अपराध और दंड / समापन / भाग 1 / दोस्तोयेव्स्की

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साइबेरिया। एक सुनसान चौड़ी-सी नदी के किनारे एक शहर है, जो रूस का एक प्रशासन केंद्र है। उस शहर में एक किला है और उस किले में एक जेल है। उस जेल में दूसरे दर्जे का एक कैदी1 नौ महीने से बंद है। रोदिओन रस्कोलनिकोव। जब अपराध किया गया, तबसे लगभग अठारह महीने बीत चुके हैं।

मुकद्दमे के दौरान कोई खास कठिनाई नहीं हुई। अपराधी दृढ़तापूर्वक सही-सही और साफ शब्दों में अपने बयान पर कायम रहा। उसने परिस्थितियों को न तो उलझाया, न उनके बारे में कोई गलतबयानी की, न ही अपने हित में तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा, न ही कोई छोटी-से-छोटी बात भी बताने में कोई कसर छोड़ी। उसने अदालत को बताया था कि उसने कब और कैसे हत्या करने की योजना बनाई थी, कैसे उसे पूरा किया था। उसने गिरवी रखी गई चीज का रहस्य समझाया था (लकड़ी का वह छोटा-सा, चपटा कुंदा जिसके साथ धातु की पट्टी जुड़ी हुई थी), जो उस औरत के हाथ में पाया गया था, जिसका खून किया गया था। उसने पूरे विस्तार के साथ बताया कि उसने किस तरह मरी हुई औरत के पास से चाभियाँ ली थीं, चाभियों का वर्णन किया, संदूक का और उसमें जो चीजें थीं उनका वर्णन किया, बल्कि उनमें से कुछ के नाम भी गिनवाए। उसने लिजावेता की हत्या का रहस्य समझाया। उसने बताया कि कोख ने किस तरह आ कर दरवाजा खटखटाया था, और उसके बाद वह छात्र आया था। उसने उनकी बातचीत का ब्यौरा दिया और बताया कि किस तरह वह (हत्यारा) बाद में सीढ़ियों पर नीचे भागा; कब उसने निकोलाई और मित्का को चिल्लाते हुए सुना और किस तरह एक खाली फ्लैट में छिप गया था और बाद में घर चला गया था। अंत में, उसने उस जगह का ठीक-ठीक वर्णन किया जहाँ वोज्नेसेंस्की एवेन्यू में वह पत्थर पड़ा था जिसके नीचे बटुआ और दूसरी चीजें पाई गईं। गरज कि सारा किस्सा एकदम साफ हो कर सामने आ साफ हो गया।


1. पहले दर्जे का कातिल 12 साल की उम्रकैद की, दूसरे दर्जेवाला 8 से 12 साल तक की और तीसरे दर्जेवाला 4 से 8 साल तक की कैद की सजा पाता था।


अलबत्ता, छानबीन करनेवाले वकीलों और जजों को इस बात पर ताज्जुब हुआ कि उसने उस फ्लैट से जो बटुआ और दूसरी चीजें ली थीं, उन्हें इस्तेमाल करने की कोई कोशिश किए बिना, उन्हें पत्थर के नीचे छुपा दिया था। फिर उन्हें इस बात पर भी ताज्जुब हुआ कि उसे पूरी तफसील के साथ यह भी नहीं याद था कि चीजें थीं कितनी। वास्तव में यह बात किसी तरह उनकी समझ में ही नहीं आ रही थी कि उसने बटुआ कभी खोला ही नहीं और उसे यह भी नहीं मालूम था कि उसमें कितना पैसा था। (पता चला कि बटुए में तीन सौ सत्रह रूबल और साठ कोपेक