहाँ धुएं की गन्ध कहाँ से तैर रही है। अरे! ऊपर पहाड़ी की फुनगी पर तो धुआँ-धुआँ हो रहा है। लो, अब तो पूरी पहाड़ी में यहाँ-वहाँ धुएं की अष्टावक्र मीनारे सी उठ रही हैं। आज हो क्या रहा है? अंतरिक्ष विज्ञानी के हिसाब से यूनिवर्स में कोई बड़ी सौरमण्डलीय घटना तो नहीं घटने वाली है? आज के अखबार में ऐसा कोई जिक्र तो था नहीं। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि यहाँ के समाचार-पत्र वालों के लिए राजनीतिक उठा-पटक की तुलना में एक खगोलीय अनहोनी एक मामूली बात भर हो; सो इस विषय में कुछ न छापा हो, या छापा भी हो तो अखबार के किसी एकान्त कोने में दो लाइन की पिद्दी सी खबर! कुछ भी हो, इस रास्ते में आगे बढ़ने का मतलब है फेफड़े में धुआँ संक्रमण को आमंत्रित करना। फिर? फिर? फिर तो दाहिने मोड़ से उत्तर दिशा की ओर बढ़ना उचित रहेगा। उस तरफ सुखदा वन-प्रभाग का जंगल शुरू हो जाता है। वहाँ पहुँचते-पहुँचते अंधेरा थोड़ा युवा हो तो जाएगा, पर वहाँ की हवा भी तो निराली है।

इन जंगलों को तो मैं बचपन से ही जानता हूँ। बचपन में यहाँ से गुजरते हुए कभी-कभी तो ऐसा अनुभव होता था, जैसे मैं भी इन्हीं जंगलों में पलने-बढ़ने वाला एक जन्तु हूँ। वैसे भी यह जंगल है लाजवाब। बेर, जामुन, बरगद, पाकड़, शीशम, सागवान, महोगनी, बांस आदि से भरभूर! हर मौसम जवां-जवां। हमारे महानगर की जीवन-रेखा। सचमुच यह जंगल न होता तो शायद महानगरवासियों को ऑक्सीजन के

सिलिंडर लेकर चलने पड़ते। जंगलात महकमें वालों ने भले ही सरकारी नीलामी के नाम पर शीशम, सागवान चट कर गये हों, पर अभी भी इसकी हरीतिमा युवा है। अंधेरा गहरा रहा है तो क्या, एक-दो किलोमीटर चलकर इसके सीने से निकली हवा की धार का अमृत-स्वाद चख ही लिया जाय। अरे बाबा! इस जंगल में आज क्या हो गया है। सभी हरे-भरे पेड़ ऊपर से सूखे जा रहे हैं। यह किसी आसन्न खगोलीय अनहोनी का पूर्व-प्रभाव तो नहीं है? ओह, कितना बदरंग हुई जा रहा है यह जंगल! भयावह होती जा रही इस जंगल की पगडंडियों पर शाम के अंधेरे में चलना वो भी अकेले, कम डरावना नहीं है! कहीं ऐसा तो नहीं, आज मैं किसी भ्रम या वहम का शिकार हो गया हूँ? पर भ्रम या भ्रांति कैसे हो सकती है? मैं तो ठीक-ठीक चल रहा हूँ, देख रहा हूँ और ठीक-ठीक सोच-समझ भी रहा हूँ। जीभर संध्या-भ्रमण के बिना रात में चित्त-चैन कहाँ मिलेगा। अवसाद-ग्रस्त होने का खतरा अलग से। सो बाकी भ्रमण जंगल के परले तरफ दसियों किलोमीटर तक फैले हरे-भरे खेत-खलिहानों में पूरा करना उत्तम रहेगा।

अहा! क्या हरित-स्थल है। दूर-दूर तक फैले रहे-भरे खेत! हवा से बातें करती खेत-के-खेत गेहूँ तो बीच-बीच में पीले पुष्प बिखेरने को तैयार सरसों के खेत। आँखों का विश्रान्ति स्थल। सचमुच गाँवों की छटा निराली है। वैसे तो इस महानगर में सुख-सुविधाओं की भरमार है। धनवानों के लिए अय्यासी के अड्डे हैं। सबसे बढ़कर, महानगर में गरीबों की सांसे सार्वकालिक रूप से हाड़-मांस तोड़ श्रम के बूते चल रही हैं और बुढ़ापा नरक में कैद; पर उन गाँवों में तो गरीबी भी आनन्द का पोशाक व मुस्कान का आभूषण धारण किये जीवंत है। वैसे भी मेरा अधिकांश

