अगन-हिंडोला / भाग - 10 / उषा किरण खान

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"आज फिर इतने बड़े पत्थर के टुकड़ों पर छेनी चलाने लगे भाई मंगल?" -

- जंगी मियाँ ने आते ही पूछा। "संगतराश हैं, पत्थर और छेनी का ही तो काम है।" "सुना तुम आजकल अमीर के खा सुलखास फरीद मियाँ के साथ जंगल जाते हो हाँका करने।"

"ठीक सुना, पर हाँका करने नहीं तंबू गाड़ने ठोकने। काम मुझे ज़रा भी पसंद नहीं पर इस बार नहीं जाता तो वह मंजर देख ही न पाता।"

"अच्छा, जो अफवाह फैला है वह सच है क्या?"

"बिल्कुल सच, अफवाह नहीं है। भाई जंगी तभी तो मैं पत्थर ढूँढ़ रहा था। यह एक मिल गया है इसमें सही नजारा खोद डालूँगा।"

"लेकिन यह तेलिया पत्थर है मिहनत ज़्यादा लगेगी।"

"अब जो लगे हम उस बब्बर शेर को और उसे तलवार की धर से एक बार में ही ढेर करने वाले शेरखाँ की मूरत इसी पर उकरेंगे चाहे जित्ता समय लगे।" -

"हम भी साथ देंगे जैसे कहोगे।" - जंगी ने नहीं देखा था नजारा लेकिन वह भी था संगतराश। जंगी ने इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन देवी की मूरत बनाने में उसका जोड़ा नहीं था। मंगल शेर, भैंसा, बैल, चूहा, मोर, हंस, घोड़ा बेहद अच्छा बनाता। भवनों और मंदिरों में दोनों मिलकर काम करते, खानगी तथा सुल्तानी सभी तरह के ये काम करते थे। पत्थरकट गाँवों में दोनों कौम मिलजुल कर रहतीं, हम प्याला हम निवाला। पाँवरिए फरीद के शेर खाँ बनने की कथा गा गाकर सुनाते फिरे। लोक रंजन का यह माध्यम एक ओर धरती बनने की कहानी कहता तो दूसरी ओर तुरंत घटनेवाली किसी घटना का गीत बनाकर खँजड़ी बजाकर, पैरों में घुंघरू बाँधकर नाचता हुआ बयान करता। चेरो-उराँव-संथाल घरों की दीवार पर जो चित्र उकेरे जाते, चकरी लगाए बैठे फनियल साँप की, दाने चुगती चिड़िया की, उसमें शेर मारता शिकारी शेर खाँ भी जुड़ गया। पीली मिट्टी से लिए पुते घरों में कोयले और राख से बने, गेरू और आटे से लिखी जाने लगे शेर मारने की दास्तान। बहार खाँ ने शेर खाँ नाम दे दिया - फरीद को, वजीर बनाया फरीद को, लेकिन अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने लगे। उन्होंने अपनी पदवी बढ़ा ली खुद ही अपना नाम और पदवी खुद रख लिया। अपने इलाके के खुद मुख्तार थे बहार खाँ सो अपना नाम रख लिया - "सरदारे हिंद सुल्तान मुहम्मद"। फरीद ने एक दिन उनसे अर्ज किया "हुजूरे आली सुल्तान, आप यदि हमें अपने रियासत रोहतास के सहसराम जाने की इजाजत देंगे तो बड़ी इनायत होगी। बहुत दिनों से आपके पास हूँ। उधर मेरा भाई निजाम किस तरह राजपाट चला रहा है देखने का दिल कर रहा है।"

"ठीक है शेर खाँ तुम जा सकते हो।" सुल्तान मुहम्मद ने कहा "हुजूर एक और इल्तिजा है।"

"कहो शेर खाँ ताकि मैं तुरंत ही फरमान जारी करूँ।"

"जनाबेआली यह हसन अली मेरे साथ बहुत दिनों से है सो इसे मेरे साथ जाने की इजाजत दे दीजिए।"