थे और कुछ नोट, खास तौर पर बड़ी रकम के नोट, जो ऊपर रखे थे, इतने दिनों तक पत्थर के नीचे पड़े रहने की वजह से बुरी तरह खराब हो गए थे।) उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश में काफी वक्त लगा दिया कि अपराधी ने जब बाकी सारी बातें अपनी मर्जी से और सच-सच मान ली थी तो इसी एक बात के बारे में वह झूठ क्यों बोल रहा था। आखिरकार उनमें से कुछ ने (खास तौर पर जिन्हें मनोविज्ञान की थोड़ी-बहुत जानकारी थी) इस बात को माना कि मुमकिन है, उसने बटुए को कभी खोल कर देखा भी न हो और इसलिए उसे यह न पता हो कि जब उसने उसे पत्थर के नीचे छिपाया, तब उसमें क्या था। लेकिन इससे उन्होंने यह नतीजा निकाला कि अपराध वक्ती पागलपन के दौरान किया गया; दूसरे शब्दों में, ऐसे वक्त जब अभियुक्त किसी पक्के मकसद के बिना और निजी लाभ के किसी विचार के बिना केवल हत्या करने और डाका डालने की खातिर हत्या और डाके के उन्माद का शिकार रहा होगा। यह बात वक्ती पागलपन के उस प्रचलित सिद्धांत से काफी अच्छी तरह मेल खाती थी, जिसे आजकल अकसर कुछ खास किस्म के अपराधियों पर लागू किया जाता है। इसके अलावा कई लोगों की गवाही से यह बात पक्के तौर पर साबित हो चुकी थी कि रस्कोलनिकोव को विषाद की पुरानी बीमारी थी, जिसकी वजह से वह हमेशा उदास रहता था। इनमें डॉ. जोसिमोव हत्यारे के पुराने सहपाठी, उसकी मकान-मालकिन और उसकी नौकरानी शामिल थे। ये सब बातें इसी निष्कर्ष की ओर संकेत करती थीं कि रस्कोलनिकोव किसी आम हत्यारे, चोर और डाकू जैसा कतई नहीं था, बल्कि यह कि इस मुकद्दमे में उन लोगों का पाला एक बिलकुल ही दूसरी तरह के आदमी से था। इस सिद्धांत के समर्थकों को यह देख कर निराशा हुई कि अभियुक्त ने अपनी तरफ से कोई सफाई पेश करने की कोशिश नहीं की। अंतिम प्रश्न ये थे - किस चीज ने उसे हत्या करने पर मजबूर किया और किस चीज ने उसे डाका डालने के लिए प्रेरित किया इनके जवाब में उसने बिलकुल साफ-साफ और बुरी लगनेवाली स्पष्टता के साथ कहा कि इनकी वजह उसकी दयनीय भौतिक स्थिति, उसकी गरीबी और लाचारी थी, और उसकी यह इच्छा थी कि कम-से-कम तीन हजार रूबल के सहारे वह अपने जीवन की पहली मंजिल के दौरान तो अपनी माली हालत मजबूत कर ले। इस बारे में उसे पूरी उम्मीद थी कि जिस औरत का खून किया गया था, उसके फ्लैट में इतनी रकम तो मिल ही जाएगी। लेकिन उसने हत्या का फैसला खास तौर पर अपनी विवेकहीनता और कायरता के कारण किया था, और इसलिए भी कि वह अपनी मुसीबतों और असफलताओं में तंग आ चुका था। जब उससे पूछा गया कि उसने अपना अपराध स्वीकार क्यों किया, तो उससे साफ-साफ जवाब दिया कि उसने जो कुछ किया था उसका उसे सचमुच अफसोस था। यह सब कुछ थोड़ा लट्ठमार भी लग रहा था...

