आख़िरी चट्टान तक / भाग 3 / मोहन राकेश

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बदलते रंगों में

सुबह कारवाडक़र मुझे 'साबरमती' में चढ़ा गया। दो बजे के लगभग स्टीमर का लंगर उठा और स्टीमर खुले समुद्र की तरफ़ बढऩे लगा। मैं उस समय एक तरफ़ तख़्तें पर बैठा मुँडेर पर बाँहें टिकाये पानी में बनती लहरों की जालियों को देख रहा था। पानी की सतह पर एक कार्ड तैर रहा था जिससे एक केंकड़ा चिपका था। लहरें कार्ड को स्टीमर की तरफ़ धकेल रही थीं, मगर केंकड़ा निश्चिन्त भाव से बैठा शायद अपनी नाव के स्टीमर से टकराने की राह देख रहा था। जब कार्ड स्टीमर के बहुत पास आ गया, तो स्टीमर के नीचे से कटते पानी ने उसे फिर परे धकेल दिया। केंकड़े ने अपनी दो टाँगें ज़रा-सी उठाकर फिर से कार्ड पर जमा लीं और उसी निश्चिन्त मुद्रा में बैठा गति का आनन्द लेता रहा।

जब तक स्टीमर हार्बर में था, तब तक समुद्र का पानी एक हरी आभा लिये था। पर स्टीमर खुले समुद्र में पहुँचने लगा,तो पानी का रंग नीला नज़र आने लगा। पीछे हार्बर में जापानी जहाज़ 'चुओ मारो' की चिमनियाँ नज़र आ रही थीं। हमारे एक तरफ़ खुला अरब सागर था और दूसरी तरफ़ भारत का पश्चिमी तट। तट से थोड़ा इधर पानी में दो छोटे-छोटे द्वीप दिखाई दे रहे थे जो दूर से बहुत कुछ जापानी घरों-जैसे ही लगते थे। इतनी दूर से देखते हुए पश्चिमी तट की रेखा एक बड़े से नक्शे की रेखा लग रही थी। बीच के दोनों द्वीपों से सफ़ेद समुद्र-कपोत उडक़र स्टीमर की तरफ़ आ रहे थे। उनमें से कुछ तो रास्ते में ही पानी की सतह पर उतर जाते थे और नन्हीं-नन्हीं काग़ज़ की नावों की तरह वहाँ तैरने लगते थे। दूसरी तरफ़ खुले पानी में सहसा एक तरह की हरियाली घुल गयी। मैं उस रंग को फैलते और धीरे-धीरे विलीन होते देखता रहा-जैसे कि समुद्र के मन में सहसा एक विचार उठा हो जो अब धीरे-धीरे उसके अवचेतन में डूबता जा रहा हो। मेरे साथ उसी तख़्तें पर बैठा एक नवयुवक भी उस हरियाली को घुलते देख रहा था। उसने मेरी तरफ़ मुडक़र कहा-”देखिए, ज़िन्दगी कितना बड़ा चमत्कार है!”

मैं कुछ न कहकर उसकी तरफ़ देखने लगा।

“आप जानते हैं, यह हरियाली क्या है?” वह बोला। “ये प्लैंटोंज़ है-तैरते हुए जीव। इनमें पौधे और मांसयुक्त प्राणी दोनों तरह के जीवाणु शामिल हैं।”

वह नवयुवक प्राणि-विज्ञान का विद्यार्थी था, और प्राणि-विज्ञान की दृष्टि से ही समुद्र को देख रहा था। विद्यार्थियों की एक पार्टी किसी शोध-प्रोजेक्ट के सिलसिले में गोआ आयी थी। वह उस पार्टी का एक सदस्य था। पानी की तरफ़ संकेत करके वह फिर बोला, “आप वह रस्सी देख रहे हैं?”

मुझे पहले कोई रस्सी नज़र नहीं आयी। पर कुछ देर ध्यान से देखने पर पानी की सतह के नीचे एक लहराती हुई काली लकीर दिखाई दे गयी।

“वह रस्सी ही है न?” उसने पूछा।

“हाँ, कोई पुरानी गली हुई रस्सी है”, मैंने कहा।

वह मुस्कराया। “नहीं, वह रस्सी नहीं है। वह भी एक जीव-समूह है।”

“जीव-समूह?”

“हाँ, जीव-समूह,” वह बोला। “इन्हें एसीडियन जर्म-परिवार कहते हैं। ये एक तरह की मछलियाँ हैं जो आपस में जुड़ी रहती हैं। ये रबड़ की तरह फैल सकती हैं, और काटने से ही अलग होती हैं। बाद में ये फिर उसी तरह जुडऩे और बड़ी होने लगती हैं।”

मैं ग़ौर से रस्सी को देखने लगा। प्राणि-विज्ञान का विद्यार्थी बोला, “यह समुद्र एक बहुत बड़ा जादूगर है। इसमें न जाने कितनी तरह के जादू छिपे हैं। रात को चाँद निकलने पर मैं आपको सोने-चाँदी और हीरे-मोतियों की मछलियाँ दिखाऊँगा।”

“सचमुच सोने-चाँदी की?”

वह हँसा और बोला, “असली सोने-चाँदी की नहीं,-केवल फ़ासफ़ोरस से चमकने वाली मछलियाँ।”

और पानी के जीवों के सम्बन्ध में और भी कितना कुछ वह मुझे बतलाता रहा। पर मेरा ध्यान थोड़ी देर में उसकी बातों से हटकर डेक की तरफ़ चला गया, क्योंकि वहाँ एक नवयुवक और एक नवयुवती के बीच हारमोनिका बजाने की प्रतियोगिता छिड़ गयी थी।

'साबरमती' का वह थर्ड क्लास का डेक किसी बड़े-से तबेले से कम नहीं था। सारे डेक पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिस्तर-ही-बिस्तर बिछे थे जो सब एक-दूसरे से सटे हुए थे। कहीं दस व्यक्तियों के परिवार को केवल चार बिस्तर बिछाने की जगह मिली थी और वे उन चार बिस्तरों में ही घिचपिच होकर सोने जा रहे थे। जहाँ मैंने अपना बिस्तर बिछा रखा था, वहाँ असुविधा और ज़्यादा थी क्योंकि स्टीमर का माल उसी हिस्से से चढ़ाया और उतारा जाता था। मेरे बिस्तर के एक तरफ़ एक लम्बे-तगड़े पादरी साहब का बिस्तर था और दूसरी तरफ़ पाँच नमाज़ पढऩेवाले एक मुसलमान सौदागर का। इस तरह मुझे दो धर्मों के बीच सैंडविच होकर रात बितानी थी। उस समय ज़्यादातर लोग अपने-अपने बिस्तरों पर ही बैठे थे। मेरी तरह कुछ थोड़े-से ही लोग थे जो एक तरफ़ तख़्तें पर बैठे दोनों दुनियाओं का मज़ा ले रहे थे।

हारमोनिका बजाने की प्रतियोगिता थोड़ी देर पहले शुरू हुई थी। नवयुवक एक तरफ़ के बिस्तरों का प्रतिनिधित्व कर रहा था, नवयुवती दूसरी तरफ़ के बिस्तरों का। पहले नवयवुती ने हारमोनिका पर एक फ़िल्मी धुन बजायी थी। उसके समाप्त होते-होते इधर से नवयुवक अपने हारमोनिका पर वही धुन बजाने लगा। उसके बजा चुकने पर इधर से उसे ज़ोर से दाद दी गयी। इस पर नवयुवती दूसरी धुन बजाने लगी। इस बार उसे उधर से जो दाद मिली, वह और भी ज़ोरदार थी। इससे यह प्रतियोगिता छिड़ गयी जो हारमोनिका की कम और दाद देने की प्रतियोगिता अधिक थी। जहाज़ के दूसरे हिस्सों से भी लोग आकर वहाँ जमा होने लगे थे। नवयवुक का पक्ष धीरे-धीरे बलवान् होता जा रहा था। अन्त में एक धुन बजाने पर उसे बहुत ही ज़ोर-शोर से दाद दी गयी, तो उसने खड़े होकर नवयुवती की तरफ़ देखते हएु अपने हैट को छूकर सलाम किया। इस पर उसे और भी ज़ोर से दाद दी गयी। नवयुवती ने उसके बाद और धुन नहीं बजायी।

स्टीमर कुछ देर के लिए कारवाड़ रुककर आगे बढ़ा, तो साँझ हो चुकी थी। पानी का रंग सुरमई हो गया था। दूर एक लाइट-हाउस की बत्ती दो बार जल्दी-जल्दी जलती फिर बुझ जाती। फिर दो बार जलती, फिर बुझ जाती। अँधेरा घिर रहा था। लाइट-हाउस से पीछे का आकाश रुपहला काला नज़र आने लगा था। आकाश के उस हिस्से के आगे लाइट-हाउस की बत्ती का जलना और बुझ जाना ऐसे लग रहा था जैसे कौंधती बिजली को एक मीनार में बन्द कर दिया गया हो और वह उस क़ैद से छूटने के लिए छटपटा रही हो-उसी तरह जैसे मलमल के आँचल में पकड़े जुगनू छटपटाते हैं। जिस द्वीप में लाइट-हाउस बना था, वह और उसके आस-पास के द्वीप स्याह पडक़र ऐसे लग रहे थे जैसे बाढ़ में डूबे बड़े-बड़े दुर्ग, या पानी के अन्दर से उठे जलचरों के देश।

पूर्वी आकाश में रात हो गयी थी और तारे झिलमिलाने लगे थे, पर पश्चिम की ओर अरब सागर के क्षितिज में अभी साँझ शेष थी। परन्तु साँझ के वे बादल जो कुछ देर पहले सुर्ख और ताँबई थे, और जिनके कारण सूर्यास्त सुन्दर लग रहा था,अब स्याही में घुलते जा रहे थे। समय साँझ के सौन्दर्य से आगे बढ़ आया था-रात के एक नये सौन्दर्य को जन्म देने के लिए।

स्टीमर बहुत डोल रहा था। डेक पर एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए कई-कई तरह नृत्य-मुद्राएँ बनाते हुए चलना पड़ता था। बहुत से लोग गोआ से अपने साथ छिपाकर शराब की बोतलें ले आये थे और उन्हे स्टीमर पर ही पी जाने की कोशिश में थे क्योंकि आगे भारतीय कस्टम्ज़ से फिर उन्हें छिपाने की समस्या थी। दो आदमी जो पी-पीकर धुत्त हो चुके थे, एक-दूसरे से और पीने का अनुरोध कर रहे थे। दोनों के दिमाग़ में यह बात समायी थी कि मुझे तो शराब चढ़ गया है,पर दूसरे को नहीं चढ़ी-इसलिए दूसरे को अभी और पीनी चाहिए। दोनों दलीलें दे-देकर एक-दूसरे को यह समझाने की चेष्टा कर रहे थे। एक को अपने कान जलते महसूस हो रहे थे, दूसरे को अपनी आँखें सुर्ख़ लग रही थीं। अन्त में दोनों ही अपने तर्क में सफल हुए क्योंकि दोनों ने और शराब ढाल ली। पास ही कुछ स्त्री-पुरुषों ने पीकर ताल देते हुए एक कोंकणी गीत गाना शुरू कर दिया था। ऐसे ही तरह-तरह के गीत स्टीमर के अलग-अलग हिस्सों में गाये जा रहे थे। मैंने कोशिश की कि कुछ देर सो रहूँ, पर एक तो वे आवाज़ें और दूसरे स्टीमर के डोलने का एहसास-मुझे ज़रा नींद नहीं आयी। कुछ देर लेटे रहने के बाद उठकर मैं फिर उसी तख़्तें पर जा बैठा। समुद्र में ज्वार आ रहा था। बड़ी-बड़ी लहरें किसी के उसाँस भरते वक्ष की तरह उठ-गिर रही थीं। जहाज़ के डोलने के साथ समुद्र की सतह के बहुत पास पहुँच जाना, फिर ऊपर उठना, और फिर नीचे जाना, बहुत अच्छा लग रहा था। बटकल में सामान उतारने के लिए जहाज़ तट से पाँच-छह मील इधर रुका और कुछ पाल वाले बेड़े सामान लेने के लिए वहीं आ गये। उनमें से एक का सन्तुलन ठीक नहीं था। हर ऊँची उठती लहर के साथ ऊपर उठकर जब वह नीचे आता, तो लगता कि बस अभी उलट जाएगा। सामान भरा जा चुका, तो वह उसी तरह एक तरफ़ को लचकता हुआ किनारे की तरफ़ बढऩे लगा। मुझे हर क्षण लग रहा था कि वह अब उलटा कि अब उलटा। पर मल्लाहों को इसकी चिन्ता नहीं थी। मैं तो उनके ख़तरे से ख़ासी उत्तेजना महसूस कर रहा था और वे थे कि आराम से चप्पू चलाये जा रहे थे। जब बेड़ा जहाज़ के पीछे से घूमकर दूसरी तरफ़ पहुँच गया, तो मैं भी उसे देखने के लिए उधर चला गया। पर हुआ कुछ भी नहीं-बेड़ा लहरों पर उठता-गिरता और उसी तरह एक तरफ़ को झुककर पानी को चूमता हुआ किनारे की तरफ़ बढ़ता चला गया।

प्राणि-विज्ञान का विद्यार्थी शाम से ही सोने-चाँदी की मछलियाँ मुझे दिखाने के लिए परेशान था। स्टीमर के अलग-अलग हिस्सों में जाकर और अलग-अलग कोण से झाँककर वह कहीं पर उनकी झलक पा लेने का प्रयत्न कर रहा था। पर अन्त तक उसे सफलता नहीं मिली थी। लेकिन स्टीमर बटकल से चला, तो मेरे सामने सहसा चमकीले जीवों से भरी एक नदी-सी चली आयी। चाँद स्टीमर के इस तरफ़ आ गया था और जहाँ उसकी किरणें सीधी पड़ रही थीं, वहाँ असंख्य सुनहरी मछलियाँ काँपती दिखाई दे रही थीं। पर फ़ासफ़ोरस से चमकने वाली मछलियाँ वे नहीं थीं-लहरों पर चाँदनी के स्पर्श से बनती मछलियाँ थीं। आगे जहाँ स्टीमर की नोंक लहरों को काट रही थी, वहाँ फेन की एक नदी बन रही थी जो हलके आवर्तों में बदलकर पानी के मरुस्थल में विलीन होती जा रही थी।

रात के दो बज चुके थे। मैं उसी तरह तख़्तें पर बैठा था। ज़्यादातर लोग सो चुके थे। कुछ लडक़े सोनेवालों के पास जा-जाकर ऊधम मचाते हुए नाविकों के गीत गा रहे थे।

मैं भी उठा और जाकर बिस्तर पर लेट गया। लडक़ों के शोर के बावज़ूद वातावरण में एक निस्तब्धता प्रतीत हो रही थी। स्टीमर के इंजन का शोर भी जैसे शोर नहीं था। समुद्र का गर्जन भी उस निस्तब्धता का ही एक भाग था। सब-कुछ ख़ामोश था। स्वयं रात भी जैसे सो रही थी पर मेरी आँखों में नींद नहीं थी। मैं खुली आँखों से सिर पर झूलते आकाश को देख रहा था और सोच रहा था कि ऐसे में अपलक ऊपर को देखते जाना भी क्या एक तरह की नींद नहीं है?

