‘कैन’ माने सकना / कामतानाथ

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘डी. ओ. जी. डाग मोन कुत्ता, पी. ओ. टी. पाट, पाट माने बर्तन, सी. ए. एन. कैन, कैन माने सकना।’

‘यह ‘सकना’ क्या होता है?’ पिता मायने लिखा रहे थे तो उसने पूछा था।

पिता एक क्षण चुप रह गए थे। तब बोले थे, ‘सकना? सकना नहीं जानते? जैसे मैं जा सकता हूं, तुम लिख सकते हो। यही सकना होता है।’

वह चुप रह गया था। होगा सकना, उसको क्या करना।

वह फिर मायने याद करने लगा। ‘डी. ओ., जी, डाग, माने कुत्ता...।’ कापी उसके सामने खुली रखी थी। परंतु उसकी निगाह आसमान पर लगी थी, जहां काली लठ्ठेदार और लाल तौखिया में पेंच लड़ रहा था। लठ्ठेदार वाला बार-बार नीचे से पेंच डालने का प्रयत्न कर रहा था परंतु तौखिया वाला हर बार बचा जा रहा था। दोनों ही पतंगों की डोर ठीक उसके आंगन के ऊपर थी। उसने इधर-उधर निगाह दौड़ाई। बांस, शायद पिता ने उठा कर दुछत्ती में रख दिया था।

‘डी. ओ. जी. डाग, डाग माने कुत्ता’, वह धीरे-धीरे उठा और खिड़की पर चढ़ कर दुछत्ती से बांस निकालने लगा। बांस निकालने में खटपट हुई तो अंदर कमरे में सो रहे पिता की आंख खुल गई।

‘क्या हो रहा है?’ उन्होंने वहीं से पूछा।

‘कुछ नहीं।’ तब तक वह बांस निकाल चुका था।

‘माने याद हो गए?’

‘याद कर रहा हूं।’ उसने बांस वहीं कोने में खड़ा कर दिया और आकर टाट पर बैठ गया। ‘जी. ओ. डी. डाग, डाग माने कुत्ता।’

‘क्या?’ पिता ने कड़क कर पूछा। ‘जी. ओ. डी. डाग होता है?’

उसने कापी देखी। ‘डी. ओ. जी.।’

‘ठीक से बैठकर याद कर नहीं तो चमड़ी उधेड़ दूंगा।’

वह फिर याद करने लगा। ‘पी. ओ. टी. पाट, पाट माने बर्तन, सी. ए. एन. कैन, कैन माने सकना।’

लठ्ठेदार और तौखिया दोनों अपनी-अपनी चाल चल रहे थे। आखिर थोड़ी देर में पेंच पड़ ही गया। वह सांस रोककर देखने लगा। बीच-बीच में बांस पर निगाह डाल लेता जो कोने में रखा था। लठ्ठेदार के कटते ही उसने लपककर बांस उठाया और उसकी मदद से छत पर तेजी से सरक रही डोर को नीचे गिरा लिया। पीछे वाले सिर को दांत के बीच दबाकर वह सामने की डोर खींचने लगा। सारी डोर खींच लेने के बाद वह पीछे वाला सिरा पकड़ कर चुपचाप खड़ा हो गया। वह जानता था कि उसने झटका दिया तो उसके हिस्से में कम डोर आएगी।

वह डोर का तिकल्ला बना रहा था तभी चक्रवती बाबू ने पिता को आवाज दी। आधा बना हुआ तिकल्ला उंगलियों से निकाल कर उसने छत पर वैसे ही डाल दिया और फिर बैठ कर मायने याद करने लगा। ‘सी. ए. एन. कैन, कैन माने सकना, जी. ओ. टी. गाट, गाट माने पाया।’

‘आया।’ पिता ने कहा और उठकर शायद कमीज पहनने लगे। हर इतवार को इस समय वह बाहर चबूतरे पर बैठ कर चक्रवर्ती बाबू के साथ शतरंज खेलते हैं।

कमीज पहन कर पिता बाहर निकले तो वह कापी पर झुका हुआ था। छत पर बिखरा हुआ मांझा और कोने में खड़ा हुआ बांस शायद पिता की निगाह में नहीं आया।

‘ठीक से बैठ कर पढ़। लेटा क्यों जाता है कापी पर।’ पिता ने उसे डांटा और जीने की ओर बढ़ गए।

