अनहद नाद / भाग-2 / प्रताप सहगल

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रामस्वरूप दिल्ली चला गया। जगतनारायण उर्फ रायज़ादा पेंटर अब सारे काम का अकेला वारिस था। उसे अच्छा भी लगा, पर तीस रुपए महीना कुछ भारी भी। वह अब दुकान पर सुबह जल्दी ही आ जाता और शाम देर से घर लौटता। इसी बीच शकुन्तला ने बेटी को जन्म दिया। जगतनारायण बेटी पाकर बहुत प्रसन्न था। वह बेटे-बेटी में भेद करने की भारतीय मानसिकता के सख्त खिलाफ था, इसलिए बेटी पैदा होने पर उसने अपने रिश्तेदारों और जानने वालों को जो चिट्ठियाँ लिखीं, उन पर केसर छिड़का। इस बात का रिश्तेदारों ने काफी मज़ाक भी उड़ाया था, पर उसने किसी की परवाह नहीं की। बेटी का नाम सुन्दरी रखा। शिवा अब दो साल का हो गया। दरवाज़े से बाहर निकल जाता। शकुन्तला फौरन पकड़कर अन्दर ले जाती कि कहीं कोई गाय सींग न मार दे। शिवा बड़ा हो गया तो उन्होंने बकरी भी बेच दी थी। गाय पालने की इच्छा थी, पर मालूम नहीं था कि उसका रख-रखाव कैसे हो, फिर दूध वैसे भी शुद्ध और सस्ता मिल जाता था।

कहने का अर्थ यह कि जगतनारायण अब लगभग पूरी तरह से व्यवस्थित हो गया था। कभी-कभी दिल्ली से भाई मिलने आ जाते, कभी बहन फूलमती भी आ जाती और कभी वह भी सामान वगैरह लेने दिल्ली जाता तो भाइयों से मिल लेता। बड़ा भाई सत्यनारायण जालन्धर से आता तो जगतनारायण को कुछ ज़्यादा ही खुशी होती थी। अब वह पुराने ज़ख्मों को कुछ-कुछ भूलने भी लगा था। आर्य समाज नियमित रूप से रविवार को जाया करता। हवन, प्रवचन आदि रविवार को ही होते थे। नियमित हवन अभी भी शुरू नहीं हुआ था। जगतनारायण ने ही यह प्रश्न वहाँ उठाया कि शिवरात्रि से पूर्व प्रभाव फेरी हो, नियमित हवन हो, जो लोगों ने सहर्ष मान लिया। जगतनारायण के गले में जादू था। वह बिना माइक के गाता। आवाज़ बुलंद थी और मीठी भी। भक्ति-गीत गाता तो मिठास कुछ और भी बढ़ जाती थी। अपनी इस विशिष्टता और साफगोई के कारण जगतनारायण आर्य समाज में काफी लोकप्रिय था। उसके बिना प्रभात फेरी होने का तो प्रश्न ही नहीं था और अगर किसी कारण वह किसी रविवार को साप्ताहिक सत्संग में न आ पाता तो चार-छः लोग घर पहुँच जाते, पूछते-”महाशय जी ठीक तो हैं?” आर्य समाज में ‘रायज़ाद पेंटर’ महाशय जी के नाम से ही संबोधित होता। आर्य समाज की रँगाई-पुताई से लेकर सजाने-सँवारने और मंत्रादि लिखने का काम जगतनारायण ने स्वयं किया। बिना कोई दाम लिए। इसलिए उसकी निष्ठा और श्रद्धा की वहाँ खासी धाक थी।

