अनहद नाद / भाग-3 / प्रताप सहगल

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घर में उस दिन झगड़ा होने के बाद अगले दिन से उसे एक नया आदेश मिल गया था। स्कूल से छुट्टी होने के बाद सीधा घर। घर में रोटी खाओ और पिता के लिए दोपहर की रोटी दुकान पर पहुँचाओ। यह फैसला जगतनारायण ने ही किया था और शकुन्तला को समझा दिया था कि वक्त रहते अगर हम लड़के को कामधंधे में नहीं लगाएँगे तो एक दिन हमारे हाथ से ही निकल जाएगा। खाली दिमाग शैतान का घर। शकुन्तला ने कहा भी था-”अभी छोटा है।” पर जगतनारायण ने उसकी नहीं मानी और अगले दिन से शिवा स्कूल से छुट्टी होने के बाद सीधा घर आता। रास्ते की खेलें बन्द हो गईं। घर रोटी खाता और पिता के लिए टिफिन ले जाता। कई बार तो जल्दी ही लौट आता और कई बार वह पिता के साथ ही रात को लौटता।

दुकान घर से काफी दूर थी, पर उसे पैदल ही आना-जाना पड़ता।

शिवा को खेलने का वक्त अब पहले से कम मिलता। दुकान पर जिस रोज़ साइकिलों की भट्ठी चढ़ाने का दिन होता, उस दिन तो उसे ज़रूर ही जाना पड़ता। वह अपने पिता के साथ ही साइकिलों के फ्रेमों, चिमटों और मडगार्डों को तरतीब से जोड़ने में मदद करता। साइकिलों की चिता को सजाता। माचिस जलाकर आग लगाने में उसे खासा आनंद मिलता था। उसके बाद के काम से वह दूर भागना चाहता था। कभी पेट-दर्द का बहाना बनाकर जंगल-पानी के लिए निकल जाता और दो घंटे बाद लौटता। कभी पढ़ने की बात करके घर आ जाता और मैदान में ही गुल्ली-डंडा खेलता रहता। जगतनारायण को जब यह पता चला तो उसने थोड़ी सख्ती की और भट्ठी वाले दिन किसी भी बहाने से निकलना शिवा के लिए मुश्किल हो गया। सिर्फ जंगल-पानी के लिए जा सकता था, पर कितनी बार! जंगल-पानी के लिए दुकान से थोड़ी दूर खेतों में जाना पड़ता था। सभी लोग वहीं जाते थे। वह जाता और बैठा-बैठा गुन-गुनाता। कभी ढेले उठाकर दूर पड़े ढेले को मारता। निशाना साधने का खेल शिवा ने ऐसे ही सीख लिया था और अपनी इसी निशानेबाज़ी के कारण वह अक्सर कंचे जीत जाता। लोटा, नट्टू और सत्तू हैरान होते कि इतना अच्छा निशाना शिवा कैसे लगा लेता है। यहीं शिवा का रिश्ता आसपास की हरियाली से भी हुआ। उसे खेतों की हरियाली और जंगल का फैलाव बड़ा अच्छा लगता था। यहीं उसने पक्षियों के कलरव को ध्यान से सुनना शुरू किया और पहचानने लगा कि कौन-सी आवाज़ चिड़िया की है, कौन-सी कव्वे की, कौन-सी कोयल की है तो कौन-सी बया की। कठफोड़वा उसे बड़ा आकर्षित करता और वह नेकर खोलकर बैठा-बैठा ही कठफोड़वे को अपनी लंबी चोंच पेड़ पर मारते देखता रहता। यहीं उसका रिश्ता अपनी ‘तोती’ से हुआ। तोती शब्द उसके गुप्तांग को उसकी माँ ने ही दिया था। जब शकुन्तला को शिवा पर बहुत लाड़ आता तो वह बड़े प्यार से उसकी तोती को छेड़ देती। शिवा ठठाकर हँस देता। वह शौच के लिए बैठा-बैठा अपनी तोती को छेड़ता रहता। उसे निहारता। उसमें होती ऐंठन को अनुभव करता। एक अजीब-सी सिहरन दौड़ जाती थी उसके पूरे शरीर में, जिसे वह कोई नाम नहीं दे सकता था, पर उसे यह ज़रूर महसूस होता कि यह सिहरन दूसरे मज़ों से एकदम अलग है। सिहरन के बाद वह खुद ही घबरा जाता। पिताजी की डाँट याद आ जाती और जल्दी ही पानी का लोटा खाली कर दुकान पर आ जाता। इससे पहले कि डाँट पड़े वह रेगमार उठाकर साइकिलों के जले हुए चिमटों, मडगाडों की बीच-खुली मैल और ज़ंग घिसने लगता।