"ठीक है, जैसा तुम चाहो।" - सुल्तान मुहम्मद जो बहार खाँ था, ने फरमान जारी किया कि यथोचित घुड़सवार और लाव लश्कर वजीर शेर खाँ के साथ रोहतास दुर्ग की ओर रवाना हो। रोहतास की पहाड़ी के निकट सहसराम का दुर्ग था। पहाड़ पर दुर्मेद पत्थरों का दुर्ग है जिसमें महारथ सिंह जमींदार रहता था। उसका श्याम सुंदर नाम का शानदार हाथी था जिसके मोटे मोटे बड़े बड़े दाँत सोने और चाँदी से मढ़े हुए थे। महारथ सिंह जमींदार को वह पहाड़ी तथा तलहटी के कुछ गाँव सुल्तान बहलोल लोदी के समय से ही दिए हुए थे। महारथ सिंह न तो किसी की ओर देखता न अपनी ओर किसी को देखने देता। सुल्तान की सरपरस्ती थी कोई कुछ न कहता। शेर खाँ उस पत्थर के दुर्ग को देखकर आहें भरा करता। उस दिन भी उसके जहन में यह बात आई कि यह दुर्ग और श्यामसुंदर हाथी इसके पास होना चाहिए। इस पूजा पाठी क्षत्रिय के पास कमी नहीं होना चाहिए। शेर खाँ किला हथियाने की जुगत भिड़ाने लगा। किला में एक पंडित जी अक्सर पूजा कराने जाते वे राजपरिवार के गुरु थे। शेर खाँ ने उनसे रब्त-जब्त बढ़ाना शुरू किया। उनसे वह संस्कृत सीखने का स्वाँग करने लगा। यूँ संस्कृत वह पढ़ना लिखना पहले से जानता था। एक दिन पंडित जी से शेर खाँ ने कहा था कि वह किला देखना चाहता है। पंडित उसे किला ले गया। यह वाक्या उस दौर का था जब वह जायदाद का शिकदार था। इस बार फरीद से शेर खाँ बना बिहार का वजीर अपने मन में कोई युक्ति सोच रहा था।

कमानी बीवी हामिला थी। शेर खाँ को तुरत ही उपाय सूझ गया। अपनी गढ़ी से रोज घोड़ा दौड़ा कर आता और पंडित का इंतजार करता उसकी मेहनत रंग लाई। उसने पंडित जी को झुक झुक कर प्रणाम किया। पंडित बेहद खुश हुआ, उसका समाचार उस तक पहुँच चुका था "अरे बबुआ फरीद, अब तो तुम शेर खाँ कहाते हो। आएँ, बिहार के वजीर हो गए, का? इहाँ के काम तो निजाम बबुआ खूबे कौशल से देख रहे हैं बिल्कुल तोरे पदचिह्नों पर चल रहे हैं। एक दिन उफ भी नाम कमाएँगे।"

"सब आपको मालूम है हुजूर लेकिन एक बात तो आप नहीं जानते मैं बताऊँ? आपका काम बढ़ने वाला है।"

"क्या बबुआ फरीद?"

"आपकी बहू कमानी बेगम माँ बनने वाली है। उस बच्चे के सितारे तो आप ही न बाँचेगें"

"हाँ हाँ क्यों नहीं? बिल्कुल बाँचेंगे। कैसी हैं बेगम?"

"वैसे तो सब ठीक है पर बरसात आनेवाली है हमारी ड्योढ़ी पहाड़ी की तलहटी में है, जब तब सैलाब आता है। मुझे फिक्र हो रही है कि उसी समय मेरा वारिस जन्म लेगा तो क्या होगा।"

"किसी ऊँची हवेली में चले जाओ।"

"आप चाहेंगे तो वह भी हो जाएगा।"

"वो कैसे?"