शिवा जब सात साल का हुआ तो घर में उसका एक भाई और आ गया। अशोक। इससे पहले शिवा सारा दिन बनियान पहने मुहल्ले में खेलता रहता। कभी कंचे, कभी गुल्ली-डंडा। साथ में कभी सुन्दरी भी रहती और कभी सुन्दरी माँ की गोद में ही दुबकी रहती। शकुन्तला या तो बाहर कहीं छाया में चरखा कातती या फिर स्वेटर बुनती। शिवा को गुल्ली-डंडा खेलना बड़ा अच्छा लगता था। मुहल्ले में बीचोबीच ही खुला मैदान था। मैदान के एक ओर मुग़लों के ज़माने का बना छोटी ईंटों वाला बड़ा-सा मकान था. जिसमें कई परिवार ठुँसे हुए थे। उस मकान के ठीक सामने एक मंदिर था और बीच में पीपल का एक बड़ा-सा पेड़। पेड़ के ठीक सामने तीन-चार दुकानें थीं और सामने कुछ मकान, जहाँ से एक रास्ता निकलता जो रोहतक के रेतीले मैदानों और खेतों की ओर चला जाता था। दुकानों के पीछे एक पुराना टूटा-फूटा मकान था, जिसके अन्दर जाने से सभी माँ-बाप अपने बच्चों को मना करते थे। खासकर शाम ढलने के बाद। उन्हें डर था कि कहीं कोई भूत-वूत न पकड़ ले। उस मकान को लेकर भूतों की चर्चा अक्सर शिवा और उसके छोटे-छोटे दोस्तों के बीच होती। शिवा के साथ खेलने वालों में लोटा सबसे तेज़ था। साथ सत्तू, बल्लू और नट्टू जैसे कई बच्चे थे। सभी में गहरी छनती। कभी गुल्ली-डंडा के टुल को लेकर झगड़ा भी हो जाता। झगड़े में लोटा खुत्ती में ही पेशाब करके खेल बिगाड़ देता और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता-”सानूँ वी खिडाओ नईं ते खेड विंजाओ।” तब लोटे को पकड़ के नट्टू पीट देता तो सत्तू और शिवा खड़े उसका उत्साह बढ़ाते रहते।

खेल में सभी इतने मस्त कि किसी को शाम ढलने का पता ही न चलता। अँधेरा घिर आता तो सभी पीपल के चबूतरे पर बैठ जाते और भूत-कथा शुरू हो जाती। नट्टू भूतों से सबसे ज़्यादा डरता था और डर के मारे पीपल से थोड़ा हटकर ही बैठता। उसे विश्वास था कि रात को भूत पीपल पर आ बसते हैं और न जाने कब प्रकट हो जाएँ। तब तो किसी का बचना आसान नहीं। पर वह भाग जाएगा, क्योंकि वह पीपल के नीचे है ही नहीं। फिर पीपल के सामने वाले मंदिर की ओर मुँह करके हाथ जोड़ देता। शिव ने अपने पिता से भूतों की चर्चा कई बार की थी। पिता ने हमेशा कहा-”अरे कहीं नहीं होते भूत-वूत, सब बकवस...।”

“सब तो कहते हैं।” एक दिन शिवा ने पिता से कहा था।

“कौन कहता है?”

“देखे हैं किसी ने, पूछो उनसे।”

“लोटा कहता है, उसने देखा है भूत।”

“अच्छा, कैसा होता है?” पिता ने पूछा।

“उसके पाँव पीछे होते हैं, सिर के पीछे आँखें...वही चमकती हैं लालटेन-सी...पकड़ लेता है आदमी को और मार देता है...।”

जगतनारायण को शिवा की बात सुनकर दुःख भी हुआ और गुस्सा भी आया-”सब बकवास है। जो कहता है उसे लाओ मेरे सामने, मुझे दिखाओ...” फिर जगतनारायण शिवा को स्वामी दयानंद के सत्यार्थप्रकाश में लिखी वे सब बातें बताता, जो भूतों के अस्तित्व का खंडन करती थीं और शिवा को समझाता-”मत खेला कर ऐसे बच्चों से...अंधविश्वासी माँ-बाप...वैसे ही बच्चे।”