जैसे भी हो शिवा किसी न किसी बहाने मंगलवार को बड़े मंदिर जाना नहीं छोड़ता। जगतनारायण को जब यह पता चला तो उसने शिवा को बहुत फटकारा कि महाशय जगतनारायण का बेटा होकर मंदिर जाता है, मूर्तिपूजा करता है। शिवा ने बताया कि वह मत्था नहीं टेकता, बस प्रसाद लेता है तो कड़कती आवाज़ में डाँट पड़ी-”भिखमंगा कहीं का!”

शिवा को भिखमंगा शब्द से बड़ी चिढ़ थी। वह भिखमंगा नहीं है, भक्त भी नहीं है, फिर क्यों जाता है वह बड़े मंदिर? डाँट वाले दिन उसने रात सोते समय फैसला ले लिया कि नट्टू कहे या सत्तू अब वह बड़े मंदिर नहीं जाएगा और सचमुच अगले मंगलवार को वह नहीं गया। जगतनारायण को यह बात शिवा ने खुद ही बताई, तब उसने स्वयं शिवा को टके की बूँदी खरीदकर दी, जिसे शिवा ने जी भरकर आया। यह बूँदी हर मंगलवार तो मिलती नहीं थी। दो हफ्तों के बाद शिवा को फिर हुड़क हुई और उसने सुबह से ही बड़े मंदिर जाने की तैयारी शुरू कर दी। उसे रोज़ एक पैसा जेब-खर्ची मिलती थी। कभी मोरी वाला पैसा, कभी बड़ा पैसा, कभी घोड़ा वाला पैसा। उसने तय कर रखा था, मोरी वाला पैसा मिला तो बर्फ का गोला खाएगा, बड़ा पैसा मिला तो झाड़ी वाले बेर और घोड़े वाला पैसा मिला तो चूरण। जिस दिन मन इनमें से किसी एक चीज़ पर होता उस दिन माँ से वह उसी पैसे की माँग कर लेता। शकुन्तला को समझ में नहीं आता कि पैसा तो पैसा है। मोरी वाला हो तो, बड़ा हो तो, घोड़े वाला हो तो। पर वह बच्चे की खुशी मानकर वही देती, जो वह माँगता। उस मंगलवार शिवा ने बड़ा पैसा लिया, पर झाड़ी वाले बेर नहीं खाए, और भी कुछ नहीं। शाम ढली। माँ ने कहा-”अशोक सुभाष को ले जा खिलाने।” सुभाष को तो उसने चिकोटी काट रुला दिया, पर अशोक का क्या करता। सुभाष को रोते देख माँ ने अपने पास ही बिठा लिया। अशोक ने कुछ बोलना चाहा, पर शिवा ने बीच में ही टोक दिया-”चल छुपन-छुपाई खेलते हैं।” अशोक चुपके से शिवा के पीछे हो लिया। छुपन-छुपाई वहाँ सभी बच्चों का प्रिय खेल था। लड़के-लड़कियाँ मिलकर खेलते। खेल की शुरुआत पुगम-पुगाई से होती। सभी बच्चे अपने-अपने हाथ सीधे या उलटे करते और जो आखिर में अकेला पड़ जाता, उसी से खेल की शुरुआत होती और वह बच्चा आँखें बंद करके ज़ोर-ज़ोर से बोलता-”अम्ब ले लो अम्ब, पैसे दे पंज, राजे दी बेटी आईऽऽऽ...आए?...आए?...