खैर, अदालत ने जो सजा सुनाई, वह उसके मुकाबले में बहुत कम थी, जितनी कि अपराध को देखते हुए दी जानी चाहिए थी। इसकी अकेली वजह शायद यही थी कि अपराधी ने अपने काम को उचित ठहराने की कोशिश करने की बजाय बढ़-बढ़ कर गोया कि अपने आपको उसका दोषी ठहराने की उत्सुकता दिखाई थी। अपराध के सभी विचित्र और विशिष्ट लक्षण ध्यान में रखे गए। अपराध से पहले कैदी के बुरे स्वास्थ्य और उसकी दरिद्रता के बारे में कोई संदेह भी नहीं रह गया था। जो चीजें उसने चुराई थीं, उनका अगर उसने किसी भी तरह इस्तेमाल नहीं किया था तो एक तरह से इसकी वजह यह बताई गई कि उसमें पश्चात्ताप की भावना जाग उठी थी, और यह भी कि जिस वक्त अपराध किया गया उस वक्त उसके हवास पूरी तरह ठिकाने नहीं थे। पहले से योजना बनाए बिना जिस तरह लिजावेता की हत्या की गई थी, उससे इस अंतिम सिद्धांत की पुष्टि ही होती थी : एक आदमी दो हत्याएँ करता है और यह भूल जाता है कि सामने का दरवाजा खुला है! आखिरी बात यह थी कि रस्कोलनिकोव ने अपना अपराध ऐसे वक्त स्वीकार किया था, जब उदासी के दौरे की हालत में एक धर्मोन्मादी (निकोलाई) के झूठा अपराध स्वीकार करने की वजह से मामला बेहद उलझ गया था, और सो भी ऐसे में जबकि असली अपराधी के खिलाफ कोई पक्का सबूत नहीं था, न उसके खिलाफ किसी तरह का शुबहा था। (पोर्फिरी पेत्रोविच ने अपना वचन पूरी तरह निभाया था।) सजा कम दिए जाने में इन सब बातों का बहुत बड़ा हाथ था।

कई दूसरी परिस्थितियाँ भी अप्रत्याशित रूप से सामने आ गई थीं और वे बड़ी हद तक कैदी के पक्ष में थीं। भूतपूर्व छात्र रजुमीखिन ने कुछ ऐसी जानकारी खोज निकाली थी, जिससे साबित होता था कि कैदी रस्कोलनिकोव जब यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तब उसने अपने एक गरीब और तपेदिक के बीमार साथी की मदद की थी और अपने बहुत ही मामूली साधनों से छह महीने तक उसका लगभग पूरा खर्च उठाया था। जब वह छात्र मर गया तब उसने उसके अपाहिज बाप की (जिसकी देखभाल रस्कोलनिकोव का वह दोस्त लगभग तेरह साल की उम्र से करता आया था।) तब तक देखभाल की जब तक कि उसे अस्पताल में भरती नहीं कर लिया गया। फिर उसके मरने पर उसके कफन-दफन का खर्च भी रस्कोलनिकोव ने ही दिया था। इन सब बातों को अदालत के फैसले पर बहुत अच्छा असर पड़ा। अलावा इसके, रस्कोलनिकोव की पहलेवाली मकान-मालकिन विधवा जरनीत्सिना ने, जो मुलजिम की मँगेतर की माँ थी, गवाही दी कि जब वे पंचकोण में एक-दूसरे मकान में रहते थे, तब रस्कोलनिकोव ने दो बच्चों को एक जलते हुए घर में से निकाला था और इस कोशिश में खुद बुरी तरह जल गया था। इस बात की पूरी तरह जाँच की गई, और कई गवाहों ने पक्के तौर पर इसकी पुष्टि की। गरज कि अंत में अपराधी की केवल आठ वर्ष के दूसरे दर्जे के कठोर कारावास की सजा दी गई। अदालत ने अपराधी के स्वयं अपराध स्वीकार कर लेने को और उसके अपराध की गंभीरता को कम करनेवाली कई दूसरी परिस्थितियों को पूरी तरह ध्यान में रखा था।

रस्कोलनिकोव की माँ मुकद्दमे की शुरुआत में ही बीमार पड़ गई थीं। दूनिया और रजुमीखिन ने मुकद्दमे के चलने तक के लिए उन्हें पीतर्सबर्ग से बाहर भिजवा दिया था। इसके लिए रजुमीखिन ने पीतर्सबर्ग के पास ही एक रेलवे जंक्शन का चुनाव किया था ताकि वह मुकद्दमे की पूरी कार्रवाई पर नजर रख सके और दूनिया से भी ज्यादा से ज्यादा मिल सके। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना की बीमारी बहुत अजीब किस्म की थी। तंत्रिकाओं की किसी तरह की गड़बड़ी थी, और उसके साथ ही उनका दिमाग अगर पूरी तरह न सही, कुछ हद तक तो खराब हो ही गया था। जब दूनिया अपने भाई से आखिरी बार मिल कर लौटी, तब उसने अपनी माँ को बहुत बीमार पाया। उन्हें बहुत तेज बुखार और सरसाम हो गया था। उसी दिन शाम को दूनिया और रजुमीखिन ने तय कर लिया कि माँ उसके भाई के बारे में जो सवाल पूछेंगी, उनके वे लोग क्या जवाब देंगे। रजुमीखिन की मदद से दूनिया ने एक पूरा किस्सा ही गढ़ लिया था कि रस्कोलनिकोव किसी निजी काम से रूस से बाहर जा रहा था, जिससे वह अंत में बहुत सारा पैसा और बहुत नाम कमाएगा। लेकिन जिस बात पर उन्हें ताज्जुब हुआ वह यह थी कि पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उनसे इस बारे में कभी कोई सवाल पूछा ही नहीं। न उस वक्त, न बाद में। इसके विपरीत उन्होंने अपने बेटे के इस तरह अचानक चले जाने के बारे में खुद एक किस्सा गढ़ लिया था। उन्होंने रो-रो कर उन लोगों को बताया कि वह कैसे उनसे विदा लेने आया था; साथ ही उन्होंने यह भी संकेत दिया कि ऐसी कुछ बहुत महत्वपूर्ण और रहस्यमय बातें भी थीं, जो सिर्फ उन्हीं को मालूम थीं और यह कि रोद्या के कई ताकतवर दुश्मन थे, इसलिए वह उनसे छिप कर रहने पर मजबूर था। जहाँ तक उसके भविष्य का सवाल था, उन्हें इसमें जरा भी संदेह नहीं था कि जब कुछ विरोधी प्रभाव काम करना बंद कर देंगे, तब उसका भविष्य बहुत ही उज्ज्वल होगा। उन्होंने रजुमीखिन को यकीन दिलाया कि उनका बेटा एक दिन बहुत बड़ा राजनीतिक विचारक बनेगा, जैसा कि उसके प्रकाशित लेख और उसकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रमाणित हो चुका था। वे लगातार उसका लेख पढ़ती रहती थीं। कभी-कभी जोर से भी पढ़ती थीं, लगभग उसे पढ़ते-पढ़ते ही सो जाती थीं, लेकिन शायद ही कभी यह पूछती थीं कि रोद्या कहाँ है -बावजूद इस बात के कि वे लोग खुले तौर पर उनसे उसकी चर्चा करने से कतराते थे, और इसी एक बात से उनके मन में संदेह पैदा हो जाना चाहिए था। कुछ बातों के बारे में पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना की अजीब-गरीब खामोशी पर आखिरकार उन लोगों के मन में कुछ आशंका पैदा हुई। मिसाल के लिए, अब वह कभी शिकायत नहीं करती थीं कि उसका कोई खत नहीं आया, जबकि पहले जब वे लोग एक छोटे से कस्बे में रहते थे, तब वह अपने प्यारे रोद्या का पत्र आने की उम्मीद पर ही जिंदा रहती थीं। इस बात की कोई वजह समझ में नहीं आती थी और इसलिए दूनिया बहुत चिंतित रहती थी। वह यह सोचने पर मजबूर हो जाती थी कि उसकी माँ को कहीं यह तो पता नहीं था कि उनके बेटे के साथ कोई भयानक बात हुई है और वे उसके बारे में पूछने से डरती थीं कि उन्हें कोई उससे भी भयानक बात न मालूम हो जाए। दूनिया को साफ दिखाई दे रहा था कि माँ के हवास पूरी तरह ठिकाने नहीं थे।

एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने बातचीत को खुद कुछ यूँ मोड़ दे दिया कि इस बात का जिक्र किए बिना कि रोद्या उस वक्त कहाँ था, उनके सवाल का जवाब देना नामुमकिन हो गया। जवाब जब कुछ गोलमोल असंतोषजनक और संदेहजनक होते थे, तब वे अचानक काफी दुखी, उदास और चुप हो उठती थीं, और यह सिलसिला काफी लंबे अरसे तक जारी रहा। दूनिया ने आखिरकार महसूस किया कि झूठ बोलना और कहानियाँ गढ़ना बहुत मुश्किल है, और वह इस नतीजे पर पहुँची कि कुछ बातों के बारे में चुप्पी साध लेना ही बेहतर होता है। फिर भी यह बात अधिक से अधिक स्पष्ट होती जा रही थी कि बेचारी माँ की समझ में कोई बहुत भयानक बात हुई है। दूनिया को याद आया, उसके भाई ने बताया था कि उसकी माँ ने स्विद्रिगाइलोव से उसकी मुलाकात के बाद रात को, रस्कोलनिकोव के आत्मसमर्पण से ठीक