‘बनजारा मन’: कृति की राह से / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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बहुमुखी साहित्यिक-अकादमिक प्रतिभा के धनी, हिन्दी-अंगरेज़ी लेखन में समान रूप से समर्थ, चर्चित साहित्याचार्य-व्याकरणाचार्य, अद्यतन लघ्वाकारीय हिन्दी गद्य-पद्य विधाओं के सिद्धहस्त प्रणेता, 66 से अधिक हिन्दी-अंगरेज़ी ग्रन्थों के सफल लेखक-संपादक और राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कथाकार-कविताकार रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' द्वारा रचित 150 पृष्ठीय 'बनजारा मन' में, तीन उपशीर्षकों- 'तरंग' , 'मिले किनारे' , 'निर्झर' —के अन्तर्गत, क्रमशः 22+44+25 = कुल 91 कविताएँ संगृहीत हैं।

जिस प्रकार एक बनजारा (बंजारा) बैलगाड़ी और घोड़ों आदि वाहनों पर अपना माल लादकर, उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर, बेचता है और किसी-एक स्थान का नहीं हो पाता—'रोज़ उजड़ना, लुटते रहना / यह भाग में बनजारे के' (पृ.। 50) —उसी प्रकार, 'मन की स्थिति भी बनजारे जैसी होती है। बनजारा सबका है, सबके लिए है; लेकिन अभिशप्त है कि वह किसी का नहीं' (पृ. viii) । उल्लेखनीय है कि स्वयं 'हिमांशु' जी को भी बनजारा-जीवन भोगना पड़ा है। केन्द्रीय विद्यालयों में, शिक्षक और प्राचार्य-रूप में, सेवा-अवधि के मध्य, आपको भारतवर्ष के लगभग एक दर्जन प्रदेशों / शहरों और कनाडा के 'इस बनजारे जीवन के अनुभवों ने बहुत दिया-मधुर भी, कटु भी। नतमस्तक होकर सब स्वीकार किया' (पृ.। viii) । आप जानते ही हैं कि धरती का कोई भी कोना हो, सब जगह प्रायः एक-जैसे लोग ही मिलेंगे—जाने भी, अनजाने भी; अच्छे भी, ओछे भी; भले भी, बुरे भी; सगे भी, दग़े भी; प्रबुद्ध भी, कुबुद्ध भी; कुल मिलाकर, काव्य-साहित्य के स्थापित हस्ताक्षर 'हिमांशु' ने, ऐसे ही सैंकड़ों-हज़ारों लोगों के संसर्ग-सम्पर्क में रहकर, जो-कुछ देखा-परखा और सोचा-समझा है, वही 'बनजारा मन' कृति का कथ्य बना है।

प्रस्तुत काव्य-संग्रह का शुभारम्भ 'तूफ़ान सड़क पर' (8 फरवरी, 2011) नामक कविता से होता है, जिसके आधार पर, दृढ़तापूर्वक, यह कहा जा सकता है कि आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के आलोक में चतुर्दिक् व्याप्त भारतीय युग-परिवेश के रोम-रोम को उद्घाटित करती इस कविता की भावधारा ही समूचे काव्य-संग्रह में, आद्यंत, पदे-पदे तरंगायित हो रही है। आगे बढ़ने से पहले, ध्यानस्थ-दत्तचित्त होकर, पढ़ जाइए यह पूरी कविता—

नामी या बेनाम सड़क पर / होते सारे काम सड़क पर /

जब देश लूटता राजा / कोई करे / कहाँ शिकायत, /

संसद में कुछ बैठे दाग़ी / एकजुट हो / करें हिमायत; /

बेहयाई नहीं टूटती, रोज़ उठें तूफ़ान सड़क पर /

दूरदर्शनी बने हुए / इस दौर के / भोण्डे तुक्कड़, /

सरस्वती के सब बेटे / हैं घूमते / बनकर फक्कड़; /

अपमान का गरल पी रहा / ग़ालिब का दीवान सड़क पर /

खेत छिने, खलिहान लुटे / बिका घर भी / कंगाल हुए, /

रोटी, कपड़ा, मन का चैन / लूटें बाज, बदहाल हुए; /

फ़सलों पर बन रहे भवन / किसान लहूलुहान सड़क पर /

मैली चादर रिश्तों की / धुलती नहीं / सूखा पानी, /

दम घुटकर विश्वास मरा / कसम-सूली चढ़ी जवानी; /

उम्र बीतने पर दिया है / प्यार का इम्तिहान सड़क पर। ' (पृ. 13-14)