"राजा महारथ सिंह की इतनी ऊँची हवेलियाँ हैं। पत्थरों के परकोटे वाला किला है। जगह मिल जाती तो अच्छा होता।"

"अच्छा, हम राजा से जिकर करेंगे। आप निफिकिर रहिए।"

शेर खाँ का दिल बल्लियों उछलने लगा। उसने देखा और जाना है कि राजा महारथ सिंह सरीखे लोग अपने आपको समझते हैं अक्लमंद पर होते नहीं। उन्हें शेर खाँ की लोमड़ी जैसी चाल कहाँ समझ में आएगी। अगर यह किला हाथ आ जाए तो हिंदोस्तान के कई किले मिल जाएँगे। शेर खाँ उतावला था पर हर कदम सोच सोच कर चलता था। बेचैन-सा था ज़रूर, अजीब-सी कैफियत थी। कमानी बीवी की मुश्किलों से किले का बहुत मतलब नहीं था पर वह एक सीढ़ी थी। दूसरे दिन दोपहर में पंडित जी अपनी लकुटी, झोला लेकर उतरे कि यह उनके सामने ऐसा अचानक प्रकट हुआ मानो सिर्फ संयोग हो। पंडित जी की बाँछें खिल उठीं इसे देखकर। उन्होंने महारथ सिंह राजा से बात कर ली थी। राजा पंडित जी को बहुत मान सम्मान देते थे सो उन्होंने प्रश्न किया "हसन सूर भी तो काफी दिनों से उसी जगह रहते रहे तो का हो गया?"

"अब नया जमाना, नया लड़िका फड़िका लोग। कहते हैं शेर खाँ कि बरसाती कीड़ा काटने के कारण उनकी सगी मैया रोगी होकर मर मुआ गई सो हौलदिल हो रहा है। बस। ई बहुत संस्कारी है। जानते हैं हमरा से संस्कृत सीखता है और अपने जैसा बोली बोलता है।"

"हसन सूर भी सीधा सच्चा इनसान था। मलगुजारी पहुँच जाता था, ऊँ खुश अपना ओहदेदार सगे को कहके रखा था कि कभी राजा साहेब को परेशान न करना।"

"तब अच्छा खानदान है।"

"मुनीम जी बताते हैं कि हिसाब किताब खुदे देखता था। का कहते हैं पंडित जी शेर खाँ को आने बोलें?"

"हाँ हजूर, ऊँ दक्षिण वाला हवेली उसको दे दीजिएगा। कुछ दिन रहेगा। बाल बुतरू हो जाएगा तो चला जाएगा।"

"चला जायगा तो का? हम फिर ऊँ घर अपना इस्तेमाल में लाएँगे का? भच्छ अभच्छ खाता है ऊँ लोग, गंगाजल से धोवेंगे तबो न शुभ होगा।"

"त ओकरे नाम पर छोड़ दीजिएगा। शेर महल।" - दोनों ठहाका मार कर हँस पड़े। - सारा वाक्य शेर खाँ को सुना कर पंडित जी ने कहा अब तुम चलो राजा साहब से मिल लो। शेर खाँ राजा महारथ सिंह से मिलने किले पर चढ़े। राजा साहब अपने ऊँचे आसन पर बैठे थें, शेर खाँ को भी आसन दिया। बिना किसी लाग लपेट के राजा महारथ सिंह ने कहा - बबुआ शेर खाँ, तू तो अभी बाली उमर के हो कइसे तलवार के एक ही वार में शेर को दो खंड में उड़ा दिए? ई कोमल मुखड़ा कमल के जैसा, ई-सूर्य को मलिन करने वाला तेज, तू तनिको न सोचा कि शेरवा न मरा और उछलकर तोरे उपर वार कर दे तब? "

"राजा साहेब आप हमारे वालिद समान हैं आपका शक शुबहा, खौफ सब जायज है पर मैं सामने की आफत के सामने कभी झुकना नहीं जानता। आगे अल्लाह मालिक।"

"जाओ बबुआ, दुलहिन को ले आओ जनी जात को इज्जत से रखना ही चाहिए।" - शेर खाँ ने खुशी-खुशी उनसे रुखसती ली। राजा ने एक प्रकार से अपनी कब्र खेद ली। दक्षिण मुख की सुंदर हवेली को साफ सुथरा करवा कर शेर खाँ को दे दिया। जिस दिन कमानी बीवी और उनकी बाँदियों पालकी पर चढ़कर किले में दाखिल हुइ वही दिन राजा महारथ सिंह के पतन का शुरुआती दिन बन गया। हवेली में लोहबान की खुशबू फैल रही थी, नमाज और अजान की आवाजें फिजों में तैर रही थीं। महारथ सिंह की अम्माँ और रानियों के कलेजे हलक से मुँह को आ गए। एक तरफ मंदिर की घंटियाँ दूसरी ओर अजान की आवाजें महारथ सिंह ने शेर खाँ को बुलाकर कहा था।

"मसजिद का उठाके ले आए हो बबुआर?"

