ह्रदय का प्रार्थना पत्र मस्तिष्क के नाम / शोभना 'श्याम'

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सेवा में,

महामहिम मस्तिष्क जी

निदेशक, शरीर संस्था

पृथ्वीलोक

महोदय,

निवेदन हैं कि मैं ह्रदय, आपकी शरीर संस्था के रक्त संचार विभाग का अध्यक्ष हूँ। मैं इस संस्था के जन्म के दिन से ही अपना कार्य मुस्तैदी से करता रहा हूँ। अपने अब तक के कार्यकाल में मैं अगणित प्रकार के आघात भी झेलता आया हूँ। आपकी मुँह लगी जिह्वा कि उच्छृंखलताओं और मनमर्ज़ी का ख़ामियाजा पाचन, अस्थि, मांसपेशी, स्नायु आदि अन्य विभागों के साथ अक्सर मुझे भी भुगतना पड़ता हैं।

यूँ तो आधिकारिक रूप से मेरा कार्य अशुद्ध रक्त को श्वसन विभाग में भेजना और वहाँ से आये हुए शुद्ध रक्त की सप्लाई सारी संस्था में करना है, लेकिन ये तो आप भी जानते हैं कि कितने ही कार्य मैंने अवैतनिक रूप से भी संभाले हुए हैं। जनसम्पर्क विभाग में क्या मेरी सहायता के बिना कोई कार्य संभव हैं?

प्रेम विभाग में तो मैं ही अधिकारी और मैं ही हरकारा हूँ। मुस्कान का प्रोडक्शन भी प्रत्यक्षतः तो मुख विभाग से ओष्ठों के द्वारा होता हैं परन्तु इसके लिए कच्चे माल यानी भावों की आपूर्ति मेरे द्वारा ही होती है। सिर्फ़ उन्हीं मुस्कानों को निश्छल, मधुर, मनमोहक, प्यारी, आत्मीय, लजीली आदि के विशेषण और सम्मान मिलते हैं जो मेरे निर्देशन में निर्मित होती है। अन्यथा तो कृत्रिम, कुटिल, खोखली, फीकी जैसी संज्ञाएँ ही मिलती हैं। महामहिम बुरा न मानियेगा जब-जब आप दुविधा में पढ़कर संज्ञा-शून्य से हो जाते हैं, तब-तब संस्था अहम् निर्णयों के लिए मेरी ओर ही उन्मुख होती है।

ये सब कार्य मेरे आत्मीय पक्ष जिसे मन भी कहा जाता है, के द्वारा संपन्न होते हैं और यह पत्र मैं अपने इसी पक्ष की ओर से लिख रहा हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ यह बताना पड़ रहा हैं कि आजकल मेरे इस पक्ष की बहुत अवहेलना हो रही हैं। आक्षेप तो मुझ पर सदा से ही लगते आये हैं, मुझे जिद्दी, पागल, चंचल, दीवाना, दुस्साहसी की उपाधियाँ देते हुए कहा जाता है कि मैं कभी-कभी संस्था को ग़लत दिशा में ले जाता हूँ। मुझे इस आरोप से सर्वथा इंकार भी नहीं हैं, मैं मानता हूँ कि मैं अनजाने में कभी-कभी वह कर बैठता हूँ या करना चाहता हूँ जो सही या संभव नहीं होता। मैं ये भी मानता हूँ कि अक्सर सीमाओं के उल्लंघन हेतु मचल उठता हूँ, किन्तु सिर्फ़ इतने भर के लिए मेरी अच्छाइयों और योगदान को विस्मृत कर मेरी उपेक्षा कि जाए, यह भी तो उचित नहीं है।

आखिर सीमाओं में बंधी-बंधाई, लाभ-हानि के गणित की सलीब पर टँगी, एक ढर्रे पर चलती ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है। क्षमा करें महामहिम! यदि सभी सिर्फ़ आपके इशारों पर चलने लगें तो ये दुनिया इतनी नीरस हो जाएगी कि शरीर-संस्था लम्बे समय तक स्वस्थ रहना तो दूर, काम ही नहीं कर पायेगी। आप स्वयं साक्षी है कि कई बार मेरे प्रस्ताव न मानने के दुष्परिणाम भी अपनी संस्था और निकटवर्ती अन्य संस्थाओं को झेलने पड़े हैं।

