अपराध और दंड / अध्याय 6 / भाग 6 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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स्विद्रिगाइलोव ने दस बजे तक पूरी शाम घटिया मनोरंजन के एक से दूसरे ठिकाने तक, एक शराबखाने से दूसरे शराबखाने में जा कर काट दी। फिर कहीं से कात्या भी आ टपकी और किसी बेदर्दी साजना के बारे में एक बाजारू गाना गाने लगी, जो 'कात्या को चूमने लगा' था।

स्विद्रिगाइलोव ने कात्या, आर्गन बजानेवाले, गानेवालों की टोली और उन दो क्लर्कों के लिए शराब खरीदी जिनसे उसने सिर्फ इसलिए दोस्ती कर ली थी कि दोनों की नाकें टेढ़ी थीं - एक की दाहिनी ओर, दूसरे की बाईं ओर। स्विद्रिगाइलोव को यह बात कुछ अजीब लगी थी। आखिरकार दोनों ने उसे राजी कर लिया कि वह उसे किसी मनोरंजन पार्क में ले चलें, जिसमें जाने का टिकट उसने ही खरीदा। इस पार्क में सिर्फ एक पतला-सा, तीन साल पुराना फर का पेड़ था और तीन छोटी झाड़ियाँ थीं। इसके अलावा वहाँ एक 'स्टेशन' भी था, जो दरअसल एक तरह का शराबखाना था पर उसमें चाय भी पिलाई जाती थी। उसके बाग में कुछ हरी मेजें और कुर्सियाँ भी पड़ी हुई थीं। वहाँ गानेवालों की एक टोली और म्यूनिख का शराब के नशे में चूर एक जर्मन, जो जोकरों जैसा लगता था और जिसकी नाक लाल थी, लेकिन जो न जाने क्यों देखने में बहुत उदास लगता था, दर्शकों का मनोरंजन कर रहे थे। दोनों क्लर्क कुछ दूसरे क्लर्कों से उलझ पड़े और उनके बीच लड़ाई शुरू हो गई। स्विद्रिगाइलोव को बीच-बचाव के लिए चुना गया। वह पंद्रह मिनट तक उनके बीच समझौता कराने की कोशिश करता रहा, लेकिन उन लोगों ने ऐसा हंगामा खड़ा किया कि कुछ भी समझ पाना नामुमकिन था। तमाम बातों से बस यह पता चलता था कि उनमें से एक ने कोई चीज चुराई थी और उसे किसी यहूदी के हाथ बेच दिया था, जो इत्तफाक से वहाँ मौजूद था, लेकिन उसे जो पैसा मिला था, उसमें से वह अपने दोस्तों को उनका हिस्सा देने को तैयार नहीं था। आखिरकार यह बात सामने आई कि वह चुराई गई चीज चाय का एक चम्मच थी जो उस 'स्टेशन' की संपत्ति थी; उसके गायब होने का पता चल गया था और अब सारा मामला एक अप्रिय मोड़ ले रहा था। स्विद्रिगाइलोव चम्मच के दाम चुका कर उठा और बाहर चला गया। उस वक्त लगभग दस बजे थे। खुद उसने एक बूँद शराब भी नहीं पी थी, और 'स्टेशन' में महज दिखाने के लिए अपने लिए चाय मँगवा ली थी। अँधेरा हो चला था और उमस बढ़ रही थी। दस बजते-बजते आसमान पर डरावने बादल घिर आए। अचानक बिजली कड़की और जोरदार बारिश होने लगी। ये बूँदें नहीं थीं बल्कि पानी की मोटी धार गिर रही थी। हर पल बिजली के कौंधे लपक रहे थे और हर बार बिजली कई-कई सेकेंड तक चमकती थी। स्विद्रिगाइलोव सर से पाँव तक तर-बतर घर लौटा। अपने आपको उसने कमरे में बंद कर लिया, मेज की दराज खोली, अपना सारा पैसा निकाला और दो-तीन कागज फाड़ कर फेंके। फिर, जेब में सारे नोट रख कर वह अपने कपड़े बदलने जा रहा था कि खिड़की के बाहर देख कर और बिजली की कड़क और बारिश की आवाज सुन कर उसने अपना इरादा बदल लिया और हैट उठा कर, कमरे में ताला बंद किए बिना ही बाहर निकल गया। वह सीधा सोन्या के पास गया। वह घर पर ही थी। पर वह अकेली नहीं थी; कमरे में कापरनाउमोव के चार बच्चे भी उसके पास थे। वह उन्हें चाय पिला रही थी। उसने चुपचाप, सम्मान के भाव से स्विद्रिगाइलोव का स्वागत किया, उसके तर-बतर कपड़ों को आश्चर्य से देखा, लेकिन कुछ बोली नहीं। बच्चे डर कर भाग खड़े हुए।

स्विद्रिगाइलोव मेज पर जा बैठा और सोन्या से भी पास ही बैठने को कहा। वह सहमी-सहमी उसकी बात सुनने को तैयार हो गई।

'मैं शायद अमेरिका चला जाऊँ, सोफ्या सेम्योनोव्ना,' स्विद्रिगाइलोव ने कहा, 'और हो सकता है यह हमारी आखिरी मुलाकात हो। लिहाजा मैं जाने से पहले कुछ बातें निबटा जाना चाहता हूँ। तुम आज उन महिला से मिली थीं... मुझे मालूम है, उन्होंने तुमसे क्या कहा। वह सब मुझे बताने की कोई जरूरत नहीं।' (सोन्या कसमसाई और शरमा गई।) 'उनकी तरह के लोगों का चीजों को देखने का अपना ही एक ढंग होता है। रहे तुम्हारे छोटे भाई-बहन तो उन्हें अच्छी संस्थाओं में रख दिया गया है। उन्हें बाद में चल कर जो पैसा मिलना है, वह मैंने भरोसे के लोगों के पास रखवा दिया है और उनसे बाकायदा रसीदें ले ली हैं। ये रसीदें तुम रखो; शायद बाद में जरूरत पड़े। यह लो! तो अब वह बात तो तय हो गई। ये रहीं पाँच फीसद सूदवाली तीन हुंडियाँ, जो कुल मिला कर तीन हजार रूबल की हैं। इन्हें रखो और जैसे जी चाहे खर्च करो, पर यह बात सिर्फ हम दोनों तक ही रहे, ताकि बाद में चल कर तुम चाहे जो सुनो, यह बात किसी को मालूम न हो। तुम्हें इस पैसे की जरूरत पड़ेगी सोफ्या सेम्योनोव्ना, क्योंकि तुम जिस तरह की जिंदगी बिता रही हो, वह बहुत बुरी है पर अब इस तरह की जिंदगी बिताती रहने की कोई वजह नहीं रही।'

'आप मेरे लिए, बच्चों और कतेरीना इवानोव्ना के लिए पहले ही बहुत कुछ कर चुके हैं,' सोन्या ने जल्दी से कहा, 'मुझे सचमुच इतना मौका नहीं मिला कि मैं ठीक से आपका शुक्रिया अदा कर सकूँ, लेकिन आप यह न सोचिएगा...'

'यह सब कहने की कोई जरूरत नहीं!'