हुसैनी

हुसैनी एक ताश कम्पनी का एजेंट था जिससे मेरा परिचय स्टीमर पर हुआ।

स्टीमर की कैंटीन में मैं शाम को खाना खाने गया था। कैंटीन खचाखच भरी थी। जिस मेज़ पर मैं खाना खा रहा था, उस पर तीन व्यक्ति और थे। उनमें से जो व्यक्ति मेरे सामने बैठा था, वह इस सफ़ाई से चावलों के गोले बना-बनाकर फाँक रहा था कि उसके हस्त-लाघव पर आश्चर्य होता था। उसकी उँगलियाँ केले के पत्ते पर इस तरह चल रही थीं, जैसे उसका वास्तविक उद्देश्य पत्ते को चमका देना हो। शेष दोनों व्यक्ति आमने-सामने बैठे खाना खाने के साथ आपस में बात कर रहे थे-अगर एक के बोलने और दूसरे के सुनने को बात करना कहा जा सकता है। बोलने वाला गोरे रंग और छरहरे शरीर का नवयुवक था जिसने पतली-पतली मूँछें शायद इसलिए पाल रखी थीं कि उसके चेहरे पर कुछ तो पुरुषत्व दिखाई दे। सुननेवाला छोटे क़द और साँवले रंग का व्यक्ति था जिसके चेहरे की हड्िडयाँ बाहर को निकल रही थीं।

नवयुवक अपनी पतली उँगलियों से चावलों के गिने हुए दाने उठाकर मुँह में डालता हुआ सन्तति-निरोध पर भाषण दे रहा था। दूसरा व्यक्ति बीच में कुछ कहने के लिए उसकी तरफ़ देखता, पर फिर चुप रहकर उसे अपनी बात जारी रखने देता। नवयुवक काफ़ी उत्तेजित होकर कह रहा था कि एक आम हिन्दुस्तानी को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं है-उसका जीवन स्तर इतना हीन है कि आबादी बढ़ाने की जगह उसे दूसरी तरह के उत्पादनों में अपनी शक्ति लगानी चाहिए।

वह बीच में पानी पीने के लिए रुका, तो दूसरा व्यक्ति अपनी छोटी-छोटी आँखें उठाकर ध्यान से उसे देखता हुआ अपने बढ़े हुए दाँतों को उघाडक़र मुस्कराया और बोला, “तुम बहुत समझदारी की बात कह रहे हो बरख़ुरदार! तुम्हारी सूझ-बूझ देखते हुए मुझे तुमसे हसद हो रहा है।” कहते हुए उसकी आँखों में ख़ास तरह की चमक आ गयी। “तुम्हारा बाप बहुत ख़ुशक़िस्मत आदमी है जो तुम्हारे-जैसा होनहार, अक़्लमन्द और ख़ूबसूरत बेटा उसे मिला है। शुक्र है ख़ुदा का कि वह तुम्हारे बताये असूल पर नहीं चला। अगर वह भी इस असूल पर चला होता, तो कहाँ यह सूरत होती, कहाँ यह दिमाग़ होता और कहाँ ये अक़्ल की बातें होतीं!” अपनी बात पूरी करके वह एक बार खुलकर हँसा। मैं भी साथ हँस दिया। इस पर उसने मेरी तरफ़ देखकर सिर हिलाया और कहा, “क्यों साहब, क्या ख़याल है?”

यह हुसैनी से मेरे परिचय की शुरुआत थी।

कुछ देर बाद मैं डेक के तख़्तें पर बैठा समुद्र की तरफ़ देख रहा था, तो किसी ने पीछे से आकर मेरे कन्धे पर हाथ रखा। मैंने चौंककर उधर देखा, तो हुसैनी मुसकराता हुआ बोला, “क्यों साहब, अँंधेरे में भी आइडिया चलता है क्या?”

मैं तख़्तें पर थोड़ा एक तरफ़ को सरक गया। वह पास बठता हुआ बोला, “अभी थोड़ी देर में चाँद निकलेगा, तब तो आइडिया अपने-आप चलेगा। मगर यार, अँधेरे में भी आइडिया चलाते जाना काफ़ी मुश्किल का काम है।” मैं एक लेखक हूँ, यह मैं पहले उसे बता चुका था।

“उसे कहाँ छोड़ आये?” मैंने पूछा।

“वह तो वहीं ट्रम्प हो गया था। उसके बाद नहीं मिला।”

और वह मुझसे बहुत घनिष्ठ ढंग से बात करने लगा। वह उन व्यक्तियों में से था जिनको दूसरों के साथ व्यवहार में किसी तरह का संकोच नहीं होता और जो दूसरे के मन में भी अपने प्रति किसी तरह का संकोच नहीं रहने देते। वह बेतकल्लुफ़ी से अपना हाथ मेरे कन्धे पर चलाता हुआ मुझे बताने लगा कि जहाज़ के किस-किस हिस्से में स्त्रियों और पुरुषों के बीच क्या-क्या तमाशा चल रहा है। अचानक अपनी बात रोककर उसने मेरे कन्धे को ज़ोर से झिंझोड़ दिया और ऊपर टूरिस्ट क्लास के रेलिंग की तरफ़ इशारा किया। वहाँ से कुछ युवक-युवतियाँ नीचे डेक की तरफ़ झाँक रहे थे और साथ-साथ लगे बिस्तरों पर रिमार्क कसते हुए हँस रहे थे। एक युवक अपना कैमरा आँख से लगाकर तस्वीर का फ्रेम सेट कर रहा था।

“देखो ये साले कैसे एक्का-बादशाह-ग़ुलाम की बाज़ी खेल रहे हैं।” हुसैनी कुछ पल उनकी तरफ़ देखते रहने के बाद दाँत उघाडक़र बोला।

“एक्का-बादशाह-ग़ुलाम की बाज़ी?” बात मेरी समझ में नहीं आयी। उसकी भाषा के ज़्यादातर मुहावरे ताश से सम्बन्ध रखते थे जो उसकी अपनी ही ईजाद थे।

“फ़्लैश खेलते हो?” उसने पूछा।

मैंने सिर हिलाकर हामी भर दी।

“तो तुम समझ नहीं पाये कि एक्का-बादशाह-ग़ुलाम की बाज़ी का क्या मतलब है? तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें, पर कुल मिलाकर कुछ भी नहीं। बात करते हुए उसकी आँखों में फिर वही चमक आ गयी। “इन सालों की ज़िन्दगी भी बस ऐसी ही है। अपने हाथ-पल्ले कुछ है नहीं, हम दुक्के-चौके-पंजे वालों को अपना एक्का-बादशाह-ग़ुलाम दिखाकर रौब डाल रहे हैं। आख़िर हालत इनकी भी वही होगी जो दुक्के-चौके-पंजे वालों की। सिर्फ़ ये लोग ज़रा पिटकर अपनी जगह पर आएँगे!” और मेरे कन्धे को फिर से हाथ का निशाना बनाते हुए उसने कहा, “है नहीं ट्रम्प?”

“ट्रम्प तो ज़ोरदार है,” मैंने कहा, “पर हर ट्रम्प इस तरह मेरे कन्धे पर मत लगाओ।”

“बातें तुम भी मज़ेदार करते हो,” उसने हँसकर कहा और एक हाथ मेरे कन्धे पर और लगा दिया।

मंगलूर में हम एक ही होटल में ठहरे। वह एक छोटा-सा ब्राह्मण-होटल था। हुसैनी अक्सर वहीं ठहरता था। उस होटल में मैंने एक यज्ञोपवीत-धारी महाराज को हुसैनी का जूठा गिलास उठाते देखा, तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। मेरा ख़याल था कि दक्षिण के ब्राह्मण बहुत कट्टर होते हैं और छुआछूत का बहुत ध्यान रखते हैं। पहले मैंने सोचा कि शायद महाराज को पता ही न हो कि हुसैनी मुसलमान है। पर थोड़ी देर में महाराज उसका नाम पुकारता हुआ आया, तो मुझे अपना ख़याल बदल लेना पड़ा।

उस एक-डेढ़ दिन में ही मैं हुसैनी के बारे में काफ़ी कुछ जान गया था। वह कलकत्ता के नक़ली मोतियों के व्यापारी का लडक़ा था। शुरू में कई साल वह अपने पिता के साथ काम करता रहा था। पर एक बार जब पिता ने उससे लडक़र यह ताना दिया कि वह उन्हीं के आसरे रोटी खाकर जी रहा है, तो वह उसी समय दुकान से उतर आया और लौटकर वहाँ नहीं गया। तब वह अकेला नहीं था-उसकी पत्नी और दो बच्चे भी थे। उसे उनसे बहुत प्यार था और वह उनके लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा सुविधाएँ जुटाना चाहता था। पर वह ज़्यादा शिक्षित नहीं था और न ही उसके पास अपना व्यापार करने के लिए पैसा था। कुछ दिन तो वह कलकत्ते में ही एक जगह नौकरी करता रहा जहाँ से महीने के उसे कुल साठ रुपये मिलते थे। उतने से रोटी का ख़र्च भी ठीक से नहीं चल पाता था। उसे यह देखकर दु:ख होता था कि बच्चे दिन-ब-दिन पीले पड़ते जा रहे हैं और पत्नी का शरीर बाईस साल की उम्र में ही अपनी चमक खो रहा है। इसलिए जब ताश कम्पनी की यह नौकरी मिलने को हुई तो उसने बग़ैर शशोपंज के इसे स्वीकार कर लिया। इसमें वह कुल मिलाकर महीने में दो-सवा-दो सौ रुपये कमा लेता था। पर साल में ग्यारह महीने उसे सफ़र में रहना पड़ता था। कभी-कभी तो वह लगातार आठ-आठ महीने घर से बाहर रहता था। इसी वजह से यह काम उसे पसन्द नहीं था। वह हमेशा इस दुविधा में रहता था कि घर वालों के पास रहकर अभाव की ज़िन्दगी बिताना ज़्यादा अच्छा है, या उनसे दूर रहकर थोड़ी-बहुत सुविधाएँ जुटा पाना। उसकी पत्नी चाहती थी कि वह घर पर ही रहे-उन्हें चाहे कैसा भी जीवन व्यतीत करना पड़े। वह भी बहुत बार यही सोचता था, और दौरे के दिनों में इसका निश्चय भी कर लेता था। पर घर पहुँचकर देखता कि बच्चों का स्वास्थ्य पहले से अच्छा हो रहा है और पत्नी के शरीर में भी निखार आ रहा है, तो उसका मन फिर डाँवाडोल हो जाता। वह सोचता कि क्या यह उचित होगा कि वह अपनी तकलीफ़ से बचने के लिए बच्चों के स्वास्थ्य और पत्नी के सौन्दर्य को मिट्टी में मिल जाने दे? तब वह हर तरह के तर्क देकर और भविष्य की कई-कई योजनाएँ बनाकर फिर घर से निकल पड़ता। इस बार उसे कलकत्ते से चले लगभग चार महीने हो चुके थे। वापस लौटने से पहले अभी साढ़े तीन-चार महीने और उसे दक्षिण भारत में घूमना था।

“ऐसी ज़िन्दगी जीने के लिए सचमुच बहुत धीरज चाहिए,” मैंने उसकी बात सुनकर कहा।

“पहले तो कई बार मन बहुत परेशान हो जाता,” वह बोला। “पर अब मैंने अपने को ख़ुश रखने का एक तरीका सीख लिया है, और वह है ख़ुश रहना। जब कभी मन उदास होने लगता है, तो मैं जिस-किसी के पास जाकर मज़ाक़ की दो बातें कर लेता हूँ। वह मुझे हँसोड़ समझता है और मेरी तबीयत बहल जाती है। फिर भी कभी-कभी बहुत मुश्किल हो जाता है।”

हुसैनी की ख़ुशदिली में सन्देह नहीं था। उसे अपने आसपास हमेशा कुछ-न-कुछ ऐसा दिखाई दे जाता था जिस पर वह कोई चुस्त-सा फ़िकरा कस सके। शाम को मंगलूर में एक नया होटल खुल रहा था जिसका उद्घाटन करने मैसूर के राजप्रमुख आ रहे थे। जब राजप्रमुख की कार आयी, तो बाज़ार में कई व्यक्तियों की भीड़ कार के आसपास जमा हो गयी। हुसैनी मुझसे बोला, “पता है ये लोग भाग-भागकर क्या देख रहे हैं? देख रहे हैं कि राजप्रमुख की कार भी पहियों पर ही चलती है या हवा में उड़ती है। जब देखते हैं कि उसके नीचे भी पहिये लगे हैं, तो बहुत हैरान होते हैं।”

“हँसने के लिए इनसान को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं,” उसने चलते हुए कहा। “आज की दुनिया में इनसान को कहीं भी हँसने का सामान मिल सकता है। अगर मंगलूर का एक जौहरी अपनी दुकान में सोने-चाँदी के साथ मौसम्बियाँ भी बेचता है, तो सिर्फ़ इसीलिए कि मेरे-जैसा आदमी राह चलते रुककर एक बार ज़ोर से ठहाका लगा सके।”

मंगलूर में अधिकांश घर हरियाली के बीचोंबीच इस तरह बने हैं कि उसे एक उफान-नगर कहा जा सकता है। सुरुचि और सादगी, ये दोनों विशेषताएँ वहाँ के घरों में हैं। इससे साधारण से घर भी साधारण नहीं लगते। घूमते हुए हम लोग एक छोटी-सी पहाड़ी पर चले गये। वहाँ से शहर का रूप कुछ ऐसा लगता था जैसे घने नारियलों की एकतारन्यता को तोडऩे के लिए ही कहीं-कहीं सडक़ें और घर बना दिये गये हों। दूर समुद्र की तट-रेखा दिखाई दे रही थी। मैं पहाड़ी के एक कोने में खड़ा देर तक शहर के सौन्दर्य को देखता रहा। शुरू से उत्तर भारत के घुटे हुए तंग शहरों में रहने के कारण वह सब मुझे बहुत आकर्षक लग रहा था। जब मैं चलने के ख़याल से वहाँ से हटा, तो देखा कि हुसैनी पहाड़ी के दूसरे सिरे पर जाकर एक पत्थर पर बैठा उदास नज़र से आसमान को ताक रहा है। उसका भाव कुछ ऐसा था कि मैंने सहसा उसे बुलाना ठीक नहीं समझा। क्षण-भर हुसैनी ने मेरी तरफ़ देखा और देखते ही आँखें दूसरी तरफ़ हटाकर बोला, “तुम यहाँ से अकेले होटल वापस जा सकते हो?”

“क्यों,”

“तुम नहीं चल रहे?” मैंने पूछा।

“मैं ज़रा देर से आऊँगा,” वह उसी तरह आँखें दूर के एक पत्थर पर गड़ाये रहा।

“तो जब भी तुम चलोगे, तभी मैं भी चलूँगा,” मैंने कहा। “मुझे वहाँ जल्दी जाकर क्या करना है?”

“नहीं,” वह बोला। “अच्छा है तुम अकेले ही चले जाओ। मैं कह नहीं सकता मुझे लौटने में अभी कितनी देर लगे।”

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसका भाव एकाएक ऐसा क्यों हो गया है। पर मैंने उससे इस विषय में पूछना उचित नहीं समझा और उसे उसी तरह बैठे छोडक़र वहाँ से चला आया। होटल में आकर खाना खाया और फिर से घूमने निकल गया। जब वापस पहुँचा, तब भी हुसैनी नहीं आया था। मैं अपने कमरे में बैठकर कुछ देर एक उपन्यास के पन्ने पलटता रहा। दस बजे के क़रीब सोने से पहले मैंने फिर एक बार उसके कमरे की तरफ जाकर देख लिया। वह तब भी नहीं आया था। एक बार मन हुआ कि उसी पहाड़ी पर जाकर देख आऊँ, पर कुछ तो यह सोचकर कि इतनी रात तक वह वहाँ नहीं हो सकता, और कुछ आँखों में भरी नींद के कारण मैंने यह ख़याल छोड़ दिया और अपने कमरे में आकर लेट गया। लेटने पर कुछ देर लगता रहा कि मेरा पलँग स्टीमर की तरह डोल रहा है। फिर धीरे-धीरे मुझे नींद आ गयी।

मुझे सोये अभी थोड़ी ही देर हुई थी, जब दरवाज़े पर हल्की दस्तक सुनाई दी। मैं चौंककर उठ बैठा। बत्ती जलाकर दरवाज़ा खोला, तो सामने हुसैनी खड़ा था।

उसका चेहरा काफ़ी बदला हुआ था। आँखें लाल थीं और भाव ऐसा जैसे किसी अपराध में पकड़े जाने पर बाँह छुड़ाकर भाग आया हो। मैंने सोचा कि वह शायद शराब पीकर आया है। पर वह शराब पीकर नहीं आया था।

“माफ़ करना, मैंने तुम्हारी नींद ख़राब की है,” उसने ओछा पड़ते हुए कहा। “वैसे माफ़ी तो मुझे उस वक़्त के लिए भी माँगनी चाहिए, पर इस तरह तकल्लुफ़ बरतने लगूँगा तो असली बात पर नहीं आ सकूँगा। मैं इस वक़्त तुमसे एक मदद चाहता हूँ।”

“बताओ, क्या बात है?” मैं बाहर निकल आया। “तुम ऐसे क्यों हो रहे हो?”