पहलेवाले दिन, उसे सोने में बड़बड़ाते सुना था। कहीं माँ को तब तो किसी बात का पता नहीं चला अकसर, कभी-कभी तो कई दिनों तक यहाँ तक कि कई हफ्ते तक बहुत दुख और उदासी में चुप रहने के बाद उस बीमार औरत में अचानक इतनी जान आ जाती थी कि जैसे उसे हिस्टीरिया का दौरा पड़ा हो। माँ तब ऊँची आवाज में अपने बेटे, अपनी उम्मीदों और भविष्य के बारे में बातें करने लगती थीं... उनके भ्रम कभी-कभी बहुत अजीब होते थे। वे लोग उन्हें खुश रखने की कोशिश करते, उनकी हाँ में हाँ मिलाते (वे स्वयं अच्छी तरह समझती थीं कि वे लोग महज उन्हें खुश करने के लिए ऐसा कर रहे हैं और उनसे सहमत होने का ढोंग कर रहे हैं), लेकिन वे फिर भी बातें करती रहती थीं।

रस्कोलनिकोव के अपराध स्वीकार करने के पाँच महीने बाद अदालत ने अपना फैसला सुनाया। जब भी मुमकिन होता था, रजुमीखिन उससे मिलने जेल जाता था। सोन्या भी। आखिरकार बिछुड़ने की घड़ी आ पहुँची। दूनिया ने कसमें खा-खा कर भाई को यकीन दिलाया कि उनका यह बिछोह हमेशा नहीं रहेगा; रजुमीखिन ने भी ऐसा ही किया। रजुमीखिन ने जवानी के जोश में पक्का फैसला भी किया कि वह अगले तीन-चार वर्ष अपने भविष्य को कमोबेश सुरक्षित बनाने और ज्यादा से ज्यादा पैसा बचाने में खर्च करेगा ताकि जा कर साइबेरिया में बस सके, जो विपुल प्राकृतिक साधनों का देश था और जिसे अधिक लोगों, मजदूरों और पूँजी की जरूरत थी। उसने योजना बना ली थी कि वह उसी शहर में जा कर बसेगा, जहाँ रोद्या था और... वे सभी एक साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे बिछुड़ने के समय वे सब रोए! आखिरी कुछ दिनों के दौरान रस्कोलनिकोव खयालों में खोया-खोया रहने लगा था। वह अपनी माँ के बारे में पूछता रहता था और लगातार उनके बारे में चिंतित रहता था। वह उनके बारे में असामान्य सीमा तक चिंतित लगता था, जिसकी वजह से दूनिया भी परेशान रहती थी। अपनी माँ के स्वास्थ्य के बारे में सारी बातें मालूम होने पर वह बहुत ही उदास हो गया। किसी वजह से हमेशा वह सोन्या से बहुत कम बातें करता था। स्विद्रिगाइलोव ने उसे जो पैसा दिया था, उसकी मदद से सोन्या ने बहुत पहले ही कैदियों की उस टोली के साथ, जिसमें रस्कोलनिकोव शामिल था, साइबेरिया जाने की तैयारियाँ पूरी कर ली थीं। उसने रस्कोलनिकाव से कभी इसकी चर्चा नहीं की, और उसने भी इस बारे में कुछ नहीं कहा, लेकिन दोनों जानते थे कि ऐसा ही होगा। आखिरी विदाई के समय जब उसकी बहन और रजुमीखिन ने उत्साह से उसे आश्वस्त किया कि जेल से उसके छूटने के बाद वे सब लोग एक साथ रहेंगे और उनका भविष्य बहुत सुखमय होगा, तो वह जवाब में बड़े विचित्र ढंग से मुस्करा पड़ा और यह डर जाहिर किया कि उसकी माँ इस बीमारी की वजह से जल्द ही मर जाएँगी। आखिरकार वह और सोन्या रवाना हो गए।

दो महीने बाद दूनिया और रजुमीखिन की शादी हो गई। बिना किसी धूमधाम के बहुत उदास वातावरण में। लेकिन पोर्फिरी पेत्रोविच और जोसिमोव भी आमंत्रित मेहमानों में थे। इस पूरे अरसे में रजुमीखिन एक ऐसा आदमी लगता था जिसने अपने मन में कुछ ठान रखी हो। दूनिया को विश्वास था कि वह अपनी सारी योजनाएँ पूरी करेगा, और वह उस पर विश्वास करने के अलावा कुछ और कर भी नहीं सकती थी : हर कोई जानता था कि उसका संकल्प पत्थर की लकीर है। और हाँ, उसने अपनी पढ़ाई पूरी करने के इरादे से यूनिवर्सिटी में फिर से नाम लिखा लिया था। वे दोनों लगातार भविष्य की योजनाएँ बनाते रहते थे और दोनों ने साइबेरिया में बस जाने का पक्का इरादा कर लिया था। तब तक के लिए उनकी सारी उम्मीदें सोन्या के साथ जुड़ी हुई थीं...