'जहाँ तक इस पैसे का सवाल है, मैं आपकी बहुत ही एहसानमंद हूँ, लेकिन मुझे अब इसकी जरूरत नहीं। मैं अपना पेट पालने भर को कमा ही लेती हूँ, लिहाजा अगर मैं इसे लेने से इनकार कर दूँ तो यह मत समझिएगा कि मैं आपकी एहसानमंद नहीं रही। आप अगर उपकार करना ही चाहते हैं तो यह पैसा...'

'तुम्हारे लिए है, सोफ्या सेम्योनोव्ना तुम्हारे लिए, और अब इस बारे में ज्यादा बातें न करो। मुझे जल्दी है। तुम्हें इसकी जरूरत पड़ेगी। रोदिओन रोमानोविच के सामने दो ही रास्ते हैं : या तो वे अपने भेजे में गोली मार लें या साइबोरिया जाएँ।' (सोन्या ने फटी-फटी आँखों से स्विद्रिगाइलोव की ओर देखा और सर से पाँव तक सिहर उठी।) 'फिक्र न करो, मुझे सब मालूम है। उन्होंने मुझे खुद बताया है। मैं बातूनी नहीं हूँ; मैं किसी को नहीं बताने का। उस दिन तुमने उनसे ठीक ही कहा था कि वे अपने आपको पुलिस के हवाले कर दें और साफ-साफ सब कुछ मान लें। इसमें उनकी कहीं ज्यादा भलाई है। अगर उन्हें साइबेरिया जाना पड़ा तो मैं समझता हूँ कि तुम भी उनक पीछे-पीछे ही जाओगी, कि नहीं फिर तो तुम्हें यकीनन इस पैसे की जरूरत पड़ेगी। तुम्हें उनके लिए इसकी जरूरत पड़ेगी; यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आती क्या? तुम्हें ये पैसे दे कर मैं दरअसल उन्हीं को दे रहा हूँ। इसके अलावा तुमने अमालिया इवानोव्ना से भी तो किराए का बकाया चुकाने का वादा किया था; मैंने तुम्हें उनसे वादा करते हुए सुना था। सोफ्या सेम्योनोव्ना, ये सारी जिम्मेदारियाँ और ये सारे भुगतान बिना सोचे-समझे तुम अपने ऊपर क्यों लेती जा रही हो? तुम्हारे ऊपर उस जर्मन औरत का कोई कर्ज तो है नहीं, कतेरीना इवानोव्ना के ऊपर था। लिहाजा तुम्हें तो उस जर्मन औरत से साफ कहना चाहिए था कि वह भाड़ में जाए। इस तरह तो दुनिया में तुम्हारी जिंदगी नहीं चलेगी। खैर, तुमसे अगर कोई कभी मेरे बारे में पूछे - कल या परसों - (और लोग तुमसे पूछेंगे जरूर) तो यह मत कहना कि मैं इस वक्त तुमसे यहाँ मिलने आया था। भगवान के लिए, उन्हें यह पैसा भी मत दिखाना, न यह बताना कि मैंने तुम्हें ये पैसा दिया है। तो मैं चलता हूँ,' उसने उठते हुए कहा। 'रोमानोव्ना रोमानोविच से मेरा सलाम कहना। और हाँ, यह पैसा फिलहाल मिस्टर रजुमीखिन के पास रखवा देना। मिस्टर रजुमीखिन को तो जानती होगी... जरूर जानती होगी। आदमी सही हैं। उनके पास कल चली जाना, या... जब भी वक्त आए। तब तक के लिए इसे किसी ऐसी जगह रखो, जहाँ यह सुरक्षित रहे।'

सोन्या कुर्सी से उछल कर खड़ी हो गई और उसे भयभीत हो कर देखने लगी। उसका कुछ कहने, कुछ पूछने को बहुत जी चाह रहा था लेकिन हिम्मत नहीं पड़ रही थी। अलावा इसके उसकी समझ में यह भी नहीं आ रहा था कि बात किस तरह शुरू करे।

'ऐसी बारिश में आप... आप जाएँगे कैसे?'

'अरे भई जिन लोगों को अमेरिका जाना होता है, वे बारिश से नहीं डरते, हा-हा! तो अब चलूँ, सोफ्या सेम्योनोव्ना! लंबी उम्र हो... दूसरों का तुमसे काफी भला होगा। और हाँ... मिस्टर रजुमीखिन से भी मेरा सलाम कहना। कहना, मिस्टर स्विद्रिगाइलोव ने बहुत-बहुत सलाम भेजा है। भूलना मत।'

वह सोन्या को उसी तरह बौखलाया, सहमा हुआ छोड़ कर बाहर निकल गया। सोन्या के दिल में तरह-तरह के धुँधले और बेचैनी पैदा करनेवाले संदेह उठ रहे थे।

