...और परदा मुकम्मल ( यवनिका पतन नहीं ) / प्रियंका जोधावत

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...और परदा मुकम्मल ( यवनिका पतन नहीं ) "बचपन के तेरे मीत तेरे संग के सहारे ढूंढ़ेंगे तुझे गली-गली सब ये गम के मारे पूछेगी हर निगाह कल तेरा ठिकाना ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना"

जब भी हमें किसी का बिछोह दिखाई देता है या किसी को अलविदा कहना होता है, संभवतः हम सभी संगीत-साहित्य के अनुरागियों को शाश्वत गीतकार शैलेन्द्र जी के लिखे इन भावप्रवण शब्दों का स्मरण अनायास हो जाता है। ऐसे में माहौल उदासी और चिन्तन में ड़ूब जाता हैं।

आप सोच रहे होंगे कि ये दिल बैठाते भाव कैसे आ रहे है मुझे? हाँ, सच में मन आज बहुत उदास है। क्योंकि आज का दिन एक ऐसे लेखनी के मुसाफिर के अभूतपूर्व सफर के विराम का साक्षी बना है, जो हमारी हर सुबह को दस्तक देता था। हमें अपने साथ हाथ थामे कुछ विचारों, कुछ भावनाओं और कुछ मनोरंजन के गलियारों की सैर कराता था ।

...सैर कराता था !!! "था" यानि सफर खत्म... यानि अब थामा हाथ छूट गया !!! नहीं ये खत्म होने वाला सिलसिला नहीं है। ये सफर तो आज मुकम्मल हुआ है। अपनी 26 वर्षों से अधिक की अनवरत यात्रा के बाद। हाँ, दुःख़ तो हो रहा है, पर हमें इस आश्चर्यजनक उपलब्धि को अपने स्मृतिपटल पर हमेशा के लिए अंकित कर इस लेखन यात्रा को सम्मानित करना चाहिए। उनकी फिल्म के इस गीत की तरह गुनगुनाना कर...

"जब भी मेरी याद सताए फूल खिलाती रहना मेरे गीत सहारा देंगे इनको गाती रहना मैं अनदेखा तारा बनकर राह दिखाउंगा मैं आ जाऊंगा खुश्बू हूँ मैं फूल नहीं हूँ जो मुरझाऊँगा"

निदा साहब का लिखा और हमारे रफी साहब की मखमली अहसासों में पगी आवाज़ से सजा ये गीत फिल्म "शायद" से है। फिल्म शायद की पटकथा लिखने वाले शख्स ही हमारे आज के वही नायक हैं, जिनके खास सफरनामे का हम जिक्र कर रहे हैं। उनकी यह पटकथा एक अनोखी अवधारणा पर आधारित है। वह अवधारणा euthanasia यानि इच्छामृत्यु की है। अपनी इच्छा से वरण करना मृत्यु का। बहुत गंभीर विषय है। और ऐसे विषय पर लिखने का माद्दा इनके पास ही है। आज की खास बात भी इसी शब्द के आसपास... इच्छामृत्यु, शाब्दिक अर्थ इच्छा से मृत्यु पाना। पर मेरा आशय आज यहां मृत्यु से बिलकुल नहीं है, कतई नहीं। यहां आशय अपनी इच्छा से (मजबूरी जिसमें शामिल) अपने जीवन के अहम पड़ाव को पूरा करना है। अर्थात अपनी लेखनी के खास सफर को समाप्त नहीं वरन पूर्ण करना। मेरे शब्दों में कहें तो "इच्छाप्रयाण"...

आज का दिन 25 फरवरी 2022 एक इच्छाप्रयाण का दिन। दैनिक कॉलम "परदे के पीछे" का पर्दा उठा 9 नवम्बर 1995 को। हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध करते लेखक के जीने की उमंग का यह सबब बन गया। आज "परदे के पीछे" के दैनिक कॉलम पर पर्दा गिरने का वक्त है मतलब समापन का दिन।