वह सीधा हो गया। ‘सी. ए. एन. कैन, कैन माने सकना, पी. ए. टी. पैट, पैट माने थपथपाना।

परंतु जैसे ही जीने पर उतरते हुए पिता के पैरों की आहट समाप्त हुई वह उठकर खड़ा हो गया। इस बार वह अंदर से अपना डोर का गुल्ला उठा लाया और उस पर मांझा लपेटने लगा।

मांझा लपेट रहा था तभी पिता ने उसे आवाज दी, ‘रम्मू।’

‘आया।’ उसने कहा और मांझा लपेटता रहा। वह जानता था पिता सिगरेट मंगवाएंगे।

गुल्ले पर मांझा लपेट लेने के पश्चात वह नीचे उतर आया। पिता चक्रवर्ती बाबू के साथ चबूतरे पर शतरंज खेल रहे थे। दो चार अन्य लोग उनके चारों ओर खड़े या बैठे खेल देख रहे थे। बीच-बीच में बोलते भी जा रहे थे। वह चुपचाप चबूतरे के बगल में खड़ा हो गया और खेल देखने लगा। पिटे हुए मोहरों को उसने गिना। पिता के नौ मोहरे पिट चुके थे, जबकि चक्रवर्ती बाबू के सात ही पिटे थे। परंतु पिता का वजीर अभी जीवित था जबकि चक्रवर्ती बाबू का वजीर पिट चुका था। वह जानता था वजीर बहुत महत्त्वपूर्ण मोहरा होता है। पिता जीत रहे हैं, यह जान कर उसे प्रसन्नता हुई।

पिता ने शायद उसे देखा नहीं। उन्होंने दोबारा आवाज लगाई, ‘रम्मू।’

‘जी।’ उसने कहा तो पिता चौंक पड़े।

‘कबसे खड़ा है यहां? बोलता क्यों नहीं?’

‘बोला तो।’ उसने कहा।

‘जा एक पैकेट सिगरेट ले आ। मां से पैसे ले ले जाकर?’

‘कौन सिगरेट?’ वह जानता है पिता कैंची पीते हैं। परंतु हमेशा ही वह पूछ लेता है।

‘कैंची।’ पिता ने कहा।

ऊपर आकर उसने मां से पैसे लिए और सरपट जीना उतर कर, तीर की तरह गली पार करके पार्क में आ गया। वहां उसके तीन-चार मित्र खेल रहे थे।

‘छुई-छुअल्ला खेलोगे?’ उन्होंने उससे पूछा।

‘हां।’ उसने कहा।

सब एक घेरे में खड़े हो गए। एक ‘अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो’ करने लगा। वह बाल-बाल बचा नहीं तो ‘चोर निकल कर भागा’ की थाप उसी पर पड़ती। संजय चोर हो गया था।

‘जाओ, इमली का पेड़ छूकर आओ।’ लड़कों ने उससे कहा और अपनी-अपनी पोजीशन लेकर खड़े हो गए।

थोड़ी देर वह खेलता रहा। तभी जब वह चोर बना तो उसे ध्यान आया कि वह पिता के लिए सिगरेट लेने आया है।

‘मैं अब नहीं खेलूंगा। मुझे सिगरेट लेने जाना है।’ उसने कहा।

‘चानस देकर जाना पड़ेगा, बच्चू।’ लड़कों ने कहा।

‘हां। पद कर जाओ बेटा। ऐसे बहाना नहीं चलेगा।’

‘ठीक है। रेडी?’ उसने कहा।

‘जाओ इमली का पेड़ छूकर आओ।’

वह पेड़ छूने चला गया। बंटी ने उसे चोर बनाया था। शुरू से ही वह बंटी के पीछे पड़ गया। आखिर उसने उसे चोर बना ही दिया।

‘अब मैं नहीं खेलूंगा।’ उसने कहा।

सभी राजी हो गए। उसने जेब में पैसे टटोले और फाटक की ओर भागा। फाटक पर दो चार लोग बैठे थे। वह फुर्ती से फाटक के बगल में लगे सीखचों के बीच गर्दन डालकर बाहर निकल आया। सड़क पर आया तो एक तांगे पर सिनेमा के पर्चे बट रहे थे। वह उसके पीछे दौड़ने लगा। दो तीन और लड़के भी दौड़ रहे थे। तांगे पर बैठे व्यक्ति ने पर्चे सड़क पर फेंके तो सब उन पर झपट पड़े। उसने जल्दी-जल्दी पर्चे उठाए। उसके हाथ में दो आए। बाकी और लड़कों ने उठा लिए।