इतने में ही सभी बच्चों को छुपना होता था। छुपते ही समवेत आवाज़ आती ‘आए’ और बच्चा छुपे बच्चों को ढूँढ़ने लगता। जिस पर नज़र सबसे पहले पड़े, उसे छूना बहुत ज़रूरी था। बस, कुत्ते-बिल्ली-सी दौड़ शुरू होती और छू लेने पर बारी बदल जाती। न छू पाने की स्थिति में पहले ही बच्चे की बारी फिर दोहराई जाती। शिवा को छुपन-छुपाई खेल बड़ा अच्छा लगता था, पर आज तो इसके सिर बड़े मंदिर जाने का भूत सवार था।

अशोक जैसे ही खेल में मस्त हुआ, शिवा खिसक गया। अकेला। बिना किसी को बताए तेज़-तेज़ कदमों से बड़े मंदिर पहुँच गया। बड़ा पैसा उसने अपनी छोटी-सी मुट्ठी में कसकर पकड़ रखा था। मंदिर के बाहर ठिठका। देखा, चबूतरे पर, बन्नियों पर आज भी बच्चे कतार लगाए बैठे हैं। तभी कोई भक्त प्रसाद चढ़ाकर अन्दर से निकला और बच्चों ने हाथ पसार दिए। शिवा ने प्रसाद की चिंता नहीं की। मंदिर में अभी भीड़ नहीं थी। इक्का-दुक्का लोग ही प्रसाद चढ़ाने आ रहे थे। शिवा सीधा मंदिर के अन्दर पहुँचा। हनुमान की लाल मूर्ति सामने थी, गदा धारण किए, पाँव के नीचे कोई राक्षस था। सीने में राम और सीता विराजमान थीं। शिवा का मन अन्दर से काँपा कि वह जो करने जा रहा है वह ठीक है क्या? ‘ऊँह! ठीक है।’ मन के दूसरे कोने से आवाज़ आई। उसने पुजारी को देखा। पुजारी के हाथ में प्रसाद का लिफाफा था। लिफाफा देने वाला भक्त साथ ही खड़ा था। पुजारी ने लिफाफे का प्रसाद थाली में डाल दिया और हनुमान की प्रतिमा के आगे हलका-सा पर्दा खींच दिया। शिवा को लगा यही अवसर है। उसने न आगे देखा, न पीछे और टन से पैसा हनुमान की मूर्ति के सामने वहीं फेंक दिया, जहाँ पहले से ही पैसे, टके, आने और दुअन्नियाँ पड़ी चमचमा रही थीं। कहीं-कहीं चवन्नी, अठन्नी और रुपया भी दिख रहा था। पैसा फेंकते ही शिवा हनुमान की मूर्ति के सामने साष्टांग लेट गया। होंठों में कुछ बुदबुदाते हुए उठा। बाहर जाने को मुड़ा तो फिर पीछे लौटकर नहीं देखा। क्षण-भर तो उसे लगा कि हनुमान उसके पीछे-पीछे ही आ रहा है। वह तेज़ी से गदा उसके सिर पर दे मारेगा या उसे वैसे ही अपने नीचे कुचल देगा, जैसे एक राक्षस को कुचल रखा है। शिवा की दोनों मुट्ठियाँ अभी भी कसी हुई थीं। उसने डरते-डरते पीछे देखा-पुजारी ने हनुमान को भोग लगाकर शेष प्रसाद उसी भक्त को लौटा दिया था और वही भक्त उसके पीछे-पीछे ‘सीता-राम राधे-श्याम’ करता आ रहा था। शिवा की साँस थोड़ी धीमी हुई। उसने अपने कदम तेज़ी से बाहर की ओर बढ़ाए। बाहर बच्चे अभी भी हाथ बाँधे प्रसाद बाँटने वाले भक्तों का इंतज़ार कर रहे थे। कोई और दिन होता तो शिवा भी उन्हीं के साथ बैठ जाता, पर आज नहीं। वह तेज़ी से मंदिर से बाहर आया। एक खाली-सी जगह पाकर उसने अपनी दाईं मुट्ठी खोली, उसमें चवन्नी थी। बाईं में कुछ नहीं। पैसे के बदले चवन्नी। शिवा बहुत खुश था। मन में सोचा-यह है हनुमान। पता भी नहीं चला और वह चवन्नी उठाकर ले आया। तभी उसे स्वामी विद्यानंद के प्रवचन का भी ध्यान आया-‘ईश्वर सब जगह है, वह सब देखता है।”

‘ऊँह, हनुमान ईश्वर थोड़े ही है,’ शिवा ने मन ही मन कहा और हलवाई की दुकान पर जाकर खड़ा हो गया। भरपेट जलेबी खाई। ढेर सारी बूँदी खरीदी और अपने मुहल्ले में जाकर सभी बच्चों में बाँट दी। सभी खुश। अशोक भी खुश था। उसने घर आकर शिवा की कोई शिकायत नहीं की।