बाद में पता चला कि उसी रात, ग्यारह के बाद स्विद्रिगाइलोव, अपनी सनक में इसी तरह अप्रत्याशित ढंग से कहीं और भी गया था। पानी तब भी बरस रहा था। बुरी तरह भीगा हुआ, वह ग्यारह बज कर बीस मिनट पर, वसील्येव्स्की द्वीप पर मली एवेन्यू के पास तीसरी लाइन में, अपनी मँगेतर के माँ-बाप के छोटे से फ्लैट में गया था। उसे देर तक दरवाजा खटखटाना पड़ा, तब कहीं वह अंदर जा सका। उसे वहाँ देखते ही काफी हलचल मची थी। लेकिन स्विद्रिगाइलोव की खूबी थी कि जब उसका जी चाहता, वह भलमनसाहत से पेश आ कर दूसरों का मन मोह लेता था। लिहाजा लड़की के समझदार माँ-बाप ने पहला अनुमान यह लगाया था। (जो बहुत गहरी सूझबूझ का अनुमान था) कि स्विद्रिगाइलोव ने शायद इतनी पी रखी थी कि वह कर क्या रहा है, उसे यह भी नहीं पता फिर उसके गलत निकलने पर उसे फौरन छोड़ दिया गया। दयालु और समझदार माँ अपाहिज बाप की पहिएदार कुर्सी धकेल कर वहाँ ले आई और अपनी आदत से मजबूर स्विद्रिगाइलोव से तरह-तरह के बेतुके और गोलमोल सवाल करने लगी। बात यह भी थी कि वह औरत सीधा सवाल पूछ ही नहीं सकती थी। वह हमेशा शुरू में मुस्कराती थी और अपने हाथ मलने लगती थी। फिर जब, मिसाल के लिए, यह मालूम करना जरूरी होता कि स्विद्रिगाइलोव शादी कब करना चाहता था, तब वह उत्सुकता से पेरिस और फ्रांस के राज-दरबार के बारे में बेहद दिलचस्प सवाल पूछती थी। फिर और कहीं जा कर वह धीरे-धीरे, धरती पर और वसील्येव्स्की द्वीप की तीसरी लाइन पर उतरती थी। अगर कोई दूसरा वक्त होता तो जाहिर है, उसके इस व्यवहार को देख कर सम्मान की भावना जागती, लेकिन इस समय अर्कादी इवानोविच कुछ असाधारण रूप से अधीर मालूम हो रहा था। उसने फौरन अपनी मँगेतर से मिलने का आग्रह किया हालाँकि उसे शुरू में ही बता दिया गया था कि वह सो चुकी है। लेकिन जाहिर है कि वह आखिर आ ही गई। स्विद्रिगाइलोव ने उसे बताया कि उसे किसी बहुत ही जरूरी काम से कुछ समय के लिए पीतर्सबर्ग से जाना पड़ रहा है, और इसलिए वह उसके वास्ते पंद्रह हजार रूबल लाया है। उसने उससे अनुरोध किया कि वह इस रकम को उसकी ओर से उपहार समझ कर स्वीकार कर ले, क्योंकि बहुत दिन से उसकी यह इच्छा थी कि वह शादी से पहले कोई तुच्छ रकम उसे उपहार में दे। उसके इस उपहार और आधी रात को जोरदार बारिश में आने की तात्कालिक आवश्यकता के बीच कोई तर्कसंगत संबंध दिखाई नहीं देता था। फिर भी सारा मामला संतोषजनक ढंग से निबट गया। आश्चर्य और सहानुभूति की घोर अनिवार्य अभिव्यक्तियाँ भी असाधारण सीमा तक दबी-दबी और सीमित ही रहीं। लेकिन, दूसरी ओर अत्यंत प्रशंसा भरे शब्दों में कृतज्ञता का भाव व्यक्त किया गया, और उसकी पुष्टि बेहद व्यवहारकुशल माँ के आँसुओं से की गई। स्विद्रिगाइलोव उठ खड़ा हुआ, हँसा, अपनी मँगेतर को चूमा, उसके गाल को थपथपाया, एक बार फिर कहा कि वह जल्द ही वापस आएगा और अपनी मँगेतर की आँखों में न केवल बाल-सुलभ जिज्ञासा बल्कि एक तरह का खामोश और गंभीर प्रश्न भी देख कर कुछ देर तक सोचता रहा। उसे उसने एक बार फिर चूमा और मन में यह विचार आते ही झुँझला उठा कि उसका वह उपहार व्यवहार कुशल माँ तुरंत ताले-चाभी में बंद कर देगी ताकि वह सुरक्षित रहे। वह उन लोगों को बेहद गैर-मामूली बेचैनी की हालत में छोड़ कर चला गया लेकिन उस दयावान माँ ने इस रहस्यमय मुलाकात की कई एक महत्वपूर्ण गुत्थियों को बहुत धीमी आवाज में जल्दी-जल्दी बोलते हुए, यह कह कर सुलझा दिया कि स्विद्रिगाइलोव बहुत ऊँची सामाजिक हैसियत का आदमी था, उसके जिम्मे बहुत बड़े-बड़े काम थे, उसकी दूर-दूर तक पहुँच थी, और वह बेहद अमीर आदमी था, और भगवान ही जानता था कि उसके दिमाग में क्या-क्या मंसूबे पल रहे थे। अगर वह अपने जी में ठान लेता था कि पीतर्सबर्ग से जाना है, तो बस चला जाता था और अगर उनके जी में आता कि किसी को पैसा दे दें तो बस दे डालता था; इसलिए इसमें ताज्जुब करनेवाली कोई बात नहीं थी। यह बात बेशक कुछ अजीब थी कि वह सर से पाँव तक भीगा हुआ था लेकिन मिसाल के लिए, अंग्रेज तो इससे भी ज्यादा सनकी होते हैं। अलावा इसके, जो लोग दुनिया में पहुँच चुके हैं, वे इस बात की परवाह नहीं करते कि लोग उनके बारे में क्या कहते हैं। वे बहुत ज्यादा औपचारिकता से काम नहीं लेते। शायद वह जान-बूझ कर यह दिखाने के लिए भीगे कपड़े पहने हुए फिर रहा हो कि उसे किसी की परवाह नहीं है। लेकिन सभी लोगों को याद रखना चाहिए कि किसी को कानोंकान इसकी खबर न हो, क्योंकि भगवान जाने इसका क्या नतीजा हो और पैसा फौरन ताले-चाभी में बंद कर दिया जाए। अरे, यह तो अच्छा ही हुआ कि फेदोस्या तमाम वक्त रसोई में रही और भगवान के लिए, कोई उस कुलटा औरत मादाम रेसलिख से एक शब्द भी न कहे, वगैरह-वगैरह। वे लोग दो बजे रात तक बैठे कानाफूसी करते रहे। लेकिन स्विद्रिगाइलोव की मँगेतर बहुत पहले सोने चली गई। वह भौंचक और कुछ उदास-उदास लग रही थी।

इस बीच स्विद्रिगाइलोव ठीक बारह बजे तुचकोव पुल पार करके पीतर्सबर्ग के एक उपनगर की ओर चला जा रहा था। बारिश रुक चुकी थी लेकिन हवा अभी भी तेज चल रही थी। वह काँपने लगा था और एक पल के लिए उसने छोटी नेवा के गहरे रंग के पानी को कुछ खास उत्सुकता से, बल्कि कुछ सवालिया अंदाज से भी, देखा। लेकिन पुल पर जल्द ही उसे सर्दी लगने लगी। वह मुड़ कर बोल्शोई एवेन्यू की ओर चल पड़ा। बड़ी देर तक, लगभग आधे घंटे तक वह अंतहीन बोल्शोई एवेन्यू पर चलता रहा। अँधेरे में कई बार वह सड़क की, लकड़ी के फर्शवाली पटरी पर लड़खड़ाया भी, लेकिन लगातार सड़क के दाहिनी ओर किसी चीज को देखने की कोशिश करता रहा। कुछ ही समय पहले, गाड़ी पर उधर से गुजरते वक्त यहीं कहीं उसने लकड़ी का एक बड़ा-सा होटल देखा था और उसे कुछ-कुछ याद आ रहा था कि उसका एद्रियानोपेल जैसा कोई नाम था। उसका खयाल गलत भी नहीं था। शहर के उस सुनसान इलाके में वह होटल ऐसी चलती जगह पर थी कि अँधेरे में भी उसे न देख पाना असंभव था। लंबी-सी, लकड़ी की मैली-कुचैली इमारत, जिसमें इतनी रात गुजर चुकने के बावजूद अभी तक बत्तियाँ जल रही थीं और जिंदगी की कुछ चहल-पहल भी दिखाई दे रही थी। वह अंदर गया। गलियारे में फटे-पुराने कपड़े पहने जो वेटर उसे मिला, उससे उसने एक कमरे के बारे में बात की। वेटर ने एक नजर उसे देखा, अपने आपको झिंझोड़ कर होश में लाया और फौरन उसे बहुत दूर, सीढ़ियों के नीचे एक कोने में, गलियारे के छोर पर एक छोटे-से, घुटन भरे कमरे में ले गया। कोई दूसरा कमरा खाली नहीं था; सब भरे हुए थे। फटे-पुराने कपड़ोंवाले वेटर ने उसे सवालिया नजरों से देखा।

'चाय मिलेगी?'

'जी।'

'कुछ और?'