जीवन-काल ग्रामीण क्षेत्रों में बीता है, सो एकाकी भ्रमणकारी की स्थिति में धरती का हरा-भरा यह टुकड़ा मुझे लुभता रहा है। गाँव की हद व जद में गये बगैर ही शरीर व मन को भरपूर खुराक। ठीक है साढ़े आठ बज चुके हैं, अंधेरा अपना बिस्तर धरती में फैला रहा है, पर आज के भ्रमण का कोटा पूरा किये बगैर मैं तो लौट भी नहीं सकता। वैसे यह कोई भुतहा जगह तो है नहीं। वो सामने! गाँवों की आग्ने-ज्वाला तो आँखों से टकरा रही है। लगता है, बड़े चौधरी के घर भोज-भात है।

अरे! अरे, ये आग की लपटें तो फैलती जा रही हैं; और काफी ऊँची धधक रही हैं। लग रहा है आग ने पूरे गाँव को अपने आगोस में ले लिया है। तो क्या बड़े चौधरी के भोज की लपटें धधक कर पूरे गाँव को अपनी लपेटे में ले लिया है। ये कैसी ज्वाला है! दूर आसमान तक अग्नि-शिखा क्यों उठ रही है। घरों-झोपड़ियों में लगी आग की ज्वाला भला गगन-चुम्बी हो सकती है? नहीं, नहीं! वो रहा गाँव; आग की लपटों के पीछे सही-सलामत। अब तो आसमान तक ऊँची लपटों के पीछे सारा गाँव यथा-स्थान विराजमान है; बिना किसी क्षति के। फिर धरती के गर्भ से ये कैसी ज्वाला फट पड़ी है।क्या सचमुच अंतरिक्ष में कुछ अनिष्ट आरम्भ हो चुका है............

ओह! मेरे दाहिने तरफ ये कैसी गड़गड़ाहट हो रही है। लगता है कोई विपत्ति आसमान से धरती की ओर बढ़े चली आ रही है। यह तो कोई विशाल उल्कापिण्ड प्रतीत हो रहा है; डरावनी मुखाकृति और अति विस्तारित पूँछ! हाँ-हाँ; यह तो सचमुच ही उल्कापिण्ड है। तीव्र गति और कर्कश गड़गड़ाहट। इसके आकार और वेग का गुणनफल तो निश्चित ही

धरती के सीने को आर-पार कर देगी। ऐसे दो-चार उल्कापिण्ड धरती से टकरा जाय तो धरती टुकड़ों में बिखर जायेगी। ओह, ये तो सच ही धरती के सीने में विशाल घाव करते हुए अन्दर समा रही है। अब तो वहाँ से ज्वाला सी फट पड़ी है। तो क्या पहले वाली अग्नि-ज्वाला भी किसी आकाशीय उल्कापिण्ड का परिणाम है। लेकिन एक साथ दो-दो विशाल उल्कापिण्ड के धरती से टकराने की घटना तो पहले कभी नहीं घटी। कहीं ऐसा तो नहीं, कि सौरमण्डल के दो पिण्डों या अन्तरिक्ष के अन्य पिण्डों की आपसी भिड़न्त के परिणामस्वरूप उनके एक-दो टुकड़े धरती की ओर विचलित व विचरित हो गये हों। रे!रे!!र!!! बायीं ओर नभ-छेदन सी ये ठहाका कैसी! क्या अंतरिक्ष से कोई महिषासुर, वाणासुर, भस्मासुर प्रकट हो रहा है। क्या रामायण-महाभारत में वर्णित असुरी ताकत सचमुच कलियुग में प्रकट हो रहे हैं। यह तो कोई अन्य कठोरतम आकाशीय पिण्ड है। अरे इसने तो देखते-देखते धरती में इतना विशाल छिद्र कर डाला है कि सम्पूर्ण पृथ्वी काँप उठी है। अब तो वहाँ से जलधारा की जगह विशाल रक्तधारा फूट पड़ी है। कहीं सारी पृथ्वी में रक्तमय जल-जला न फैल जाय। हे ईश्वर! एक नहीं बल्कि एक साथ दो भारी पिण्ड धरती पर जोर से टक्कर दे मारी है। तीव्रतम भूकम्प! रक्तिम जल-जला! आगे-पीछे दायें-बायें भीषण अग्नि-लपटें। क्या पृथ्वी में अब कुछ भी बच पायेगा? बच भी कैसे पायेगा जब इतने सारे भटके हुए आकाशीय पिण्ड पृथ्वी को आर-पार कर देने वाली टक्कर मार रहे हों। अब मैं क्या करूँ? आगे-पीछे दायें-बायें किस तरफ से भाग निकलूँ.............ओह, मेरे पैर को ये क्या हो गया है! उठ क्यों नहीं रहे हैं ? धरती से तो बिल्कुल चिपके नहीं हैं; पर एक रत्ती उठ भी नहीं रहे हैं। कहीं पैर शरीर से अलग निर्जीव शाखा मात्र तो नहीं रह गये हैं। पर