रजुमीखिन और दूनिया को उनकी शादी पर अपना आशीर्वाद दे कर पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना बहुत खुश थीं लेकिन शादी के बाद वे और भी उदास और परेशान रहने लगीं। उनकी उदासी दूर करने के लिए रजुमीखिन ने उन्हें उस छात्र और उसके अपाहिज बाप के बारे में बताया, और यह भी कि साल भर पहले रस्कोलनिकोव किस तरह जलते हुए घर में से दो बच्चों को निकाल लाने में खुद बुरी तरह जल गया और घायल हो गया था। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना, जिनका दिमाग तो कुछ-कुछ खराब हो चला था, बेटे के बारे में नई बातें सुन कर खुशी से पागल हो उठती थीं। वे लगातार उसके बारे में बातें करती रहती थीं, यहाँ तक कि सड़क पर अजनबियों को रोक-रोक कर भी उनसे बातें करने लगती थीं। (वैसे दूनिया हमेशा उनके साथ रहती थी।) राह चलते या दुकानों में जो भी उनकी बातें सुनने को तैयार हो जाता, उसे वे पकड़ कर उससे अपने बेटे के बारे में, उसके लेख के बारे में बातें करने लगती थीं, यह भी कि उसने किस तरह एक गरीब छात्र की मदद की थी, किस तरह वह आग में जल गया था, और इसी तरह की न जाने कितनी दूसरी चीजों के बारे में, दूनिया की समझ में नहीं आता था कि उन्हें कैसे रोके। इस तरह की दिमागी उत्तेजना के अपने खतरे थे। उनके अलावा इस बात की भी संभावना थी कि किसी को रस्कोलनिकोव का नाम और उसके मुकद्दमे की याद आ जाए और वह उसके बारे में बातें करने लगे। दूनिया को लगता था कि उसकी माँ के स्वास्थ्य पर इसका घातक प्रभाव पड़ सकता है। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उन दोनों बच्चों की माँ का भी पता लगा लिया था, जिन्हें उनके बेटे ने बचाया था, और वे उससे मिलने जाने की जिद करती रहती थीं। आखिरकार उनकी चिंता अपने चरम पर जा पहुँची। कभी-कभी वे अचानक रोने लगती थीं। वे अकसर बीमार रहने लगीं, उन्हें तेज बुखार चढ़ जाता था और सरसाम हो जाता था।

एक दिन सुबह उन्होंने जोर दे कर ऐलान किया कि उनके हिसाब से रोद्या जल्दी ही घर लौट कर आनेवाला है। उन्होंने कहा कि उन्हें याद था, उनसे विदा होते समय उसने कहा था कि नौ महीने में उसके लौटने की उम्मीद की जा सकती है। वे फ्लैट की सफाई करने लगीं और अपने आपको उसकी वापसी के लिए तैयार करने लगीं। उसके लिए उन्होंने खुद ही अपना कमरा सजाना, फर्नीचर पर पालिश करना, पर्दे धोना और नए पर्दे टाँगना वगैरह शुरू कर दिया। दूनिया बहुत चिंतित थी, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं, बल्कि अपने भाई के लिए कमरा तैयार करने में उनका हाथ ही बँटाती रही। बेलगाम कल्पनाओं, सुखद सपनों और आँसुओं के साथ एक कष्ट भरा दिन बिताने के बाद रात को वे बीमार पड़ गईं। सबेरे उन्हें तेज बुखार चढ़ा और सरसाम हो गया। बुखार उनके दिमाग को चढ़ गया था। वे दो हफ्ते के अंदर चल बसीं। सरसाम की हालत में वे बीच-बीच में कुछ ऐसे शब्द बोल देती थीं जिनसे पता चलता था कि बेटे के भयानक अन्जाम के बारे में उन्हें कहीं उससे ज्यादा पता था जितना कि वे लोग सोचते थे।