“ख़ास बात कुछ भी नहीं है। तुम कपड़े बदल लो और मेरे साथ कुछ दूर घूमने चलो।”

“बस इतनी-सी ही मदद चाहिए?”

“हाँ, तुम इतनी-सी ही समझ लो।”

मैंने कपड़े पहनकर दरवाज़े को ताला लगाया और उसके साथ चल पड़ा। सडक़ पर आकर वह बोला, “बताओ, किस तरफ़ चलें?”

मैं बिल्कुल नहीं समझ पा रहा था। वह ख़ुद तो मुझे लेकर आया था और मुझी से पूछ रहा था-”किस तरफ़ चलें।”

“तुम जिस तरफ़ भी चलना चाहो,” मैंने कहा।

“नहीं,” वह बोला। तुम जिस तरफ़ कहो, उसी तरफ़ चलते है। मैं इस वक़्त तुम्हारी मरज़ी से चलना चाहता हूँ। मेरी अपनी मरज़ी कुछ नहीं है।”

“तो किसी पार्क में चलें?”

“तो ठीक है किसी पार्क में चलते हैं। यहाँ के रास्ते मैं नहीं जानता, इसलिए ले चलना तुम्हीं को होगा।”

कुछ देर हम चुपचाप चलते रहे। उस-जैसा जीवन व्यतीत करनेवाले व्यक्ति की ऐसी मन:स्थिति अस्वाभाविक नहीं था। परन्तु किस विशेष कारण से वह एकाएक ऐसा हो गया है, उसका मैं अनुमान नहीं लगा पा रहा था।

पार्क में पहुँचकर हम एक जगह घास पर बैठ गये। मैंने उससे कुछ नहीं पूछा। कुछ देर बाद वह ख़ुद ही बोला, “देखो दोस्त, मेरे इस अटपटेपन का बुरा नहीं मानना। मैं रास्ते में सोचता आ रहा था कि तुम मुझसे इस सनक की वजह पूछोगे, तो मैं क्या बताऊँगा। असल बात मैं नहीं बताना चाहता था। पर तुमने कुछ नहीं पूछा, इसलिए मैं अब तुमसे वह बात छिपाकर नही रख सकता।”

वह बाँहें पीछे फैलाकर बैठ गया। आँखें उस कोण पर रखकर जहाँ से कि वह मेरे सिर से ऊपर-ही-ऊपर देख सकता था,धीरे-धीरे कहने लगा, “तुमने देखा था उस वक़्त पहाड़ी पर बैठे हुए मेरी तबीयत एकाएक बहुत उदास हो गयी थी। वैसे यह कोई नयी चीज़ नहीं है, बहुत बार मेरे साथ ऐसा होता है। जब मुझे घर से निकले दो-तीन महीने हो जाते हैं,तो अक़्सर इस तरह के मौक़े आने लगते हैं। मेरा काम घूमकर ऑर्डर लेने का है और जिस किसी शहर में मैं जाता हूँ, वहाँ चार-पाँच बजे तक सौदागरों से मिलकर अपना काम पूरा कर लेता हूँ। शाम को मैं बिल्कुल अकेला पड़ जाता हूँ, और अकेला ही कहीं इधर-उधर घूमने निकल जाता हूँ।”

उसने आँखें एक बार नीचे लाकर मुझे देखा, फिर उन्हें उसी कोण पर रखकर बोला, “ऐसे में मेरी हमेशा यही कोशिश रहती है कि मैं लोगों के बीच में रहूँ, किसी ऐसी ही जगह जाऊँ जहाँ चार आदमी और भी हों। पर कभी-कभी जान-बूझकर मैं किसी अकेली जगह पर चला जाता हूँ, और वहाँ यही उदासी मुझे घेर लेती है। क्यों मेरी ऐसी ख़्वाहिश होती है और क्यों मैं जान-बूझकर ऐसी जगह जाता हूँ, मैं नहीं जानता। शायद ऐसे मौक़े पर उदास होकर ही मुझे कुछ राहत मिलती है। मैं बैठकर कई-कई घंटे सोचता रहता हूँ और सोचते हुए मुझे लगता है कि मेरी ज़िन्दगी का कोई मतलब नहीं है। मैं रात-दिन बसों-गाडिय़ों में सफ़र करता हूँ, घटिया होटलों का गन्दा खाना खाता हूँ, और मेरे नसीब में इतना सुख भी नहीं बदा कि अपनी शामें ही चन्द दोस्तों या अपने घर के लोगों के बीच बिता सकूँ। बीवी-बच्चों की मुहब्बत भी मेरे लिए जैसे एक ख़याली-सी चीज़ है। और इस सबके बारे में सोचते हुए मन इतना परेशान हो उठता है कि मैं अपने-आपसे भाग खड़ा होना चाहता हूँ। आज शाम उस पहाड़ी पर बैठा हुआ मैं यही सोच रहा था कि शाम-भर के लिए एक आदमी को मैं अपना साथी बनाता हूँ, उसके साथ कुछ वक़्त बिताकर मुझे ख़ुशी हासिल होती है, पर आनेवाली दूसरी शाम के लिए मैं उसके साथ की उम्मीद नहीं कर सकता। आज तुम मेरे साथ हो, पर कल मैं चिकमंगलूर चला जाऊँगा और तुम कनानोर। एक बार की बात हो तो आदमी बर्दाश्त भी कर ले। पर मेरी तो रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी ही यह है। इसके अलावा...।”

उसने फिर एक बार मेरी तरफ़ देखा और पलकें झुकाकर घास पर आँखें टिकाये बोला, “इसके अलावा एक बात और भी है। मैं अपनी बीवी से बहुत मुहब्बत करता हूँ और जानता हूँ कि वह भी मुझसे उतनी ही मुहब्बत करती है। फिर भी...।”

वह बोलते-बोलते रुक गया। मैं चुप रहकर उसकी तरफ़ देखता रहा। कुछ देर असमंजस में रहकर कि आगे बात करें या नहीं, वह बोला, “तुम समझ ही सकते हो इतना-इतना अरसा घर से दूर रहकर आदमी कैसा महसूस कर सकता है-ख़ास तौर से जब उसे इस तरह की अकेली ज़िन्दगी बसर करनी पड़ती हो। मुझे कभी-कभी अपनी नसों में एक तूफ़ान-सा उठता महसूस होता है। उस वक़्त मुझे लगता है कि मेरी सूरत एक पागल की-सी नज़र आ रही होगी। मेरे मन में कई तरह के ख़याल उठने लगते हैं। कभी सोचता हूँ कि यह सिर्फ़ एक जिस्मानी ज़रूरत है जिसे पूरी कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं। फिर सोचता हूँ कि जिस्मानी ज़रूरत सिर्फ़ मरद को ही नहीं, औरत को भी तो उसी तरह महसूस होती है। ऐसे में मेरे मन में यह सवाल शैतान की तरह सिर उठाने लगता है कि जब मरद के लिए इस ज़रूरत पर क़ाबू पाना इतना मुश्किल है, तो औरत के लिए भी क्या वैसा ही नहीं होगा? और तब मेरे दिमाग़ पर हथौड़े चलने लगते हैं कि मुझे क्या पता है, मैं कैसे कह सकता हूँ? मैं जानता हूँ कि यह फ़क़त मेरे अन्दर की कमज़ोरी है। मेरी बीवी मुझसे बेहद प्यार करती है और जब भी मैं घर जाता हूँ, हमेशा यही कहती है कि मैं यह नौकरी छोड़ दूँ, और बच्चों के पास घर पर ही रहूँ। फिर भी मैं अपने वहम से बच नहीं पाता। मैं जितना अपने को ऐसे ख़यालात के लिए कोसता हूँ, ये उतना ही मुझे और तंग करते हैं।

“आज तुम्हारे चले आने के बाद मैं काफ़ी देर वहाँ बैठा रहा। यही परेशानी फिर मेरे दिमाग़ में घर किये थी। जब वहाँ से चला, तो ख़याल था कि खाने के वक़्त तक होटल में पहुँच जाऊँगा। पर रास्ते में एक आदमी धीमी आवाज़ में कुछ कहता मेरे पास से निकला। मैं समझ गया कि वह किसी छोकरी का दलाल है। अपने दिमाग़ पर से मेरा क़ाबू उठने लगा। मैंने रुककर पीछे की तरफ़ देखा। वह आदमी लौटकर मेरे पास आ गया। मैंने उससे बात की। वह कहने लगा कि एक प्रायवेट लडक़ी है, पाँच रुपये लेगी। मैं उसके साथ चल दिया। वह मुझे कई सडक़ों से घुमाकर एक कच्चे रास्ते से नीचे ले गया। वहाँ दो-तीन झोंपडिय़ाँ थीं। उनमें से एक के अन्दर हम पहुँच गये। अन्दर लालटेन की रोशनी में एक जवान औरत अपने बच्चे को खाना खिला रही थी। मुझे देखकर वह उठ खड़ी हुई। वह आदमी अपनी ज़बान में उससे बात करने लगा। पर तभी मेरी आँखों के सामने अपने घर का नक्शा घूम गया। मुझे ख़याल आने लगा कि मेरी बीवी तो शायद इस वक़्त वहाँ ख़ुदा से मेरी सलामती की दुआ माँग रही होगी, और मैं यहाँ इस तरह अपने को ज़लील करने जा रहा हूँ। फिर मैंने उस घर की मुफ़लिसी को देखा और मुझे अपने मुफ़लिसी के दिन याद आने लगे। मेरे साथ आया दलाल बच्चे को और उसकी थाली को उठाकर बाहर जाने लगा, तो मैंने उससे कहा कि वह बच्चे को वहीं रहने दे-पहले बाहर चलकर मेरी बात सुन ले। वह इससे थोड़ा हैरान हुआ,पर बिना कुछ कहे मेरे साथ बाहर आ गया। बाहर आकर मैंने उससे कहा कि मुझे वह लडक़ी पसन्द नहीं है और कहते ही झट से वहाँ से चल पड़ा। वह आदमी पक्की सडक़ तक मेरे पीछे-पीछे आया। कहता रहा कि मैं पाँच नहीं देना चाहता तो चार ही रुपये दे दूँ, चार नहीं तो तीन ही दे दूँ-पर मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया।

“पक्की सडक़ पर आकर मैं बिना रास्ता जाने एक तरफ़ को चलने लगा। मेरा पहले भी ऐसे दलालों से वास्ता पड़ा है, पर मेरा ख़ुदा जानता है कि पहले कभी मैं इस हद तक आगे नहीं गया। मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया, तो वह आदमी नाराज़ होकर लौट गया। मुझे उस वक़्त अपने से नफ़रत हो रही थी। सोच रहा था कि अगर मेरी ज़िन्दगी भी उसी मुफ़लिसी और तंगहाली में बीतती, तो क्या कहा जा सकता है कि मेरे घर में आज क्या हो रहा होता? अब चाहे कितनी भी परेशानी है, पर वह तंगहाली तो नहीं है। किसी तरह शराफ़त की ज़िन्दगी तो जी रहे हैं। लेकिन कुछ दूर आकर मेरे दिमाग़ में फिर वही बात सिर उठाने लगी कि आख़िर मैं उस हद को हाथ तो लगा ही आया हूँ-क्या मर्द जिस हद तक जा सकता है, औरत उस हद तक नहीं जा सकती? इससे फिर वही ख़याली बवंडर मेरे दिमाग़ में उठने लगा कि मुझे क्या पता है, मैं कैसे कह सकता हूँ? तब मेरा मन होने लगा कि लौट चलूँ। अभी थोड़ा ही रास्ता आया हूँ, लौटकर वह घर ढूँढ़ सकता हूँ। एक बार मेरे क़दम उस तरफ़ को मुड़े भी। पर तभी मैंने एक गुज़रते ताँगे को रोक लिया और उसे अपने होटल का नाम बता दिया। ताँगे में बैठे हुए भी मन होता रहा कि उसे रोककर उतर जाऊँ, या वापस उसी तरफ़ ले चलूँ। पर ताँगा धीरे-धीरे दूर निकल आया और कुछ ही देर में होटल के बाहर आ उतरा।

“होटल में आकर भी मैं अपने दरवाज़े के बाहर खड़ा एक मिनट सोचता रहा। एक मन था कि दरवाज़ा न खोलूँ और वापस चला जाऊँ। वह घर नहीं तो और घर सही। पूछनेवाले कई दलाल मिल जाएँगे। पर दूसरा मन मुझे धकेलकर तुम्हारे दरवाज़े के बाहर ले गया और मैंने दरवाज़ा खटखटा दिया। उसके बाद से तुम्हारे साथ हूँ।”

उसकी आँखों में उस घटना की छाया अब भी मँडरा रही थी। मैं उसका ध्यान बँटाने के लिए और-और विषयों पर बात करने लगा।

हम काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। उससे पहली रात स्टीमर में ठीक से नहीं सो पाया था, इसलिए मेरी आँखें नींद से झिपी जा रही थीं। कुछ देर बाद उसे थोड़ा स्वस्थ पाकर मैंने उससे वापस चलने का प्रस्ताव किया। हुसैनी आँखें झपकाता चुपचाप उठ खड़ा हुआ और मेरे साथ चल दिया। रास्ते में वह मुझसे थोड़ा आगे-आगे चलता रहा-जैसे कि अब भी अपना पीछा करती किसी चीज़ से बचना चाह रहा हो।

सुबह जब मैं सोकर उठा, ग्यारह बज चुके थे। हुसैनी नहाकर गुसलख़ाने से लौट रहा था। मुझे देखकर वह मुस्करा दिया। उसके चेहरे पर हमेशा का ख़ुशदिली का भाव लौट आया था।

“नींद पूरी हो गयी?” खिडक़ी के जँगले से अन्दर देखते हुए उसने पूछा।

“हाँ, हो ही गयी।”

“तो नहाकर तैयार हो जाओ। आज मैं तुम्हारी दावत कर रहा हूँ।”

मैं पल-भर उसे देखता रहा। फिर मैं भी मुस्करा दिया। “उन पाँच रुपयों की?'3 मैंने पूछा।

“नहीं,” वह अपने उभरे दाँत उघाडक़र बोला। “वे पाँच रुपये तो मिठाई के लिए घर बीवी को भेज रहा हूँ। दावत का एक रुपया तुम्हारा नज़राना है। नहा लो, तो उधर मेरे कमरे में आ जाना।” और आँखों में वही अपनी ख़ास चमक लाकर मुस्कराता हुआ वह खिडक़ी के पास से हट गया।

हुसैनी जो बात कह गया था, उससे मुझे मोपासाँ की कहानी 'सिग्नल' का अन्त याद हो आया और मैं मन-ही-मन मुस्करा दिया। पर सोचा कि हुसैनी ने वह कहानी भला कहाँ पढ़ी होगी!