डर धीरे-धीरे आदमी की धमनियों में कब और कैसे पसर जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। पाप और पुण्य का डर उसे धर्म देता है, घर और समाज से मिले संस्कार देते हैं और अपराधी होने का डर कानून। इनसे भी बड़ा डर है अस्तित्व का। व्यक्ति बना रहे। अमर न हो पाने का डर उसे कौन देता है? शायद कुदरत। इस डर के पीछे न धर्म है न कानून। न समाज है न राष्ट्र। अस्तित्व के मिटने का क्षणिक-सा डर भी आदमी को विचलित कर देता है और मिटने की प्रक्रिया तो और भी डरावनी होती है। इसी डर पर विजय पाना चाहते हैं। पर सचमुच ऐसा संभव होता है क्या?

शिवा भी औरों की तरह अस्तित्व के मिट जाने के डर से ग्रस्त था, पर नहीं जानता था कि यह डर वस्तुतः है क्या? इसी डर को जब किसी भी कारण से अभिव्यक्ति मिलती तो वह उस डर से लड़ता ज़रूर। भूतों के डर से वह बराबर लड़ा। तोषी-चोखा प्रसंग ने उसके इस मुक्ति-संघर्ष को तेज़ किया था। अनजाने ही अब वह रात को पीपल के पेड़ के नीचे जाने से अपेक्षाकृत कम डरने लगा था। चोरी उसके लिए पाप थी। पाप का डर था उसके मन में। उस रात सोते हुए जब हनुमान की मूर्ति के आगे से चवन्नी की चोरी ध्यान आया तो वह सचमुच डरा। उसने सुन रखा था, ईश्वर सब जगह है। वह सब कुछ देखता है...तो? चवन्नी उठाते हुए भी ईश्वर ने उसे ज़रूर देखा होगा। उसे इस पाप की सज़ा ज़रूर मिलेगी। पर क्यों? शिवा के मन में द्वंद्व चल रहा था। क्यों? वह तो यह देखना चाहता था कि यह ईश्वर, यह देवी-देवता अपनी रक्षा कर सकते हैं या नहीं? उसे मूलशंकर के साथ घटी शिवरात्रि वाली घटना से बड़ा बल मिलता था। उस रात भी मिला। पिता ने यह घटना शिवा को कई बार बताई थी और समझाया कि जो मूर्ति एक चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकती, वह हमारी रक्षा क्या करेगी? शिवा ने सोचा, वह चूहा तो नहीं है, आदमी है। क्या चूहे को भी गणेश जी ने सज़ा दी होगी? दी होगी तो क्या सज़ा...फिर उसका मन अपने पर केन्द्रित हो गया। उसे एक बार लोटे ने बताया था कि कैसे उसने भी एक दिन मंदिर से पैसे चुराए थे और रात को हनुमान ने सपने में आकर उसे कहा था, ‘पैसे नहीं, वह चढ़ावा है, श्रद्धा है, वापस लौटा दो, वरना तुम्हारा हाथ ही गल जाएगा’और अगले दिन लोटा चुपके से मंदिर में जाकर दुगुने पैसे रख आया था। शिवा का अन्तर्द्वंद्व बढ़ता ही जा रहा था। सोचने लगा, वह भी कल ऐसा ही करेगा। पर क्यों करे? कहाँ से लाएगा अठन्नी? और फिर उसने अकेले तो सब खाया नहीं। सभी को उसने उन पैसों की बूँदी खिलाई है। पाप लगेगा तो सबको। पर उसने और बच्चों को बताया भी तो नहीं, उन्हें क्या मालूम! शिवा के बाल-सुलभ तर्क कहीं खत्म होने को नहीं आ रहे थे। नींद आना मुश्किल हो रहा था। उसने ज़रा-सी आँख खोली, देखा, बिस्तर पर पिता नहीं हैं, न माता। बाकी सभी भाई-बहन सो रहे थे। शिवा घबराकर उठ बैठा। कहाँ चले गए? सभी घर से बाहर की गली में चारपाइयाँ बिछाकर सो जाते थे। शिवा ने दाएँ-बाएँ देखा, सभी सो रहे थे। बस, पिता और माता नहीं थे। कमरे की ओर देखा। एकदम अँधेरा था। खिड़की खुली थी। चारपाई पर खड़ा हो गया शिवा। खिड़की से झाँकने की कोशिश की। अँधेरे में उसे कुछ भी साफ नज़र नहीं आया, पर उसे यह ज़रूर लगा कि पिता और माता कमरे में ही हैं। सभी तो बाहर सो रहे हैं इस गर्मी में और माता-पिता अन्दर। वह कमरे में जाने की सोच ही रहा था कि उसे पिता बाहर आते दिखे। शिवा झट से आँखें बंद करके लेट गया। उसकी धड़कन और भी बढ़ गई। वह पिताजी से पूछना चाहता था कि वे अन्दर क्यों सो रहे थे, पर किसी अज्ञात आशंका ने उसे रोके रखा। उसने कई तरह से सोचा, उसे कुछ भी बात समझ में नहीं आई। न वह यह फैसला कर पाया कि अगले दिन वह मंदिर जाकर पैसे लौटाएगा या नहीं! तब उसे अपना मन्त्र याद आया। उसकी सरवाइवल इन्सटिंक्ट ने उससे मन ही मन मन्त्र का जाप शुरू करवा दिया। तब उसे कब नींद आ गई, उसे कुछ पता नहीं चला।