उसने पर्चा लेकर पढ़ा। निशात में ‘अनार कली’, आधे दामों पर। बड़ी गजब की पिक्चर है, सतीश ने उसे बताया था। ‘मुहब्बत में ऐसे कदम डगमगाए’ उसी का गाना है। उसने पर्चे तह करके जेब में रख लिए।

सिगरेट की दूकान आ गई थी। उसने पैकेट लिया और वापस मुड़कर सरपट भागता हुआ, सीखचों के बीच से होता हुआ पार्क पार करके गली में आ गया। शतरंज में अब तक काफी भीड़ जुड़ चुकी थी। खेल यद्यपि अभी भी पिता और चक्रवर्ती बाबू ही रहे थे। वह वहां पहुंचा तो बुरी तरह हांफ रहा था। उसे डर था कि पिता उस पर बिगड़ेंगे। परंतु पिता ने अधिक कुछ नहीं कहा।

कितनी देर लगती है सड़क तक जाने में? खेल रहे थे न पार्क में?’ सिर्फ इतना ही बोले।

वह चुप रहा।

‘चलो जाओ, अच्छा। दस-पंद्रह मिनट और खेल लो। उसके बाद बैठकर पढ़ो।’

वह ऊपर चला आया। अंदर कमरे में जाकर चारपाई पर चढ़कर खूंटी से अपनी पंतग उतारी और डोर का गुल्ला लेकर छत पर जाने की तैयारी करने लगा। तभी उसने देखा, पंतग, शायद खूंटी से उतारते समय एक जगह से फट गई थी। गोंद घर में था नहीं। पार्क की नीम का गोंद सब लड़के सुबह ही निकाल ले जाते हैं। उसने निश्चय किया कि सबेरे तड़के ही जाकर वह पार्क की नीम से गोंद निकाल लाएगा। परंतु अभी क्या होना चाहिए?

वह रसोई में मां के पास गया। ‘चावल बन गया?’ उसने पूछा।

‘क्यों, अभी खाओगे क्या?’

‘नहीं। पहले बताओ बन गया कि नहीं।’

‘क्या करोगे?’

‘थोड़ा दे दो।’ उसने हाथ फैला दिया।

‘पंतग जोड़ोगे? अभी वह आएंगे तो बिगड़ेंगे। अब उठने ही वाले होंगे।’

‘उन्होंने खुद कहा है थोड़ी देर खेलो जाकर।’

मां ने चावल दे दिए। उसने सिगरेट की पन्नी का पतला कागज खोजकर उससे पतंग चिपकाई और उसे गले में फंसा कर, डोर का गुल्ला जेब में डालकर चारपाई से दीवाल पर होता हुआ छत पर चढ़ने लगा। जीना या सीढ़ी थी नहीं।

मां ने देखा तो बिगड़ीं। ‘किसी दिन गिरोगे तो अपना सिर फोड़ोगे। दीवाल से पैर फिसला तो सीधे गली में जाओगे। इतनी बार मना किया, पार्क में क्यों नहीं उड़ाते जाकर।’

तब तक वह छत पर पहुंच चुका था। मां की बात पर उसने ध्यान नहीं दिया। पतंग गले से उतार कर, उसकी कन्ने में डोर बांधकर वह उसे आकाश में उड़ाने का प्रयत्न करने लगा। बार-बार वह उसे छत की दीवार से नीचे आंगन में लटकाता और झटका देकर उसे खींचता। परंतु हर बार दो चार फुट हवा में ऊपर उठकर वह नीचे गिर जाती।

उसने इधर-उधर देखा। अजय अपनी छत पर खड़ा था। दोनों छतें मिली हुई थीं।

उसने अजय को आवाज देते हुए कहा, ‘जरा मेरी पतंग में छुड़ैया दे दोगे?’