इसमें जीवन व स्पन्दन महसूस हो तो रहा है; लेकिन यह तो हिल भी नहीं रहे हैं। तो क्या सामने प्रकट सृष्टि विनाश लीला से नजर हटाकर या आँखें बन्दकर मैं यहीं धरती की गोद में लेट जाऊँ। क्या इससे विनाश लीला टल जाएगी या फिर ऐसा हो सकता है, कि सृष्टि नष्ट हो जाय और मैं अक्षत अनष्ट रह पाऊँ?

अरे, प्रकृति के सभी उपादान यहाँ कैसे प्रकट हो रहे हैं? जब मैं यहाँ से नहीं हिल-डुल पा रहा हूँ तो मैं उस झील, पहाड़ी और जंगलों के पास कैसे पहुँच गया हूँ! ये सभी तो पीछे छूट चुके थे। क्या ऐसा हो सकता है कि ये कोई और झील, पहाड़ी या जंगल हों? पर इन्हें तो मैं बचपन से जानता हूँ, ये सभी मेरे अपने झील, पहाड़ और जंगल हैं। लेकिन, थोड़ी देर पहले तो ये जंगल पूर्णतः हरे-भरे थे। सिर्फ फुनगी सूख सा गया था; पर अब तो पूरा का पूरा जंगल सूखा पड़ा है। और जंगल के अन्दर वो श्वेत-श्वेत सा क्या है? बादलों ने अड्डा जमा लिया है क्या! नहीं-नहीं, ये तो स्पष्टतः धुआँ है, हाँ धुआँ! धुएँ की मीनारें! पर आग तो दिख नहीं रही है! अरे ये पहाड़ियाँ तो अभी तक हरे-हरे घासों- झाड़ियों से लकदक थी। पर अब अचानक ये सफाचट कैसे दिखने लगी? बिल्कुल नग्न! कोई पौध नहीं, कोई जीवन नहीं, कोई रंग नहीं, कोई सौन्दर्य नहीं। हाँ, हाँ; वो ऊपर ज्वालामुखी उगल रहा है। लावा और आग! पूरे आसमान में लहराते हुए दहकाते हुए। सिर्फ पत्थर! काले-काले, जले-जले पत्थर! सिर्फ पत्थर; जैसे कि पत्थर दिल। अब तो अपनी माँ सरीखी झील डायन सी दिखने लगी है। इसकी खूबसूरती पलभर में कैसे गायब हो गयी। जब मैं पहाड़ को देख रहा था, अचानक झील का पानी काला रंग क्यों ग्रहण कर लिया?