'बछड़े का गोश्त है साहब... वोदका और चाय के साथ खाने के लिए थोड़ी-बहुत चीजें भी हैं।'

'तो गोश्त और चाय ले आओ।'

'और कुछ नहीं, साहब?' फटी वर्दीवाले वेटर ने कुछ आश्चर्यचकित हो कर पूछा।

'नहीं, कुछ और नहीं।'

फटी वर्दीवाला वेटर निराश हो कर चला गया।

'काफी अच्छी जगह है!' स्विद्रिगाइलोव ने सोचा। 'अजीब बात है कि मुझे इसका पता भी नहीं था। मैं समझता हूँ, मैं ऐसा आदमी दिख रहा हूँगा जो किसी कॉफी-हाउस में गाना-वाना सुन कर आ रहा था और रास्ते में कहीं मजा लूटने के लिए रुक गया। लेकिन, यहाँ रात को आ कर न जाने टिकता कौन होगा?'

उसने शमा जला कर कमरे को और ध्यान से देखा। कमरा इतना छोटा था और छत इतनी नीची थी कि स्विद्रिगाइलोव के लिए उसमें सीधे खड़ा होना भी मुश्किल था। कमरे में एक खिड़की थी, बिस्तर बहुत गंदा था, और रंगी हुई छोटी-सी मेज और कुर्सी ने लगभग सारी जगह घेर रखी थी। दीवारें ऐसी गोया लकड़ी के तख्तों की बनी हुई हों। दीवारों पर चिपका हुआ कागज इतना फटा हुआ, धूल से इतना अटा हुआ था कि उसका शुरूवाला पीला रंग मुश्किल से ही पहचाना जाता था। उस पर बने बेल-बूटे तो अब दिखाई भी नहीं दे रहे थे। कमरा देखने में अटारी जैसा लगता था जिसकी ढालदार छत की वजह से एक दीवार बाकी सब दीवारों से नीची थी, लेकिन इसकी वजह यह थी कि उसके ऊपर से हो कर सीढ़ियाँ जाती थीं। स्विद्रिगाइलोव शमा नीचे रख कर बिस्तर पर बैठ गया और विचारों में डूब गया। लेकिन उसका ध्यान बगलवाले कमरे से लगातार आ रही कानाफूसी की एक अजीब-सी आवाज ने खींच लिया जो बीच-बीच में ऊँची हो कर जोर की आवाज ले लेती थी। जब से वह कमरे में आया था, यह कानाफूसी कभी रुकी नहीं थी। वह सुनने लगा : एक आदमी लगभग रुआँसी आवाज से किसी दूसरे को फटकार रहा था। लेकिन उसे बस एक ही आवाज सुनाई दे रही थी। स्विद्रिगाइलोव उठ खड़ा हुआ; उसने शमा पर हाथ से आड़ की और उसे फौरन दीवार में एक पतली-सी दरार नजर आई जिसमें से हो कर बगलवाले कमरे की रोशनी आ रही थी। वह उठ कर दरार के पास गया और आँख टिका कर उसमें से देखने लगा। बगलवाले कमरे में, जो उसके अपने कमरे से कुछ बड़ा था, दो आदमी थे। उनमें से एक आदमी के सर के बाल बहुत घुँघराले थे और उसका चेहरा लाल और सूजा हुआ था। वह सिर्फ कमीज पहने हुए संतुलन बनाए रखने के लिए दोनों टाँगें एक-दूसरे से काफी दूर टिकाए किसी वक्ता की मुद्रा में खड़ा था। अपना सीना पीट-पीट कर वह अपने दोस्त को लताड़ रहा था कि वह एकदम कंगाल था और उसकी निचले दर्जे के सरकारी नौकर तक की हैसियत नहीं थी। उसने अपने दोस्त से कहा कि वह उसे कीचड़ में से बाहर खींच कर लाया था, चाहे तो उसे किसी भी वक्त निकाल बाहर कर सकता है, और यह कि यह सब कुछ तो बस भगवान ही देखता और जानता था। उसका दोस्त कुर्सी पर बैठा फटकार सुन रहा था। देखने में वह ऐसे आदमी जैसा लग रहा था जो जोर से छींकना चाहता हो पर छींक न पा रहा हो। थोड़ी-थोड़ी देर बार वह बौखला कर भीगी बिल्ली की तरह वक्ता की ओर देखता था, लेकिन साफ पता चल रहा था कि उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि उसका दोस्त किस बारे में बातें कर रहा था। बहुत मुमकिन है कि वह कुछ सुन भी न रहा हो। मेज पर धीमी लौ में एक शमा जल रही थी। मेज पर ही वोदका की एक काँच की सुराही थी जो लगभग खाली हो चुकी थी। शराब के कुछ गिलास, रोटी, पानी पीने के गिलास, खीरे और एक खाली चायदानी भी वहाँ थे। इस पूरे दृश्य को ध्यान से देखने के बाद स्विद्रिगाइलोव ऊब कर दीवार के पास से हटा और एक बार फिर आ कर पलँग पर बैठ गया।

फटी वर्दीवाले वेटर ने चाय और गोश्त ले आने के बाद एक बार फिर स्विद्रिगाइलोव से पूछा कि उसे और कुछ तो नहीं चाहिए। जब उसने एक बार फिर इनकार कर दिया तो वेटर वहाँ से चला गया। स्विद्रिगाइलोव ने शरीर में कुछ गर्मी पैदा करने के लिए गिलास में फौरन चाय उँड़ेली। उसने गिलास भर चाय तो पी, लेकिन कुछ खा न सका। भूख बिलकुल मर चुकी थी। उसे कुछ-कुछ हरारत महसूस हो रही थी। अपना ओवरकोट और कोट उतार कर, वह कंबल लपेटे बिस्तर पर लेट गया। वह झुँझला रहा था। 'तबीयत इस वक्त ठीक ही रहती तो अच्छा होता,' उसने सोचा और मुस्करा पड़ा। कमरे में घुटन थी, शमा मद्धम रोशनी बिखेरती हुई जल रही थी, बाहर तेज हवा गरज रही थी, किसी कोने में एक चूहा जमीन को पंजों से खुरच रहा था, सारे कमरे में चूहों और चमड़े की बू बसी हुई थी। वह विचारों में डूबा पलँग पर लेटा रहा। एक के बाद दूसरा विचार दिमाग में आ रहा था। लग रहा था, वह किसी चीज पर अपना ध्यान केंद्रित करने को बेचैन था। 'खिड़की के नीचे बाग होगा,' उसने सोचा। 'पत्तियों की सरसराहट सुनाई दे रही है। कितनी नफरत होती है तूफानी रात के अँधेरे में पत्तियों की यह सरसराहट सुन कर! कैसा भयानक महसूस होता है!' उसे याद आया कि अभी कुछ देर पहले जब वह पेत्रोव्स्की पार्क के पास से गुजर रहा था तो नफरत से उसने इसके ही बारे में सोचा था। उसे तुचकोव पुल और छोटी नेवा नदी की भी याद आई और उसे एक बार फिर सर्दी सताने लगी, ठीक उसी तरह जैसे तब लगी थी, जब वह पुल पर खड़ा था। 'अपनी जिंदगी में कभी मैं पानी को बर्दाश्त नहीं कर सका।' उसने सोचा, 'प्राकृतिक दृश्यों के चित्रों में भी नहीं।' दिमाग में कोई अजीब विचार आते ही उसने एक बार फिर खीसें निकालीं : 'ऐसा लगता है कि आराम और कोमलता की अनुभूति की मुझे अब जरा भी परवाह नहीं होनी चाहिए, फिर भी ठीक इसी वक्त मुझे इन बातों का खयाल सताने लगा है। ठीक इस जानवर की तरह जो... इस तरह के अवसर के लिए सही स्थान चुनने में बेहद सावधानी बरतता है। मुझे पोत्रोव्स्की पार्क में चले जाना चाहिए था! लेकिन वहाँ तो बहुत अँधेरा था और सर्दी थी, हा-हा! लगता है जैसे मुझे सुखद अनुभूतियों की जरूरत है... अरे हाँ, मैं शमा को बुझा क्यों नहीं देता' (उसने फूँक मार कर शमा बुझा दी।) 'बगलवाले कमरे के लोग शायद सो गए हैं,' उसने दीवार की दरार में से रोशनी न आते देख कर सोचा। 'ओ, मार्फा पेत्रोव्ना यही वक्त है जब तुम्हें अपने प्यारे शौहर से मिलने आना चाहिए। अँधेरा हो चुका है, जगह भी मुनासिब है, और वक्त भी बेहद मुनासिब है। लेकिन इस वक्त तो तुम आओगी नहीं...'