उसने शिवा को अपने पास ही लिटा लिया और उसे भगतसिंह की वीरता और बलिदान की कथा सुनाई। शिवा की समझ में बहुत तो कुछ नहीं आया, पर वह इतना ज़रूर समझ गया कि किसी की ग़लत बात से डरना नहीं चाहिए। फिर भी उसे डर तो लगता ही था। यह जानते हुए भी कि भूत नहीं होते, उसने शाम के बाद खँडहर हुए मकान में जाने की हिम्मत नहीं की थी। हाँ, एक बार दिन में अन्दर जाकर अकेला घूम आया तो आश्वस्त हो गया कि भूत-वूत वाकई बकवास है। पर रात को वहाँ जाने की हिम्मत उसकी कभी नहीं हुई। एक अज्ञान-सा डर उसके मन में बैठ गया, फैलने लगा। जगतनारायण के सामने जब यही डर अलग-अलग रूपों में आया तो उसने शिवा को हर रविवार आर्य समाज ले जाना शुरू कर दिया। समझा दिया कि जब भी डर लगे, नींद न जाए, गायत्री मंत्र का जाप करो, डर नहीं लगेगा।

शिवा अब स्कूल जाने लगा था। मुंढालिया स्कूल में हर वर्ग के बच्चे पढ़ते थे। सभी टाटों पर बैठते। पहली क्लास में भर्ती होने के बाद शिवा ने पहली बार नेकर पहनी। माँ ने बताशे बाँटे। पिता ने गायत्री मंत्र पढ़ा और पढ़ाई शुरू हो गई। पहले ही दिन पिता ने बताया कि वह खुद तो ज़्यादा पढ़ा नहीं। उन्होंने शिवा से कहा-”देखो बेटा, मैं तो मुंशी के यहाँ पढ़ने जाता था। तेरे दादा चाहते थे, मैं खूब पढूँ...पर जानते हो, मैं क्या करता था...” शिवा को उत्सुकता हुई जानने की तो जगतनारायण ने हँसते-हँसते बताया-”एक दिन की बात है, मैंने देखा मेरा उर्दू का कायदा बड़ा मैला हो गया है, बस मैंने आव देखा न ताव, साबुन उठाया और कायदे को धो डाला। धो-धाकर ढींगर पर डाल दिया और खेलने चला गया। खेल के बाद कायदे की याद आई...हूँ...अब वहाँ जाकर देखता हूँ कि ढींगर पर पड़ा कायदा चिंदी-चिंदी हुआ पड़ा है। बस जी, फिर तो मेरी वो छितरैल हुई, वो छितरैल हुई कि बस...तू भी कहीं ऐसा न कर बैठना।”

शिवा ज़ोर से हँसने लगा। उसे यह सुनकर बड़ा अच्छा लगा कि उसके पिता को कभी पीटा गया था। वह नहीं जानता कि ऐसा उसे क्यों लगा, क्योंकि जगतनारायण ने अभी तक कभी भी शिवा पर हाथ नहीं उठाया था। अलबत्ता माँ से दिन में दो-तीन फटकारें और दो-तीन चाँटे रोज़ पड़ जाते थे। शुरू-शुरू में उसे डर भी लगा था, पर अब तो वह दो-तीन चाँटे खाने के लिए हमेशा तैयार रहता।

शकुन्तला की खीझ तीसरा बच्चा होने के बाद ही बढ़ी। अशोक को सँभालने में इतना वक्त चला जाता कि कई काम रह जाते। मुहल्ले की औरतों के साथ बैठकर निंदा-चुगली का रस लेने का अवसर भी कम मिल पाता, मन खीझा रहता और यह खीझ अक्सर शिवा पर ही निकलती। कभी-कभी सुन्दरी भी उस खीझ का शिकार हो जाती।

शिवा अब तीसरी क्लास में आ गया। माँ-बाप खुश थे कि शिवा पढ़ रहा है और अंक भी अच्छे ले लेता है। मास्टर उसकी तारीफ करते, पर हिसाब का मास्टर उसे बहुत खराब लगता था। वह मारता भी बहुत था बच्चों को। शिवा भी कई बार पिटा। हर बार कोशिश करता कि उसके सवालों का हल सही निकाले, पर वह जमा-गुणा करने में कोई न कोई ग़लती कर ही बैठता था। दस साल का शिवा और एक भाई और। सुभाष। यानी छोटे-से कंधों पर छोटे भाई-बहनों का बोझ। सुन्दरी तो बड़ी हो गई थी, पर अशोक और सुभाष को खिलाने के लिए उसे ही बाहर ले जाना पड़ता। शिवा को तब अपने भाइयों पर बड़ा गुस्सा आता। अशोक तो चलता था, पर सुभाष को गोद में ही उठाकर घूमना पड़ता। शिवा को जब कुछ नहीं सूझा तो उसने एक दिन गुस्से में सुभाष को चिकोटी काट दी। वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। शिवा को मौका मिला। वह रोते हुए सुभाष को जल्दी ही घर ले गया और बोला-”माता जी, देखो भाषी रोता है,” माँ ने रोते बच्चे को देखा तो उसे झट उठा लिया और पुचकारते हुए अपना स्तन उसके मुँह में दे दिया। सुभाष चुप हो गया। इससे पहले कि शकुन्तला शिवा से कुछ कहती, वह बाहर जा चुका था।