अचानक इतनी तीव्र गड़गड़ाहट क्यों होने लगी है? और ये सूरज की रोशनी इतनी तेज और तीखी कैसे होने लगी? अरे! लग रहा है ये पृथ्वी तेजी से सूरज की तरफ बढ़ रही है। तभी तो पृथ्वी के तेज गति से भागने के कारण इतनी तीव्र गड़गड़ाहट उत्पन्न हो रही है और सूरज के नजदीक आते जाने पर सूरज की रोशनी असहनीय होती जा रही है। ओह! अब तो धरती का तापमान तेजी से बढ़ने लगा है। ये मेरे बगल में सुन्दर सा कौन आकाशीय पिण्ड है जिसे पीछे छोड़ते हुए पृथ्वी आगे खींची चली जा रही है! ओह, ये तो बच्चों का चन्दा मामा है। क्या पृथ्वी इतनी तेजगति से सूरज की तरफ खींची जा रही है कि चन्द मिनटों में ही चन्द्रमा को पार कर आगे खींची चली गयी है! क्या पृथ्वी का अपना गुरूत्वाकर्षण घटता जा रहा है? फिर तो अगले चन्द मिनटों में पृथ्वी का वायुमण्डल विलुप्त हो जाएगा। तब तो लाखों वर्षों से धरती में संवर्द्धित जीव-तत्व एकाएक निर्जीव तत्व में रूपान्तरित हो जायेंगे। पृथ्वी की गति से प्रतीत हो रहा है, ये तो अगले कुछ घण्टों में सूरज में समाहित हो जाएगी। हे अन्तरिक्ष-नियंता! क्या इसी कालादिन के लिए धरती पर जल, वायु और फिर जीव-तत्व पनपने दिया था??........

लेकिन, लेकिन! तीव्र गड़गड़ाहट की आवाज अब एकाएक बन्द क्यों हो गयी?.......ओह, गड़गड़ाहट की जगह अब ये सरसराहट कैसी! किसी बड़ी चीज के तेजी से सरकने की सन्न कर देने वाली आवाज है यह। कौन सी बड़ी चीज हो सकती है यह? हाय! अब तक सूरज की ओर तेजी से खिंची जा रही ये अपनी पृथ्वी ही तो अब विपरीत दिशा में गिरती जा रही है; सूरज से एकदम दूर छिटकती हुई! तो क्या सूरज का

गुरूत्वाकर्षण खत्म हो गया या इतना घट गया है कि अब वह अपने नवग्रहों में सर्वाधिक खूबसूरत और प्यारी-प्यारी सी पृथ्वी को भी अपने नियंत्रण में रख पाने में असमर्थ हो गया है। शायद पृथ्वी में अभी-अभी घटित हो रही अबतक की सबसे बड़ी किसी अनर्थकारी घटना से खफा होकर सूरज ने पृथ्वी को उसके पथ से विपथ कर दिया हो; या फिर घटित हो रहा पाप-पुंज इतना शर्मनाक तो नहीं कि धरा का ऊर्जा स्रोत सूर्य भी शर्मसार होकर उधर से आँखें फेर लिया हो; और सूरज के आँखें फेर लेने या मूंद लेने के दौरान ही सूर्य व पृथ्वी का आपसी गुरूत्वाकर्षण अचानक इतना असंतुलनकारी हो गया हो, कि पृथ्वी तेजी से रसातल की ओर सरकाती जा रही हो! हाँ-हाँ, सचमुच ही तो पृथ्वी रसातल में समाती जा रही है, शायद किसी दूसरे सौर-मण्डल या आकाश-गंगा की अतल गहराइयों में; तभी तो अब सूरज की रोशनी पृथ्वी के किसी भी हिस्से में नहीं दिख रही है। और तापमान भी तो शून्य से काफी नीचे चला गया सा लग रहा है। अरे, इतने भर में झील का पानी जम सा क्यों गया, बिल्कुल बर्फ!पर काला! हाँ-हाँ श्याम रंग हिम! दुनिया के विनाश का हिमांक! श्याम-हिम। पर ये हिमांक वाली स्थिती तो पहले वाली स्थिति से थोड़ी उम्मीद भरी है। पहले तो पृथ्वी तेजी से सूरज की ओर खींची जा रही थी; कदाचित ऐसा होता तो पूरे अन्तरिक्ष में अनुपम सौन्दर्य की मिशाल हमारी पृथ्वी चन्द मिनटों-घण्टों में ही सूरज की आग में खाक हो गयी होती; फिर तो किसी भी जीव का कोई भी जीव-द्रव्य या कोशिका भविष्य की सृष्टि के लिए संरक्षित नहीं रह पाती। पर अब तो पृथ्वी सूरज से विपरीत अतल गहराइयों में गुमनाम होने जा रही है, तो सम्भव है कि पृथ्वी के जीव-सभ्यता के सबसे बड़े नैतिकवान व मान- मर्यादा रक्षक जीव की एकाध कोशिका बच जाय; भविष्य में किसी

उत्कृष्ठ और सर्वगुण सम्पन्न-रूपक सभ्यता की सृष्टि हेतु। तो हे धरा- माते! यदि तुम धरती के भार या पाप को सचमुच वहन व सहन करने में असमर्थ हो गयी है तो समा जा किसी अतल गहराई में........

