‘दो पंक्तियों के बीच’ का भरता अन्तराल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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'दो पंक्तियों के बीच' का भरता अन्तराल

दो पंक्तियों के बीच (कविता-संग्रह) : राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन, 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली—110002. , दूसरा संस्करण: 2014, मूल्य: 200 रुपये; पृष्ठ: 112

कविता जब अपने कोशीय अर्थ से परे जाती है, तो बहुत कुछ कह भी जाती है, जो अनकहा है और जो कुछ कहती है, उसमें कुछ छुपा भी लेती है, जिसे नहीं कहना है। नहीं कहने पर भी भाव या विचार संवेदित होने से नहीं रह जाते। भर्तृहरि के अनुसार शब्द और वाक्य देशकाल में हैं, जबकि अर्थ देशकाल से परे है। उन्होंने अपने वाक्यपदीय ग्रन्थ में कहा भी है-

स्तुतिनिन्दा प्रधानेषु वाक्येष्वर्थो न तादृश:

पदानां प्रतिभागेन यादृश: परिकल्पयते॥-2-247

कविता किसी भी कवि के हृदय की गहन अनुभूति विचारों का मन्थन और कल्पना का अनुरंजन है। कवि का चिन्तन जितना गहन होगा, अनुभूति जितनी सान्द्र होगी, कल्पना जितनी बहुरंगी होगी, भाषा जितनी ज़मीन से जुड़ी और बहुआयामी होगी, कविता उतनी ही प्रभविष्णु और प्रामाणिक होगी। यह कथन किसी भी समर्थ रचनाकर पर लागू होता है। लगभग 8 साल पहले राजेश जोशी की 'मारे जाएँगे' कविता 'कविता आजकल' संग्रह (प्रकाशन विभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय) में पढ़ी थी–'कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे, जो विरोध में बोलेंगे / जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे।' पूरी कविता में जो कहा गया था, वह सच था, अब लगता है कि वह आज का और भी अधिक प्रामाणिक भी सच है। इसी तरह 2002 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत 'दो पंक्तियों के बीच' (प्रकाशन2000) को जब पढ़ा, तो लगा कि कवि एक अन्तर्यात्रा कर रहा है। वह कविताओं में से फ़र्राटे भरता नहीं निकल रहा है, वरन् सबके साथ ख़रामा-ख़रामा चलते हुए भी अपने में कहीं गहरे डूबा है। वह गाँव–शहर या गली–मुहल्ले से होते हुए दूसरे छोर तक चला जा रहा है, सबकी खबर लेता हुआ, सबको अपने होने की खबर देता हुआ। सत्ता और व्यवस्था में जहाँ कहीं भी झोल है, छद्म है, क्रूरता है, उपेक्षा है, उसको बेपर्दा करता चलता है, वह भी बिना किसी भारी-भरकम नारेबाज़ी के.

'रुको बच्चो' उनकी ऐसी ही एक कविता है। सर्र से जाती कार वाले अफ़सर को कहीं जल्दी नहीं, उसकी मेज़ पर रखी फ़ाइलों को खिसकने में दिन, महीने और बरस लग जाते हैं। तेज़ कार से जाने वाले जज को कहीं मुकदमे निबटाने की जल्दी नहीं है। पेशी-दर पेशी चक्कर काटने वाला बिना न्याय पाए कभी ऊपर वाले की अदालत में पहुँच जाता है। तेज़ी दिखाने वाला पुलिस अधिकारी दुर्घटना–स्थल पर सबसे बाद में पहुँचता है। इन सबके ऊपर बैठा वह सत्ताधारी है, जिसकी गाड़ी सायरन बजाती गाड़ी के पीछे दौड़ रही है। सत्ता के विकृत रूप और निकम्मेपन को अभिव्यंजित करने में राजेश जोशी जी की ये पंक्तियाँ एक बहुआयामी चित्र और व्यंजना हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं-

• इन्हें गुज़र जाने दो / इन्हें जल्दी जाना है / क्योंकि इन्हें कहीं नहीं पहुँचना है। (24)

वास्तविक स्थिति यही है कि सरकारी–तन्त्र के सभी कल-पुर्ज़े बहुत सक्रिय दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वे जाते कहीं नहीं, सभी ठहराव कि स्थिति में है।