पीपल के नीचे उसके संगी-साथी इन्तज़ार कर रहे थे। आज मंगलवार था। लोटे ने कहा-”चलो बड़े मंदिर चलते हैं, वहाँ बड़ा प्रसाद मिलता है।”

मंदिर तो यहाँ भी था और मंगलवार को कुछ लोग प्रसाद चढ़ाने आते भी थे, पर रेलवे स्टेशन के पास जो बड़ा मंदिर था, वहाँ काफी लोग आते थे। लोटा वहाँ कई मंगलवार जाकर देख चुका था। दो-तीन बार नट्टू भी साथ गया था, पर आज वह सभी को अपने साथ ले जाना चाहता था। शिवा को मंदिर जान अच्छा तो नहीं लगता था, पर प्रसाद का लालच इतना था कि उसे छोड़ भी नहीं सका, सो वह सबके साथ हो लिया। किसी ने भी घर पर कुछ नहीं बताया।

लक्ष्मीनारायण मंदिर सारे रोहतक में बड़ा मंदिर के नाम से ही जाना जाता था। शिवा ने भी उसके बारे में सुना था, पर गया कभी नहीं था। उसके पिता अक्सर उसे मंदिर जाने से रोकते कि मूर्तिपूजा सिर्फ अन्धविश्वास है। उसे दयानंद सरस्वती की कथा सुनाते कि कैसे बालक मूलशंकर ने श्रद्धापूर्वक शिवरात्रि का व्रत रखने के बाद एक चूहे को गणेश की मूर्ति के आगे रखे लड्डू खाते देखा तो उसके मन में यह प्रश्न उठा कि जो मूर्ति एक चूहे से अपने लड्डुओं की रक्षा नहीं कर सकती, वह हमारी रक्षा क्या करेगी? बस, इसी प्रश्न ने उसे सच्चे ईश्वर की खोज में घर से निकल जाने पर मजबूर कर दिया और वही बालक एक दिन स्वामी विरजानंद से दीक्षा पाकर महान समाज-सुधारक दयानंद सरस्वती बना, जिसने आर्य समाज की स्थापना की। ईश्वर की वाणी वेदों का महत्व समझाया। अन्धविश्वासों का विरोध किया, यज्ञ का महत्व बताया और सोई हुई आर्य जाति को जगा वेदों का डंका बजा दिया और फिर पिता ‘कृणवन्तो विश्वंआर्यम्’ कहकर चुप हो जाते। शिवा के मन पर इस बात का गहरा असर था कि चूहे से अपनी रक्षा न कर पा सकने वाली मूर्ति उसकी रक्षा क्या करेगी! वह भी मानता था कि ईश्वर कहीं और है। पर कहाँ? कैसे है वह? इन बातों का उसे कोई जवाब न सूझता। जब वह अपने साथियों के साथ बड़े मंदिर की ओर चलने लगा तो उसके मन में यह सारा द्वंद्व उठा, पर प्रसाद का लालच, दोस्तों का साथ और घर से निजात इतने प्रबल कारण थे कि वह इन्हें न जानते हुए भी उनके साथ हो लिया।