अब यहाँ से कहीं भाग जाने से क्या फायदा? धरती में कुछ बचना ही नहीं है तो कहीं जाने न जाने से क्या लेना-देना। पर अब तो यहाँ खड़ा रहना दूभर होता जा रहा है। मेरी छाती धौंकनी जैसी क्यों फैल और सिकुड़ रही है। यह क्या? साँसें अन्दर नहीं जा रही हैं! लग रहा है, मेरी नासिका के आस-पास से हवा गायब हो गयी है। पर जंगल तो जोर-जोर से लहरा रहे हैं; फिर मेरे पास वायु-शून्य क्यों! नहीं-नहीं वायु जैसा कुछ तो है, पर प्रतीत हो रहा है, इसमें श्वास लेने योग्य तत्व नहीं बचे हैं। तभी तो छाती लाख खींचने के बावजूद भी श्वास लेने जैसा नहीं लग रहा है। लगता है, पृथ्वी इतनी दूर छिटक गयी है जहाँ वायुमण्डल ही न हो। हाँ-हाँ, ऐसा ही हुआ है; तभी तो नये सौरमण्डल के सक्रिय आकाशीय पिण्ड पृथ्वी में टक्कर पर टक्कर मार रहें हैं। हमारे झील, पहाड़, जंगल सभी पर विपरीत प्रकृति के तत्व फैल रहे हैं। फिर तो हमारी खूबसूरत धरती का अनमोल जीवन पल भर की कहानी मात्र है? पर मैं श्वास लेने का अथक प्रयास जारी रखूँगा। मुझे सृष्टि-क्षय अन्तिम सीमा तक देखना है या कहे तो गवाह बने रहना है। हो सके, जब कभी नई सृष्टि का सृजन हो तो मेरी गवाही अहम बन जाय। मेरा बयां ही नव-सृष्टि का दिग्दर्शक हो............

अरे! ये कैसे सम्भव है! मैं तो चल-फिर नहीं सकता था, हिल-डुल नहीं सकता था; फिर यहाँ अपने महानगर में कैसे पहुँच गया। वो तो है

सामने गाँधी चौक, उसके दायें सड़क पार सुभाष चौक, सीधे पश्चिम में नेहरू राउन्ड अप, पीछे से जाती बुद्धा मार्ग, दक्षिणी छोर तक दौड़ती अशोका रोड, महानगर के बीचो-बीच सरपट दौड़ती अकबर रोड और सबसे आधुनिक परिक्षेत्र इन्दिरा प्वांट। पर ये क्या? इन सड़कों-गलियों- चौराहों पर सारे-के सारे लोग सामान्य ढंग से आ-जा रहे हैं। तो क्या पृथ्वी पर जो खगोलीय घटना अभी-अभी घट रही है, उसका इन मानव- समूह पर कोई प्रभाव तक नहीं पड़ा है? पर जब पृथ्वी ही अपने परिक्रमा पथ से भटककर सौर-मण्डल से काफी दूर छिटक गयी है, जहाँ वायुमण्डल का अस्तित्व नहीं है, तो भला ये मानव समूह पूर्ण आनन्द व विश्वास के साथ कैसे चल-फिर रहे हैं। क्या यह सम्भव है कि वायुमण्डल के बिना ही मानव जीव जीवित रह लें! क्या यह भी सम्भव है कि पृथ्वी का पूर्ण विनाश हो जाय, पर मानव-जन यथावत रहे ?

ये मैं क्या देख रहा हूँ! मुझे तो अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा है। कहीं ये भ्रम तो नहीं! नहीं, नहीं! अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया है कि मैं कोई स्वप्न ही देख रहा हूँ। ओह, मेरा स्वप्न क्यों नहीं भंग हो रहा है? बार-बार आँखें मल रहा हूँ, लो जोर से रगड़ भी दिया; फिर भी आँखों के सामने स्वप्न तैर रहा है। पर, क्या ऐसा सम्भव है, कि आप चेतन अवस्था में पूर्ण समझ रख रहे हैं कि स्वप्न है, और आँखें मल-मल कर स्वप्निल पर्दे से बाहर निकलना चाह रहे हैं, पर स्वप्न है कि भंग ही नहीं होता।