आपको तो याद होगा; कभी मेरे विशाल आंगन में भांति-भांति के भाव-पुष्प खिलते थे। तमाम रिश्ते-नाते एकत्र होकर खिलखिलाते, बतियाते थे। ये मैं ही था, जिसके बूते पर लोग नन्हे से घर में भी मेहमानों का स्वागत बड़ी गर्मजोशी से करते हुए कहते थे, "जगह तो दिल में होनी चाहिए।" गाँव मोहल्ले में मैं सबका सुख-दुःख पूँजी की तरह अपने अंदर संजो लेता था। आज भी संस्था कि गुडविल मेरे ही भरोसे पर बनती हैं।

लेकिन आजकल सभ्यता के नाम पर स्वार्थ के इतने भारी-भारी परदे मेरे दफ्तर की खिड़कियों पर लटका दिए गए है कि अपने निकटतम पड़ोसी की खैरियत से भी हम बेखबर रहते हैं। जब से लोभ, द्वेष और ईर्ष्या कि नियुक्ति मेरे मातहत कर्मचारियों के रूप में हुई है, मेरे विभाग का नक्शा ही बदल गया है। इन्होने मेरे प्रांगण में लगे हर रिश्ते की जड़ में ऐसा मठ्ठा डाला है कि सब मुरझाते जा रहे है। अब तो यहाँ अपरिचय की सिवार ही उगती है।

मैं आपकी अवज्ञा करना अथवा आपके सम्मान को कोई चोट पहुँचाना नहीं चाहता। निश्चित रूप से इस संस्थान में आपका स्थान ही सर्वोच्च है। आप ही इसके ज़र्रे-ज़र्रे के नियामक है, लेकिन आप आजकल ज़्यादा ही भौतिकतावादी होते जा रहे हैं। मुझे यह देखकर बड़ा क्षोभ होता हैं कि एक ओर तो किसी गन्दगी को देखते ही आप हाथों को तुरंत नासिका के वातायन ढकने का निर्देश देते हैं, दूसरी ओर इस लोभ की लच्छेदार बातों में आकर भ्रष्टाचार, बेईमानी, विश्वासघात आदि किसी भी गन्दी नाली में सर डालने से गुरेज़ नहीं करते। मेरी अवज्ञा का परिणाम सभी मानवीय मूल्यों की निरंतर अनदेखी के रूप में सामने आ रहा है।

निस्संदेह मेरे रक्त-संस्थान से जुड़े कार्यों की अनिवार्यता को देखते हुए मेरे भौतिक पक्ष की काफी देखभाल की जाने लगी हैं। आप इस विषय में सजग रहते हुए नवीनतम सूचनाएँ एकत्र करते हुए सभी विभागों को आवश्यक निर्देश देते रहते है। अस्थि और मांसपेशी संस्थानों को व्यायाम और टहलने के निर्देश दिए जाते हैं। मेरे कार्यों में बाधक कोलेस्ट्रॉल को दूर रखने के लिए आप मनचली जिह्वा पर भी नियंत्रण रखने का प्रयास करने लगे हैं। मेरे विभाग के लिए सभी आवश्यक अनुदान भी यथासमय मिलते रहते हैं। लेकिन सब कुछ भौतिक पक्ष के लिए ही, मेरे आत्मीय पक्ष की तो निरंतर अवहेलना कि जाती हैं। मेरे इस पक्ष का प्रसन्न रहना, मेरे स्वस्थ रहने के लिए ही नहीं वरन पूरी संस्था के और हमारे जैसी अन्य इकाइयों से बने पूरे समाज के हित में है। कहा भी तो गया है-मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। संस्था में मेरा महत्त्व इसी बात से सिद्ध हो जाता हैं कि मेरे अतिरिक्त किसी भी अवयव को मंदिर की संज्ञा कभी नहीं मिलती। क्या आपने कभी मस्तिष्क-मंदिर, यकृत-मंदिर, अमाशय-मंदिर जैसे शब्द सुने हैं? मात्र मन-मंदिर ही कहा जाता हैं।

आशा है आप उपर्युक्त पहलुओं का संज्ञान लेते हुए मेरे इस पक्ष 'मन' को उसकी खोयी हुई प्रतिष्ठा और गरिमा वापस दिलवाएंगे और इसके फैसलों को उचित सम्मान देंगे।

आपका आज्ञाकारी

मन उर्फ़ ह्रदय

अध्यक्ष, रक्त संस्थान एवं

सलाहकार, जनसम्पर्क विभाग

शरीर संस्था