समुद्र-तट का होटल

दूसरे दिन मैंने मंगलूर से कनानौर (कण्णूर) की गाड़ी पकड़ ली। शिमला में जिस व्यक्ति ने मुझ कनानौर में रहने की सलाह दी थी, उसने यह भी कहा था कि वहाँ समुद्र-तट पर एक छोटा-सा होटल है जो काफ़ी सस्ता है और कि वहाँ के डाइनिंग हॉल में बैठकर चाय पीते हएु आदमी समुद्र के क्षितिज से गुज़रते जहाज़ों को देख सकता है। मेरे दिमाग़ में वह नक्शा इस तरह से जमा था कि वहाँ पहुँचने से पहले ही मैं अपने को उस रूप में वहाँ बैठे और चाय की चुस्कियाँ लेते देख रहा था।

मंगलूर से कनानौर तक की यात्रा में मैंने देखा कि रेल की पटरी के दोनों ओर थोड़े-थोड़े अन्तर पर बने घरों की शृंखला इस तरह चली चलती है कि तय नहीं किया जा सकता कि एक बस्ती कहाँ समाप्त हुई और दूसरी कहाँ से शुरू हुई। सारा प्रदेश ही जैसे एक बहुत बड़ा गाँव है जिसमें नारियल के पेड़ों से घिरे छोटे-छोटे घर एक-दूसरे से थोड़े-थोड़े फ़ासले पर बने हैं। बीच में खेत हैं। कहीं खेतों में (शायद पक्षियों को डराने के लिए) बाँस पर लटकाया गया कपड़े का गुड्डा दिखाई दे जाता, कहीं कोई ग्राम-देवता और कहीं बिजली के तारों पर बैठे तोतों की पंक्तियाँ। जब गाड़ी समुद्र-तट के साथ-साथ चलती, तो समुद्र पर उड़ते कडल काक (सीगल) और दूसरे पक्षी ध्यान खींच लेते। एक घर के बाहर लगी दीवार घड़ी, नेत्रावली नदी का नन्हा-सा हरा-भरा द्वीप, बैक वार्टज़ में किनारे के पास एक-एक फ़ुट पानी में पेट के बल लेटकर बात करते नवयुवक, छतरियों-जैसी टोपियाँ पहने नाविक, टोकरियाँ उठाये खेतों में से गुज़रती नवयुवतियाँ...चलती गाड़ी से दिखते इस साधारण जीवन में भी मुझे एक असाधारणता प्रतीत हो रही थी-क्योंकि मेरी दृष्टि एक निवासी की नहीं, एक यात्री की थी।

कनानोर, पहुँचने पर पता चला कि वहाँ समुद्र-तट पर एक ही होटल है-चोईस। मैं स्टेशन से सीधा वहीं चला गया। वह एक यूरोपियन होटल था, जहाँ अक्सर रिटायर्ड यूरोपियन अफ़सर अपनी खोयी हुई सेहत वापस लाने के लिए हफ़्ता-हफ़्ता दो-दो ह$फ्ते आकर ठहरते थे। वहीं से पता चला कि समुद्र-तट पर एक और होटल भी था (और शायद उसी के विषय में मुझे बतलाया गया था) जो दो साल पहले बन्द हो चुका था। चोईस काफ़ी महँगा होटल था और मैं अपने दो महीने के बजट से वहाँ कुल बीस दिन रह सकता था। पर मैंने उस समय वहाँ एक कमरा ले लिया। सोचा कि आगे की बात चाय पीकर आराम से तय करूँगा।

चोईस होटल ठीक वैसी जगह नहीं था जैसी मैं चाहता था। वह खुले बीच पर नहीं, तट के ऊँचे कगार पर बना था। आगे एक छोटा-सा लॉन था, जिसकी मुँडेर के पास खड़े होकर नीचे समुद्र की तरफ़ झाँका जा सकता था। पर मैं ऐसी जगह चाहता था जहाँ से सीधे जाकर समुद्र की लहरों को अपने पर लिया जा सके और जिसकी सीढिय़ों पर बैठकर अपनी ओर बढ़ते ज्वार की प्रतीक्षा की जा सके।

चोईस में अपने कमरे के बरामदे में बैठकर चाय पीते हुए भी मैं आगे के लिए कुछ निश्चय नहीं कर सका। दुविधा थी कि क्या पता है और कहीं जाकर भी वैसी ही समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा? आख़िर सोचा कि थोड़ी देर बाहर घूम जाऊँ-आकर तय करूँगा कि कल की क्या योजना होगी।

होटल से सटा हुआ एक यूरोपियन क्लब था। क्लब के इस तरफ़ थोड़े-से घर थे और खुला कगार। मैं टहलता हुआ कगार के सबसे ऊँचे हिस्से पर चला गया। वहाँ एक चट्टान पर खड़े होकर देखा कि तीस-चालीस फ़ुट नीचे खुला बीच है जो दूर तक चला गया है। एक छोटा-सा बीच बायीं ओर भी है। बड़े बीच पर बहुत-से लोग थे। छोटे बीच पर एक यूरोपियन परिवार के पाँच-छह लोग स्विमिंग् कास्ट्यूम पहने लहरों में उछल-कूदकर रहे थे। उतनी ऊँचाई से उस दृश्य को देखना ज़मीन से ऊपर उठकर ज़मीन को देखने की तरह था। दूर एक जहाज़ समुद के अद्र्ध गोलाकार क्षितिज पर दायीं ओर से दाख़िल हो रहा था। वह भी जैसे मुझसे नीचे की दुनिया के रंगमंच पर ही चल रहा था। छपाक-एक लहर कगार की चट्टानों से ज़ोर से टकरायी। मैं नीचे बड़े बीच पर जाने के लिए चट्टानों पर से कूदने लगा।

“कोब्रा!” दो चट्टानें उतरते ही किसी को कहते सुना। जिस चट्टान पर मैं था, उससे थोड़ा हटकर साथ की चट्टान पर एक साँप रेंग रहा था। कई लोग से दूर उसे देख रहे थे। वह गहरे मोतिया रंग का साँप था। शरीर पर काले रंग की हल्की-हल्की धारियाँ। वह बहुत सतर्क होकर चल रहा था-शायद मन में वह आसपास से सुनाई देती आवाज़ों से आतंकित था। मैं अपनी चट्टान पर जहाँ का तहाँ रुककर उसे देखता रहा। उसका शरीर चट्टान पर उसी तरह बहता लग रहा था जैसे बने हुए रास्ते पानी की पतली धार। रास्ते का निर्णय करने के लिए उसका फण ज़रा-सा मुड़ता, फिर बाक़ी शरीर उसी रास्ते से निकल जाता। एक लडक़े ने उसकी तरफ़ पत्थर फेंका। उसने एक बार फण उठाया, पर अगले ही क्षण दो चट्टानों के बीच की मिट्टी में गुम हो गया।

मैं फिर चट्टानों पर से कूदने लगा, और दिमाग़ में साँप की सी सतर्कता लिये एक पोखर पर बने टूटे पुल से होकर बीच पर पहुँच गया।

सामने समुद्र की लहरें बड़ी-बड़ी शार्क मछलियों की तरह सिर उठा रही थीं। कुछ मछुए साथ मिलकर दो डूँगों को पानी की तरफ़ धकेल रहे थे। डूँगे धीरे-धीरे सरक रहे थे और रेत पर गहरी लकीरें खिंचती जा रही थीं। एक डूँगा पानी में पहुँच गया और सामने से आती लहर पर सवार होकर परे निकल गया। फिर दूसरी लहर पर सवार होकर काफ़ी आगे चला गया। दूसरा डूँगा भी तब तक पानी में पहुँच गया था। वह एक पिछड़े साथी की तरह तेज़ी से लहरों को पार करता कुछ पलों में ही पहले डूँगे को पीछे छोडक़र आगे बढ़ गया।

ऊपर कगार की चट्टानों पर कुछ लोग खड़े हुए थे जिनकी आकृतियाँ सूर्यास्त की झिलमिल में स्याह पत्थर की मूर्तियों-जैसी लग रही थीं। बीच से देखने पर अब मुझे ऊपर की दुनिया अपने से दूर और अलग प्रतीत हो रही थी। कुछ लोग चट्टानों पर से कूदते हएु नीचे आ रहे थे। मेरा मन हुआ कि मैं फिर से ऊपर चला जाऊँ और फिर से उसी तरह कूदता हुआ नीचे आऊँ। परन्तु मैं उस समय नंगे पैर टख़ने-टख़ने पानी में खड़ा था और लहरों के लौटने पर पैरों के नीचे से सरकती रेत शरीर में एक चुनचुनाहट भर रही थी। इसलिए मैं उसी तरह वहाँ खड़ा स्पर्धा से लोगों को चट्टानों से कूदकर आते देखता रहा।

पानी में सूर्यास्त के कई-कई हल्के-गहरे रंग झिलमिला रहे थे। ताँबई, बैंजनी, कत्थई। किनारे की तरफ़ आती हर लहर के आगे झाग की सफ़ेद जाली बन जाती थी जो लहर के लौट जाने पर भी कुछ देर बनी रहती थी। बढ़ता पानी सूखी रेत को भिंगो जाता,परन्तु पानी के लौटते ही रेत फिर सूखने लगती। पानी उसे फिर भिंगो जाता और कितने ही केंकड़े उछलते हुए आकर रेत में सूराख़ करके उनमें दुबक जाते। टिर-री, टिर-री-यह स्वर सारे वातावरण में फैल रहा था। मुझे लगा कि वास्तव में ऐसे ही समय और वातावरण को साँझ कहा जा सकता है। दिल्ली-जैसे शहर में कभी साँझ नहीं होती। वहाँ समय के केवल दो ही चेहरे होते हैं-दिन और रात। या एक ही चेहरा-आधा स्याह, आधा सफ़ेद।

एक बूढ़ा लुँगी पर पेटी बाँधे, सिगरेट सुलगाये, छड़ी हिलाता टखने-टखने पानी में चल रहा था। कुछ लड़कियाँ अपने पेटीकोट पिंडलियों तक उठाकर किनारे की ओर आती लहरों के ऊपर से उछल रही थीं। उधर छोटे बीच की तरफ़ से यूरोपियन परिवार के किलकारने की आवाज़ें आ रही थीं।

मैं सोच रहा था कि बजट का चाहे जो हो, मैं कुछ दिन ज़रूर कनानौर में रहूँगा।

वापस होटल में पहुँचा, तो देखा कि मेरे आसपास के दोनों कमरे उस बीच लग गये हैं। वे दोनों कमरे एक ही परिवार ने ले लिये थे। उस समय लॉन में पति-पत्नी अपने चार बच्चों के साथ 'दाई-छू' खेल रहे थे। सामने के कमरे में एक बूढ़ी मेम,जो गठिये की मरीज़ थी, अपनी नौकरानी के साथ ठहरी थी। वह अपने कमरे के बाहर खड़ी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर उन लोगों को शाबाशी दे रही थी।

रात को वह बूढ़ी मेम अपनी नौकरानी के साथ उन लोगों के यहाँ ताश खेलने आ गयी। मुझे हर दो मिनट के बाद उसकी चीख़ती आवाज़ में 'गुड ग्रेशस', 'ओ माई लॉर्ड' और 'वट ए हैंड'-जैसे शब्द और एक मोटी धार के पाइप के सहसा खुलकर बन्द हो जाने-जैसी हँसी सुनाई देने लगी, तो मैंने सोचा कि वहाँ रहकर अपना बजट ख़राब करने का कोई मतलब नहीं-मुझे चुपचाप बिस्तर बाँधकर अगली सुबह वहाँ से चल देना चाहिए।

पंजाबी भाई

परन्तु अगले दिन वहाँ सेवॉय होटल में मैंने महीने-भर के लिए जगह ले ली-तीस रुपये में तीस दिन के लिए उतनी अच्छी जगह कहीं भी मिल सकती है, इसकी मैं कल्पना तक नहीं कर सकता था। सेवॉय होटल समुद्र-तट पर नहीं था,पर तट के बहुत पास ही था। उसमें ख़ूब खुले बरामदे और बड़े-बड़े लॉन थे जिनमें दिन-भर हवा आवारा घूमती थी। इतनी सस्ती जगह होने पर भी वहाँ रहनेवाले लोग थोड़े से ही थे, इसलिए दिन-भर वहाँ का वातावरण शान्त रहता था। किसी ज़माने में वह होटल ख़ूब चलता था और काफ़ी महँगा भी था। परन्तु स्वतन्त्रता के बाद वहाँ आकर रहनेवालों की संख्या बहुत कम हो गयी थी, इसलिए वहाँ से खाने का प्रबन्ध हटा दिया गया था, और कमरे महीने के हिसाब से किराये पर दिये जाने लगे थे।

सेवॉय में आने की अगली सुबह बैठकर कुछ लिख रहा था, जब एक लम्बा-सा युवक दरवाज़े के बाहर आ खड़ा हुआ।

“हलो,” उसने कहा।

मैंने उसकी बेतकल्लुफ़ी से चौंककर उसकी तरफ़ देखा। वह पाजामा-कुरता पहने ढीले-ढाले ढंग से खड़ा मुस्करा रहा था।

“आइए,” मैंने अनिच्छापूर्वक कुर्सी से उठते हुए कहा।

वह दहलीज़ तक आ गया। बोला, “आप शायद कल ही आये हैं!”

“जी हाँ, कल ही आया हूँ,” मैंने कहा।

“मैंने रात को कमरे की बत्ती जलती देखी थी,” कहते हुए उसने दहलीज़ पार कर ली। “मुझे ख़ुशी हुई कि चलो होटल का एक कमरा और आबाद हो गया है। वैसे तो यह होटल सुनसान पड़ा रहता है। आपने देखा ही होगा।”

“फिर भी, मुझे जगह बहुत पसन्द है,” मैंने दूरी बनाये रखते हुए कहा। “काफ़ी खुली और एकान्त जगह है। मैं अपने लिए ऐसी ही जगह खोज रहा था।”

“आप इधर के रहनेवाले तो नहीं लगते,” वह अब और आगे आकर मेरे सामने की कुर्सी को पीठ से हिलाने लगा।

“जी नहीं, मैं उत्तर से आया हूँ,” मैंने कहा।

“उत्तर के किस इलाक़े से?” और वह कुर्सी के आगे आ गया। मुझे लगा कि अब अगला सवाल पूछने तक वह जमकर कुर्सी पर बैठ जाएगा।

“मैं पंजाब का रहनेवाला हूँ,” मैंने कहा।

सहसा उसकी दोनों बाँहें फैल गयीं और वह, “अच्छा, तुसी साडे पंजाबी भरा ओ!” कहता हुआ मेज़ के गिर्द से आकर मुझसे लिपट गया।

साँस रोककर मैंने आलिंगन के वे क्षण बीत जाने दिये। मेरे गिर्द से बाँहें हटाकर उसने मेरा हाथ मज़बूती से अपने हाथ में ले लिया और कहा कि परदेश में एक 'पंजाबी भरा' का मिल जाना उसकी नज़र में 'रब' के मिल जाने से कम नहीं है।

“कुछ दिन रहेंगे न यहाँ?” उसने ऐसे पूछा जैसे कि मैं उसी के पास मेहमान बनकर ठहरा होऊँ।

“हाँ, महीना-बीस दिन तो रहूँगा ही,” मैंने कहा।

“यह तो बहुत ही अच्छी बात है,” वह बोला। “मैं चार-पाँच रोज़ में वापस पंजाब जा रहा हूँ। मगर जितने दिन यहाँ हूँ,उतने दिन मेरे लिए कोई भी सेवा हो, तो बताने से संकोच न करें। दास हर वक़्त हर सेवा के लिए हाज़िर है।”

“देखिए, कोई ऐसी ज़रूरत हुई तो ज़रूर बताऊँगा,” मैंने कहा।

“मैं यहाँ एक साल से हूँ। हैंडलूम का व्यापार करने आया था...” कहता हुआ वह कुर्सी पर बैठ गया और मुझे शुरू से अपना इतिहास सुनाने लगा। मैंने अपने काग़ज़ हटाकर एक तरफ़ रख दिये और हथेलियों पर चेहरा टिकाये सामने बैठकर उसकी बात सुनने लगा। वह घंटा-भर गला थकाकर मुझे बतला गया कि उसका नाम नन्दलाल कपूर है, उसका घर लुधियाना में है, उसके दो बच्चे हैं और दोनों ही बहुत ख़ूबसूरत हैं क्योंकि दोनों उसी पर गये हैं, उसकी बीवी उसकी पसन्द की नहीं है, हैंडलूम का बाज़ार बहुत मन्दा है, कनानोर में साँप बहुत निकलते हैं, मलयालम में अंडे को मुट्टा कहते हैं और शाम को वहाँ फ़िल्म 'अनहोनी' दिखायी जा रही है जिसे मिस नहीं करना चाहिए।

“जब कभी अकेलापन महसूस हो, मेरे कमरे में चले आइएगा,” उसने उठकर छाती के पास से कुर्ते को ख़ुजलाते हुए कहा।”उसे भी आप अपना ही कमरा समझें। किसी तरह के, तकल्लुफ़ में नहीं रहिएगा।”

वह चला गया तो मैंने सोचा कि अच्छा है जो पहली ही भेंट में वह अपने बारे में सब कुछ बतला गया-अब न तो मेरे पास कुछ पूछने को बचा है, न ही उसके पास बतलाने को। आमने-सामने होने पर ख़ैर-ख़ैरीयत पूछ लिया करेंगे, बस।

मेरे सामने सवाल था कि खाने की क्या व्यवस्था की जाए। बाज़ार दूर था और रोज़ दोपहर को धूप में सवा मील जाना मुश्किल था। मैं वहाँ पास में ही कहीं प्रबन्ध कर लेना चाहता था। दिन में मैंने होटल के चौकीदार को इस सम्बन्ध में बात करने के लिए बुला लिया। वह पहले वहाँ बटलर था और अब भी अपना परिचय बटलर के रूप में ही देता था। वह”वेल मास्टर, वट मास्टर” कहता कमरे के बाहर आ खड़ा हुआ। मैं भी बरामदे में निकलकर उससे आसपास के होटलों और ढाबों के विषय में पूछताछ करने लगा। बटलर ने अपनी बटलरी अँग्रेज़ी में बतलाना शुरू किया कि कहाँ किस होटल में 'वैरी गुड फ़ूड' मिलता है और कहाँ किस में 'डैम चीप फ़ूड'। तभी एक सोलह-सत्रह साल का दुबला-सा नवयुवक मेरे पास आकर बोला, “सर, साहब आपको उधर बुला रहे हैं।”

“कौन साहब बुला रहे हैं?” मैंने पूछा।

“कपूर साहब।”

“वे यहीं पर हैं?” मुझे आश्चर्य हुआ। मेरा ख़याल था कि वह तब तक अपने काम पर चला गया होगा।

“कमरे में हैं,” लडक़े ने कुछ लजाते हुए कहा।

“काम पर नहीं गये?”