बड़े मंदिर के बाहर विशाल प्रांगण। वहाँ बच्चों, बड़ों की भीड़ थी। प्रसाद लेने को आतुर। शिवा भी वहाँ सभी के साथ बैठ गया। प्रसाद चढ़ाकर जो भी बाहर निकलता, उसके सामने ढेर सारे हाथ पसर जाते, जिनमें से एक हाथ शिवा का था। शिवा प्रसाद ले रहा था, खा रहा था और दुःखी होता जा रहा था। उसने पिता से सुनी सारी बातों को ज़ोर से दब दिया और सिर्फ बूंदी, लड्डू खाने में मस्त हो गया।

अँधेरा घिर आया तो बच्चों के माता-पिता एक-दूसरे के घर पूछताछ करने लगे। जब पता चला कि चारों बच्चे अपने-अपने घरों में नहीं हैं तो सभी उन्हें ढूँढ़ने के बजाय एक-दूसरे के बच्चों को दोष देने लगे कि हमारा बच्चा तो बड़ा अच्छा है और फलाँ के बच्चे ने फलाँ के बच्चों को बिगाड़ दिया। शकुन्तला इनमें सबसे आगे थी। उसे लगता था कि शिवा जैसा शरीफ और अच्छा बच्चा पूरी दुनिया में नहीं है।

तभी सत्तू का बड़ा भाई चोखा वहाँ अवतरित हुआ और बताया कि उसने इन सबको बड़े मंदिर के बाहर देखा है, आते ही होंगे। झगड़ा कुछ शांत हुआ और सभी अपने-अपने घर चले गए। चोखा खँडहरनुमा मकान के अन्दर कहीं ग़ायब हो गया।

घर लौटते हुए शिवा ही सबसे ज़्यादा डरा हुआ था। आज पहली बार वह इतनी रात तक घर से बाहर रहा था। घर पहुँचा तो पता चला कि उसे ढूँढ़ने शकुन्तला खुद मंदिर की ओर गई हुई है। पिता अभी लौटे नहीं थे। शिवा बहुत डर गया कि आज उसकी बहुत ही पिटाई होगी। शिवा अब क्या करे! उसके छोटे भाई-बहन को भी कहीं और छोड़ गई थी शकुन्तला। शिवा को जब कुछ नहीं सूझा तो वह वहाँ से उठा और पीपल के पेड़ के नीचे आ गया। उसका डर कम नहीं हुआ। मन में आया कि भगवान की मूर्ति के सामने मत्था टेककर क्षमा माँग ले, पर वह ऐसा नहीं कर पाया। हाथ जोड़ किसी अज्ञात शक्ति को ही भगवान मानकर विनती करने लगा कि “हे भगवान! आज तो बचा ले, फिर ऐसा कभी नहीं करूँगा।”

उसे नट्टू की बात याद आई। नट्टू ने कहा था, जब डर लगे तो हनुमान चालीसा का जाप करो। वह ऐसा ही करता था और उसका डर मिट जाता था। शिवा को तो हनुमान चालीसा याद ही नहीं था, दो-चार पंक्तियाँ याद थीं, पर उससे काम नहीं चला तो शिवा ने सोचा रोज़-रोज़ पिटने से तो मरना अच्छा। हाँ, वही...भूतों का डेरा...और वह झिझकता, डरता अकेला खँडहरनुमा मकान की ओर चल दिया। उसे पिता की बात याद आई और वह गायत्री मंत्र बुदबुदाता हुआ खँडहर में दाखिल हो गया। मन ही मन उसने सोचा, वह भूतों से भी नहीं डरता। आज या तो वह उनके हाथों मारा जाएगा या उसे सच्चाई का पता चल जाएगा। वह खँडहर के अन्दर एक टूटी हुई सीढ़ी पर बैठ गया और आँखें बंद कर मन ही मन गायत्री मंत्र का जाप करता रहा-ओ३म् भूर्भुव स्वः तत...