निःसंदेह, कविता साक्षी है, आज हम जिस परिस्थिति-परिवेश में साँस लेने को विवश हैं, वह घुटन और सीलन से भरा हुआ है। फलस्वरूप सहज-सामान्य जीवन जीने की समस्त संभावनाएँ धूमिल होती जा रही हैं। आए दिन हो रहे विविधमुखी जनान्दोलन, शीर्ष सत्तासीनों द्वारा मचाई जा रही लूटमार और सामाजिक सरोकारों के प्रति उनकी घोर लापरवाही, शोषक और शोषित के मध्य और-अधिक चौड़ी होती खाई; आरक्षण और अधिग्रहण के मायाजाल में लुटा-पिटा आम आदमी, वोट-राजनीति के दुश्चक्र में फँसकर लाचार किसान-मज़दूर, हाशिए पर दम तोड़ता काव्य-साहित्य और अपनी विश्वसनीयता खो चुके मीडिया का भोण्डा प्रदर्शन आदि-आदि जनविरोधी समस्याओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं को अपनी पहली ही कविता में रेखांकित करके रचनाकार ने अपने काव्य-संसार की प्राथमिकता स्पष्ट कर दी है। यों, आगे चलकर भी, कवि को यही भावधारा विह्वल करती रही है। यथा-'कल जो थे डाकू-हत्यारे / वे अब पहरेदार हो गए' (पृ. 48) , 'रहबर ठगते रोज़ राह में / अजब चला दस्तूर यहाँ / रहज़न पर ही करें भरोसा / हुआ यही मंज़़ूर यहाँ (पृ. 53) ,' अब तो घर-घर पूजा होती / तस्कर और दलालों की'(पृ. 49) ,' अखबारों में छप रहा / अजगर का ही नाम (पृ. 54) और 'हिलना-डुलना है मना / बिना लिये कुछ दाम' (पृ. 55) ।

उपर्युक्त दारुण-दाहक परिस्थितियों का सबसे बुरा प्रभाव पड़ा है-हमारे आपसी सम्बन्धों पर, जीवन-मूल्यों के स्थायित्व पर और समाज के आधारभूत ढाँचे पर—मानो सारा शीराज़ा ही बिखर गया है। पारस्परिक सम्बन्धों में द्रष्टव्य यह आधारहीनता, विश्वासहीनता और संवादहीनता हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगी, राम जाने! रचनाकार की तो स्पष्ट मान्यता है कि 'यह संवादहीनता आज का युग-सत्य है' (पृ.vii) , जिससे पीछा छुड़ाना संभव नहीं है; क्योंकि यहाँ 'भीड़ है, पर आदमी नहीं जुलूस में बचा।' कितनी भयावह स्थिति है कि जब आदमी में आदमीयता और संवेदनशीलता ही नहीं बचेगी, तो वह मात्र एक अस्थि-पंजर ही दिखाई देगा न! सचमुच यह निर्जनता किसी पत्थर-लोक की सायँ-सायँ से कम नहीं है। इसीलिए तो 'पत्थरों के / इस शहर में / मैं जब से आ गया हूँ; / बहुत गहरी / चोट मन पर / और तन पर खा गया हूँ' (पृ. 17) । सच मानिए कि 'आँगन-आँगन / कपट-कथा है/ मंत्र-पाठ यहाँ / गरल-भरा है / विश्वासों के / सर्प छुपे हैं / बाँबी है हर गलियारा' (पृ। 33) और 'जिस भी काँधे पर हाथ रखा / चुभी उसी से नागफनी है' (पृ. 58) । कथनी और करनी में अन्तर का आलम यह है कि 'अपने यारों को हैं भाए / खेल अब चोर-सिपाही के' (पृ. 50) ।

सम्बन्धों की इस मलिनता-अस्पष्टता, असहनशीलता-अपारदर्शिता और विकृत मानसिकता से ही, अंततः, समाज को गुण्डई, आतंकवाद, उग्रवाद और साम्प्रदायिकता का घिनौना चेहरा देखना-झेलना पड़ता है-एक ऐसा चेहरा, जिसका अपना कोई सगा नहीं होता, जिसका अपना कोई धर्म नहीं होता। उसका एक ही उद्देश्य होता है-'येन-केन-प्रकारेण' , 'तंत्र-मंत्र-षड्यंत्र से' (पृ. 145) , सामाजिक सद्भाव और आपसी भाईचारे को चोट पहुँचाना, छिन्न-भिन्न करना तथा 'छल-कपट की / जज़ीरों से' (पृ.31) बँधकर व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य विद्वेष, कटुता और घृणा के बीज बोना। पीड़ादायक स्थिति यह है कि यह कोई एक दिन का खेल नहीं है, बल्कि हमें-आपको 'रोज़ डँसेंगे / ये विषधर, गली-गली' (पृ. 31) ।