“उनका दफ़्तर यहाँ कमरे में ही है।”

“दिन-भर वे यहीं रहते हैं?”

इससे पहले कि लडक़ा जवाब देता, कपूर लुँगी-बनियान पहने अपने कमरे से बाहर निकल आया और वहीं खड़ा-खड़ा बोला, “आओ न बादशाहो! दास हर वक़्त सेवा के लिए यहीं हाज़िर रहता है।”

न जाने क्यों उसके फैले हुए निचले होठ को देखकर मुझे उलझन-सी हुई। लगा जैसे उस होठ की वजह से ही मेरा मन उसकी घनिष्ठता से बचना चाहता हो।

“मैं खाना खा आऊँ, अभी थोड़ी देर में आता हूँ,” मैंने उससे कहा।

“मोतियों वाले ओ, मैं खाना खाने के लिए ही तो आपको बुला रहा हूँ,” वह लुँगी को थोड़ा ऊपर उठाये हमारी तरफ़ बढ़ आया। “आपका खाना मेरे कमरे में तैयार रखा है।”

“देखिए कपूर साहब...,” मैं बचने के लिए बहाना ढूँढऩे लगा। पर वह बीच में ही मेरी बाँह हाथ में लेकर बोला, “अरे,आप तो तकल्लुफ़ करने लगे! मुझे आप अपना भाई नहीं समझते? शौकत, चलो, अन्दर चलकर प्लेटें लगाओ।”

शौकत उस लडक़े का नाम था जो मुझे बुलाने आया था। उसके कपड़े इतने उजले थे कि मैं सहसा विश्वास नहीं कर सका कि वह कपूर का नौकर है।

कमरे में पहुँचकर कपूर ने कहा, “आप भी भाई साहब, हद करते हैं! यहाँ का खाना हम लोग खा सकते हैं? जितने दिन मैं यहाँ हूँ, उतने दिन तो मैं आपको बाहर कहीं खाने नहीं दूँगा। बाद में जहाँ जैसा मिले, खाते रहिएगा।”

कपूर अपना खाना खुद स्टोव पर बनाता था। शौकत सही माने में उसका नौकर नहीं था-एक बेकार नवयुवक था,जिसे उसने 'यूँ ही कुछ' देने का वादा करके 'यूँ ही कुछ थोड़ा-बहुत काम' करने के लिए रख छोड़ा था। वह आठ-दस दिन से उसके पास था। कपूर उससे वे सभी काम लेता था जो एक साधारण नौकर से लिये जा सकते हैं। मगर शौकत आँखें झुकाये चुपचाप हर काम किये जाता था।

सब्ज़ी में इतनी मिर्च थी कि खाते हुए मेरी आँखों में पानी आ गया। कपूर ने यह देखा, तो बोला, “आपको शायद मिर्च ज़्यादा पसन्द नहीं है। शाम से ज़्यादा मिर्च नहीं डालूँगा।”

“शाम को आप खाना मेरे साथ बाहर खाइएगा,” मैंने उसकी हर वक़्त की मेहमान-नवाज़ी से बचने के लिए कह दिया।

“आप फिर तकल्लुफ़ कर रहे हैं।” वह बोला। “मैंने आपसे एक बार कह दिया है कि मैं जब तक यहाँ हूँ, आपको बाहर खाना नहीं खाने दूँगा।”

एक कुत्ता दुम हिलाता दरवाज़े के पास आ खड़ा हुआ। कपूर ने एक चपाती उसकी तरफ़ फेंकते हुए कहा, “देखिए, इसमें इसका भी हिस्सा था। दाने-दाने पर खानेवाले की मोहर होती है, भाई साहब! वरना न कोई किसी को खिलाता है,और न ही कोई किसी का खाता है।” और कटोरे से मुँह लगाकर वह सब्ज़ी का बचा हुआ रसा एक ही घूँट में सुडक़ गया।

मैं इस बार काफ़ी ज़ोर देकर उस पर यह स्पष्ट करने की चेष्टा की कि मैं उसका हर समय का मेहमान बनकर नहीं रह सकता, इसलिए शाम का खाना मैं बाहर ही खाऊँगा।

“मैं आपकी बात समझ रहा हूँ,” वह बोला। “पर आप उस चीज़ की चिन्ता न करें। आप चाहें, तो थोड़ा-बहुत आटा-घी अपने पैसे से मँगवा लें। पकाना तो मुझे ही है। एक की जगह दो के लिए पका लिया करूँगा। मिर्च मैं अब से बहुत कम डालूँगा। सच कहता हूँ, यहाँ का खाना हम लोग नहीं खा सकते। मेरे जाने के बाद तो ख़ैर आपको वह रसम्-तक्रम् खाना ही पड़ेगा।” फिर शौकत की तरफ़ देखकर उसने कहा,” तुम अब जाओ शौकत, दो बज रहे हैं। घर जाकर तुम्हें भी खाना खाना होगा। शाम को आते हुए जो-जो सामान ये कहें, इनके लिए लेते आना। पैसे इनसे ले लो।”

मुझे उसका फैला हुआ होठ अब भी अखर रहा था, पर उस समय शौकत को पैसे देने से मैं इन्कार नहीं कर सका। यह सोचकर कि दो-तीन रुपये जो ख़र्च होते हैं, हो जाएँ, उसने ज़्यादा कहा, तो दो-एक बार उसके साथ खा भी लूँगा, मैंने जेब से दस का नोट निकालकर शौकत को दे दिया। शौकत ने कपूर से पूछा कि क्या-क्या समान लाना होगा।

“पाँच सेर आटा काफ़ी होगा,” वह बोला। “आधा सेर घी ले आना। सब्ज़ी जो भी ठीक समझो, ले आना। हाँ, अन्दर मसाले-आले देख लो कौन-से नहीं हैं।” फिर मेरी तरफ़ मुडक़र उसने पूछा, “नाश्ता आप क्या पसन्द करते हैं?”

उसके निकले हुए होठ पर एक हलकी मुस्कान मैंने देखी जिसे उसने होठ पर ज़बान फेरकर दबा लिया।

“आप क्या नाश्ता करते हैं?” मैंने मन में अपने को कोसते हुए पूछ लिया।

“सवेरे-सवेरे कुछ ख़ास बनाने का तरद्दुद तो होता नहीं,” वह बोला। “चाय के साथ सिर्फ़ दो टोस्ट और दो अंडे ले लेता हूँ। आप भी यही ले लिया करें। यहाँ के इडली-डोसे से तो अच्छा ही है।” और फिर शौकत से बोला, “देखो, एक नौ आनेवाली डबलरोटी,दो टिकिया मक्खन और छह अंडे भी लेते आना।”

शौकत चलने लगा, तो कपूर ने फिर उससे एक सेकेंड रुकने को कहा और मुझसे पूछा, “यहाँ के केले अभी आपने खाये हैं कि नहीं?”

“यहाँ के केले कुछ ख़ास होते हैं क्या?” मैंने 'नहीं' कहने से बचने के लिए पूछ लिया।

“ख़ास?” वह उभडक़र बोला। “जितनी फ़ूड वैल्यू यहाँ के केले में होती है, उतनी और कहीं के किसी फल में नहीं। शौकत, एक दर्जन बड़े वाले केले भी लेते आना। साहब एक बार उनका स्वाद भी चखकर देख लें।”

मेरा ऐसे कई व्यक्तियों से पाला पड़ा था जिनके साथ व्यवहार रखने में मुझे बहुत कठिनाई का अनुभव होता था। पर कपूर उनमें सबसे आगे था। शाम को उसने अपने कमरे में खाना नहीं बनाया। कहा कि मैंने जो उसे शाम को अपने साथ बाहर चलकर खाने का निमन्त्रण दिया था,वह उसी के ख़याल मे रहा है। मैंने उसे साथ ले जाकर बाहर खाना खिलाया। दूसरे दिन वह दो बजे तक कहीं बाहर गया रहा और आने पर नाराज़गी ज़ाहिर की कि मैंने खाना बाहर जाकर क्यों खा लिया-उसके लौटने की राह क्यों नहीं देखी। उसके बाद शाम को भी उसने खाना नहीं बनाया। कहा कि उसे भूख नहीं है। दोपहर का खाना ही अढ़ाई-तीन बजे बना था-और यह सोचकर कि रात को कौन फिर से तरद्दुद करेगा, उसने दोनों वक़्त का एक-साथ ही खा लिया था। मगर जब मैं खाना खाने निकला, तो वह भी घूमने के इरादे से साथ हो लिया और होटल में बैठकर सिर्फ़ साथ देने के लिए दो प्लेट बिरयानी खा गया। लौटते हुए मैं ब्लैड वग़ैरह ख़रीदने लगा तो उसे भी कुछ चीज़ें ख़रीदने की याद हो आयी। चीज़ें बँधवा चुकने पर उसे ध्यान आया कि पैसे तो वह साथ लाया ही नहीं क्योंकि वह तो सिर्फ़ घूमने के इरादे से निकला था। दुकानदार से उसने कह दिया कि वह सब पैसे मेरे नोट में से काट ले।

वापस होटल में पहुँचने पर आग्रह के साथ कहा कि मैं एक मिनट उसके कमरे में आऊँ, उसे मुझसे कुछ ख़ास बात करनी है। मैं अन्दर-ही-अन्दर जल-भुनकर ख़ाक हो रहा था, इसलिए मैं उसके कमरे में नहीं गया। दस मिनट बाद वह ख़ुद मेरे कमरे में चला आया।

“देखिए, मैं इस वक़्त कुछ पढऩा चाहता हूँ” मैंने उसे देखकर रूखे स्वर में कहा। “इसलिए और बात हम कल किसी वक़्त करेंगे।”

“हाँ-हाँ, शौक़ से पढि़ए,” वह कुर्सी पर बैठता बोला। “मैं तो सिर्फ़ एक मिनट के लिए ही आया हूँ।”

“बताइए, क्या बात है एक मिनट की?” मैंने खड़े-खड़े ही पूछा।

“आप बैठ जाएँ, तो मैं बात करूँ,” वह बोला। “ऐसे क्या बात होगी?”

“मैं बैठ जाऊँगा, आप बात बताएँ।”

“आप मुझसे नाराज़ हैं क्या?” उसने ऐसा चेहरा बनाकर कहा जैसे उसके साथ बहुत ज़्यादती की जा रही हो।

मैंने अब अपने स्वर को थोड़ा सँभाल लिया। “मैंने आपसे ऐसी कोई बात नहीं कही जिससे लगे कि मैं नाराज़ हूँ।”

नहीं हैं न नाराज़?” वह बोला। “मैंने अच्छा किया जो पूछ लिया। मेरे मन का वहम निकल गया। मैं सोच रहा था कि मैं तो भाई साहब की इतनी क़द्र करता हूँ, इन्हें अपने सगे भाई की तरह मानता हूँ फिर इनके चेहरे से क्यों लग रहा है जैसे ये मुझसे नाराज़ हैं? चलो मेरी तसल्ली हो गयी।”

फिर जैसे मुझ पर उपकार करके उसने उठते हुए कहा, “मैं तो भाई साहब इन्सानियत के नाते किसी के लिए भी कुछ भी करने को तैयार रहता हूँ। आप तो फिर अपने पंजाब के हैं। मेरी इतनी ही प्रार्थना है कि मुझे हर वक़्त अपना दास समझें और सेवा का मौक़ा देते रहें।”

एक बार दहलीज़ पार करके वह फिर लौट आया। बोला, “देखिए, मुझे आपसे थोड़ा-सा निजी काम है। पर मैं उस वक़्त आपको बताऊँगा। जिस वक़्त आप ख़ाली होंगे। आप कब तक पढ़ते रहेंगे?”

“जब तक नींद नहीं आती,” मैंने कहा।

“तो सोने से पहले मुझे आवाज़ दे लीजिएगा,” वह चलता हुआ बोला। “वैसे मैं भी एक बार आकर देख जाऊँगा।”

मगर उस रात उसे मौक़ा नहीं मिला क्योंकि जब तक वह देखने के लिए आया, तब तक मेरे कमरे की बत्ती बुझ चुकी थी। अगले दिन सुबह मैं अख़बार देख रहा था, तो वह फिर आ पहुँचा और बोला, “इस वक़्त आप ख़ाली हैं?”

मैंने कुछ न कहकर अख़बार सामने से हटा दिया।

वह बैठ गया और जेब से एक चिट्ठी निकालकर बोला, “मैं इस चिट्ठी का जवाब आपसे लिखवाना चाहता हूँ।”

मेरा एक तो मन हुआ कि उसे कमरे से निकल जाने को कह दूँ, और दूसरा कि ज़ोर से ठहाकर लगाऊँ। पर वह इस तरह कबूतर की नज़र से मुझे देख रहा था कि मैं ये दोनों काम न करके सिर्फ़ मुस्कराकर रह गया। मैंने उसे समझाना चाहा कि मैं चिट्ठी लिखने की कला का विशेषज्ञ नहीं हूँ, सिर्फ़ कभी-कभार कहानी-वानी लिख लेता हूँ। पर उसने मेरी बात जैसे सुनी ही नहीं। बोला कि वह एक ख़ास चिट्ठी है जो उसकी प्रेमिका रूबी ने उसे सिकन्दराबाद से लिखी है, और क्योंकि वह मुझे सबसे विश्वस्त मित्र मानती है, इसलिए मुझे कम-से-कम इतनी राय तो उसे देनी ही चाहिए कि वह किस तरह उत्तर लिखे जिससे सारी बात उसमें आ जाए।

और वह सारी बात यह थी कि रूबी की तरफ़ उसके चौदह रुपये निकलते थे। वह इस तरह पत्र लिखना चाहता था कि रूबी पर उसके प्रेम का प्रभाव भी बना रहे और उसकी रक़म भी वापस आ जाए।

रूबी पहले उसी होटल में उसके कमरे से दो कमरे छोडक़र अपने भाई-भावज के साथ रहती थी। कपूर का विश्वास था कि वह चाहता तो ननद और भावज दोनों से प्रेम-सम्बन्ध स्थापित कर सकता था,पर उसने अपने को गिरने नहीं दिया और केवल रूबी को ही प्रेम के लिए चुने रहा। रूबी से भी वह दूर-दूर से ही प्रेम करना चाहता था, पर रूबी कुछ इस तरह उस पर मरने लगी थी कि उसके लिए अपने प्रेम की पवित्रता बनाये रखना असम्भव हो गया था। एक रात (जबकि भूल से पीछे का दरवाज़ा खुला रह गया था), रूबी चुपके से उसके कमरे में चली आयी थी और उसे न चाहते हुए भी (क्योंकि बाहर बारिश होने लगी थी) अपने को रूबी की इच्छा पर छोड़ देना पड़ा था। उसके बाद जितने दिन रूबी वहाँ रही, दरवाज़ा खुला रहने की भूल दोहरायी जाती रही।