थोड़ी देर बाद उसे कुछ सरसराहट-सी सुनाई दी। सामने वाले टूटे कमरे से कुछ हाँफने जैसी आवाज़ आई। शिवा को विश्वास हो गया कि भूत होते हैं। उसे एक आकृति हिलती नज़र आई। अँधेरा था। साफ कुछ भी नहीं। सोचा, आज उसकी खैर नहीं। वह मरा कि मरा, भागता है तो भी, बैठता है तो भी। उसे लोटे की बातें सच लगीं, पिता की झूठ। मरता क्या न करता। मरने जैसी हालत में वह उठा। गायत्री मंत्र अब भी जप रहा था। बाहर निकलना ही चाहता था कि उसके सामने एक लड़की अपनी तहमत ठीक से बाँधती हुई सर्रऽऽ से बाहर निकल गई। शिवा ने मन ही मन कहा, ‘अरे तोषी...।’ तब तक तोषी बाहर जा चुकी थी। शिवा के दिल की तेज़ धड़कन कुछ कम हुई। तभी उसी कमरे के अन्दर से ही अपने पाजामें का नाड़ा बाँधते हुए चोखा निकला और शिवा को सामने पाकर ठिठका-”अरे शिवा! तू यहाँ, इस वक्त...”

शिवा को कुछ भी समझ में नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। चोखा ने भी उसके जवाब का इन्तज़ार नहीं किया और कहा-”तोषी को एक सवाल समझाना था, वही समझने आई थी...कहना नहीं किसी से...ठीक है?”

शिवा ने हाँ में सिर हिला दिया, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया कि रात अँधेरे में चोखा तोषी को सवाल कैसे समझा रहा था, न स्लेट न स्लेटी, न तख्ती न कलम...वह जड़-सा खड़ा रहा।

चोखे ने उसे कंधे से पकड़ा और साथ ही बाहर ले आया, पूछा-”क्या सोच रहा है...यही न अँधेरे में सवाल...”

शिवा ने सिर्फ प्रश्नवाचक आँखों से चोखा को देखा...मुँहज़बानी। तुझे भी समझा दूँगा...पर यह वाली बात कहना नहीं किसी से...सत्तू से भी नहीं...उसके बाद चोखा ने शिवा को दो गुलाब जामुन भी खिलाए। शिवा परेशान-सा घर लौटा।

आज भट्ठी चढ़ाने का दिन था। भट्ठी चढ़ाने वाले दिन जगतनारायण घर देर से लौटता। भट्ठी ठंडी होने तक वह दुकान पर ही जमा रहता। कभी-कभी भरतू अपनी दुकान बढ़ाकर जगतनारायण के साथ आ बैठता और दोनों का वक्त गप्पों में आराम से कट जाता। भरतू लोकल था और उसकी दिलचस्पी जगतनारायण की पिछले जिंदगी में थी। वह जगतनारायण की कष्ट भरी बातें बड़े प्रेम से सुनता और फिर लम्बी साँस छोड़कर कहता-”बड़ी हिम्मत वाले हो रायज़ादा...!” कभी यह टिप्पणी कि “इन मुसल्लों का कोई भरोसा नहीं, पर उनका भी क्या कुसूर, अपने नेता ही हरामज़ादे निकले।” दोनों भट्ठी पर ही चाय बना लेते और कभी घर तो कभी राजनीति, कभी धर्म तो कभी कर्म की चर्चा करते। भरतू को जगतनारायण की बातें कुछ विचित्र पर अच्छी लगतीं। जगतनारायण भी भरतू की नेकदिली और साफगोई को पसन्द करता था।

भट्ठी की आँच मंद पड़ी तो जगतनारायण ने उस पर पानी के छींटे डाल दिए। सुगबुग-सुगबुग करती लकड़ियाँ कच्चे कोयलों में बदलने लगीं। इन कच्चे कोयलों को अगले दिन अक्सर जगतनारायण अपने घर ले जाता था, कुछ भरतू को दे देता। भट्ठी की आँच बुझते ही जगतनारायण ने दुकान बढ़ाई और घर पहुँचा।