ओह! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी मति मारी गयी हो और मुझे वैसे-वैसे दृश्य दिख रहे हों जो पृथ्वी में और उसके मानव समाज में सम्भव नहीं

हैं। मेरे सामने जो दृश्य है, जिसे मैं अपनी पूर्ण खुली आँखों से देख रहा हूँ वो तो मानव सभ्यता का अंग कभी नहीं रहा। ऐसी सामूहिक हरकतें मानव-जीव ने हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता-काल में तो क्या, शायद सभ्यता पूर्व होमोसेपियन्स-सेपियन्स और उससे भी पूर्व होमो सेपियन्स विकासक्रम अवस्था में भी नहीं की होंगी। सम्भव है, होमो-इरेक्ट्स अवस्था में यह घृणित अमानवीय हरकतें आम रही होंगी। वैसे भी मानवशास्त्री व समाजशास्त्री मानव की ओर विकासोन्मुख मानव-पूर्व जीवों की शारीरिक हरकतों व सामान्य व्यवहार को मानवीय गतिविधि व व्यवहार की श्रेणी में नहीं रखते हैं। तो क्या होमो-इरेक्ट्स काल के दृश्य मैं स्वप्न में देख रहा हूँ या फिर पूर्ण विकसित मानव-सभ्यता तीन सौ साठ डिग्री के कोण से घूमकर फिर से होमो-इरेक्ट्स या उससे भी पूर्व की विभत्स अवस्था में पहुँच चुका है। तो क्या सभ्यता के विनाश या अधोगामी विकास वाला सिद्धान्त सचमुच सत्य प्रमाणित हो रहा है?

अब ये कैसा अनर्थ हो रहा है! सामने के घृणित दृश्यों से शर्मशार होकर मैं अबतक अपनी आँखें दायीं-बायीं कर लेता था या फिर पलक झपक लेता था। पर मेरी इन आँखों को अब क्या हो गया है, क्या अब ये आँखें भी मेरे वश में नहीं रहीं? सामने पसरते जा रहे मानव काल के अबतक के अति घृणित दृश्यों से आँखें मूंद लेना चाहता हूँ; पर, पर! अब मेरी आँखें बन्द क्यों नहीं हो रहीं हैं। मेरे न चाहने के बावजूद भी मुझे ये सब दृश्यावली देखने को मजबूर होना पड़ रहा है। ओह, अब तो मेरी आँखें अपलक सम्पूर्ण शहर को देख रही हैं, शहर के सभी मार्ग, गलियाँ, चौक-चौराहे सबकुछ मुझे यहीं खड़े-खड़े चारो दिशाओं में दिख रही हैं- तीन सौ साठ डिग्री के घूर्णन से; घर-दीवार-पेड़-पौधे को आर-पार

करते हुए मेरी आँखों के सामने मानव-जीव कालखण्ड का निकृष्ठ प्रदर्शन व कृत्य निर्बाध जारी है। इस घृणित व पशुवत कृत्यों-प्रदर्शनों-दृश्यों को शब्दों में बयां करना सचमुच कितना दर्दनाक है.............

हर गली-चैराहों-मार्गों पर नरसमूह सम्पूर्णतः नग्न अवस्था में बढ़े चले जा रहे हैं, दौड़े जा रहे हैं; अपने पूर्णाकार लिंग का रौबदार प्रदर्शन करते हुए। इन पुरूषों ने अपनी-अपनी देह की सारी ऊर्जा-बुद्धि-प्रज्ञा- क्षमता अपने-अपने लिंगों में केन्द्रित-सा कर दिया है। ये सभी अपने- अपने नर लिंग का श्रेष्ठ प्रदर्शन कर गौरवान्वित सा क्यों लग रहे हैं? और ये ऊर्जा केन्द्रित लिंग तो किसी व्यापक अनिष्ट के निमित्त विक्षिप्त-सा प्रतीत हो रहे हैं। ये नर-समूह झुककर एैसा क्यों चल रहे हैं, जैसे कभी होमो-इरेक्ट्स चला करते थे! और बीच-बीच में ये नर-जीव दोनों पैरों के साथ-साथ दोनों हाथों से भी धरती का सहारा क्यों ले रहे हैं? तो क्या ये सभ्यता के विपरीत क्रम में पुनः जन्तु-अवस्था में जा रहे हैं? घोर आश्चर्य! ये विशाल जनसमूह सिर्फ नर जीवों का ही क्यों है? धरती की सारी नारियाँ कहाँ हैं? क्या उनका कत्लेआम हो गया है? कहीं इन नर-पशुओं ने अपने संहारक लिंगों से पृथ्वी को नारी-विहीन तो नहीं कर डाला। हे ईश्वर! मानव-सृष्टि की वंश-परम्परा अब कैसे आगे बढ़ पायेगी???