उसे न जाने क्यों अचानक याद आया कि कुछ देर पहले, दिन में, दूनिया पर जाल फेंकने से लगभग घंटा भर पहले, उसने रस्कोलनिकोव को सलाह दी थी कि वह दूनिया को रजुमीखिन की निगरानी में सौंप दे। 'मैं समझता हूँ मैंने यह बात, जैसा कि रस्कोलनिकोव ने अंदाजा लगा लिया था, अपने आपको उकसाने के लिए कही होगी। लेकिन यह रस्कोलनिकोव भी एक ही बदमाश है! बहुत कुछ झेला है उसने। अगर वह अपने बेवकूफी भरे विचारों से छुटकारा पा ले, तो आगे चल कर बहुत बड़ा धूर्त बन सकता है, लेकिन अभी तो उसे जीने की बेहद लालसा है। इस मामले में ये लोग तो सचमुच बदमाश होते हैं। जो उसका जी चाहे करे, मुझे क्या मतलब?'

वह सो नहीं सका। दूनिया की शक्ल धीरे-धीरे उसकी नजरों के सामने उभरी। उसने उसे उसी रूप में देखा जैसी वह कुछ घंटे पहले थी। उसके शरीर में अचानक सिहरन दौड़ गई। 'नहीं' उसने होश सँभालते हुए सोचा, 'मुझे ऐसी बातों से अब छुटकारा पा लेना चाहिए, और किसी और बारे में सोचना चाहिए। कैसी मजे की बात है यह और कितनी अजीब, कि मैंने कभी किसी के लिए कोई खास नफरत महसूस नहीं की, और कभी किसी से बदला लेने की बात नहीं सोची। यह तो बहुत बुरा संकेत है, बहुत ही बुरा! मुझे कभी किसी से झगड़ा करना अच्छा नहीं लगा, कभी ताव भी नहीं आया - यह भी तो एक बुरा संकेत है! और मैं उससे अभी कैसी-कैसी बातों का वादा कर रहा था, हे भगवान! शायद वह किसी न किसी तरह मुझे एक दूसरा ही आदमी बना देती...' वह फिर शांत हो गया और दाँत कस कर भींच लिए। एक बार फिर दूनिया की तस्वीर उसकी नजरों के सामने आई। ठीक वैसी ही जैसी कि वह उस वक्त लग रही थी जब पहली गोली चलाने के बाद बेहद डर गई थी, रिवाल्वर नीचा कर लिया था और उसकी तरफ इस तरह देखने लगी थी जैसे वह जिंदा से ज्यादा मुर्दा हो, यहाँ तक कि वह आसानी से उसे दो बार पकड़ सकता था और उसे अपना बचाव करने के लिए हाथ उठाने का भी मौका न मिलता, जब तक कि वह खुद उसे याद न दिलाता। उसे याद आया, उस पल उसे किस तरह दूनिया पर तरस-सा आया था और उसका मन मसोस उठा था... 'उफ, लानत है! फिर वही विचार... मुझे इन सब बातों को अपने दिमाग से निकाल फेंकना होगा, निकाल फेंकना होगा...'

उसे अब नींद आने लगी थी और बुखार की कँपकँपी कम होने लगी थी। अचानक उसे ऐसा लगा जैसे कोई चीज कंबल के अंदर उसकी बाँह और टाँग पर दौड़ रही है। वह चौंका :

'लानत है! कोई चूहा तो नहीं है' उसने सोचा। 'मुझे मेज पर गोश्त नहीं छोड़ना चाहिए था...' उसे कंबल उतारने और उठ कर ठिठुरने के विचार से ही नफरत हो रही थी, लेकिन अचानक फिर कोई चीज तेजी से उसकी टाँग पर दौड़ गई। उसने झटक कर कंबल उतार दिया और शमा जला दी। बुखार की सर्दी से काँपते हुए उसने झुक कर पलँग को ऊपर-नीचे अच्छी तरह देखा-कहीं कुछ भी नहीं था। उसने कंबल को झटका और अचानक एक चूहा उछल कर चादर पर आ गिरा। उसने उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन चूहा पलँग पर से भागा नहीं। इसकी बजाय वह चकमे दे कर पलँग पर इधर-उधर भागता रहा, उसकी उँगलियों में से बार-बार फिसलता रहा, उसके हाथ पर दौड़ता रहा और अचानक तीर की तरह भाग कर तकिए के नीचे जा छिपा। उसने तकिया नीचे फेंका। उसे फौरन महसूस हुआ कि कोई चीज तेजी से उसकी कमीज के अंदर घुसी है और तेजी से उसके सारे बदन और उसकी पीठ पर दौड़ रही है। वह घबरा कर काँपने लगा और उसकी आँख खुल गई। कमरे में अँधेरा था। वह पहले की ही तरह कंबल लपेटे पलँग पर लेटा हुआ था और खिड़की के नीचे हवा साँय-साँय चल रही थी। 'उफ, क्या बकवास है!' उसने झुँझला कर सोचा।

