“ए रूम विथ ए व्यू” दीवारों के पार संसार / राकेश मित्तल

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“ए रूम विथ ए व्यू” दीवारों के पार संसार
प्रकाशन तिथि : 04 अक्टूबर 2014


यह एक ऐसी युवती की कहानी है, जो एक रूढ़िवादी, बंदिशों भरे समाज से निकलकर उन्मुक्त प्रेम की बौछारों में भीग जाती है। इसके केंद्र में जॉर्ज, लूसी और सिसिल की कहानी है किंतु परोक्ष रूप से यह ब्रिटिश वर्ग प्रणाली पर एक करारा व्यंग्य है।

इस्माइल मर्चेंट और जेम्स आइवरी की अंतर्राष्ट्रीय जोड़ी को सिनेमा के इतिहास की सर्वाधिक टिकाऊ और लंबी भागीदारी माना जाता है, जिसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में भी दर्ज किया गया है। यह जोड़ी विश्व भर में साहित्यिक सिनेमा की पर्याय बन चुकी है। बौद्धिक तथा विचारोत्तेजक सिनेमा के सृजन में इसने अभूतपूर्व योगदान दिया है। अमेरिकी फिल्म निर्देशक जेम्स आइवरी एक बार शूटिंग के सिलसिले में भारत आए, तो उनकी मुलाकात गुजरात के इस्माइल नूर मोहम्मद अब्दुल रहमान मर्चेंट से हुई, जो मुंबई में अपनी पढ़ाई पूरी कर न्यूयॉर्क से एमबीए कर चुके थे और फिल्में बनाने की कोशिश कर रहे थे। दोनों ने मिलकर वर्ष 1961 में 'मर्चेंट आइवरी प्रोडक्शन कंपनी" की स्थापना की। उद्देश्य था भारत में अंग्रेजी भाषा में फिल्में बनाकर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित करना। धीरे-धीरे उन्होंने फिल्म निर्माण का दायरा भारत से बढ़ाकर इंग्लैंड और अमेरिका तक फैला लिया। आइवरी फिल्मों का निर्देशन करते थे और मर्चेंट प्रोडक्शन की जिम्मेदारी संभालते थे। विश्व प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों को वे अपनी फिल्मों की कहानी के रूप में इस्तेमाल करते थे। उन्होंने अपनी पहली ही फिल्म विख्यात लेखिका रूथ प्रवर झाबवाला के उपन्यास 'द हाउसहोल्डर" पर बनाई। जर्मन मूल की, भारत में ब्याही, बुकर पुरस्कार विजेता रूथ प्रवर झाबवाला इसके बाद उनकी स्थायी पटकथा लेखिका होकर टीम का हिस्सा बन गईं। वे दुनिया की एकमात्र साहित्यकार हैं, जिन्हें बुकर तथा ऑस्कर जैसे दोनों प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं। सन् 2005 में इस्माइल मर्चेंट के निधन के साथ यह भागीदारी टूट गई। इन पैंतालीस वर्षों में इस टीम ने चालीस फीचर फिल्मों का निर्माण किया, जिसमें शशि कपूर अभिनीत चर्चित फिल्म 'हीट एंड डस्ट" भी शामिल है।

वर्ष 1985 में प्रदर्शित 'ए रूम विथ ए व्यू" इस टीम की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है। यह ब्रिटिश उपन्यासकार ई एम फॉर्स्टर के 1908 में इसी नाम से लिखे गए उपन्यास पर आधारित है, जिसकी पटकथा झाबवाला ने लिखी थी। यह एक ऐसी युवती की कहानी है, जो एक रूढ़िवादी, बंदिशों भरे समाज से निकलकर उन्मुक्त प्रेम की बौछारों में भीग जाती है। ब्रिटेन के इतिहास में 1901 से 1914 का समय 'एडवर्डियन एरा" के नाम से जाना जाता है। जनवरी 1901 में महारानी विक्टोरिया के निधन के बाद उनके पुत्र सम्राट एडवर्ड सप्तम ने राजगद्दी संभाली थी। यह समय अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा। 1910 में सम्राट एडवर्ड का निधन, 1912 में टाइटेनिक जहाज का डूबना और 1914 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरूआत इसी दौरान हुई थी। इस समय ब्रिटिश समाज में वर्गभेद अपने चरम पर था। अभिजात्य उच्च वर्ग और मध्यम तथा निम्न वर्ग के बीच हिकारतपूर्ण संबंध थे। रूढ़िवादी परंपराओं और बंदिशों के चलते महिलाओं की स्वतंत्रता पर कठोर नियंत्रण था। ऐसे समय में इंग्लैंड के एक छोटे-से गांव में पली-बढ़ी अभिजात्य, खूबसूरत सोलह वर्षीय लूसी (हेलेना कार्टर) अपने चचेरे बड़े भाई के साथ छुट्टियां बिताने इटली आई हुई है। उसके साथ उसकी सुरक्षा और निगरानी के लिए एक बड़ी उम्र की संरक्षिका शर्लेट बर्टले (मैगी स्मिथ) भी है। शर्लेट के घोर नियंत्रण और निरंतर टोका-टोकी के कारण लूसी उसे बिल्कुल पसंद नहीं करती। इंग्लैंड की परंपरागत रूढ़िवादिता और इटली की स्वच्छंद संस्कृति कतई मेल नहीं खाते। लूसी के लिए यह बिल्कुल अलग तरह का अनुभव है। उसके चचेरे भाई के मित्र मिस्टर इमर्सन (डेन्हम इलियट) और उनके युवा उदारवादी विचारों वाले पुत्र जॉर्ज (जूलियन सैंड्स) तथा लूसी के मंगेतर सिसिल वाइज (डैनियल डे लुइस) के बीच कई रोचक प्रसंग घटित होते हैं, जो अंतत: लूसी की परिपक्वता में इजाफा करते हैं।

यह एक बेहद खूबसूरत, बौद्धिक, भावनात्मक कहानी पर बुनी गई फिल्म है। सामान्य तौर पर भावनाएं और तर्क एक-दूसरे के विपरीत काम करते हैं पर इस फिल्म में उन्हें एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखना सुखद है। इसके केंद्र में जॉर्ज, लूसी और सिसिल की कहानी है किंतु परोक्ष रूप से यह ब्रिटिश वर्ग प्रणाली पर एक करारा व्यंग्य है। फिल्म का शीर्षक बहुत प्रतीकात्मक है। फिल्म की शुरूआत में शर्लेट और लूसी इटैलियन गेस्ट हाउस के जिस कमरे में ठहरते हैं, उसमें कोई खिड़की नहीं होती, जिस कारण वे असहज महसूस करते हैं। जॉर्ज के पिता मिस्टर इमर्सन उन्हें अपना कमरा देने की पेशकश करते हैं, जिसकी खिड़की से बाहर सुंदर दृश्य दिखाई देता है। उस समय शायद उन्होंने नहीं सोचा होगा कि वे लूसी की घुटन-भरी, बंद जिंदगी की खिड़की खोलने जा रहे हैं।

इस फिल्म को आठ ऑस्कर पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया था, जिसमें से इसे सर्वश्रेष्ठ पटकथा (झाबवाला), कला निर्देशन और कॉस्ट्यूम डिजाइन हेतु पुरस्कृत किया गया। इसके अलावा अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसे कई पुरस्कार मिले हैं।