सुबह उठा तो उसे पता चला कि पिछली रात एक गाय के पीछे साँड भागता हुआ आया और उनकी चारपाई के ऊपर कूद गया। कूदते हुए साँड का खुर अशोक के माथे पर लगा था। अशोक का माथा काफी छिल गया था। शिवा हैरान था कि रात इतना सब हुआ और उसे कुछ पता ही नहीं चला। इतनी गहरी नींद में था वह। माता-पिता ने उसे जगाया भी नहीं। अशोक के माथे पर हल्दी-घी का लेप चढ़ा हुआ था। शिवा अब गाय और साँड से भी डरने लगा था।

ऐसे ही उसने डर का सामना दो और रूपों में भी किया था। एक बार तब जब वह एक दिन दुकान पर अकेला बैठा था और एक व्यक्ति अन्दर आकर ज़ोर से बोला-”कौन हो तुम? क्या नाम है?”

“शिवा,” सहमा-सा जवाब दिया शिवा ने।

“यहाँ क्यों बैठे हो?”

शिवा विस्फारित आँखों से देखता रहा।

“चलो भागो यहाँ से, यह दुकान मेरी है। भागो!” और उसने शिवा का हाथ कसकर पकड़ लिया। शिवा सचमुच डर गया था। तभी बाहर से जगतनारायण को आते देख वह व्यक्ति हँसने लग गया। शिवा भौचक था। रोने को ही था कि आगन्तुक ने कहा-”बेटा, ऐसे डरते नहीं। मैं तो तुम्हारा इम्तिहान ले रहा था।”

शिवा के मन में फैला डर सिकुड़ने लगा। वह चुपके से फर्श पर बैठ गया।

जगतनारायण ने आगन्तुक को डाँटा-”ऐसे डराते हैं बच्चे को, गधा कहीं का...आया क्या करने है?”

तब समझा-बुझाकर जगतनारायण ने शिवा को घर भेज दिया।

उस दिन से शिवा का डर से सामना एक बार तब हुआ जब वह एक दिन सत्तू और नट्टू के साथ कंपनी बाग की ओर निकल गया था। कंपनी बाग के पीछे ही एक बड़ा तालाब था। तालाब में सिंघाड़े की बेलें फैली हुई थीं। सर्दी शुरू होते न होते सिंघाड़े बेलों पर फलने लगते थे। तीनों घूमते हुए तालाब की ओर पहुँचे तो सिंघाड़े खाने की इच्छा तीनों के मन में जगी, पर प्रश्न यह था कि तालाब में उतरे कौन? पानी कितना गहरा है, उन्हें मालूम नहीं था और तैरना किसी को आता नहीं। शिवा बहादुरी पर उतर आया, बोला-”मैं देखता हूँ।”