वह उठा और खिड़की की ओर पीठ करके पलँग की पट्टी पर बैठ गया। 'बेहतर होगा कि मैं जागता रहूँ,' उसने तय किया। खिड़की से ठंडी और नम हवा आ रही थी। पलँग से उठे बिना ही उसने कंबल खींचा और अपने चारों ओर लपेट लिया। शमा उसने नहीं जलाई। वह न तो किसी चीज के बारे में सोच रहा था और न सोचना चाहता था, लेकिन दिमाग में एक के बाद एक हर तरह की कल्पनाओं की भीड़ जमा होती जा रही थी। विचारों के बिखरे हुए टुकड़े जिनका न कोई ओर था न छोर, और न ही जिनमें कोई आपसी संबंध था। वह फिर ऊँघने लगा था। चाहे सर्दी की वजह से हो या अँधेरे की वजह से, नमी की वजह से हो या खिड़की के नीचे साँय-साँय चलती और पेड़ों को झिंझोड़ती हुई हवा की वजह से हो, लेकिन वह कल्पनातीत चीजों के प्रति बेहद जोरदार और लगाव-झुकाव का, लालसा का अनुभव कर रहा था। फिर भी उसे हर जगह फूल दिखाई देने लगे। उसकी कल्पना में फूलों से भरा एक मनोरम प्राकृतिक दृश्य उभरा। धूप निकली हुई थी, थोड़ी-थोड़ी गर्मी थी, बल्कि काफी गर्मी थी, छुट्टी का दिन था - त्रिमूर्ति का दिन गाँव में एक आलीशान, अंग्रेजी ढंग का बँगला। चारों ओर फूलों की क्यारियाँ जिनमें ढेरों खुशबूदार फूल खिले हुए; सामने बेलों में मढ़ी हुई एक बरसाती और उसके चारों ओर गुलाब की क्यारियाँ। सीढ़ियों पर, जिनमें काफी रोशनी और ठंडक थी, शानदार मोटा कालीन बिछा हुआ, और दोनों और चीनी फूलदानों में देश-विदेश के फूल-पौधे लगे हुए। खिड़कियों पर पानी से भरे गुलदानों में उसे नरगिस के सफेद, कोमल और सुगंध से बोझल फूलों के गुलदस्ते नजर आए जो अपने मोटे, चटकीले, गहरे रंग के लंबे-लंबे डंठलों पर झुके पड़ रहे थे। उसका उनको छोड़ कर जाने का जी नहीं कर रहा था, लेकिन वह सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊँची छतवाले एक कमरे में पहुँचा। वहाँ भी हर जगह फूल ही फूल थे -खिड़कियों में, बड़ी-सी बालकनी में जानेवाले खुले दरवाजों के पास, और बालकनी पर भी। फर्श पर ताजा कटा हुआ, सोंधी खुशबूवाला पुआल बिछा हुआ था, खिड़कियाँ खुली हुई थीं, कमरे में ताजी हवा के हल्के ठंडे झोंके आ रहे थे, खिड़कियों के नीचे चिड़ियाँ चहचहा रही थीं, और कमरे के बीच में कई मेजों को जोड़ कर और उन पर सफेद साटन की चादरें बिछा कर एक ताबूत रखा गया था। ताबूत नेपिल्स के सफेद रेशमी कपड़े से ढका हुआ था, जिसके किनारे-किनारे चारों ओर सफेद जाली की मोटी झालर टँकी थी। ताबूत फूलों के हारों से सजा हुआ था। सफेद जाली की फ्राक पहने, फूलों से लदी एक नौजवान लड़की ताबूत में लेटी थी। हाथ उसके सीने पर रखे हुए थे और ऐसे लग रहे थे जैसे संगमरमर से तराशे गए हों। लेकिन उसके खुले हुए हलके सुनहरे रंग के बाल गीले थे। सर पर गुलाब के फूलों का ताज था। चेहरे को, जिसकी मुद्रा कठोर थी और जो निश्चेत हो चुका था, बगल की ओर से देखने पर लगता था जैसे उसे संगमरमर को काट कर बनाया गया हो। लेकिन उसके मुर्दा पीले होठों पर जो मुस्कराहट थी, उनमें अथाह उदासी थी और शिकायत का गहरा भाव था, जो बाल-सुलभ नहीं लग रहा था। स्विद्रिगाइलोव इस लड़की को पहचानता था। आसपास न कोई प्रतिमा थी और न ही ताबूत के पास कोई शमा जल रही थी। प्रार्थना के स्वर भी सुनाई नहीं दे रहे थे। इस लड़की ने आत्महत्या कर ली थी... वह पानी में डूब कर मरी थी। वह अभी चौदह साल की थी, लेकिन उसका दिल टूट चुका था। एक अपमान का उसे ऐसा गहरा सदमा पहुँचा था कि उसका बच्चों जैसा भोला मन चीख और कराह उठा था। उसकी फरिश्तों जैसी निष्कलंक आत्मा एक ऐसे अपराध पर शर्मिंदगी के दुख में डूब गई थी जो उसने किया ही नहीं था, और उसके दिल से बरबस घोर निराशा की अंतिम चीख निकल गई थी। सबकी ओर से उपेक्षित रह कर और निर्लज्ज कुकर्म की शिकार हो कर उसने अपनी हस्ती को मिटा दिया था - एक ऐसी डरावनी काली रात में जब चारों ओर घोर अँधेरा छाया हुआ था, भारी सर्दी पड़ रही थी, बाहर बर्फ पिघल रही थी और हवा साँय-साँय चल रही थी।

स्विद्रिगाइलोव की आँख खुल गई। वह बिस्तर से उठा, खिड़की के पास गया, टटोल कर चिटकनी ढूँढी और खिड़की खोल दी। तेज हवा का झोंका दनदनाता हुआ छोटे से कमरे में घुस आया और उसके चेहरे और सीने पर, जो सिर्फ उसकी कमीज से ढका हुआ था, पाले की तरह चिपक गया। लगता था, खिड़की के नीचे सचमुच कोई बाग था, एक तरह का मनोरंजन पार्क। यकीनन वहाँ भी दिन में गानेवालों की टोली गाती होगी और छोटी-छोटी मेजों पर बैठ कर लोग चाय पीते होंगे। लेकिन इस वक्त तो झाड़ियों और पेड़ों से बारिश की बूँदें खिड़की के अंदर आ रही थीं; चारों ओर तहखाने जैसा अँधेरा था और मुश्किल से ही कुछ चीजों की काली-काली रूपरेखा देखी जा सकती थी। स्विद्रिगाइलोव नीचे झुका और खिड़की की सिल पर हाथ टिका कर पाँच मिनट तक अँधेरे में घूरता रहा। अचानक रात के अँधेरे में तोप की आवाज गूँजी, और फौरन बाद दूसरी बार यही आवाज आई।

'आह, खतरे की चेतावनी है! पानी चढ़ रहा है!' उसने सोचा। 'सबेरे तक शहर के निचले हिस्सों की सड़कें पानी में डूब जाएँगी, तहखानों में पानी भर जाएगा, डूब कर मरनेवाले चूहे पानी की सतह पर तैरने लगेंगे, और इस आँधी-पानी में सर से पाँव तक भीगे हुए लोग गालियाँ दे-दे कर अपना काठ-कबाड़ ऊपर की मंजिलों पर पहुँचाने लगेंगे... इस वक्त भला क्या वक्त होगा?' उसने यह सवाल अपने आपसे पूछा ही था कि पास ही कहीं तेजी से टिक-टिक करती घड़ी ने तीन का घंटा बजाया। 'हे भगवान, अभी घंटे भर में उजाला फूट निकलेगा! मैं भला किस बात की राह देख रहा हूँ? क्यों न यहाँ से अभी निकल चलूँ, सीधे पेत्रोव्स्की पार्क में जाऊँ, वहाँ बारिश के पानी में नहाई हुई कोई बड़ी-सी झाड़ी चुनूँ जिसमें कंधा लगाते ही सर पर अनगिनत बूँदें बरस पड़ें और...' वह खिड़की के पास से हट आया, खिड़की बंद कर दी, शमा जलाई, अपना कोट पहना, फिर ओवरकोट पहना, हैट लगाया और शमा ले कर उसी फटी वर्दीवाले वेटर को ढूँढ़ने के लिए गलियारे में निकल आया जो इस वक्त शायद दुनिया भर के कूड़े-कचरे और शमा के जले हुए टुकड़ों के बीच किसी कोने में सो रहा था। वह उसे पैसे चुका कर होटल छोड़ देना चाहता था। 'सबसे अच्छा वक्त तो यही है! इससे अच्छा वक्त चुनना मुश्किल है!'