'ज़हर के बारे में बेतरतीब पंक्तियाँ' कविता में ज़हर के व्याज से तात्त्विक रूप के अलावा, नई आर्थिक नीतियों, वैचारिक प्रदूषण, पर्यावरण और विकृत मनोवृत्ति को भी उजागर किया गया है। यह समाज को अनवरत दिया जाने वाला धीमा ज़हर भी है, जिसका उसे पता ही नहीं चलता। जब पता चलता है, तब तो सब कुछ खत्म हो चुका होता है-

• यहाँ उस ज़हर के बारे में भी कोई वक्तव्य नहीं दूँगा /

जो धीरे-धीरे मार रहा है हमारी आज़ादी को (25)

एक सर्वविदित तथ्य भले ही न हो, लेकिन सत्य तो यह भी है-

• कि कुछ लोगों की बात में भी यह मौजूद होता है

(सत्ताएँ इस ज़हर के बारे में बहुत अच्छी तरह जानती हैं /

इसका उपयोग करने में हुनरमन्द होती हैं) (26)

कवि कुछ ऐसे ज़हर के बारे में भी बताता है, जो दबे पाँव मन्थर गति से चलते हैं। इनके प्रभाव का पता तो तभी चलता है, जब सब कुछ नष्ट हो चुका होता है। 'बातों का ज़हर' और यह दबे पाँव पसरने वाला ज़हर कितना असर दिखा रहा है, कई दशक बीतने पर; अब इसको जन सामान्य भी समझने लगा है। किसी नीति निर्धारण में जन सामान्य की कोई भागीदारी नहीं। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे किसी पीड़ित को अदालत में गवाही देने का मौका ही न दिया गया हो।

'अधूरी इच्छा' के सरकारी अस्पताल का ज़ायज़ा लिया जाए; तो सबसे ऊपर यह तथ्य है कि पीड़ित को और अधिक पीड़ा झेलनी पड़ती है। एक दिन जब डॉक्टर तो नहीं मिल पाता, तब तक इस दुनिया से जाने का वक़्त हो जाता है–

• और एक दिन उसे ईश्वर मिल जाता था, जो उससे कहता था-

कि चलो तुम्हारे चलने का वक्त हुआ। (अधूरी इच्छा-53)

'खिसियानी हँसी' , 'जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ' , 'बर्बर सिर्फ़ बर्बर थे' कविताएँ व्यवस्था और उससे उपजी दयनीयता को रेखांकित करती हैं। आततायी, मालिक और गुलाम का परिवर्तन विपरीत दिशा में बदल जाता है। दुर्बल लोग मालिकों की कमज़ोरी बन जाते हैं। आततायी भी एकदिन हास्यास्पद हो जाते हैं। समय पर कष्टों और समस्याओं का समाधान करना सत्ता की प्रवृत्ति में नहीं है। जब तक अपील छपकर आती है, तब तक सब कुछ होम चुका होता है। जहाँ तक नृशंस और बर्बर की परिभाषा और स्वरूप की बात की जाए, उसमें आज का युग बहुत आगे जा चुका है। आज की तुलना में उनका क़द बहुत बौना है, क्योंकि अपनी बर्बरता को महिमामण्डित करने के लिए उनके पास कुतर्क की भाषा नहीं थी-

• एक दिन उनके चिल्लाने पर / गुलाम मुस्कुरा देते हैं

एक दिन आततायी अपनी असहायता को छिपाते हैं /

एक खिसियानी हँसी से। (91)

• दुकाने जल चुकी हैं / मारे जा चुके हैं लोग /

छपकर जब तक आती है अपील /

अपील की ज़रूरत ख़त्म हो चुकी होती है! (95)

• बर्बर सिर्फ़ बर्बर थे / उनके पास किसी धर्म की ध्वजा नहीं थी / —

उनके पास भाषा का कोई छल नहीं था। (96)

'एक शैतान से मुलाकात' में शैतान की आत्मस्वीकृति आज के क्रूर समाज की उदासीनता के साथ समझौते वाली स्थिति तक पहुँचती है, जिस पर शैतान भी व्यंग्य करता है-