अजय राजी हो गया तो वह अपनी छत की दीवार फांदकर पतंग उसे पकड़ा आया। फिर अपनी छत पर लौटकर डोर तान कर खड़ा हो गया। अजय ने पतंग को हवा में थोड़ा ऊपर उठाकर छोड़ दिया। उसने डोर खींची तो पतंग आसमान में थी। डोर को ढील देकर उसने पतंग को और ऊपर उड़ा लिया।

उसने इधर-उधर देखा। दो-तीन और पतंगें आसमान में उड़ रही थीं। एक दो मकान छोड़कर लालू अपनी छत से काली लाल चप उड़ाए था।

‘लड़ाओगे मेरी गेंददार से?’ उसने उसे आवाज देकर पूछा।

‘लड़ा लो।’ लालू ने कहा और अपनी पतंग को उसकी पतंग के निकट लाने का प्रयत्न करने लगा।

‘सद्दी से न काटना।’ उसने लालू को आगाह किया, हालांकि उसकी पतंग में काफी मांझा था।

‘अच्छा।’ लालू ने कहा।

अजय भी उसकी छत पर आ गया था और डोर को सुलझाने आदि में उसकी मदद कर रहा था।

तभी उसे सुनाई दिया, पिता नीचे मां से पूछ रहे थे, ‘रम्मू नहीं आया अभी खेल कर?’

‘ऊपर छत पर पतंग उड़ा रहा है।’ मां ने उत्तर दिया।

‘रम्मू।’ पिता ने उसे कड़े स्वर में आवाज दी, ‘फिर चढ़ा तू ऊपर। चल नीचे अभी खाल खींचता हूं तेरी।’

‘आ रहा हूं।’ उसने डरे हुए स्वर में कहा और अपनी पतंग नीचे उतारने लगा।

‘डर गए बेटा।’ लालू ने उसे ललकारा।

उसने होठों पर ऊंगली रखकर उसे चुप रहने का इशारा किया। तब धीरे से अजय से बोला, ‘डोर जरा गुल्ले में लपेट दो।’

अजय भी डर गया। वह अपनी छत पर जाने के लिए दीवार फांद रहा था। उसकी बात सुनकर वह रुक गया और जल्दी-जल्दी गुल्ले पर डोर लपेटने लगा।

नीचे उतरते-उतरते पतंग ने एकदम से धरती की ओर रूख किया और बदलू की खपरैल में जाकर अटक गई। उसने उसे सहारे से छुड़ाना चाहा परंतु वह खपरैल में कुछ इस तरह फंस गई थी कि छूट ही नहीं रही थी।

तभी पिता ने दोबारा आवाज दी, ‘उतरा नहीं अभी तू नीचे।’ ‘आ रहा हूं।’ उसने कहा और खीझकर डोर खींची तो वह टूट गई। साथ ही खपरैल की एक ईंट उखड़ कर बदलू की छत पर गिर पड़ी। बदलू के घर में कुछ शोरगुल हुआ तो वह काफी डर गया। उसने डोर का गुल्ला वहीं छत पर पड़ा रहने दिया और नीचे उतरने लगा। अजय दीवाल फांद कर अपनी छत पर हो लिया था।

वह नीचे उतरा तो पिता नल पर खड़े हाथ-मुंह धो रहे थे।

‘पतंग कहां है?’ उन्होंने पूछा।

‘पतंग कहां है!’ उसने कहा।

‘पतंग नहीं उड़ा रहे थे तुम?

‘न।’

‘फिर क्या करने गए थे ऊपर?’

वह चुप रहा।

‘अब जाने भी दो।’ मां ने कहा।

पिता तौलिए से हाथ मुंह पोंछने लगे। ‘चलो हाथ-मुंह धोकर खाना खाओ।’ उन्होंने उससे कहा।

उसने जल्दी-जल्दी हाथ-मुंह धोया और रसोई-घर में आकर पिता की बगल में पीढ़े पर बैठ गया। मां ने दो थालियां परोस दी थीं। उसकी थाली पिता की थाली से काफी छोटी थी। पिता उसके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

उसके आते ही उन्होंने भोजन शुरू कर दिया। उसने भी शुरू कर दिया।

‘माने याद कर लिए?’ खाते-खाते पिता ने पूछा।

‘हां।’ उसने कहा।

‘पाट माने?’

‘बर्तन।’ उसने उत्तर दिया।

‘गाट माने?’

‘पाया।’

‘कैन माने?’

‘सकना।’

‘यह सकना क्या होता है?’ मां ने पूछा।

‘तुम नहीं समझोगी।’ पिता ने कहा, ‘लाओ एक रोटी दो मुझे। तू भी लेगा?’ उन्होंने उससे पूछा।

‘नहीं।’ उसने कहा और चावन में दाल उडेल कर उसे सानने लगा।