धीरे-धीरे उसने एक पाँव तालाब के किनारे पर पानी में उतार दिया। पानी गहरा नहीं था। फिर दूसरा पाँव। हाथ अभी किनारे पर ही थे। बस, थोड़ी ही दूर तो बेल तैर रही थी। शिवा ने बायाँ पाँव और आगे बढ़ाया, पर पाँव ज़मीन को छू नहीं रहे थे और किनारे पर काई भी खूब जमी थी। लम्बी-लम्बी घास भी। सत्तू और नट्टू किनारे पर खड़े ‘थोड़ा आगे’, ‘थोड़ा और’ चिल्ला रहे थे। बेल से हाथ दो इंच की दूरी पर ही था कि शिवा का पाँव फिसलने लगा। शिवा की आँखों के आगे तारे नाच गए। ‘बस आज मरा’, कौंध की तरह से उसके मन में यह भाव आया। पाँव फिसलता ही जा रहा था। शिवा की संजीवनी शक्ति जगी। उसने पूरे वेग से पलटकर किनारे पर उठी लम्बी घास को पकड़ लिया। सत्तू और नट्टू को कुछ भी समझ नहीं आया कि शिवा लौट क्यों रहा है। जैसे-तैसे घास का सिरा शिवा के हाथ लग गया और वह किनारे आ लगा। तालाब से बाहर निकलकर चुपके से घर की ओर चल पड़ा। घास ने उसके दाएँ हाथ को काफी छील दिया था। पर उसने कोई चिन्ता नहीं की। शिवा का मौत से पहला साक्षात्कार था। उसे खड़े पानी से कुछ-कुछ दहशत होने लगी थी। रास्ते में सत्तू ने उसे छेड़ने की कोशिश की। शिवा ने कहा-”मरता बचा यार! तुझे सिंघाड़े की पड़ी है।”

तीनों ने फैसला किया कि कोई भी इस प्रसंग की चर्चा घर पर नहीं करेगा।

डर के विविध रूप देखे थे शिवा ने अपनी छोटी-सी उम्र में। सो अब बहुत डरता भी नहीं, पर अन्तर्द्वंद्व उठे तो शिवा क्या करे!

गई रात उसने बहुत सोचा था, पर रात उसे कोई सपना नहीं आया। माता-पिता के गायब होने की बात सूक्ष्म तरीके से मन पर अंकित हो गई थी और फिर गाय और साँड। क्या उसकी माँ भी गाय थी और पिता साँड? गाय और साँड का संबंध क्या होता है? ज़ोर देकर उसने अपने विचार को अशोक के घाव की ओर मोड़ दिया। वह खुद को कुछ बड़ा-बड़ा महसूस करने लगा था। शिवा मंदिर नहीं गया। सोचा-देखा जाएगा।

मुहल्ले के बच्चों में अब शिवा की चर्चा पहले से ज़्यादा होने लगी थी कि शिवा डरता नहीं। भूतों से तो बिल्कुल नहीं डरता। जब यही बात एक दिन नट्टू ने अपने पिता से कही तो जवाब मिला, “मरेगा एक दिन, समाजी का छोरा है, नास्तिक बनता है...मत खेला कर उससे।” नटटू की समझ में सिर्फ इतनी बात आई कि मरेगा शिवा। चिपटेगा उसे कोई भूत। इसलिए अब वह शिवा के साथ दिन-दिन में ही खेलता। रात होते ही या तो घर चल देता था, या फिर दस-पाँच बच्चे इकट्ठे कर लेता। उसने धीरे-धीरे सभी साथियों को शिवा के विरोध में भड़का दिया कि ‘खुद तो मरेगा, हमें भी मरवाएगा। नाराज़ होंगे देवी-देवता उसकी बातों से।’

एक दिन शाम को बच्चा-पंचायत पीपल के पेड़ के नीचे जीम हुई थी। बातें स्कूल के मास्टरों और लोटे की गैया के बछड़े की सुन्दरता की होते-होते भूतों पर आ टिकीं। बच्चों को यह विषय ही बड़ा प्रिय था। बात भी ज़रूर करते। डरते भी। एक रहस्य-सा छाया रहता उनके मन पर। एक सत्तू था जो शिवा का साथ देता, बाकी सब या तो शिवा का मज़ाक उड़ाते या उसे दुत्कारने से लेकर डराने की कोशिश करते। उस दिन भी यही सब हो रहा था। नट्टू सबसे आगे था। उसे उसके पिता की भी पूरी शह थी। नट्टू ने कहा-”मैंने एक दिन खुद अपनी आँखों से देखा काला भूत...”