• यह दुनिया मेरी करतूतों से कहीं बहुत आगे निकल चुकी है (97)

• पहले का वक़्त होता तो क्या कोई पसन्द करता

इस तरह चाय पीना मेरे साथ! (98)

'क्यों रोई वह इतने बरसों बाद' लम्बी कविता के राजा के देहावसान के बहाने धत्कर्म कथा का पटाक्षेप होता है।

राजेश जोशी की कविता केवल सत्ताविरोधी आक्रोश की अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं है, वरन् जन सामान्य के छोटे-छोटे सुख, खोए हुए अपनेपन की तलाश, टूटन की पीड़ा, परिवार की ऊष्मा और उसके अभाव की व्यथा भी सँजोए हुए है। 'संयुक्त परिवार' कविता में बिखराव और टूटन की पीड़ा साफ़ झलकती है। पहले सुख–दुख साथ–साथ भोगे जाते थे, जिससे सुख दुगुना हो जाता था, तो दु: ख आधा। अब सब कुछ बिखर गया। सुख की समस्या नहीं, पर दुख तो अकेले ही झेलना पड़ता है। दायरा सीमित होता गया, दु: ख बाँटने वाले घटते गए-

• यह छोटा–सा एकल परिवार / कोई एक बाहर चला जाये तो दूसरों को /

काटने को दौड़ता है घर / नये घर ने बहुत सहूलियत बख़्शी है / चोरों को

—तार से आ जाती है बधाई और शोक सन्देश (-55)

नेल कटर, हाथ, बचाना, शोक गीत-दो ऐसी ही कविताएँ हैं, जो हर बिखराव को समेटने के लिए उद्विग्न हैं। नेल कटर न होकर एक पूरी आत्मीयता है, जो किसी को 'न' न कहकर सामंजस्य स्थापित करने और पारिवारिक संस्कारों को आगे तक ले जाने में प्रयासरत है। हाथों की खूबियाँ बहुत कुछ सँभाले हुए है, तो इस दुनिया में ऐसे लोग भी कम नहीं हैं, जो अपने समर्पण और अपनेपन से बहुत कुछ बचा रहे हैं-

• मुझे याद नहीं कितने बरसों से मैंने / किसी से 'न' नहीं कहा (57)

• जितने हाथ थे दुनिया में उतनी खूबियाँ थीं, उतने स्वाद थे

उतनी कलाएँ थीं, उतनी समझदारियाँ थीं (59)

• बची है यह दुनिया / कि कोई न कोई, कहीं न कहीं बचा रहा है हर पल (66)

• हम जहाँ से निकाले गए / निकाल नहीं पाए उसे कभी अपने से बाहर

हम जहाँ भेजे गए, वहाँ के हो नहीं पाए (77)

खोई हुई चीज़ें, अब यवनिका गिरती है कविताओं की सहज अभिव्यक्ति में जहाँ भरपूर सादगी है, वहीं लगता है कि बहुत कुछ हाथ से रेत की तरह खिसक गया है। बच्चों की ड्राइंग की कॉपियों में एक बात सर्वमान्य है कि पेड़, सूरज, नदी, घर आदि ज़रूर नज़र आएँगे, पर कालान्तर में बड़ा बदलाव आहत कर जाता है–

• पेड़ हरे थे और उगता हुआ सूरज था

तब शायद हमने नहीं सोचा था कि हमारी दुनिया में /

इतना अँधेरा भी होगा (19)

• कुछ नहीं हो सकता था अब

आगे के दृश्य के संवाद हमें अकेले ही बोलने होंगे (79)

'पापा कब आएँगे?' का उत्तर तिरोहित हो गया। युवा रंगकर्मी संजीव दीक्षित की स्मृति में लिखी शब्दाडम्बर से दूर यह कविता एक फ़िल्म की रील की तरह आँखों के आगे घूम जाती है।

