21 फ़रवरी, 1946 / अमृतलाल नागर

Gadya Kosh से
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आज माँ का जन्‍मदिन है। श्री अरविंद के दर्शन होंगे। परसों हम लोग यहाँ आए थे। परसों शाम माँ के दर्शन हुए। परसों दिन में ग्‍यारह बजे पहली बार माँ के दर्शन हुए थे। परसों शाम एक-एक फूल लेकर हम लोग माँ के दर्शन करने गए। चरण-स्‍पर्श, फूल प्रदान किया, माँ ने सिर पर हाथ फेरा, श्री नेत्रों से अपार करुणा बरसा दी, एक फूल प्रदान किया।

कल सुबह साढ़े छह बजे दर्शन करना चूक गए। देर से उठे थे। कल दिन में दर्शन हुए। ध्‍यान के बाद फिर माँ के दर्शन को गए - माँ की ओर से माँ के श्रीकर से आशीर्वाद के रूप में गुलाब का फूल और नेत्रों से अपार करुणा मिली।

आज सवेरे साढ़े छह बजे माँ के दर्शन हुए - दूसरी बार अकस्‍मात फिर सौभाग्‍य से माँ के दर्शन करने को मिल गए। इन दर्शनों के पीछे मेरी मानसिक अवस्‍था भी देखने लायक है। मन गिरा हुआ था, अनेक तरह से विकृति आ गई थी।

प्रतिभा यहाँ आकर जमी हैं। उनका मन उत्‍साह से भरा है। उनके हठ का एक विकास हो रहा है, अच्‍छा है। प्रभु उन पर कृपा करें। माता उनकी सहायक हैं। सब भाग्‍यवान हैं।

माँ का प्रथम दर्शन बड़ी अनास्‍था-आस्‍था से भरा हुआ था। मेरी कमजोरियाँ, प्रार्थनाएँ और भक्ति की भावना को उत्‍पन्‍न करके श्रीमाँ उस भाव को देखना चाहती थीं। मेरी कायरता आमना-सामना होने पर क्षमा की गिड़गिड़ाहट से भर उठी थी। मेरा अहं कायरता से क्रुद्ध सशंक और विरोधी था। मैं दब रहा था।

उस दिन शाम को समुद्र तट पर विशेष रूप से लड़ना और प्रार्थना चलती रही। माँ के चरण-स्‍पर्श का भाग्‍यलाभ पहले दिन आने वालों को होता है। श्री नलिनीकांत गुप्‍त से permission लेनी थी। उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ा-खड़ा उनकी प्रतीक्षा नरेंद्र के साथ कर रहा था। प्रार्थना और लड़ाई, क्षोभ जारी था - तभी अचानक एक वाक्‍य ध्‍यान में पैठा : 'जो पाना होगा पाओगे।' मैं चुप हो गया। ठीक है, पर मन तो पाजी है न !

माँ के दर्शन करने चला। हाथ में फूल था। माँ के श्रीचरणों में मस्‍तक रखा, फूल दिया। फूल पाया। उनके नेत्रों से बरसने वाली करुणा का क्‍या वर्णन करूँ?

कल भी दर्शन में करुणा बरस रही थी। आज के मनोभाव दर्शन के उपरांत लिखूँगा।

आज माँ का जन्‍मदिन है। ऐसी करुणामयी माँ के लिए क्‍या प्रार्थना करूँ? किससे करूँ? वह तो सदा रहेगी ही। वह तो सदा रही है - सदा-सर्वदा है। माँ ! करुणामयी ! तेरी जय हो।

दर्शनोपरांत, 21 फरवरी

सवेरे श्री अरविंद कृत 'माता' पढ़ने लगा। मन की हलचल मिट गई। मन जम गया। दर्शन के पहले इस प्रकार मन का जम जाना अच्‍छा हुआ।

दर्शन ! श्री अरविंद की उस छवि का वर्णन कौन कर सकता है? दुनिया में तो ऐसा तेजस्‍वी रूप दीखता नहीं। गांधी दूसरे हैं। श्री अरविंद के दर्शन करते ही मुझे शिव प्रतीत हुए। माता भी विराजमान थीं। अपनी करुणा बरसाती हुई ! दर्शन में माता की ओर मेरा ध्‍यान कम गया - जाना नहीं चाहता था। माता के दर्शन तो दुबारा जब सवेरे हुए थे उस समय का वर्णन नहीं किया जा सकता, माँ की मुस्‍कान से इतनी करुणा बरसी कि वे स्‍वयं भी उसी में डुबकी लगा गईं। उस दृश्‍य को अंतःकरण से आँखें अभी भी देख रही हैं और गहरा अनुभव हो रहा है - परंतु शब्‍द कहाँ हैं जो वह दृश्‍य वर्णन किया जा सके !

इस यात्रा में श्री सुमित्रानंदन पंत, श्री नरेंद्र शर्मा, श्री सुंदरी भवनानी, प्रतिभा और मेरे साथ सैकड़ों यात्रियों-दर्शनार्थियों ने दर्शन किए। संख्‍या हजार से ऊपर ही होगी।