“कैसा होता है?” लोटे ने पूछा।

“पाँव पीछे थे उसके। बाल खड़े हुए। हाथ उलटे...आँखें बिल्ली जैसी...लम्बे नाखून...।”

“सब बच्चे बड़े ध्यान से सुन रहे थे। एक ने कहा-”कहाँ...कहाँ देखा था?”

दूसरे ने पूछा तुतलाते हुए-”तू डला नहीं?”

नट्टू ने कहा-”डर लगा। मैं भागा तो भागा, पीछे नहीं देखा...पिताजी ने बता रखा था, कभी भूत सामने पड़ जाए तो भागो, पीछे मुड़कर मत देखो।”

“क्यों?” एक बच्चे का भोला-सा सवाल था।

“पीछे देखो तो ज़ोर का थप्पड़ मारता है भूत...फिर नहीं छोड़ता...।”

“पल देखा कहाँ?” पहले वाले बच्चे ने अपना प्रश्न दोहराया।

“अरे वहीं खँडहर में...।”

नट्टू का इतना कहना था कि शिवा से नहीं रहा गया और वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। सभी भौचक थे कि इस डरावनी बात पर शिवा हँस क्यों रहा है।

लोटे ने पूछा-”हँसा क्यों?”

नट्टू ने भी साथ दिया-”बोल, हँसा क्यों?”

शिवा बताना तो नहीं चाहता था। चोखा ने उसे मना किया था। दो गुलाब जामुन भी खिलाए थे। पर यह रोज़-रोज़ की दुत्कार शिवा से और सुनी नहीं जा रही थी। आज मौका ऐसा आ गया कि न चाहते हुए भी उसके मुँह से निकल गया, “तो तोषी भी भूत है।”

“तोषी भूत! क्या बोल रहा है?” नट्टू ने गुस्से में कहा।

“रात को वो भी जाती है खँडहर में।”

“तू कैसे कहता है?”

सभी बच्चे बड़ी दिलचस्पी ने नट्टू और शिवा की बातें सुन रहे थे।

“कैसे कहता हूँ...कहता हूँ...कहता हूँ...तो सच ही कहता हूँ।”

“देखा है तूने?”

“हाँ, देखा है, तोषी को देखा है, चोखा को देखा है...दोनों रात को खँडहर में जाते हैं...।”

सत्तू शिवा का गहरा दोस्त था और चोखा का छोटा भाई। उसने पूछा-”भाऊ और खँडहर में, वह भी रात को...तोषी के साथ...क्यों?”

“वहाँ तेरा भाई तोषी को हिसाब के सवाल समझाता है।”

“तुझे किसने कहा?”

“चोखा ने।”

एक रहस्य खुलता-सा लगा और दूसरा रहस्य बच्चों के सामने खड़ा हो गया। सत्तू की समझ में भी बात आई, पर नट्टू को कुछ धुँधला-धुँधला लगने लगा। शिवा सोच रहा था, उसने ठीक किया था या ग़लत? पर अब तो कह ही दिया। उसे डर था तो चोखा से। चोखा को पता चल गया तो पह ज़रूर मारेगा।

नट्टू की तो बोलती बन्द हो गई। सभी बच्चे खुसुर-फुसुर करते और कुछ दूसरी बातों में उलझते बिखर गए।

शिवा को जब अगले दिन तोषी की माँ और चोखा की माँ दो कुत्तों की तरह से लड़ती दिखाई दीं तो शिवा ने सोचा, यह लड़ाई क्यों? वे दोनों एक-दूसरे के बच्चों को मन-मन भर की गालियाँ देकर कोस रही थीं। शिवा ने सुना और चुपके से खेतों की ओर निकल गया। उस दिन के बाद नट्टू के साथ उसकी दोस्ती दुश्मनी में बदल गई। घर से शिवा को बड़ी फटकार पड़ी। पिता ने समझाया-”तू दादा है जो दूसरों के बीच पड़ता है, खँडहर जाएँ या जंगल, तुझे क्या...और तू रात को उस भुतहे मकान में करने क्या गया था?”

“भूत नहीं है वहाँ।” शिवा ने विरोध किया।

“हाँ-हाँ, मैं कब कहता हूँ है, पर तुझे कुछ हो जाता तो?”

“कोई कीड़ा-पतंगा ही काट जाता।” शकुन्तला ने कहा और एक तमाचा शिवा को जड़ दिया।

“खबरदार, उधर कभी मुँह भी किया तो...”