शकुन्तला तब शिवा को बुरी तरह पीट रही थी और झुँझलाई हुई थी। बाकी बच्चे मारे डर के सहमे हुए थे। “तू मरता क्यों नहीं, मर जा, यह रोज़-रोज़ का स्यापा खत्म हो...रुड़ जाणा, मर जाणा” जो-जो भारी-भरकम गालियाँ कोई पंजाबिन निकाल सकती थी, उनका इस्तेमाल शकुन्तला दो ही मौकों पर करती थी। एक तो बच्चों को पीटते हुए और दूसरा मुहल्ले की औरतों से लड़ते हुए। जगतनारायण के लिए यह दृश्य नया नहीं था, पर वह इसे कतई पसन्द नहीं करता था। बच्चों को गोली देना उसे अच्छा नहीं लगता। वह कभी-कभी गाली निकालता था तो राजनेताओं को। गांधी, जिन्ना और नेहरू को, पर बच्चों को गाली निकालना, पीटना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। उसे देख शकुन्तला ने ज़ोर-ज़ोर से शिवा को झिंझोड़ा और पलंग की ओर धकेल दिया। शिवा वहीं पलंग पर लुढ़क गया। जगतनारायण दुकान से ही थका लौटा था और घर पर आते ही यह दृश्य। वह गुस्से में उबल पड़ा-”क्या कुतखाना बना रखा है।”

“पूछो इस नासपीटे से, कहाँ था इतनी देर तक...टाँगें टूट गईं मेरी इसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते...” शकुन्तला भी गुस्से में थी।

“यह नहीं देखती आदमी बाहर से आया है...थका-माँदा है।”

“मैं भी घर कोई पलंग नहीं तोड़ती...सारा दिन खप जाती हूँ...चारों के संग।”

“हाँ, हाँ, मैं तो सारा दिन रंडियाँ नचाता हूँ न!”

“नहीं नचाते तो नचा लो, कर लो यह शौक भी पूरा।”

“चुप होती है कि...”

“नहीं होती चुप...उससे पूछो...कहाँ था सारा दिन...खाना पकाऊँ, बच्चे को सँभालूँ, दूध लाऊँ, सब्ज़ी लाऊँ, अँगीठी जलाऊँ...सब अकेले...यह पैदा हुआ है मेरा खून पीने के लिए।”

जगतनारायण को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे...गुस्सा इतना था कि मन हुआ जड़ दे दो-चार शकुन्तला को और दो-चार शिवा को। झंझट ही खत्म हो, पर वह पता नहीं क्यों गुस्सा पी गया और शिवा के पास ही पलंग पर बैठ गया। पिताजी को पलंग पर देख शिवा और सहम गया। सुन्दरी अँगीठी के पास बैठी डरी हुई सब सुन रही थी। अशोक पलंग के नीचे ही छिप गया और सुभाष रोने लगा। जगतनारायण को लगा यह घर नहीं पागलखाना है। वह घर से बाहर खुले में आ गया। मैदान का एक चक्कर काटा। पीपल के नीचे थोड़ी देर बैठा रहा। उसका गुस्सा कम हुआ। मन थोड़ा स्थिर हुआ तो घर लौट आया। उसका खाना खाने का मन नहीं था। शकुन्तला तब तक शान्त हो चुकी थी। उसने दाल-रोटी थाली में डालकर जगतनारायण के सामने रख दी। अचानक जगतनारायण ने थाली उठाकर ज़मीन पर पटक दी। शकुन्तला स्तब्ध रह गई। बच्चे सन्न। पहले तो जगतनारायण ने ऐसा कभी नहीं किया था। शकुन्तला को याद है कि शादी के पहले ही दिन जब वह पलंग से उतर कर ज़मीन पर जा सोई तो जगतनारायण के बार-बार कहने पर भी पलंग पर नहीं आई थी तो उसने शकुन्तला को ज़ोर से एक चाँटा रसीद कर दिया था। बस, उसके बाद शकुन्तला वही करती थी जो जगतनारायण चाहता। अपनी बात कहने का अवसर ढूँढ़ती। पर धीरे-धीरे शकुन्तला ने जगतनारायण के मन को ऐसा जीता कि शादी के पहले दिन मारे चाँटे की माफी जगतनारायण ने कई बार माँगी थी। बारह साल बाद जगतनारायण को फिर ऐसा गुस्सा आया। शकुन्तला डर रही थी कि कहीं बच्चों के सामने ही वह उसे पीटने न लगे, पर आज गुस्सा रोटी की थाली पर उतरा।