रूबी बीच-बीच में उससे एक-एक दो-दो रुपये उधार ले लेती थी और उसके सिकन्दराबाद जाने तक कपूर की डायरी में उसके नाम चौदह रुपये हो गये थे। वह जाते हुए कह गयी थी कि सिकन्दराबाद पहुँचते ही अपने बैंक से निकलवाकर भेज देगी,पर दो महीने होने को आये थे और उसने रुपये भेजना तो दूर, अपने किसी पत्र में उस क़र्ज़ का ज़िक्र तक नहीं किया था। महीना-भर पहले उसने लिखा था कि वह उसके लिए दो बेड-कवर काढक़र भेज रही है, मगर बाद के पत्रों में उनका भी ज़िक्र नहीं था। अब कपूर चाहता था कि उसे ऐसा पत्र लिखा जाए जिसमें रुपयों की बात आ भी जाए और रूबी को यह महसूस भी न हो कि उसने यह बात लिखी है क्योंकि वह सीधे-सीधे रुपये माँगकर अपने प्रेम-सम्बन्ध पर आँच नहीं आने देना चाहता था।

“बताइए, यह सब किस तरह लिखा जाए?” सारा क़िस्सा सुनाने के बाद उसने पूछा।

मैंने उससे कहा कि, मैं इस मामले में कोई राय नहीं दे सकता। वह अपनी प्रेमिका को जानता है, इसलिए वही ठीक से सोच सकता है कि उसे क्या बात किस तरह लिखनी चाहिए। इस पर कपूर ने मेरा हाथ हौले से दबा दिया और धीमे स्वर में कहा कि, मैं इतनी ऊँची आवाज़ में उसकी प्रेमिका का ज़िक्र न करूँ। वहाँ के लोग दक़ियानूसी ख़यालातों के हैं। वे भावना की बात का भी गन्दा मतलब ले सकते हैं।”

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसे किस तरह टाला जाए। आख़िर मैंने उससे कहा कि इस विषय में मुझे थोड़ा सोचना होगा। इस समय मुझे कुछ अपना काम करना है, इसलिए...। इस पर वह उठता हुआ बोला, “हाँ-हाँ, आप काम कीजिए। वैसे मैं भी इस बारे में सोचूँगा। आप भी सोचिए। शाम को दोनों साथ बैठकर ड्राफ्ट बना लेंगे। मैं कल चिट्ठी ज़रूर पोस्ट कर देना चाहता हूँ, क्योंकि उसे अपना लुधियाना का पता भी देना है।”

और मुझसे यह अनुरोध करके कि मुझे बाज़ार का कोई काम हो तो शौक़त से करा लूँ, तकल्लुफ़ में न रहूँ, वह अपने कमरे में चला गया।

उस शाम से मैंने खाने का प्रबन्ध पास के एक होटल में कर लिया। नाश्ता अपने कमरे में तैयार करने के लिए आवश्यक सामान भी ख़रीद लाया। कपूर को इसका पता चला, तो पहले दिन तो उसने आकर शिकायत की कि मैं उसकी चीज़ों को अपनी चीज़ें क्यों नहीं समझता और यूँ ही इतने पैसे क्यों बर्बाद कर आया हूँ। मगर दूसरे दिन से वह मेरे कमरे में आ-आकर ऐसे-ऐसे करतब करने लगा, “आपकी अलमारी में डबलरोटी रखी है, ज़रा मक्खन का डिब्बा तो निकालिए,दो स्लाइस काटकर खा लूँ, अब इस वक़्त रोटी कौन बनाये!” या “आज दाढ़ में दर्द है, कुछ खाया नहीं जाएगा। सोचता हूँ थोड़ा-सा दूध पी लेना ही ठीक रहेगा। मैंने तो मँगवाया नहीं, आपके दूध में से ले रहा हूँ आप उतने दूध की जगह एक स्लाइस और खा लीजिएगा।” या “सेब आये हैं सेब? ज़रा चखकर तो देखें।” या फिर “शौकत आपके बिस्किट लाया था और उधर रखकर पान लाने चला गया था। दो दोस्त बैठे थे, उन्होंने चाय के साथ ले लिये। आपके लिए शौकत से और लाने को कह दिया है।” और ये और भी उसने शौकत से उन्हीं पैसों में से लाने को कह दिया था जो मैंने उसे दे रखे थे। इसके अलावा मेरे कमरे में आ बैठने के उसके पास सौ बहाने थे। “इतनी-इतनी देर आपका अकेले मन कैसे लग जाता है?” या “पंजाब के शहरों में शाम को कितनी रौनक होती है, पर यहाँ देखिए न...।” या फिर “लाइए, दो-चार सफ़े मैं साथ लगकर लिखवा दूँ। अकेले लिखते थक गये होंगे।”

मैंने तय कर लिया कि मैं उसके पास एक चिट लिखकर भेज दूँगा कि वह मेरे कमरे में न आया करे।

जिस होटल में मैं खाना खाने जाता था, वहीं धनंजय नाम का एक और युवक भी आया करता था। उसे दो-एक बार मैंने कपूर के कमरे में देखा था। एक शाम मैं होटल से खाना खाकर निकला,तो वह मेरे साथ-साथ बाहर आ गया। मेरा इरादा समुद्र-तट पर टहलने जाने का था। उसने कहा कि वह भी उसी तरफ़ चल रहा है। हम दोनों समुद्र-तट पर पहुँच गये। उसके चेहरे से लग रहा था कि वह मुझसे कोई ख़ास बात करना चाहता है। कुछ देर बाद संकोच हटाकर उसने पूछ लिया कि कपूर वहाँ से कब जा रहा है।

“पता नहीं,” मैंने कहा। “वह रोज़ यही कहता है कि चार-पाँच रोज़ में जा रहा है।”

धनंजय रेत के गीले भागों से बचता कुछ देर चुपचाप मेरे साथ चलता रहा। फिर हिचकिचाते हुए उसने बतया कि कपूर की तरफ़ उसके कुछ रुपये निकलते हैं और वह चिन्तित है कि कहीं वह आदमी उसके रुपये मार तो नहीं लेगा।

“कितने रुपये हैं?” मैंने पूछा।

“पचास।”

“वह इस बारे में क्या कहता है?”

“कहता है लुधियाना पहुँचते ही भेज दूँगा।”

उसने यह भी बतलाया कि जिन दिनों रूबी कपूर के पास आया करती थी, उन्हीं दिनों कपूर ने उससे वे रुपये लिये थे। कहा था कि रूबी को ज़रूरत है, कि उसके अपने रुपये व्यापारियों से आठ-दस दिन में मिलेंगे, कि यह उसके प्रेम का सवाल है, और कि वही उसका एक ऐसा दोस्त है जिससे वह माँग सकता है। धनंजय की बातों से लगा कि कपूर ने रूबी से उसकी दोस्ती कराने का भी वादा किया था, पर वह वादा उसने पूरा नहीं किया। कपूर ने उससे यह भी कह रखा था कि मैं उसका पुराना दोस्त हूँ और कि मेरे वहाँ रहते उसे अपने रुपये की चिन्ता बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। मैंने धनंजय को अपनी स्थिति समझायी, तो उसका चेहरा उतर गया। गीली रेत से बचकर चलने का उसे ध्यान नहीं रहा। वह मुरझाये हुए स्वर में बोला, “देखिए, मैं रुपये की उतनी परवाह नहीं करता। पर उसे मेरे-जैसे भले आदमी के साथ इस तरह का सलूक करना नहीं चाहिए।”

मैं उसकी बात पर मन-ही-मन मुस्करा दिया। अपने से ज़्यादा मुझे उससे हमदर्दी हुई। यह इसलिए भी कि कुछ क़दम चलते-चलते एक जगह फिसलकर उसने कपड़े ख़राब कर लिये।

समुद्र-तट से लौटकर मैंने बटलर के हाथ कपूर के पास चिट भेज दी कि मैं कुछ दिन अकेले में काम करना चाहता हूँ,इसलिए उसकी मेहरबानी होगी अगर वह इसके बाद मेरे कमरे में आने की तकलीफ़ न करे। मगर थोड़ी ही देर में शौकत ने आकर कहा कि साहब उधर बुला रहे हैं। मैंने शौकत को वापस भेज दिया और चुपचाप अपना काम करता रहा। कुछ देर बाद कपूर, ख़ुद चला आया और दरवाज़े के पास रुककर बोला, “भाई साहब, आपने लिखा है कि मैं आपके कमरे में न आया करूँ। पर आपको मेरे कमरे में आने में तो कोई एतराज़ नहीं है न?

मुझे बहुत ग़ुस्सा आ रहा था। मैंने खिझलाये स्वर में उससे कहा कि, “मैं अपने काम के वक़्त किसी की उस तरह की दख़ल-अन्दाज़ी पसन्द नहीं करता, इसलिए उस वक़्त उससे बात नहीं कर सकता।”

“पर, आख़िर बात क्या है?” कहता हुआ वह अन्दर आ गया। “इसका मतलब है कि मेरा उस दिन का अन्दाज़ा ठीक था। आप ज़रूर किसी वजह से मुझसे नाराज़ हैं। आप जब तक वजह नहीं बताएँगे, मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा।”

मैं बिना कुछ कहे और बिना उसकी तरफ़ देखे अपने सामने की पुस्तक पर आँखें जमाये रहा। वह कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। फिर बोला, “यह कहानियों की क़िताब है?”

मैं इस पर भी चुप रहा।

“आपके पास कहानियों की और भी कोई अच्छी-सी क़िताब है?”

मैं फिर भी चुप रहा।

“आपके पास और कोई ऐसी क़िताब नहीं है?”

मैंने अब भी कोई जवाब नहीं दिया।

“अच्छा सुबह तक आप अपनी नाराज़गी दूर कर लीजिए, ऐसे मेरा मन नहीं लगता,” कहकर उसने एक नज़र कमरे में चारों तरफ़ डाली, फिर धीरे-धीरे बाहर को चल दिया। फिर जैसे कुछ याद हो आने से जेब में हाथ डालकर टटोलता हुआ बोला, “यह मैं लाया था। अपने लिये ले रहा था, तो सोचा भाई साहब के लिए भी एक लेता चलूँ। ज़रूरत तो पड़ती ही रहती है,” और उसने जेब से एक माचिस की डिबिया निकालकर मेरी मेज़ पर रख दी।

“इसे ले जाइए, मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है,” मैंने कहा।

“शुक्र है, बोले तो सही।” कहता हुआ वह फिर आकर मेरे सामने खड़ा हो गया। उसका कहने का ढंग ऐसा था कि मेरे लिए अपनी मुस्कराहट को रोक पाना असम्भव हो गया।

“शुक्र है, मुस्कराये तो सही।” वह दोनों हाथ हवा में झटककर बोला। “उस तरह नाराज़ बने रहते, तो मुझे रात-भर नींद न आती। यह डिबिया तो मैं इस ख़याल से ले आया कि शायद आपको ज़रूरत हो। ज़रूरत नहीं है, तो उधर काम आ जाएगी,” कहते हुए उसने डिबिया उठा ली। फिर कमरे से बाहर जाते हुए उसने कहा कि मेरे मन में अब भी कोई बात हो, तो उसे मैं मन से निकाल दूँ, उसका मन मेरी तरफ़ से बिल्कुल साफ़ है।

तीन-चार दिन यही हाल रहा। मैं उससे बात करने से बचता। पर वह बीच-बीच में आकर इसी तरह मेरे पास बैठ जाता और दो-चार बातें करके, और-और कुछ हाथ न लगे, तो थोड़ी-सी चीनी ही फाँककर चला जाता। कभी-कभी उसका वह दाँव भी चल जाता, “अच्छा, केले की ख़ुशबू आ रही है, केले आये हैं।”

आख़िर उसका जाने का दिन आ गया। मैं दोपहर को खाना खाकर लौटा, तो देाा उसका सामान बँध चुका है। धनंजय शौकत से सामान उठवाकर ताँगे में रखवा रहा था। कपूर मुझे देखते ही बाँहें फैलाये मेरे पास आ गया। बोला, “मैं इन्तज़ार ही कर रहा था कि भाई साहब आयें, तो स्टेशन चलें।”

मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोलकर अन्दर दाख़िल होते हुए कहा कि धूप बहुत तेज़ है इसलिए मैं उसके साथ स्टेशन तक नहीं चल सकूँगा। वह भी मेरे साथ ही कमरे में आ गया और मेज़ के पास रुककर बोला, “ठीक है, आपको तकलीफ़ उठाने की ज़रूरत नहीं।” फिर मेज़ पर रखी एक पुस्तक को उठाकर दोनों तरफ़ से देखते हुए उसने कहा, “यह किताब मैं रास्ते में पढऩे के लिए ले जा रहा हूँ। दिल्ली से आपको बुकपोस्ट से भेज दूँगा।”

और बिना मुझे कुछ कहने का मौक़ा दिये पहले दिन की तरह फिर एक बार मुझे बाँहों में भींचकर वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया। मैंने तब बाहर निकलकर उससे कहा कि मैं भी थोड़े दिनों में वहाँ से चला जाऊँगा, इसलिए वह पुस्तक मैं उसे नहीं ले जाने दे सकता। धनंजय और शौकत तब तक ताँगे में पिछली सीट पर बैठ गये थे। वह जाकर अगली सीट पर बैठता हुआ बोला, “आप फ़िक्र न करें मैं किताब आपको बंगलोर से ही भेज दूँगा।”

और गहरी आत्मीय भावना के साथ आँखें मूँदकर उसने हाथ जोड़ दिये। कहा, “दास से कोई भूल-चूक हुई हो, तो माफ़ कर देना। और कभी-कभार याद कर लिया करना।”

तब तब ताँगा चल दिया।

उस शाम धनंजय फिर मुझे होटल में मिल गया। हम फिर साथ-साथ समुद्र-तट पर टहलने निकले गये। वहाँ बैठकर उँगलियों से रेत पर लकीरें खींचते हएु उसने कहा, “पता नहीं मेरे पैसे भेजता है या नहीं। कह तो गया है कि जल्दी ही भेज देगा। मैं इसीलिए उसे स्टेशन तक छोडऩे गया था कि मेरी तरफ़ से उसका दिल बिल्कुल साफ़ रहे। मैंने ख़ुद ही उससे कह दिया है कि दस-बीस दिन में जब भी उसे सुविधा हो, भेज दे। इस तरह मैंने सोचा कि शायद भेज भी दे। नहीं तो ऐसे आदमी का क्या पता है?”