देर तक वह शैतान की आँत जितने लंबे उस सँकरे गलियारे में चलता रहा लेकिन उसे कोई दिखाई नहीं पड़ा। वह वेटर को पुकारने ही जा रहा था कि उसकी नजर अचानक एक पुरानी अलमारी और दरवाजे के बीच एक अजीब-सी चीज पर पड़ी, जो जिंदा मालूम होती थी। शमा हाथ में लिए वह नीचे झुका और उसे एक बच्ची नजर आई - कोई पाँच साल की छोटी-सी लड़की जो काँप और रो रही थी। उसके कपड़े फर्श पोंछने के झाड़न की तरह गीले थे। ऐसा नहीं लग रहा था कि वह स्विद्रिगाइलोव को देख कर डरी हो, लेकिन वह उसे अपनी बड़ी-बड़ी काली आँखों से असहाय हैरानी के भाव से घूर रही थी। बीच-बीच में वह सिसक उठती थी, जिस तरह तब बच्चे करते हैं, जब वे रोना बंद कर देते हैं, कुछ तसल्ली महसूस करने लगते हैं, लेकिन फिर भी रह-रह कर सिसकियाँ लेते रहते हैं। बच्ची का चेहरा पीला पड़ चुका था। वह निढाल और सर्दी से ठिठुरी हुई लग रही थी। लेकिन 'यह यहाँ पहुँची कैसे? जरूर यहाँ छिप गई होगी और रात भर सोई नहीं है।' वह उससे पूछने लगा। उस लड़की में अचानक जैसे जान आ गई, और वह बच्चों की भाषा में तुतला कर तेजी से बोलने लगी। वह अपनी 'अम्मा' के बारे में कुछ बता रही थी और कह रही थी कि 'अम्मा मुझे मालेंगी'। वह किसी प्याले के बारे में भी बता रही थी जो उसने 'तोल' दिया था। बच्ची धाराप्रवाह बोले जा रही थी। उसकी बातों से स्विद्रिगाइलोव ने मुश्किल से ही यह अनुमान लगाया कि वह प्यार की भूखी थी। उसे उसकी माँ, जो शायद उसी होटल में खाना पकाने का काम करती हो और शराबी हो, बुरी तरह पीटती रहती थी और वह सहम कर रह गई थी। उसकी समझ में यह भी आया कि लड़की ने अपनी माँ का कोई प्याला तोड़ दिया है और इतना डर गई है कि शाम को भाग आई, जोरदार बारिश में घंटों तक आँगन में कहीं छिपी बैठी रही और आखिरकार रेंग कर उस कोने में पहुँच गई और अलमारी के पीछे छिप गई, जहाँ उसने रोते-रोते सारी रात काट दी थी। वह सर्दी और सीलन से काँप रही थी और इस डर से भी कि उसने जो कुछ किया था उसके लिए उसे मार पड़ेगी। स्विद्रिगाइलोव ने उसे गोद में उठा लिया, अपने कमरे में ले जा कर उसे बिस्तर पर बिठाया और उसके कपड़े उतारने लगा। उसने अपने नंगे पाँवों पर जो फटे हुए जूते पहन रखे थे, वे इतने भीग चुके थे कि लगता था, रात भर पानी के किसी गड्ढे में पड़े रहे हों। उसने बच्ची के कपड़े उतार कर उसे सुला दिया और कंबल खींच कर उसे अच्छी तरह सर तक लपेट दिया। वह फौरन सो गई। यह सब करके वह एक बार फिर अपने उदास विचारों में डूब गया।

'मैं भला इस पचड़े में पड़ा क्यों?' उसने अचानक खुद से सवाल किया। वह झुँझला रहा था और अपने आप पर गुस्सा खा रहा था। 'कैसी बेवकूफी की मैंने!' झुँझलाहट में उसने शमा उठा ली। वह फौरन उस फटी वर्दीवाले वेटर को खोज कर होटल ही छोड़ देना चाहता था। 'हे भगवान, इस लड़की का क्या होगा?' उसने दरवाजा खोलते हुए सोचा। लेकिन यह देखने के लिए वह फिर कमरे में चला गया कि बच्ची सो रही है या नहीं। उसने सावधानी से कंबल उठाया। बच्ची चैन से गहरी नींद सो रही थी। कंबल से उसके शरीर में कुछ गर्मी आ गई थी; पीले गालों पर कुछ-कुछ लाली दौड़ने लगी थी। लेकिन यह कितनी अजीब बात थी! बच्ची के गालों का रंग बच्चों के चेहरे के आम रंग से ज्यादा गहरा और खुला हुआ लग रहा था। 'बुखार की तमतमाहट है,' स्विद्रिगाइलोव ने सोचा। लगता था वह नशे में चूर हो, जैसे किसी ने उसे गिलास भर के शराब पिला दी हो। उसके लाल होठ गर्म हैं और तप रहे हैं। लेकिन यह क्या? अचानक उसे लगा, उस बच्ची की लंबी काली पलकें काँप और फड़फड़ा रही थीं। गोया उसके पपोटे धीरे-धीरे खुल रहे थे, जैसे दो छोटी-छोटी चंचल, तेज आँखें ऐसे अंदाज से आँख मार रही हों जो बच्चों जैसा अंदाज तो हरगिज नहीं था। लग रहा था कि बच्ची सिर्फ सोने का बहाना कर रही थी। हाँ, हाँ, ऐन यही बात थी : उसके खुले हुए होठ मुस्करा रहे थे; मुँह के दोनों कोने फड़क रहे थे, गोया वह अब भी अपने आपको रोकने की कोशिश कर रही हो। लेकिन अगले ही पल उसने यह नाटक करना बंद कर दिया। वह हँस रही थी! हाँ, वह हँस रही थी। उसके चेहरे में, जो अब बच्चों जैसा नहीं रह गया था, कुछ बेशर्मी जैसी, कुछ उकसानेवाली बात थी। उसमें वासना थी। वह वेश्या का चेहरा था, किसी फ्रांसीसी वेश्या का छिनाल चेहरा। अब उसने कुछ भी छिपाने की कोशिश किए बिना, दोनों आँखें खोल दी थीं और उन आँखों ने स्विद्रिगाइलोव पर एक दहकती हुई, निर्लज्जताभरी नजर डाली, जिनमें निमंत्रण था, वे हँस रही थीं... उसकी हँसी में, उन आँखों में, बच्चों जैसे चेहरे के उस तमाम घिनौनेपन में कोई बेहद भयानक और शर्मनाक बात थी। 'क्या पाँच साल की लड़की!' स्विद्रिगाइलोव ने बुदबुदाहट के लहजे में खुली नफरत के साथ कहा। 'क्या... क्या है भला!' लेकिन अब वह उसकी ओर पूरी तरह घूम कर देख रही थी। चेहरे से लपटें निकल रही थीं और वह अपनी दोनों बाँहें उसकी ओर फैलाए हुए थी... 'लानत है!' स्विद्रिगाइलोव डर कर चीखा ओर उसने बच्ची को मारने के लिए हाथ उठाया... लेकिन उसी पल उसकी आँख खुल गई।