जगतनारायण ने बिस्तर उठाया और बाहर बरामदे में चारपाई लाकर लेट गया। शकुन्तला ने शिवा को कहा-”हो गया तेरा कलेजा ठंडा। ले तू सब खा, मर...!” फिर बड़-बड़ाती रही-”वड्डा ठड्डा, जाने क्या करेगा।” सारे माहौल में अजीब-सी दहशत भर गई थी, जहाँ कोई एक-दूसरे से बात नहीं करना चाहता था। बात करने से दहशत कम होने या टूटने के बजाय बढ़ जाती थी। शकुन्तला बड़ी दर तक अपने दोनों गालों पर हाथ धरे बैठी सोचती रही। फिर हिम्मत करके उठी। सुभाष के सिर पर हाथ फेरा और बाहर आकर जगतनारायण के पायताने बैठ गई। उसके पाँवों को सहलाया। वह खामोश रहा। उसकी ओर देखा। हलकी-हलकी रोशनी में उसे जगतनारायण की आँखें नम लगीं। उसने बढ़कर उन पर हाथ फेरा। उसके हाथ गीले हो गए। शकुन्तला भी रोने लगी। थोड़ी देर बाद मन हलका हुआ। जगतनारायण तब तक खेद की मुद्रा में आ चुका था। शकुन्तला ने उसका हाथ पकड़ उठा दिया तो उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया और चुपचाप अन्दर चला आया। बच्चे अभी भी सहमे हुए थे। उसने पहले शिवा के सिर पर हाथ फेरा। शकुन्तला ने दाल गरम की। रोटियाँ सेंकीं। रोटियाँ सेंकते हुए उसने शिवा से कहा-”आगे से कहीं भी जाए तो मुझे बताकर जाया कर, चल अब खा ले खाना...”

शिवा के मन में तहमत झाड़ती, ठीक करती तोषी और पाजामे का नाड़ा बाँधता चोखा चित्र-लिखित था। वह सोने से पहले सोचने लगा, अँधेरे में दोनों कौन-सा सवाल हल कर रहे थे...फिर सोचा, नहीं, शौच वगैरह गए हों या पेशाब करने...पर दोनों वहीं...साथ ही क्यों...माँ तो उसे मना करती है कि रात को अँधेरे में कहीं नहीं जाना...क्या जाने कब कहीं से कोई कीड़ा-पतंगा निकल आए और काट ले। बड़े बहादुर हैं तोषी-चोखा। उन्हें कीड़े-पतंगे से भी डर नहीं लगता। भूत से भी नहीं। पर तोषी इतनी तेज़ी से भागी क्यों? सुबह नट्टू से पूछूँगा...कि तोषी भूतों से डरती है या नहीं? पर नट्टू भी तो छोटा है, बड़ी बहन से कैसे पूछेगा! पिताजी से पूछूँ? उलझन में पड़ गया। चोखा ने यह क्यों कहा-बताना नहीं किसी से, सवाल हल कर रहे थे। इसमें छिपाने की क्या बात है? चोखा ने पहले तो कभी कुछ नहीं खिलाया, आज ही क्यों गुलाब जामुन खिलाए! उसने अपने दिमाग पर बड़ा ज़ोर डला, पर कोई भी ऐसा जवाब उसे नहीं मिला, जिससे उसकी उलझन दूर होती। इसी उधेड़बुन में वह कब गहरी नींद सो गया, उसे पता नहीं चला।

शिवा को भले ही अपने प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला, पर वह कुछ अनमना-सा रहने लगा। बदला-बदला-सा। घर में भी। स्कूल में भी। तोषी-चोखा का वह प्रसंग उसके लिए एक अबूझ पहेली बन गया, जिसे न वह किसी को बता सकता था, न किसी से पूछ सकता था। कई बार मन में आया कि क्यों न तोषी से ही पूछ ले, पर हिम्मत नहीं हुई। शिवा को सोचने की लत कुछ पहले भी थी, अब और बढ़ गई। खेलने में मस्त होता या पढ़ने में, तो भूला रहता पर जब भी अकेला होता, उसे तोषी-चोखा नज़र आने लगते और मंगलवार को बड़ा मंदिर...।