रस्कोलनिकोव को अपनी माँ के मरने की खबर बहुत दिनों तक नहीं मिली, हालाँकि साइबेरिया पहुँचने के कुछ दिनों बाद से ही उसे नियमित रूप से पीतर्सबर्ग से खबरें मिलने लगी थीं। यह पत्र-व्यवहार सोन्या के माध्यम से होता था : वह हर महीने पीतर्सबर्ग में रजुमीखिन को पत्र लिखती थी और हर महीने उसके पास जवाब आ जाता था। शुरू में दूनिया और रजुमीखिन को सोन्या के पत्र बहुत नीरस और बेमजा लगते थे, लेकिन आखिर में वे दोनों इसी नतीजे पर पहुँचे कि उसके पत्र इससे बेहतर हो ही नहीं सकते थे, क्योंकि उनमें तो दूनिया के अभागे भाई की जिंदगी की पूरी तस्वीर होती थी। सोन्या के पत्रों में बेहद नीरस ब्यौर होते थे और जेल में रस्कोलनिकोव के जीवन की परिस्थितियों का एकदम स्पष्ट विवरण होता था। उनमें सोन्या की अपनी उम्मीदों या भविष्य के बारे में उसकी अपनी आशाओं का कोई बयान या स्वयं अपनी भावनाओं का कोई इजहार, नहीं होता था। साधारण ढंग से रस्कोलनिकोव की मानसिक दशा तथा उसके विचारों और भावनाओं के बयान की कोशिश करने की बजाय वह केवल तथ्य लिख कर भेजती थी। यानी उनमें उसके अपने शब्द होते थे और इन बातों का विस्तृत ब्यौरा होता था कि उसका स्वास्थ्य कैसा है, जब वह उससे मिलती है तब वह क्या पूछता है, वह उससे क्या करने को कहता है, वगैरह-वगैरह। वह ये सारी बातें काफी विस्तार से लिख भेजती थी।

लेकिन दूनिया और रजुमीखिन को इन खतों से कोई तसल्ली नहीं मिलती थी, खास तौर पर शुरू में। सोन्या लिखती थी कि वह उदास और चुप-चुप रहता था। हर बार उससे मिलने जाने पर सोन्या जब उसे घर का हाल बताती थी, तो वह कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता था। वह कभी-कभी माँ के बारे में पूछता था, और जब सोन्या ने यह देख कर कि उसे कुछ-कुछ शक होने लगा था, उसे आखिरकार माँ के मरने की बात बताई, तब उसे यह देख कर ताज्जुब हुआ कि यह खबर सुन कर भी उस पर कोई गहरा असर नहीं पड़ा - कम-से-कम उसने किसी तरह की कोई भावुकता नहीं दिखाई। सोन्या ने उन लोगों को यह भी लिखा कि देखने में वह खुद में ही बहुत ज्यादा खोया हुआ लगता था, लेकिन अपने नए जीवन की तरफ उसका रवैया एकदम सीधा था। उसे अपनी स्थिति के बारे में किसी तरह का भ्रम नहीं था, वह निकट भविष्य में हालात के किसी भी तरह से बेहतर होने की उम्मीद नहीं रखता था, उसके मन में कोई मूर्खतापूर्ण आशा नहीं थी (जो उसकी स्थिति में स्वाभाविक ही था), और लगता था उसे अपने नए परिवेश की किसी भी चीज पर कोई आश्चर्य नहीं होता था, हालाँकि यह परिवेश उन सब चीजों से एकदम भिन्न था, जिनसे वह अब तक परिचित था। उसने यह भी लिखा था कि उसका स्वास्थ्य संतोषजनक था। उसे काम पर बाहर भेजा जाता था पर वह न तो काम से जी चुराता था और