जन सामान्य की संवेदना जोशी जी की कविता में अनेक रूपों में अवतरित होती है। 'इत्यादि' कविता इसका बेहतर उदाहरण है। यह इत्यादि ही जन सामान्य है, संख्या बल में आगे। भीड़ बढ़ाने से लेकर पुलिस की गोली खाने तक में आगे। इस कविता में विषय की व्यापकता पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। आज के आन्दोलन और रैलियाँ इसी के दम पर किए जा रहे हैं। क्यों किए जा रहे हैं, यह नहीं जानता। इसे क्या मिलेगा, यह नहीं जानता। दुर्घटनाग्रस्त होने से लेकर समाज के अस्तित्व के बचाने तक में सब जगह मौजूद है, सब जगह उपेक्षित है, सब जगह हाशिये पर है-

• इत्यादि हर गोष्ठी में उपस्थिति बढ़ाते थे

इत्यादि जुलूस में जाते थे, तख्तियाँ उठाते थे, नारे लगाते थे

इत्यादि लम्बी लाइनों में लगकर मतदान करते थे——

इसलिए कभी-कभी पुलिस की गोली से मार दिए जाते थे (13)

दुर्घटना तक में उपेक्षित और अनाम रह जाने वाले, सबका मोहरा बनने वाले, जोखिम उठाने से डरने वाले इस 'इत्यादि' का एक दूसरा भी रूप है-

• लेकिन कभी-कभी जब वे डरना छोड़ देते थे /

तो बाकी सब उनसे डरने लगते थे (13)

इसी जन सामान्य को कवि प्राय: वाक्य के अन्त में जुड़ने वाली सहायक क्रिया के रूप में अभिव्यक्त करता है। 'सहायक क्रिया' कविता में उस व्यक्ति की उपस्थिति का 'गरीब पाहुना' के रूप में लोकसम्मत, अद्भुत उपमान गरीब की असहाय सामाजिक स्थिति को रेखांकित करता है–

• काल को चिह्नित करती सहायक क्रिया अक्सर

शब्दों की पाँत में इस तरह अन्त में आकर बैठती है /

जैसे वह एक गरीब पाहुना हो

जो सिकुड़कर बैठा हो पंगत के आखिरी कोने पर (15)

गीत प्रगीत लिखने वाले दिग्गज उसे 'हकाल देना चाहते थे।' भाषा से बाहर' व्याकरणिक रूप का यह अनोखा प्रयोग जब आगे बढ़ता है, तो सहायक क्रिया के एक अन्य रूप-वृत्तिक सहायक क्रिया के रूप में आगे बढ़ता है-

• कभी-कभी वक्ता के मन्तव्यों की व्यंजना भी छिपी रहती है उसमें

शासक अपने आदेशों में वृत्तिक सहायक क्रिया का /

इस्तेमाल करते हैं अक्सर (16)

इन पंक्तियों को समझने लिए वृत्तिक सहायक क्रिया का व्याकरणिक रूप समझना ज़रूरी है। वृत्तिक सहायक क्रिया 'सहायक क्रिया' के छह प्रकार में से एक है। इसे वृत्तिक क्रिया (मॉड्ल वर्ब) इसलिए कहा जाता है; क्योंकि यह 'वक्ता की मनोवृत्ति (मूड) या उनका दृष्टिकोण व्यजित करती है। हिन्दी में चाहिए, चुकना, पाना, पड़ना सकना, होना ऐसी ही क्रियाएँ हैं।' (हिन्दी भाषा की संरचना: डॉ भोलानाथ तिवारी, पृष्ठ-163, संस्करण: 1988)

'उसकी गृहस्थी' , 'छाते' में परिवार और जीवन के सहज चित्र उकेरे गए हैं। जीवन में भी कुछ न कुछ इसी तराह छूटता जाता है, जैसे–

कभी-कभी हमारे छाते छूट जाते हैं किसी यात्रा में / बाज़ार में या कहीं और—

छूट जाता है, छूटता चला जाता है, जैसे बहुत कुछ / उम्र के साथ— (61)

अतीत से मुक्त होना सम्भव नहीं। हमारे शहर की गलियाँ: एक, हमारे शहर की गलियाँ: दो, अहद होटल ऐसी कविताएँ हैं जो बीते दिनों की रह-रहकर याद दिलाती हैं। अभाव-भरे जीवन के बहुत से सात्त्विक भाव इनमें भरे हुए हैं। रूह से जुड़ा ऐसा बहुत कुछ है, जो अन्तर्मन से लिपटा हुआ है। अपने शहर का यह अपनापन अकारण नहीं था-