अब मेरे कानों को ये क्या हो गया है! अबतक तो येकर्ण-द्वय सिर्फ पृथ्वी की गड़गड़ाहट या सरसराहट ही सुन पा रहे थे; मानव या किसी अन्य जीव की आवाज सुन नहीं पा रहे थे। बल्कि मेरे इतने चीखने-चिल्लाने के बावजूद भी किसी मानव की कोई आवाज नहीं सुनाई

पड़ रही थी। शायद वे सभी अपनी-अपनी दिशा में इतने मन-केन्द्रित व चक्षु-केन्द्रित हो गये हैं कि वे अब अन्ध-मूक-वधिर से भी बद्तर हो गये हैं। लेकिन अब मेरे कान ठीक-ठीक सुन पा रहे हैं? मनुष्यों के बुद- बुदाने, बड़बड़ाने की आवाजें मेरे अन्दर सुनी या महसूस की जा रही हैं। जब सभी नर-मानव प्रहारक जन्तु-लिंगधारी सदृश्य खुलेआम घूम रहे हैं, तो फिर मेरे इर्द-गिर्द ये कौन हैं जो स्व-हितकारी चिंता-जड़ित उद्गार व्यक्त कर रहे हैं ......... ‘‘हर कान्डीशन इज क्रिटिकल; नॉट डेटेरियाटरिंग, बट नॉट इम्प्रूविंग आलसो, वी मे से इट इज स्टेबल’’ ‘‘हर यूटेरस, ओवरी जोन एलांगविद होल इन्टेन्सटाइन आर सिवियरली अफेक्टेड विद इन्फेक्शन रिलीज्ड बाई सो मेनी परसन्स’’ ‘‘द कंडीशन ऑफ़ द वाय सीम्स ओके बट ही रिक्वार्स टू बी लुक्ड आफ्टर प्रोपरली’’ ‘‘देखिये डाक्टर साहब, सम्पूर्ण देश को झखझोरकर रख देने वाली इस घटना का एकमात्र चश्मदीद है यह व्यक्ति, इसका ध्यान रखिये; हमें इसका बयान आज ही रिकार्ड करना पड़ेगा’’ ‘‘इस लड़की को कुछ नहीं होना चाहिए अन्यथा बाहर जो आग फैल रही है वह धधक उठेगी सारे देश में; तब हमारी सरकार और पार्टी के लिए नई मुसीबत खड़ी हो जायेगी’’ ‘‘डाक्टर साहब इस लड़की से यह बयान जरूर लीजिएगा कि गैंगरेप में शामिल कितने लोग उस पार्टी के हैं’’ ‘‘सर अस्पताल के बाहर चैनल वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है। सभी रिपोर्टर अपने-अपने कैमरे के सामने खड़े होकर स्व-साक्षात्कार में रमे जा रहे हैं। अपने आप अनेकानेक सम्भावनाओं-शंकाओं को जन्म दे रहे हैं

और मिटा रहे हैं। एक युवा रिपोर्टर तो बेहूदी रिपोर्टिंग कर रहा है, कि लड़की के होश में आने के बाद यह पता करना दिलचस्प होगा कि कुल कितने लोगों ने कितनी देर तक गैंगरेप किया और कुल कितनी देर तक लड़की होश में झेलती रही तथा बेहोश होने से पूर्व व बाद में बलात्कारियों की यौन-विकृति का व्यवहार व स्वरूप कैसा था’’ ‘‘हमारे पुलिस महकमें की चुनौती बढ़ती जा रही है; देश के शहरों में जनता सड़कों पर उतर कर अभियुक्तों के लिए फाँसी की सजा मांग रही है’’ ‘‘अरे, बाहर तो हद हो रही है; एक आदमी अपना परिचय सीनियर एडवोकेट के रूप में देते हुए कैमरे के सामने हिला-हिलाकर साक्षात् जिरह कर रहा है कि, चूंकि लड़की अभी जीवित है इसलिए गैंगरेप के अभियुक्तों को फाँसी नहीं हो सकती है।’’ ‘‘अरे फाँसी हो या अंग भंग कर दो, बलात्कारियों में कोई खौफ ही नहीं है। अब देखो न, इस वाली घटना के खिलाफ पूरा देश सड़कों पर है, पर बलात्कारी हैं कि मानते ही नहीं; आज के अखबारों में भी और चैनलों में बलात्कार की बाढ़ सी आयी हुई है। इण्डिया के हर हिस्से में आज भी दर्जनों लड़कियों की आबरू लूटी गयी है’’ ‘‘...........................................’’ ‘‘................’’