वह अभी तक उसी बिस्तर पर लेटा हुआ था, अभी तक उसका शरीर कंबल में लपेटा हुआ था। कोई शमा जल नहीं रही थी, और खिड़की से दिन की रोशनी आ रही थी।

'मैं रात भर कोई डरावना सपना देखता रहा!' वह झुँझला कर उठा। लग रहा था कि वह बिलकुल टूट चुका है। एक-एक हड्डी में दर्द हो रहा था। बाहर घना कुहरा छाया हुआ था और उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। लगभग पाँच बजे थे; उसे बहुत देर हो चुकी थी! वह उठा और अपना कोट और ओवरकोट पहना जो अभी तक गीले थे। जेब टटोल कर उसने रिवाल्वर बाहर निकाला और गोली दागने की टोपी ठीक की। फिर उसने बैठ कर अपनी जेब से एक नोटबुक निकाली और उसके पहले पन्ने पर, जिस पर सबसे जल्दी नजर पड़े, बड़े-बड़े अक्षरों में कुछ लाइनें घसीटीं। उन्हें एक बार फिर पढ़ने के बाद वह मेज पर कुहनियाँ टिका कर विचारों में खो गया। रिवाल्वर और नोटबुक पास ही मेज पर पड़े थे। मक्खियों के झुंड अभी तक मेज पर रखे, बचे हुए गोश्त पर मँडला रहे थे। वह कुछ देर मक्खियों को देखता रहा और फिर दाहिने हाथ से, जो खाली था, एक मक्खी को पकड़ने की कोशिश की। देर तक वह इसी काम में व्यस्त रहा, लेकिन सफल न हुआ। आखिरकार उसे होश आया; वह चौंक कर उठा और पक्के संकल्प के साथ कमरे से बाहर निकल गया। एक मिनट बाद वह सड़क पर आ निकला था।

सारे शहर पर घना दूधिया कोहरा छाया हुआ था। स्विद्रिगोइलोव सड़क के किनारे लकड़ी की बनी गंदी फिसलनी पटरी पर चलता हुआ छोटी नेवा की ओर बढ़ा। उसने अपनी कल्पना में छोटी नेवा को देखा जिसका पानी रात में ऊपर चढ़ आया था, पेत्रोव्स्की द्वीप को देखा, गीले रास्तों, भीगी घास, भीगे हुए पेड़ों और झाड़ियों को और आखिरकार उस झाड़ी को देखा... वह मकानों को गौर से देखने लगा। वह अपने आप पर झुँझलाता हुआ किसी दूसरी चीज के बारे में सोचने की कोशिश कर रहा था। चौड़ी सड़क पर कोई घोड़ागाड़ी नहीं थी; कहीं कोई आदमी दिखाई नहीं देता था। बंद खिड़कियोंवाले, छोटे-छोटे, चटकीले पीले रंग के लकड़ी के मकान उदास और गंदे दिखाई दे रहे थे। उसके शरीर में सर्दी और सीलन समा रही थी और वह काँप रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह किसी बिसाती या किसी सब्जीवाले की दुकान के सामने से गुजरता और हर एक साइनबोर्ड को ध्यान से पढ़ता। सड़क किनारे की लकड़ी की पटरी अब खत्म हो चुकी थी। वह पत्थर के एक बड़े से मकान के सामने जा पहुँचा। एक छोटे से गंदे कुत्ते ने, टाँगों के बीच दुम दबाए, सर्दी में ठिठुरते हुए उसका रास्ता काटा, ओवरकोट पहने एक आदमी सड़क के आर-पार मुँह के बल मदहोश पड़ा था। स्विद्रिगाइलोव ने उसकी ओर देखा और आगे बढ़ गया। फिर उसे बाईं ओर एक ऊँची मीनार नजर आई। 'अरे,' उसने सोचा, 'मैं इसी जगह को तो ढूँढ़ रहा था। पेत्रोव्स्की द्वीप जाने की क्या जरूरत यहाँ कम-से-कम सरकारी गवाह तो होगा...' यह सोच कर वह लगभग खीसें निकाल कर हँसा और स्नेजिंस्काया स्ट्रीट में मुड़ गया। यह रहा वह मीनारवाला, बड़ा-सा घर। नाटे कद का एक आदमी सिपाहियोंवाला भूरे रंग का कोट अपने शरीर पर कस कर लपेटे सर पर यूनानी सूरमा एकिलीज जैसी पीतल की टोप पहने उस मकान के बड़े से बंद फाटक पर कंधा टिकाए झुका खड़ा था। उसने स्विद्रिगाइलोव पर अलसाई-सी, उचटती, नजर डाली। उसके चेहरे पर चिड़चिड़ेपन और उदासी का वही चिरंतन भाव था जो बिना किसी अपवाद के यहूदी नस्ल के हर आदमी के चेहरे पर कड़वाहट के साथ छुपा हुआ रहता है। वे दोनों, स्विद्रिगाइलोव और एकिलीज, एक-दूसरे को कुछ देर तक चुपचाप घूरते रहे। आखिरकार एकिलीज को यह बात अजीब-सी लगी कि एक आदमी जो नशे में भी नहीं था, उससे गज भर की दूरी पर खड़ा, एक शब्द भी कहे बिना, उसे घूरता रहे।

'तुमको क्या माँगटा, सा'ब' उसने अपनी जगह से हिले बिना या अपनी मुद्रा बदले बिना कहा।

'कुछ नहीं, बड़े मियाँ,' स्विद्रिगाइलोव ने जवाब दिया। 'सलाम!'

'यह भी आपका आने का कोई जगह होटा!'

'मैं विलायत जा रहा हूँ, बड़े मियाँ।'

'विलायत?'

'अमेरिका।'

'अमेरिका?'

स्विद्रिगाइलोव ने रिवाल्वर निकाल कर उसका घोड़ा चढ़ाया। एकिलीज ने भौहें तान कर देखा।

'क्या माँगटा तुमको... यह मसखरी करने का ठिकाना नईं!'

'काहे नहीं, यह तो बताओ!'

'काहे को का जगह... यह नहीं होने का।'

'मुझे क्या फर्क पड़ता है, बड़े मियाँ। जगह तो ठीक ही लगती है। कोई तुमसे पूछे तो कह देना, अमेरिका गया है।'

उसने रिवाल्वर अपनी दाईं कनपटी पर रखा।

'यह काम इधर करने को नईं माँगटा - यह जगह नईं होटा इसका!' एकिलीज बुरी तरह चौंक कर चीखा और उसकी आँखें फटती चली गईं।

स्विद्रिगाइलोव रिवाल्वर की लिबलिबी दबा चुका था।