परदे के पीछे की बात हो तो इस परदे के सामने आज के नायक (लेखक) का नाम आना ही चाहिए। "श्री जय प्रकाश चौकसे" नाम लेते ही "पर्दे के पीछे" कॉलम याद आ जाता है। और इस कॉलम का नाम लें तो लेखक का नाम याद आ जाता है। बहुत से लोग (अधिकांश) यह नहीं जानते कि जो हम पाठक हर रोज सुबह दैनिक भास्कर के इस नियमित कॉलम को पढ़ने का इंतजार करते हैं, उसके हर लेख के पीछे चौकसे साहब की भयंकर पीड़ा और असहनीय दर्द को हराकर हमसे संवाद करने की विलक्षण हिम्मत एवं जिजीविषा है।

कई वर्षों से फेफड़े और मुँह के कैंसर की भयावह पीड़ा और हृदयरोग के साथ बहुत सी शल्य क्रियाओं से जुझते रहे। इससे अनजान उनके हम लाखों प्रशंसक हर दिन उनका लिखा पढ़कर या तो उन्हें सराहते रहे (प्यार देते रहे) या फिर कोसते रहे (धमकाते रहे) अजीब विडम्बना रही यह भी।

सच में, जब कल पता चला कि आज का लिखा यह दैनिक कॉलम पाठकों के नाम उनका आखिरी खत है तो लगा कि आपको बताना चाहिए कि एक मेहनती और अनुशासित लेखक के लिखे को प्यार या नफरत करना बहुत आसान होता है। पर उनके संघर्ष और उनके हौसले को एक मिसाल बनाकर उस पर चलाना कितना कठिन होता है। मैंने देखा है उनका अग्निपथ और आज जब वह इस कॉलम की "आखिरी किश्त" लिख चुके हैं तो उनकी मनोदशा को समझना भी विचलित कर देता है।

चौकसे अंकल! आपकी रचना धर्मिता और आपके हौसले को मेरा प्रणाम। आप मुझे बेटी कहते हो, मेरे लिखे को आर्शीवाद देते हो हमेशा। तो यह दिल जो कुछ कहता-सुनता है, वह आपके "पर्दे के पीछे" दैनिक कॉलम के सफर की पूर्णता पर यही गुनगुना रहा हैं कि...

"आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है..."

आपके और मेरे पसंदीदा शैलेन्द्र जी का यह गीत लिखूं या इस गीत की फिल्म गाइड (मेरे लिए जीवनगीत सरीखी) को याद करूँ। याद आ रही है अपनी पहली चर्चा, जो आपके गाइड फिल्म और रोजी पर लिखे आर्टिकल पर ही थी। हम दोनों खुश हुए थे, क्योंकि हम इस संवाद के तुरन्त बाद लेखक-पाठक के रिश्ते से आगे निकलकर अंकल-बेटी के रूप में आ गए थे। साथ ही ऊषा आंटी से भी वात्सल्य का नाता जुड गया। आखिर साहित्य, लेखन, कला को ऐसे ही वरदान नहीं कहा जाता।

लिखने और साझा करने को बहुत कुछ है, पर अब और क्यों लिखें। आज आप के कॉलम को पढ़कर ऐसा ही लगा कि हमने खुद लिखा है। आखिर आपके 26 वर्षों से लिखे इस ढाई आखर प्रेम (परदे के पीछे) को पढ़कर हम सब भी तो पंडित (अनुभवी) हुए हैं। हाँ ,सीमा दीदी का आपके व्यक्तित्व कृतित्व पे किए जा रहे शोध की प्रतीक्षा है ।

पहले भी साझा की थी दुष्यन्त कुमार जी की ये गंभीर गजल आपके जन्मदिन पर, एक बार फिर से आपके योद्धापन और आपके हार न मानने वाले जज्बे के नाम... जो शायद आपकी आज की हकीकत को बयां कर रही है...

"ये जुबां हमसे सी नहीं जाती जिंदगी है कि जी नहीं जाती इन सफीलों में वो दरारे हैं जिनमें बसकर नमी नहीं जाती देखिए उस तरफ़ उजाला है जिस तरफ रोशनी नहीं जाती शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना बाम तक चांदनी नहीं जाती एक आदत सी बन गई है तू और आदत कभी नहीं जाती मयकशो मय जरूर है लेकिन इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती मुझको ईसा बना दिया तुमने अब शिकायत भी की नहीं जाती"

चौकसे अंकल! एक बार पुऩः आपकी इस साहित्यिक साधना और अनवरत यात्रा को साधुवाद। आपके लिखे को पढने की संभावना बनी रहे...