हाँ! हाँ!! अब मुझे ठीक-ठीक याद आ गया; जाड़े के आरम्भिक महीने का सोलहवां दिन था। सन्ध्याकालीन बेला। समय? आठ-नौ बजे के बीच का एक युग सदुश्य लम्बा, क्योंकि उसके बाद से तो दुनिया में समय ठहर सा गया है, पसर सा गया है। तब एक ऐसा ही क्रूरतम लिंग-युद्ध मेरे

सामने घटित हुआ था; नहीं-नहीं मेरे सामने ही नहीं, शायद मेरे साथ ही तो घटित हुआ था। ओह, मुझे ठीक-ठीक याद क्यों नहीं है, कि मेरे साथ घटित हुआ था या फिर मेरे साथी के साथ? ये क्या! अब तो मुझे यह भी ज्ञात नहीं है कि मैं नर हूँ या नारी। पर हम दो थे उस लिंग-युद्ध के चश्मदीद-एक तरफ हम दोनों सभ्य समाज के नागरिक होने के भ्रामक शस्त्र पर आरूढ़ थे तो दूसरी ओर लिंगास्त्रधारी युद्धोन्मादी नर पशु.........

मेरे कानों में नरगणों की आवाज आनी क्यों बन्द हो गयी। क्या मैं अब मृत हूँ? या जीवित होकर भी मृत-सा हूँ! पर अब मेरे सामने ये जन समुन्दर कैसा! कोसों-कोसों तक सिर्फ जन सैलाब; मानव झुण्ड आमने- सामने।यह तो ठीक वैसा ही लग रहा है जैसा कि महाभारत युद्ध में पाण्डव और कौरव सेना आमने-सामने मरने-मारने पर उतारू थी। पर यह कैसा महाभारत है? बीच की विभाजक रेखा सिमटकर आधी इंच भर रह गयी है। उधर पूर्ण नग्न लिंगारूढ़ नर-झुण्ड तो इधर वस्त्रों, अंग- वस्त्रों से आबरू ढकने, बचाने के प्रयास में भयातुर, बेशुध नारी-समूह। विगत में हुए संघातों, वर्तमान में जारी हमलों और आसन्न आक्रमणों से अनभिज्ञ बहुसंख्य बालिकाएं अपनी-अपनी माताओं के इर्द-गिर्द मूकदर्शक सी अचम्भित हैं; अपने को सुरक्षित करने हेतु मुष्टिका-युद्ध की तैयारी में लगी उनकी माताएँ अपनी-अपनी पुत्रियों को अवसर-अनुकूल चेतावनी दे रही हैं कि कुछ मदान्ध नरगणों की मुख-मुद्रा का प्रक्षेपण अबोध बालिकाओं की ओर ही है। अर्थात् एक तरफ चरम विकसित सभ्यता की मान-मर्यादाओं, परम्पराओं, कोमल भावनाओं और नारी-संवेदानाओं सरीखे नाजुक अस्त्रों से आशवस्त विभिन्न वय वर्ग के नारीगण तो दूसरी तरफ

मानवीय मूल्यों व गौरवशाली सभ्यता को रौंदते हुए आगे बढ़ते पशुवत लिंगास्त्रधारी नर-झुण्ड। एक तरफ नर-झुण्ड लगातार हमलावर तो दूसरी तरफ सिर्फ रक्षात्मक नारीगण। महाभारत का अन्त तो अठ्ठारह दिन में हो गया था, पर दिन-रात लड़े जाने वाले इस महाभारत का अन्त कब होगा ? कभी अन्त होगा भी या नहीं ..........