मैं कुहनियाँ रेत पर टिकाये लेटा उमड़ती लहरों का खेल देखता रहा। धनंजय आशापूर्ण दृष्टि से आकाश को ताकता रेत पर लकीरें खींचता रहा।

मलबार

शब्द मलबार में जो आकर्षण है, वही आकर्षण वहाँ दृश्य-विस्तार में भी है। लाल ज़मीन, घनी हरियाली और बीच-बीच में नारियल के सूखे पत्तों से बनायी गयी घरों की छतें। कनानोर में रहकर और आसपास घूमकर मुझे लगा कि वह सारा प्रदेश एक बहुत बड़ा नारियल का उद्यान है जिसमें बीच-बीच में सुपारी, काजू, पान आदि जैसे दृश्य सौन्दर्य के लिए ही लगा दिये गये हैं और जिसमें छोटी-छोटी नदियों और बैंक-वाटर्ज़ का पानी भी उसी उद्देश्य से फैला दिया गया है। इस तरह के सौन्दर्य में घिरकर रहना अपने में एक चाह हो सकती है, पर वहाँ गरमी बहुत पड़ती है। एक वहीं के व्यक्ति ने मज़ाक़ कहा कि मलवार में साल में नौ महीने गरमी पड़ती है, और बाक़ी तीन महीने बहुत गरमी पड़ती है।

मलवार की उपजाऊ ज़मीन एक तरह से कच्चा सोना उगलती है। वहाँ की उपज को देखते हुए वहाँ के निवासियों का जीवन-स्तर काफ़ी अच्छा होना चाहिए, पर ऐसा नहीं है। प्रकृति की भरपूर देन के बीच भी अधिकांश लोग अभावपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। कनानोर में उमायल फ़ैक्टरी के पास के मैदान में अक्सर मज़दूरों की मीटिंगें हुआ करती थीं। मैं बोलने वालों की भाषा नहीं समझ पाता था, पर उनकी ध्वनियों से भी अर्थ का बहुत-कुछ अनुमान लगाया जा सकता था। उन दिनों किसी फ़ैक्टरी में हड़ताल चल रही थी। समस्या वही थी जो हुआ करती है। बाजा़र मन्दा होने के कारण मालिक लोग मज़दूरों का वेतन घटाना चाहते थे, और ऐसा न होने पर फ़ैक्टरी बन्द करने की धमकी दे रहे थे। मज़दूर अपने वेतन कम करने के लिए तैयार नहीं थे। शाम को जुलूस निकलता, उसके बाद मीटिंग होती और रात की हवा में मलयालम की मूर्धन्य ध्वनियाँ स्टेनगन की तरह गूँजती सुनाई देतीं। मैं कई बार उन ध्वनियों को सुनने के लिए ही रुक जाया करता।

वहाँ रहते कई बार सोचा करता कि कितनी साधारण चीज़ें मनुष्य के निर्माण में कितना बड़ा हाथ रखती है। समुद्र-तट की हवा, मछली, खोपड़े का तेल और उबले हुए चावल-इन उपकरणों से प्रकृति मलबार में जिस शरीर-सौन्दर्य की सृष्टि करती है, उसे गठन, तराश और उठान की दृष्टि से असाधारण कहा जा सकता है। पतली खाल, सुन्दर आँखें और अजन्ता की मूर्तियों के-से होठ-ये वहाँ के शरीर-सौन्दर्य की विशेषताएँ नहीं, सामान्यताएँ हैं। परन्तु बहुत से चेहरों पर अभाव की छाया स्पष्ट दिखाई देती है। लगता है कि प्रकृति के उस सुन्दर निर्माण में कोई मैली चीज़ हस्तक्षेप कर रही है। मलबार के पक्षी भी बहुत सुन्दर हैं-परन्ध, कोच्छ, कडल काक, सभी। उनके निर्माण और विकास में किसी का हस्तक्षेप नहीं, इसलिए वे बहुत स्वस्थ भी हैं। वे धरती और वातावरण से जितना कुछ ग्रहण करना चाहते हैं, उन्मुक्त भाव से कर सकते हैं। परन्तु मनुष्यों की यह विवशता है कि वे ऐसा नहीं कर पाते।

सांस्कृतिक दृष्टि से मलबार मलयालम-भाषी केरल प्रदेश का एक अंग है। (केरल तब तक केवल एक सांस्कृतिक इकाई थी, आज की तरह राजनीतिक इकाई नहीं।) उत्तर भारत में जिस उत्साह के साथ होली और दीवाली मनायी जाती है,वहाँ उसी उत्साह के साथ ओणम् और विशु, ये दो त्यौहार मनाये जाते हैं। ओणम् अगस्त-सितम्बर में पड़ता है और वर्ष का प्रमुख त्यौहार माना जाता है। इस त्योहार के साथ राजा महाबली की कथा सम्बद्ध है। (उत्तर भारत में इन्हीं महाबली को हम राजा बली के रूप में जानते हैं, जिनसे पौराणिक कथाओं के अनुसार, वामन ने तीन पैर ज़मीन माँगी थी और फिर सारी ज़मीन पर पाँव फैलाकर उन्हें पाताल में भेज दिया था।) ओणम् की कथा है कि राजा महाबली के राज्य में केरल में बहुत समृद्धि थी और प्रजा बहुत सुखी थी। वामन ने राजा महाबली को केरल छोडक़र पाताल जाने के लिए विवश कर दिया। (यह सम्भवत: उत्तर भारतीय शक्ति प्रसार का रूपक है। केरल में महाबली आदर्श राजा है,जबकि उत्तर के पुराण उन्हें दैत्यों का अधिपति बताते हैं।) चूँकि महाबली बहुत लोकप्रिय राजा थे और उस प्रदेश को उन्हीं ने समृद्ध बनाया था, इसलिए उन्हें यह सुविधा दी गयी कि वे वर्ष में एक बार पाताल से आकर केरल की प्रजा को आशीर्वाद दे जाएँ जिससे उस प्रदेश की समृद्धि यथावत् बनी रहे। ओणम् का दिन राजा महाबली के पाताल से लौटकर आने का दिन माना जाता है।

वैसे ओणम् फ़सल काटने का त्यौहार है। इस अवसर पर लोग नौ दिन तक घरों के आगे फूलों से तरह-तरह की सजावट करते हैं। ओणम् के दिन घर के आँगन में महाबली की मिट्टी की मूर्ति स्थापित करके उसकी पूजा की जाती है। पप्पड़म्(पापड़) और केले से बनाये गये खाद्य-पदार्थ ओणम् के दिन के विशेष पकवान हैं।

विशु दूसरा त्यौहार है जो अप्रैल-मई में पड़ता है। यह मलयालम संवत्सर के आरम्भ के दिन मेदम् मास की पहली तारीख़ को मनाया जाता है। उससे पहले की रात को घर के बड़े कमरे में खनी (विभिन्न व्यंजन, जिनमें उबला हुआ चावल नहीं रहता) रखकर दिये जला दिये जाते हैं। सवेरे उठते ही घर के लोग खनी के दर्शन करके पूजा आदि करते हैं।

उत्तर भारत के त्यौहारों में से वहाँ महाशिवरात्रि मनायी जाती है। यह भी वहाँ के प्रमुख त्यौहारों में से है। दीवाली एक सीमित वर्ग में ही मनायी जाती है। होली और वसन्त वहाँ नहीं मनाये जाते।

बिखरे केन्द्र

कनानोर से कालीकट जाते हुए रास्ते में मैं तेल्लीचेरी स्टेशन पर उतर गया। यह एक सनक ही थी। कनानोर से चल देने का निश्चय अचानक ही कर लिया था। मुझे वहाँ रहते तब कुल सत्रह दिन हुए थे। उस दिन सुबह सोकर उठा, तो मन कुछ उचाट-सा था। लग रहा था जैसे वहाँ रहते बहुत दिन हो गये हों और अब वहाँ और रह सकना असम्भव हो। अनदेखे स्थानों का आकर्षण फिर मन पर छा गया था। आश्चर्य हो रहा था कि मैं इतने दिन भी कनानोर में कैसे रह गया। उसके बाद थोड़ी ही देर में सामान बँध गया और मैं कालीकट का टिकट लेकर गाड़ी में सवार हो गया।

पीली रेत-दूर-दूर तक फैली हुई। नारियलों के घने झुंड और नंगी रेत। समुद्र का नीला पानी और चिकनी रेत। खिडक़ी से दिखाई देती वह तट की रेत इतनी आकर्षक लग रही थी कि मन हुआ उसे पास से देखने के लिए क्यों न वहीं कहीं उतर पड़ूँ? क्या पता आगे कहीं रेत उतनी पीली, उतनी चिकनी और उतनी एकान्त मिलेगी या नहीं। जब गाड़ी तेल्लीचेरी स्टेशन पर रुकी, तो मैंने बिना ज़्यादा सोचे अपना सामान गाड़ी से उतरवा लिया।

डेढ़-दो का समय था। गाड़ी चली गयी, तो प्लेट$फॉर्म और पटरियों पर फैली धूप को देखकर मुझे वहाँ उतर पडऩे के लिए अफ़सोस होने लगा। पूछने पर पता चला कि उस स्टेशन पर क्लोक रूम भी नहीं है जहाँ सामान छोडक़र घूमने जाया जा सके। मगर उतर पड़ा था, इसलिए सामान एक पोर्टर के सुपुर्द करके हाथ जेबों में डाले स्टेशन से बाहर निकल आया। पीली रेत और उसके आकर्षण की बात तब तक भूल चुका था।

चारों तरफ़ खुली धूप फैली थी। एक रिक्शावाले ने पास आकर पूछा, “जगन्नाथ गेट?”

मैंने उससे पूछा कि यह जगन्नाथ गेट कौन-सी जगह है?

“वर रुपिया आर आणा,” वह बोला।

मैंने कनानोर में रहते मलयालम की एक से दस तक की गिनती सीख ली थी। जो उसने कहा उसका मतलब था 'एक रुपया छह आना।'

मैंने इशारों से समझाने की कोशिश करते हुए उससे फिर पूछा कि जगन्नाथ गेट कौन-सी जगह है?

“वर रुपिया नाल आणा,” वह बोला। इसका मतलब था, “एक रुपया चार आना।”

“ठीक है, चलो।” कहकर मैं रिक्शा में बैठ गया। सोचा कि एक रुपया चार आना ख़र्च करके किसी अनजान जगह पर ले जाया जाना अपने में बुरा अनुभव नहीं है।

रिक्शा सँकरे रास्ते में से होता हुआ चलने लगा। दोनों ओर के घर छह-छह आठ-आठ फ़ुट ऊँची ज़मीन पर बने थे। हम एक तरह से दो दीवारों के बीच बनी गली से होकर जा रहे थे। उस धूप में भी उन गलियों में से गुज़रते हुए एक ठंडक-सी महसूस होती थी। आख़िर एक ऐसी जगह पहुँचकर जहाँ एक ओर दुकानें थीं और दूसरी ओर खुला मैदान,रिक्शावाले ने रिक्शा रोक दिया। मैदान की तरफ़ इशारा करके उसने मुझे एक पगडंडी दिखाई और इशारे से कहा कि मैं उस पगडंडी से आगे चला जाऊँ।

“मगर यह पगडंडी जाती कहाँ है?” मैंने भी इशारों से ही उसे अपना मतलब समझाने की कोशिश की।

उसने जवाब में जो इशारे किये, उनसे मुझे लगा कि वह कह रहा है मैं लौटकर वहीं आ जाऊँ, वह वहाँ रुककर मेरा इन्तज़ार करेगा। आख़िर जब उसे लगा कि हम दोनों बिना एक-दूसरे की बात समझे यूँ ही फ़िजूल हाथ हिला रहे हैं, तो वह रिक्शा एक तरफ़ छोडक़र चला आया और इशारे से मुझे पीछे आने को कहकर पगडंडी पर आगे-आगे चलने लगा।

उस तरह कुछ दूर चलकर हम जहाँ पहुँचे, वह परम शिवम् का एक मन्दिर था। पन्द्रह-बीस मिनट मैं घूमकर मन्दिर देखता रहा। यह जानकर कि मैं उत्तर भारत से आया हूँ, पुजारी बहुत उत्साह के साथ मन्दिर की एक-एक चीज़ मुझे दिखाता रहा। उसने अनुरोध किया कि मैं कमीज़ और बनियान उतारकर मन्दिर को अन्दर से भी देखूँ। अन्दर घूम चुकने के बाद उसने मुझे मन्दिर के संस्थापक स्वामीजी की मूर्ति दिखायी जो छह हज़ार रुपये में इटली से बनकर आयी थी। चलने से पहले उसने मुझे नारियल का पानी पिलाया। उसे बहुत ख़ुशी थी कि मैं मन्दिर के महत्त्व को समझकर इतनी दूर से वहाँ आया हूँ-एक ऐसा ही दर्शनार्थी कुछ वर्ष पहले भी कहीं दूर से वहाँ आया था।

मन्दिर से लौटते हुए मेरी नज़र पगडंडी के एक तरफ़ मिट्टी खोदते मज़दूरों पर पड़ी। कुछ पुरुष थे जो नंगे बदन, दो-गज़ी धोतियाँ ऊपर को लपेटे, मिट्ठी खोदकर तसलों में भर रहे थे। कुछ स्त्रियाँ थीं जो धोतियों के साथ ब्लाऊज़ भी पहने थीं, और तसले सिरों पर उठाकर मिट्टी दूसरी तरफ़ फेंकने ले जा रही थीं। काम के साथ-साथ वे लोग आपस में चुहल भी कर रहे थे। मैं पगडंडी पर रुककर उन्हें काम करते देखता रहा।

उनमें से एक नवयुवक ने मेरी तरफ़ देखकर मलयालम में न जाने क्या सवाल पूछा। मैं चुपचाप मुस्करा दिया, तो रिक्शावाले ने उसे बताया, “मलयाली इल्ला।”

इस पर वे सब लोग मेरी तरफ़ देखने लगे। आपस में थोड़ी बात करने के बाद उसी नवयुवक ने मुझसे एक और सवाल पूछा।

“मालयाली इल्ला।” इस बार मैंने कहा। इस पर वे सब हँस दिये। मैंने उनकी तरफ़ हाथ हिलाया और वहाँ से चल दिया। उनमें से भी कुछ एक ने जवाब में हाथ हिलाये। अब रिक्शावाला मुझे मलयालम में शायद उनकी कही बातों का अर्थ समझाने लगा। दो-एक मिनट बोलकर उसने प्रश्नात्मक स्वर में बात समाप्त की और मेरी तरफ़ देखा। मैंने सिर हिलाया कि मेरी समझ में कुछ नहीं आया। उसने निराश भाव से हाथ झटके और हम दोनों खिलखिलाकर हँस दिये।

स्टेशन के पास रिक्शा से उतरकर मैं चाच पीने सामने की एक दुकान में चला गया। बाहर बोर्ड लगा था : 'मुस्लिम होटल'। रिक्शावाला मेरा मेहमान था क्योंकि उसी ने उस जगह की सिफ़ारिश की थी। एक ख़ास ढंग से भाप देकर कपड़े के मैले-से स्टेनर में छानकर नये ही ढंग से बनायी गयी वह चाय जब एक मैली-सी प्याली में सामने आयी, तो मेरा पीने को मन नहीं हुआ। पर पहला घूँट भरने पर चाय का $फ्लेवर इतना अच्छा लगा कि 'सिर्फ़ एक घूँट और' भरने के लिए प्याली हाथ में लिये रहा। उसके बाद दो-तीन घूँट और भर लिये, फिर भी प्याली परे हटाते नहीं बना।

होटल की बेंचें भी प्याली से कम मैली नहीं थीं। हम्माम, काउंटर का त$ख्ता और दरवाज़ों की जालियाँ-सब पर मैल की परतें जमी थीं। दो छोटे-छोटे कमरे थे। एक जिसमें बैठकर मैं चाय पी रहा था। दूसरा उसके पीछे था। उस कमरे में भी एक मेज़ और कुछ बेंचें रखी थीं। कुछ नवयुवक काफ़ी बेतकल्लुफ़ी से वहाँ बैठे साहित्य-चर्चा कर रहे थे। मेज़ पर एक लेख के काग़ज़ बिखरे थे जो शायद उनमें से किसी ने पढ़ा था। लेख को लेकर जो बहस चल रही थी, उसमें से कोई-कोई शब्द मेरे पल्ले पड़ जाता था-इनसाइट, वैल्यूज़, लाइफ़ मैटर। काग़ज़ों के आसपास रखी चाय की प्यालियाँ कब की ख़ाली हो चुकी थीं। बातचीत की गरमागरमी में कभी उनमें से किसी का हाथ अपने सामने की ख़ाली प्याली को ही उठाकर होठों तक ले जाता। चुस्की लेने की कोशिश में पता चलता कि प्याली में चाय नहीं है,तो निराशा का हलका झटका महसूस करके वह प्याली नीचे रख देता। बाहरी दरवाज़े की जाली में से सडक़ का कुछ हिस्सा दिखाई दे रहा था। सडक़ के परले सिर पर तीन स्त्रियाँ एक पेड़ के नीचे अपने बोरिया-बिस्तर का दायरा-सा बनाये लेटी थीं। दो बच्चे थे जिनमें से एक बँधी चारपायी के पायों में से हरएक पर बारी-बारी से हाथ रखता हुआ अपना ही कोई खेल खेल रहा था। दूसरा बच्चा, जो उससे थोड़ा बड़ा था, एक बछिया को धकेलकर दायरे से दूर हटाने की कोशिश कर रहा था। तभी एक स्त्री न जाने किस बात से अचानक उठकर बैठ गयी और ती$खी आवाज़ में बड़े बच्चे को कोसने लगी। बच्चा बछिया को उसकी जगह पर छोडक़र सडक़ के इस पार चला आया। पर स्त्री का कोसना इसके बाद भी कुछ देर जारी रहा।

मैंने एक-एक घूँट करके पूरी प्याली ख़ाली कर दी थी। प्याली रखकर डायरी में कुछ नोट्स लेने लगा, तो देखा कि कोने की मेज़ पर चाय पीता एक आदमी एकटक मेरी तरफ़ देख रहा है। वह शायद अपने मन में मेरी गतिविधि के नोट्स ले रहा था।

'मुस्लिम होटल' से निकलकर मैं स्टेशन के वेटिंग हॉल में आ गया। हॉल क्या, एक कमरा-सा था जिसमें एक तरफ़ बुकिंग ऑफ़िस था,दूसरी तरफ़ टी-स्टाल। बीच में कुछ बेंचें पड़ी थीं। ज़्यादातर बेंचों पर लोग लेटे या बैठे थे, पर आसपास किसी का सामान नज़र नहीं आ रहा था। एक बेंच पर एक फटे कानोंवाली बुढिय़ा बैठी थी जो अपनी सुँघनी हाथ में मल रही थी। उसके साथ की बेंच पर एक अधेड़ मुसलमान घुटने ऊपर उठाये पैरों को आकाश में झुलाता हुआ साथ बैठे नवयुवक से कुछ बात कररहा था। सिर्फ़ उसी बेंच पर थोड़ी-सी जगह ख़ाली थी, इसलिए मैं भी उनके पास जा बैठा। अभी बैठ ही रहा था कि आपस सब लोग हँस दिये। अधेड़ मुसलमान ने कुछ बात कही थी। मैं थोड़ा अचकचा गया कि कहीं बात मुझे लेकर तो नहीं कही गयी। मेरे चेहरे से भाँपकर कि मैं ऐसा सोच रहा हूँ, साथ बैठा नवयुवक अँग्रेज़ी में मुझसे बोला, “आप शायद इनकी बात नहीं समझे। मैं इनसे कह रहा था कि हर आदमी को तीन चीज़ें अधिकार के तौर पर मिलनी चाहिए-रोटी, कपड़ा और मकान। पर ये कह रहे हैं कि तीन नहीं चार चीज़ें मिलनी चाहिए-रोटी,कपड़ा, मकान और औरत।”

इस पर मैं भी हँस दिया।

“ये शादीशुदा नहीं है क्या?” मैंने नवयुवक से पूछा।

नवयुवक फिर हँसा। बोला, “होते, तो ऐसी बात क्यों कहते?”