"राजा साहब, इसकी ज़रूरत है हम अपने तरीके से इबादत करते हैं आपको कोई एतराज?" - शेरशाह ने तल्ख होकर कहा था। राजा सहम गया इसी को तो मालगुजारी देते हैं। पिनकाहा लगता है। शेर का सर दन्न से काट के फेक दिया हमरो काट देगा तो का करेंगे। कौना गाढ़ा में जान फँसा लिए ए दादा। इ तो बड़ा मनबढ़ू लड़िका है। राजा सोच रहा था। शेर खाँ ने समझा चोट सही जगह पर हुई है। अपना प्रभाव छोड़ने में वह सफल रहा है।

"राजा साहब, आप ज़्यादा माथे पर बल न डालिए। हाँ अपना और हमारा तख्त बराबर रखिएगा। रखना तो मेरा ऊँचा चाहिए पर आपकी बुजुर्गियत का लिहाज है दिल में।" - कहकर शेर खाँ चलता बना।

समय पर कमानी बीवी ने बेटे को जन्म दिया। राजा साहब ने सूप भर सोना-हीरा-जवाहरात पेश किया नजराने में खुशी से। शेर खाँ ने बिना मौका गँवाए कहा - “यह क्या राजा साहब, मैं तो सोचता था आप श्यामसुंदर हाथी मेरे बेटे को नज्र करेंगे।"- राजा महारथ सिंह के हाथों के तोते उड़ गए। उनका गंदुमा चेहरा स्याह पड़ गया हलक सूख गया। जुबान में बोलने की कुव्वत ही न रही वे धीमी चाल अपने शयनकक्ष में आए और धम्म से पलंग पर गिर पड़े। यह उन्होंने क्या किया, कबाछ से दूर ही रहना चाहिए, देह से लग जाती है तो खुजली करते करते जान जाने का डर रहता है। इन्होंने विषबेल को इश्कपेचाँ की लतर समझकर अपने आपसे लिपट जाने दिया। इधर लगातार जिरह बख्तर वाले सिपाहियों का आना जाना देख रहे थे राजा साहब पूछने पर बताया जाता कि शेर खाँ से मशविरा को आते हैं। पर लड़ाका सिपाही के भेष में क्यों आते हैं। शेर खाँ अधिक दिनों तक एक स्थान पर रह ही नहीं सकता था। कहीं न कहीं से किसी अमीर, किन्हीं सिपहसालार और कई सूबेदार की ओर से बुलौआ आ चला था। जाने के पहले राजा महारथ सिंह से कहा -"राजा साहब, हमें जौनपुर फिर दिल्ली की ओर जाना होगा। बाबर बादशाह आगरे में है उससे भी मिलने का इरादा है। मैं तो चला।"

"अपने बच्चे का नामकरण भी तो कर लें कम से कम।" - शेर खाँ ने आनन फानन में कर डाला सब कुछ। बच्चे का नाम इस्लाम सूर रखा गया। राजा महारथ सिंह की ओर से पूरी बूँदी का भोजन बँटा। शेर खाँ ने देखा हाथी के कान जितनी बड़ी-बड़ी पूरियाँ थीं। मन में आया कि राजा महारथ सिंह बेहद सरल और इज्जतदार खानदान का इनसान है तभी तो इतना सब कर रहा है। पक्की बात है कि वह यह सब डर से तो नहीं कर रहा होगा।

"राजा महारथ सिंह जी, हम बिहार की तरफ कूच कर रहे हैं हमारी बीवी बच्चा आपकी देख रेख में हैं। किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं होगी आपकी सरपरस्ती में यह मेरा यकीन है। तो मैं जाऊँ न" - शेर खाँ ने कहा।