ऐसे माहौल में साहित्यकार से यह अपेक्षा रहती है कि वह आगे आए और अपने कृतित्व से व्यक्ति-समाज का मार्गदर्शन करे। लेकिन, यह क्या? यहाँ तो स्वयं साहित्य ही अपने मार्ग से भटक गया है, क्योंकि, बकौल रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , 'आदमी को आदमी बनाने में काव्य कहीं-पीछे छूट गया है, जिसका कारण है, लोक-कल्याण की भावना का तिरोहित होना' (पृ.अपपप) । सच ही तो कहा गया है कि कवि जब-जब सोता है/ तो देश अपनी शक्ति को खोता है (पृ. 147) । तब, क्या 'हिमांशु' के कवि को भी इन तथाकथित साहित्यकारों के 'लोक-वेद' (कबीर) का अनुसरण-अनुकरण करना चाहिए? नहीं। वह तो किसी-और मिट्टी का बना है! उसकी स्वीकारोक्ति है कि 'किस्मत हम ले आए ऐसी / जिसकी आँधियों से ठनी है' (पृ. 124) और 'मेरा कोई सगा नहीं, न सही / मैं ख़ुद का तो सगा हूँ' (पृ। 124) । इसलिए 'मैं क़सम खाता हूँ / अपने शब्दों से / प्रचण्ड अग्नि जलाऊँगा / रोशनी फैलाऊंगा / इस सोते हुए देश को ज़रूर जगाऊँगा' (पृ। 147-148) ।

बनजारा-जीवन का पर्याप्त अनुभव बटोर चुके हमारे रचनाकार के अनुसार, देश-समाज को जगाने और रोग-मुक्त करने का एकमात्र उपाय यह है कि 'जितना हो / सुख दे दें जग को / जी-भर प्यार करें (पृ। 25)' और '... इतना / हँसें दुःखों पर / घबरा जाए हर मातम (पृ. 27) ; क्योंकि' एक बूँद भी प्यार अगर है / वह सागर बन जाएगा (पृ.51) । साथ ही, हम यह संकल्प भी ले लें कि जब तक हमारे समाज का कोना-कोना स्वच्छ-स्वस्थ नहीं होगा, तब तक हम चैन की बाँसुरी नहीं बजाएँगे—'जब तक किसी आँख में आँसू / गीत भला क्या गाएँ।' (पृ. 67) ।

उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति में, निःसंदेह, रुकावटें तो आती ही हैं, कई बार निराशा भी हाथ लगती है, लेकिन हमें रुकना-झुकना नहीं है-'बहुत अँधेरा / दूर सवेरा / दीपक जलते रहना' (पृ. 34) और 'जब तक साँस / एक भी बाकी... / चलना है, बस चलना है' (पृ.19) । हम प्रेरणा लें, उस चिड़िया से, जो अपना घोंसला बनाकर ही दम लेती है-'बार-बार हारकर भी / हार नहीं पाती है / नीड़ बनाती है चिड़िया' (पृ.99) , इसलिए, ऐ मेरे मन! 'तुझे क़सम है / हार न जाना' (पृ.16) ।