• उन गलियों से कई गलियाँ तो हमारे सपनों तक जाती थी (69)

• तंगहाली के दिनों में भी गलियों ने कभी / हमें शर्मिन्दा नहीं किया (70)

बाज़ार की आँख में काँटे की तरह गड़ने वाले 'अहद होटल' की एक साहित्यिक गरिमा थी। विडम्बना यह थी कि आसपास के दुकानदारों के लिए यह स्थिति नाग़वार थी-

• ' बीच बाज़ार में चाँप रखी है इतनी बड़ी जगह /

इन फ़ुरसतिया और बेकार लोगों ने' (73)

आज वह होटल दुर्भाग्य से जूतों की दूकान बन गया है। जीवन की गर्माहट और अपनेपन ने व्यापार का रूप धारण कर लिया है-

• कि जो जगह भरी होती थी कभी खूबसूरत शब्दों से

वहाँ अब चमकदार जूते भरे हैं / और उनमें न किसी यात्रा की धूल है /

न किसी पाँव के पसीने की गन्ध (74)

जोशी जी ने साहित्यिक जगत् के ईर्ष्यालु वर्ग पर भी गहरा व्यंग्य किया है। आदर्शों की बात करने वाला यह वर्ग'सब कुछ मैं ही हूँ' की संकीर्णता और गफ़लत से बाहर नहीं निकल पाता

• कैसे बर्दाश्त कर पाएगा सुकवि /

• कि कोई दूसरा कवि लिख डाले / एक अच्छी कविता (100)

प्रशंसा करने में या अच्छा कहने में सुकवि को मरोड़ होने लगेगी। कवियों का एक कड़वा सच है, उनकी अनुदारता। दुनिया को बदलने वाले अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति नहीं बदल पाते-

• वह टालेगा समकालीनों पर / नहीं देगा अपनी राय /

विदेशी कवियों के बारे में बताएगा / हर वक़्त (101)

सहजता जोशी जी की भाषा का सौन्दर्य है, जहाँ सरल शब्दावली के द्वारा अभिव्यक्ति और अधिक अपनत्व से भरी नज़र आती है, शब्दचित्रों का अपनापन मन मोहता है। दो पंक्तियों के बीच, चाँद के बारे में कुछ पंक्तियाँ, धरती के इस हिस्से में, प्रतिध्वनि, छाते आदि कविताएँ इसके उदाहरण हैं-

कविता को समझने के लिए संस्कार की ज़रूरत है-

• यहाँ आने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर आना

कि तुम्हारे पैरों की कोई आवाज़ न हो (10)

• एक ही शातिर चीज़ हैं आप भी चाँद मियाँ——

महज़ एक तूती की तरह लटके हुए नज़र आते हैं (29)

• इस समय इस हिस्से में समुद्र / किनारे की चट्टान पर अपनी लहर को /

एक उस्तरे की तरह घिस रहा है (33)

• तेन्दुए की पीठ पर बनी धारियों जैसी चौड़ी और तिरछी

बौछारों वाली बारिशों के दिनों में (60)

इस संग्रह की बहुत–सी और भी कविताएँ हैं जो जागरूक पाठक को उद्वेलित किए बिना नहीं रहती है। 'बीसवीं सदी के अन्तिम दिनों का एक आश्चर्य' कविता में उभरी रिश्तों की गर्माहट उस बूढ़े आदमी को आश्वस्त करती है कि 'अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है'- (22)

, 'घर की याद' (पृष्ठ-62) कविता में एक हूक-सी दबी हुई है। रोटी रोज़ी के लिए भटकने वाले मास्टर का जीवन तबाह और कुण्ठित हो जाता है। उसका निर्वासन उससे घर–परिवार की सारी खुशियाँ छीन लेता है; क्योंकि व्यवस्था बहरी और अन्धी होती है–वह न किसी की चीख सुनती है और न आँसू देखती है।

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि राजेश जोशी की कविता हर संतप्त के साथ खड़ी नज़र आती है, 'दो पंक्तियों के बीच' का अन्तराल भरने में सक्षम है।


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