न ही माँग-माँग कर काम लेता था। खाने की ओर से वह लगभग पूरी तरह उदासीन था। खाना भी इतवार को और छुट्टी के दिनों को छोड़ कर बाकी दिन इतना बुरा होता था कि आखिर में वह खुशी-खुशी सोन्या से कुछ पैसे लेने पर राजी हो गया था ताकि अपने लिए रोज खुद चाय बना लिया करे। जहाँ तक बाकी बातों का सवाल था, वह सोन्या से कह देता था कि वह उसकी चिंता न करे, क्योंकि उसे इस बात से भी उलझन होती थी कि कोई उसकी चिंता करे। सोन्या ने यह भी लिखा था कि जेल में वह दूसरे कैदियों के साथ एक बड़ी-सी बैरक में रहता था। सोन्या ने उन बैरकों को अंदर से तो नहीं देखा था लेकिन उसने यही नतीजा निकाला था कि वह जगह खचाखच भरी हुई, बहुत तकलीफदेह और गंदी होगी। उसने लिखा था कि वह लकड़ी के एक तख्त पर सोता था जिस पर एक कंबल बिछा रहता था और वह इसके अलावा कुछ और चाहता भी नहीं था। लेकिन तकलीफ और तंगी की हालत में वह इसलिए नहीं रह रहा था कि उसने ऐसी योजना बनाई थी या वह यही वह चाहता था, बल्कि इसलिए रह रहा था कि वह अपने अन्जाम से एकदम बेखबर और बेपरवाह था। सोन्या ने उनसे यह बात भी नहीं छिपाई कि खास तौर पर शुरू-शुरू में उससे मुलाकात के लिए उसके वहाँ आने में उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, बल्कि वह इस बात पर बहुत झुँझलाया था, बहुत ही कम बोल रहा था, और उसके साथ बड़ी रुखाई का बर्ताव कर रहा था। लेकिन अंत में सोन्या का उससे मिलने जाना रस्कोलनिकोव के लिए एक आदत और लगभग जरूरत जैसी चीज बन गई थी। इसलिए जब वह कुछ दिन बीमार रही और उससे मिलने नहीं जा सकी तो वह बहुत निराश हुआ था। वह उससे आम तौर पर इतवार और छुट्टी के दिन मिलती थी - या तो जेल के फाटक पर या गारद के कमरे में, जहाँ उसे उससे मिलने के लिए कुछ मिनट के वास्ते लाया जाता था। सप्ताह के बाकी दिनों में वह उससे कारखानों में, ईंटों के भट्ठों में या इर्तीश नदी के किनारे बने शेडों में मिलती थी, जहाँ वह काम करने जाता था। खुद अपने बारे में सोन्या ने यह लिखा था कि शहर में उसने कुछ लोगों से जान-पहचान पैदा कर ली थी और कुछ लोग उसका हाल जानने में दिलचस्पी भी लेने लगे थे। वह वहाँ सिलाई का काम करने लगी थी और चूँकि शहर में कोई पोशाक मिलनेवाला नहीं था इसलिए कई घरों में उसके बिना काम ही नहीं चलता था। जो बात उसने नहीं लिखी, वह यह थी कि उसी के असर से रस्कोलनिकोव को अधिकारियों की ओर से कुछ सुविधाएँ मिल गई थीं और उसे कम मेहनत का काम दिया जाता था। आखिरकार यह खबर पहुँची (दूनिया को पिछले कुछ खतों में ही एक असामान्य बेचैनी और फिक्र का एहसास होने लगा था) कि रस्कोलनिकोव सबसे अलग-थलग रहता था, कैदियों के बीच लोकप्रिय नहीं था, कई-कई दिनों तक बोलता नहीं था और बहुत पीला पड़ गया था। अचानक एक खत में सोन्या ने लिखा कि वह बहुत बीमार हो गया है और अस्पताल में कैदियों के वार्ड में भरती करा दिया गया है...