'बनजारा मन' में कवि का प्रेमी-रूप भी निखरकर सामने आया है। जीवन के इकहत्तर वसंत देख चुके 'हिमांशु' ने भी, लॉन्ग-लॉन्ग अॅगो, कभी किसी से, इकतरफा ही सही, सच्चा प्रेम किया था, जो, आज तक, परवान तो नहीं चढ़ सका, लेकिन उसकी हूक, उसकी टीस, उन पलों की स्मृति, दबे-घुटे स्वरों में ही सही, रह-रहकर सताती रहती है। अपने आलम्बन को सम्बोधित करते हुए कवि कहता है कि यह सच है कि 'तुम्हारी उँगलियों के पोर / मैंने कभी छुए तो नहीं' (पृ.132) , लेकिन जब याद आती है—'कच्चे भुट्टे के / दूधिया दानों-सी / हँसी तुम्हारी / अम्बर के उर में / चपला-सी मदिर छवि / बसी तुम्हारी / देह रसकलश-सी / दृढ़ आलिगन में / कसी तुम्हारी।' (पृ.66) , तो मैं बेचैन हो उठता हूँ और हर पल तुम्हें ही निहारते रहने को मन करता है, क्योंकि मेरे 'हिरनी-से नयन भटकते, प्यास नहीं मिटती' (पृ.60) । इसीलिए, एक मुद्दत के बाद भी, 'एक किरन / नयनों में अब भी जाग रही है / तुझसे मिलने की आशा में' (पृ.47) । हे प्रिये! सच मानना, तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम-समर्पण सदैव अटल-अटूट रहा है; इसलिए यदि तुम्हारे बदले में मुझे कोई जन्म-जन्मांतर की पूँजी भी देना चाहे, तो वह मेरे लिए पाँव की धूलि के समान ही होगी-'सात जनम की पूँजी हमको / बिना तुम्हारे धूल पाँव की' (पृ.86) । अपने तईं मैं तो आश्वस्त हूँ कि जब हर-किसी ने मेरे साथ छल-कपट किया था, तब एकमात्र तुम्हारे प्यार ने ही मुझे सम्बल प्रदान किया था-'मेरे आँगन ख़ुशबू फैली, / तुमने ही महकाया होगा' (पृ.94) । अब, आगे तुम्हारी मर्ज़ी! 'हिमांशु' भाई! मेरी फ़ुल सहानुभूति आपके साथ है; मैं आपके लिए दुआ करूँगा।

एक सजग-सचेत कलाकार की भाँति 'हिमांशु' जी ने अन्य अनेक सामयिक-ज्वंलत मुद्दों को भी अपनी लेखनी का स्पर्श प्रदान किया है। 'हम मुस्काएँ' , 'वीर बाँकुरे' , 'लिखूँगा गीत मैं इसके' और 'आज़ादी की पूर्व संध्या' नामक कविताओं में उनकी राष्ट्रीय चेतना मूर्त्तिमान् हुई है—'मरने का मौका आया तो / पैर पीछे न हटेगा / देश की रक्षा में / सबसे पहले मेरा ही शीश कटेगा' (पृ.148) । 'धूमकेतु जैसी किस्मत' और 'बीमार ही होती हैं लड़कियाँ' में, नारी-विमर्श के आलोक में, भारतीय महिला-समाज की दशा-दुर्दशा पर प्रकाश डाला गया है-'धूमकेतु-सी क़िस्मत लेकर / जिए जा रही / अब तक औरत' (पृ.106) । 'अब बच्चे, बच्चे नहीं रहे' कविता में बस्ते के बोझ से लदे-झुके बचपन का मार्मिक अंकन हुआ है-'किताबों में ज्ञान का / भूसा भरा हुआ है। / वे रात-दिन / उस भूसे को चबा रहे हैं / ... बस्तों के बोझ से लदे हुए बच्चे / झुकी कमर वाले बूढ़े बच्चे / भूसा चबाकर / माँ-बाप से बतियाते / बहस करते बच्चे / अब बच्चे नहीं रहे / बूढ़े हो गए हैं' (पृ.101) और 'आग' तथा 'हरियाली के गीत' सरीखी कविताओं में पर्यावरण-संरक्षण की गुहार लगायी गई है-'उगाने होंगे अनगिन पेड़ / बचाने होंगे/ दिन-रात कटते हरे-भरे वन' (पृ.112) ।

भाषा-सौष्ठव, छन्द-वैविध्य, हास्य-व्यंग्य विधान और अभिव्यक्ति-कौशल की दृष्टि से पकी हुई कविता के प्रणेता रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की उपमान-योजना पर तो स्वयं को न्योछावर करने का जी चाहता है-'यशोधरा-सी धरा को / नींद में छोड़कर / चले गए सिद्धार्थ-से बादल। / फटी, खुली रह गईं बिवाई-सी / निस्तेज़ दरारें / दो बूँद पानी के लिए / रिसता रहा लहू / पपड़ाए होंठों-सा धरातल। / हो गया तार-तार / जीर्ण-शीर्ण फसलों का / चिथड़ा-चिथड़ा आँचल। / आकाश में उतरा सूरज / बटमार बनकर के / चला गया छाती पर / जलती किरणों का रोड-रोलर / पल-प्रतिपल' (पृ.37) ।

'हिमांशु' भैया! सच्ची-सुच्ची कविता-यात्रा के लिए हार्दिक बधाइयाँ और मंगल कामनाएँ। चरैवेति! चरैवेति! अभी बहुत दूर जाना है।

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