23 अक्टूबर, 1941 / अमृतलाल नागर

Gadya Kosh से
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कल शाम को ही मैंने डायरी में लिखा था, व्‍यायाम करके अपना शरीर सुगठित बनाने की मेरी इच्‍छा है। रात में ही काका (श्री चिंतामण राव मोडक - नवयुग चित्रपट में नागरजी के एक अन्य सहकर्मी) से बातें होने लगीं। उन्‍होंने मुझे बहुत उत्‍साहित किया और तीन अच्‍छी कसरतें भी बताईं। काका बड़े ही हँसमुख और खुशमिजाज आदमी हैं। नवयुग के एक यूनिट के रिकॉर्डिस्‍ट होकर आए हैं। पहले भी किसी वक्त यहाँ ही थे। काका से 'संगम' के सेट पर मेरी मुलाकात कराई गई और पाँच मिनट के अंदर ही हम इतने बेतकल्‍लुफ हो गए, मानो बरसों के दोस्‍त हों। काका अभी चार-पाँच दिन मेरे कमरे में मेहमान बन कर रहे, आज ही पूना वापस गए हैं। काका का शरीर बढ़ा सुगठित है। वे बतलाते थे कि 15 वर्ष की उम्र में उन्‍हें थाइसिस हो गई थी और वह 2nd stage तक पहुँच गई थी। डॉक्‍टरों ने जवाब दे दिया था। दैवयोग से इनके मन में अपने-आप ही धुन समाई और कसरत करना शुरू कर दिया और आज यह हालत है कि ढाई-पौने तीन मन का Iron Bar आसानी से उठा लेते हैं। सुप्रसिद्ध फिल्‍म-स्‍टार मास्‍टर मोडक (साहू मोडक) के चचा हैं, क्रिश्चियन हैं-मगर सबसे ऊपर काका बहुत अच्‍छे आदमी हैं। आज काका के जाने से सूना-सूना सा लगता है।

आज से 'संगम' की शूटिंग शुरू हो गई। एक सप्‍ताह के अंदर ही सब सीन डालने का इरादा है। आठ नवंबर को बंबई के वेस्‍ट-एंड-सिनेमा में प्रदर्शित होना निश्चित हुआ है। मैं श्री जुन्‍नरकर के साथ ही यहाँ से 5 नवंबर को बंबई जाऊँगा। रिलीज के बाद फिर लखनऊ जाऊँगा। अगर इसी बीच में 'पार्वती' के डॉयलॉग लिख जाता और पैसे मिल जाते तो अच्‍छा होता। जैसी प्रभु की मर्जी़ होगी-होगा। - हम सब उसी के आधीन हैं।

हिंदी साहित्‍य की खूब उन्‍नति हो - बस अब तो यही मन में लग रही है। चारों तरफ से अच्‍छी-अच्‍छी रचनाएँ निकलें। साहित्‍य के हर अंग को अच्‍छी तरह से सजाया जाए। क्‍या बताऊँ, एक अच्‍छी-सी मासिक पत्रिका मेरे हाथ में आ जाए तो मन की कुछ निकालूँ। 'खुदा का घर' और 'लूलू' (इस चरित्र पर केंद्रित संस्मरण वर्षों बाद 'लूलू की माँ' शीर्षक से 'ये कोठेवालियाँ में लिखा।) दिमाग में घूम रहे हैं। पहले 'खुदा का घर' लिखना शुरू करूँगा। खूब लिखूँ ! खूब लिखूँ !! खूब लिखूँ !!! बस !

हरि तुम्‍हारी जय हो !