01 फ़रवरी, 1946 / अमृतलाल नागर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल 'लैला मजनू' देखा। पंतजी को उपन्‍यास का पहला परिच्‍छेद सुनाया। उन्‍होंने पसंद किया - एक चैप्‍टर सुनकर आगे के संबंध में उनकी उत्‍सुकता स्‍वाभाविक थी। आज दूसरा और तीसरा चैप्‍टर सुना। उत्‍सुकता और बढ़ी। 'अगर' अभी भी लगा है - 'अगर इसी तरह चला है तो बहुत अच्‍छा होगा।' पंतजी को भी उपन्‍यास पसंद आ रहा है। भविष्‍य के लिए कितनी जिम्‍मेदारी बढ़ गई है। और मैं इधर कुंद हो चला हूँ। लेकिन इतना तो ऊपरी सतह के विचारों से दिखाई पड़ रहा है - कहीं गहरे में जाना है। क्‍या मैं गहरे पैठने से डरता हूँ? खो क्‍यों गया हूँ? कारण क्‍या है? कमलवत क्‍यों नहीं बन रहा? आसक्ति क्‍यों है? लड़ क्‍यों नहीं पाता? इस ऊपरी सतह के जीवन में रस भी तो अब नहीं मिलता। जीवन में नया परिवर्तन, नई प्रगति कब आने वाली है? क्‍या मेरा जीवन यह सिद्ध नहीं करता कि मैं बहुत ही मामूली, बहुत ही शक्तिहीन और बहुत ही अयोग्‍य हूँ। किसी अज्ञात शक्ति का हथियार हूँ। कठपुतली के तमाशे में बाजीगर का हाथ का खिलौना? ऐसे तो सभी हैं? फिर मैं श्रेय क्‍यों लूँ? मैं अभिमान क्‍यों करूँ? समबुद्धि क्‍यों न धारण करूँ? लेकिन यह सब प्रश्‍न हैं-इनका उत्‍तर? इनका हल?-प्रश्‍न-मैं भाग रहा हूँ-बचना चाहता हूँ। लेकिन नरेंद्र द्वारा बाइबिल की कहावत Hound of Heaven is after you... you... man! आने दो। मुझे तैयार होने दो। प्रभु ! ले चलो ! चिंता न करो ! मुझे कितने झकोले लगेंगे। मैं यात्रा करना ही चाहता हूँ। लौकिक शांति मत दो। मैं माँगू तब भी नहीं। मेरी वास्‍तविक शांति अलौकिक शांति, मुझे दो। मुझे बचाओ ! मुझे बचाओ ! अहं का राक्षस मुझे मुट्ठी में भींच रहा है। बनते-बनते मैं आप ही बन गया हूँ। इस बनने से मुझे बचाओ नाथ !