28 जनवरी, 1946 / अमृतलाल नागर

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पंतजी के साथ कल से समय अच्‍छा बीत रहा है। पंतजी से कल श्री अरविंद का जीवन-चरित्र लाया। पढ़ रहा हूँ। श्री अरविंद पर श्रद्धा उत्‍पन्‍न हुई। य‍द्यपि मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा अहं बड़ा ही विकट है। और भी कहूँ बड़ा हीन है, क्‍योंकि वह अपने आगे किसी को कुछ समझता ही नहीं। उसकी स्‍पर्द्धा तो बड़े-बड़ों से बढ़ी है - असलियत दो कौड़ी की भी नहीं। लेकिन एक बात है - मैंने अब यह तय कर लिया है कि उसे कुचलने का, तथा उस पर जोरो-जब्र करने का प्रयत्‍न नहीं करूँगा। ज्यादा कुचलने से वह ज्यादा जिद्दी हो गया है। मैं अपने काम में लगा रहूँगा। आप ही रास्‍ता न पाकर वह ठीक हो जाएगा। पंतजी ने भी यही सलाह दी। पूना में श्रीमान अप्‍पा साहब (धु.गो.) विनोद ने भी यही सलाह दी। श्री अरविंद भी अपरोक्ष रूप से यही सलाह देते हैं। मैं भी इसे ही भला विचार समझता हूँ।

श्री अरविंद की स्‍पमि divine और Essays on Gita के लिए आज आर्डर भेज दिया है। Life divine मुझे बहुत कुछ सिखाएगी।

उदयशंकरजी से कल शाम भेंट हुई। भले और प्रतिभाशाली हैं। आज जैमिनी स्‍टूडियो गए थे। बहुत बड़ा और सुव्‍यवस्थित स्‍टूडियो है। बंबई की संकुचित व्‍यावसायिकता ने वहाँ एक भी ऐसा अच्‍छा स्‍टूडियो नहीं बनने दिया।

आल्‍तेकर और मामा वरेरकरजी ने मामा का 'सारस्‍वत' नाटक अनुवाद करने के लिए कहा है। हो जाएगा।

तमिल सीखने के लिए शिक्षक की बात भी मैंने की है।

प्रतिभा बड़ी प्रसन्‍न हैं। मेरे साथ मद्रास आई हैं, मेरे साथ हैं, उन्‍हें इसका बड़ा संतोष है। ईश्‍वर ने ही उनके लिए यह सुयोग जुटाया है।