फिर वह गम्भीर होकर अधेड़ मुसलमान से आगे बहस करने लगा। शायद उसे समझाने लगा कि क्यों औरत की गिनती उन चीज़ों में नहीं की जा सकती। मगर अधेड़ मुसलमान आख़िर तक सिर हिलाता रहा। उसकी एक और बात ने फिर लोगों को हँसा दिया। नवयुवक ने मेरे लिए अनुवाद किया, “कहते हैं कि औरत ही नहीं मिलेगी, तो आदमी रोटी, कपड़े और मकान का क्या करेगा? बेकार हैं सब!”

“यह जगह स्टेशन का वेटिंग हॉल नहीं, एक अच्छा-ख़ासा क्लब जान पड़ती है,” मैंने नवयुवक से कहा।

“आपकी बात ग़लत नहीं है,” वह बोला। “हम लोग रोज़ दोपहर को यहाँ चले आते हैं। छोटी-सी शान्त जगह है,दोपहर काटने के लिए बहुत अच्छी है। चाय, कॉफ़ी और खाने-पीने की दूसरी चीज़ें भी यहाँ मिल जाती हैं। एक से साढ़े चार के बीच कोई गाड़ी नहीं आती, इसलिए आदमी चाहे, तो आराम से सो भी सकता है। हवादार जगह होने से गर्मियों के लिए बहुत ही अच्छी है। हम जितने लोग यहाँ आते हैं, सबके सब बेकार हैं। बेकारी का वक़्त घर बैठकर उतनी आसानी से नहीं कटता, जितनी आसानी से यहाँ कट जाता है।”

उसके बाद मैं दो घंटे और वहाँ रहा-गाड़ी के आने तक। गाड़ी में बैठा, तो उस नवयवुक के अलावा और भी दो-तीन लोगों ने प्लेटफॉर्म से मुझे विदा दी। उतनी देर में मुझे भी उस बेकार-समाज की अस्थायी सदस्यता मिल गयी थी। गाड़ी आगे निकल आयी, तो भी काफ़ी देर मन से मैं तेल्लीचेरी में ही बना रहा-मन्दिर के अहाते में, उस पगडंडी के पास जहाँ ज़मीन की ख़ुदाई हो रही थी, मुस्लिम होटल की मैली जालियों के अन्दर और थर्ड क्लास के से वेटिंग हॉल में। लग रहा था कि जगह-जगह बिखरे ऐसे कितने छोटे-छोटे केन्द्र हैं जो परोक्ष रूप से हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं...परन्तु उन केन्द्रों पर रहनेवाले लोग स्वयं शायद फिर भी अनिर्धारित ही रह जाते हैं...कभी-कभी जीवन-भर।

कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते

'ऊटी पचहत्तर मील'-सामने मील के पत्थर पर ख़ुदे अक्षरों को मैं कई क्षण देखता रहा। कालीकट से चुन्देल आकर मैं वहाँ से उतरा ही था। सामान कालीकट छोड़ आया था। चलते समय मुझे पता नहीं था कि मैं ऊटी की सडक़ पर जा रहा हूँ। अब चुन्देल पहुँचकर उस मिल के पत्थर को देखते हुए मन होने लगा कि अगली बस से ऊटी चला जाऊँ-कुल पचहत्तर मील का ही तो सफ़र है। पर रात काटनी पड़ती आठ हज़ार फ़ुट की ऊँचाई पर और गले में थी सिर्फ़ एक सूती कमीज़। मैंने आँखें मील के पत्थर से हटायीं और कच्चे रास्ते पर आगे चल दिया।

उससे पहली शाम मैंने कालीकट के समुद्र-तट पर बितायी थी। जिस समय वहाँ पहुँचा, उस समय जितने भी लोग वहाँ थे, सबके सब एक-दूसरे से दूर अलग-अलग दिशाओं में मुँह किये लेट या बैठे थे। लगता था हर-एक को दुनिया से किसी-न-किसी बात की नाराज़गी है-या अपने अस्तित्व को लेकर कुछ ऐसी चिन्ता है जिसका समाधान उसे यहाँ से ढूँढक़र जाना है। हर आदमी ने अपना एक अलग कोण बना रखा था। एक जगह तीन आदमी कुहनियों पर सिर रखे आगे-पीछे लेटे थे-एक-दूसरे से दो-दो फ़ुट का फ़ासला छोडक़र। उन्होंने शायद अपनी व्यक्ति-भावना और समष्टि-भावना का समन्वय कर रखा था। लेकिन कुछ देर बाद वहाँ चहल-पहल हो गयी, तो ये सारे व्यक्तिवादी, अपने कोणों सहित, उस भीड़ में खो गये।

कालीकट व्यापारिक नगर है। वहाँ का समुद्र-तट जहाज़ों पर माल चढ़ाने-उतारने का केन्द्र है। मुझे अपनी दृष्टि से वह समुद्र-तट ज़्यादा आकर्षक नहीं लगा, इसलिए सिर्फ़ एक रात वहाँ रहकर मैंने आगे चल देने का निश्चय कर लिया। कालीकट से चुन्देल मैं चाय और कॉफ़ी के बागीचे देखने के लिए आया था। इस जगह की सिफ़ारिश मुझसे हुसैनी ने की थी।

दो पत्तियाँ और एक कली-मैं कच्चे रास्ते से एक पौधे की पत्तियाँ तोडक़र सूँघने लगा। सामने नीलगिरि का जितना विस्तार नज़र आता था, उस पर दूर तक चाय के पौधे उगे थे। कुछ दूर ऊँचाई पर चाय की फ़ैक्टरी थी। घूमता हुआ मैं फ़ैक्टरी में चला गया। चाय की हरी-हरी पत्तियों को सूँघते-सहलाते हुए जो पुलक प्राप्त हुआ था, वह फ़ैक्टरी में यह देखकर जाता रहा कि केतली तक आने से पहले वे पत्तियाँ किस बुरी तरह सुखायी, मसली, तपायी और काटी जाती हैं। मगर फ़ैक्टरी में जो ताज़ा चाय पीने को मिली, उससे यह भावुकता काफ़ी हद तक दूर हो गयी।

फ़ैक्टरी से निकलकर फिर काफ़ी देर इधर-उधर घूमता रहा। हर तरफ़ चाय के ही बगीचे थे, कॉफ़ी का एक भी बगीचा नज़र नहीं आ रहा था। एक आदमी से पूछा, तो उसने सामने की तरफ़ इशारा कर दिया। जो उसने मुँह से कहा, वह मेरी समझ में नहीं आया। मैं चुपचाप उसके बताये रास्ते पर चल दिया। पर डेढ़-दो फ़र्लांग जाने पर एक दोराहा आ गया। मैं कुछ देर दुविघा में खड़ा रहा कि अब आगे किस रास्ते से जाऊँ। एक तरफ से कुछ लोगों के बात करने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। यह सोचकर कि आगे का रास्ता उनसे पूछ लिया जाए, मैं उस तरफ़ बढ़ गया। झाडिय़ों से आगे वह एक खुली-सी जगह थी जहाँ नीचे कुछ मज़दूर खाद तैयार कर रहे थे। उनके और मेरे बीच कई गज़ तक खाद का फैलाव था। मैं खाद के ऊपर से होता हुआ उनके पास पहुँच गया। शब्दों और इशारों का पूरा इस्तेमाल करते हुए मैंने उनसे पूछा कि कॉफ़ी के बागीचे तक पहुँचने के लिए मुझे किस रास्ते से जाना चाहिए। पर वे लोग मेरी बात नहीं समझे। उनमें से एक ने आगे आते हुए मुझसे पूछा, “मलयाली?”

मैंने सिर हिलाया-नहीं।

“तामिलु?”

मैंने फिर सिर हिला दिया।

“हिन्दुस्तानी?”

“हाँ,” मैंने कहा। “हिन्दुस्तानी।”

“क्या पूछता है, बोलो।” वह अब बहुत पास आ गया।

“मैं जानना चाहता हूँ कि उधर जो दो रास्ते हैं, उनमें से कॉफ़ी के बगीचे का रास्ता कौन-सा है?”

“इधर कॉफ़ी का कोई बगीचा नहीं है,” वह बोला। “तुमको किसने इधर भेजा?”

मैंने उसे बता दिया मैं कैसे एक आदमी से रास्ता पूछकर उधर आया हूँ।

वह मुस्कराया। बोला, “उसने समझा तुम कॉफ़ी पीने का जगह पूछता है। इधर आगे जाने से कॉफ़ी पीने का होटल मिलेगा। कॉफ़ी का बगीचा दूसरी तरफ़ है। मेरे को इधर काम है, नहीं तो मैं चलकर तुम्हें दिखा देता।” मैं निराश भाव से सिर हिलाकर वहाँ से हटने लगा, तो उसने अपने साथियों की तरफ़ मुडक़र उनसे कुछ कहा। फिर मुझसे बोला, “अच्छा आओ, मैं तुम्हें ले चलता है।”

वह इत्मीनान से खाद पर से होता हुआ आगे-आगे चलने लगा। मैं भी टखने-टखने खाद पर हलके पैर रखता और पत्थरों पर पैर जमा कर अपना सन्तुलन ठीक करता उसके पीछे-पीछे चलने लगा। खाद से आगे एक पगडंडी पार करके हम सडक़ पर पहुँच गये। वहाँ आकर उसने पूछा, “तुम इधर कैसे आया?”

“ऐसे ही-घूमने के लिए।” मैंने कहा।

“ख़ाली घूमने के लिए?” उसकी आँखों में हलकी चमक आ गयी। “कौन-कौन-सा जगह देख लिया?”

मैंने संक्षेप में उसे बता दिया कि गोआ से वहाँ तक मैं किस-किस जगह होकर आया हूँ।

“घूमने में बड़ा मज़ा है,” वह बोला। “मैं भी बहुत घूमा है। बर्मा, सिंगापुर, ईरान, कलकत्ता, दिल्ली, पंजाब-सब जगह देख आया है। मैं पहले फ़ौज में था। फ़ौज में ही मैं हिन्दुस्तानी सीखा है। थोड़ा-थोड़ा पंजाबी भी सीखा है। की गल्ल ए ओए कुत्ते दिया पुत्तरा!” और वह खिलखिलाकर हँस दिया।

नीगिरि की ऊपरी चोटियों से बादल के बड़े-बड़े सफ़ेद टुकड़े इस तरह हमारी तरफ़ आ रहे थे जैसे कोई थोड़ी-थोड़ी देर बाद उन्हें एक-एक करके गुब्बारों की तरह हवा में छोड़ रहा हो। उनके सायों से घाटी में धूप और छाँह की शतरंज-सी बन रही थी। हमारे रास्ते में कुछ क्षण धूप रहती, फिर छाया आ जाती। सडक़ हल्के बलखाती हुई लगातार नीचे को उतर रही थी।

मैं चलते हुए उससे उसके बारे में पूछता रहा। उसका नाम गोविन्दन् था। फ़ौज में वह अस्थायी तौर से भर्ती हुआ था। कई जगह की लड़ाइयाँ उसने देखी थीं। पर लड़ाई के बाद पहले रिट्रेंचमेंट में ही उसकी वह नौकरी समाप्त हो गयी थी। लड़ाई से पहले भी वह मज़दूरी करता था, अब लौटकर फिर वही काम कर रहा था। दिन में मज़दूरी के एक रुपया पाँच आने मिलते थे जिनसे वह अपने चार व्यक्तियों के परिवार का गुज़ारा चलाता था।

“दो हफ़्ता हुआ चाय-फ़ैक्टरी का मज़दूर लोग फ़ैक्टरी के मैनेजर को पकड़ लिया था,” उसने बताया।

“क्यों?”

“उन लोग का माँगें मैनेजर ने नहीं माना था। बहुत गड़बड़ हुआ। पुलिस भी आया।”

“फिर?”

“अभी तो मामला चलता है। मज़दूर लोग का माँग मैनेजर को मानना पड़ेगा। नहीं मानेगा, तो मज़दूर लोग काम नहीं करेगा।”

हम लोग एक मोड़ पर आ गये थे। वहाँ रुककर गोविन्दन् ने थोड़ी दूर आगे इशारा करते हुए कहा, “कॉफ़ी का एक बगीचा उधर है। मुझे जाकर काम करना है,नहीं तो मैं तुम्हारे साथ चलता।...पर कोई बात नहीं। मैं तुम्हें वहाँ तक छोड़ आता है।”

“तुम रहने दो,” मैंने कहा। “तुम्हारे काम का हर्ज़ होगा। वह सामने ही तो है, मैं चला जाऊँगा।”

“हर्ज़ क्या होगा?” वह चलता हुआ बोला। “मैं अपने हिस्से का काम जा के पूरा करेगा।” और वह मुझे फ़ैक्टरी के बारे में,वहाँ की उपज के बारे में और मज़दूरों की ज़िन्दगी के बारे में कई और बातें बतलाने लगा। एक जगह उसने मुझे एक खट्टे फल का पेड़ दिखाया और बताया कि वे लोग उस फल के साथ मछली पकाकर खाते हैं। फिर एक पेड़ के पास रुककर उसने कहा, “यह हिन्दुस्तान का सबसे होनहार पेड़ है-इसे पहचानता है?”

“कौन-सा पेड़ है यह?” मैंने पूछा।

“काजू का-जो हर साल कितना-कितना डालर कमाता है।”

“पेड़ मैंने रास्ते में भी देखा है,” मैंने कहा। “पर इसमें काजू कहाँ लगे हैं?”

“अभी मौसम का शुरू है, अभी इसमें फल नहीं निकला। मौसम में इसमें पीला-पीला लाल-लाल फल लगेगा। तुम लोग की तरफ़ फल नहीं जाता, सिर्फ़ दाना जाता है। हर फल के साथ एक दाना उगता है।...ठहरो, वह एक फल लगा है। मैं अभी तुमको उतारकर देता है।”

वह पेड़ पर चढ़ गया। फल पेड़ की सबसे ऊँची टहनी पर था। पक्की डाल पर खड़े होकर उसका हाथ फल तक नहीं पहुँचा। उसने एक पैर कच्ची डाल पर रख दिया, फिर भी हाथ नहीं पहुँचा।

“रहने दो,” मैंने कहा। “डाल टूट जाएगी।”

“तुम कितना दूर से आया है,” वह बोला। “मैं एक पैर और नहीं चढ़ सकता?” उसने दूसरा पैर भी कच्ची डाल पर रख दिया। डाल बुरी तरह लचक गयी, मगर उसने फल तोडक़र नीचे फेंक दिया। मैंने फल उठा लिया। ज़रा मरोडऩे से नीचे लगा दाना अलग हो गया। उसे जेब में रखकर मैं फल खाने लगा।

गोविन्दन् नीचे उतर आया, तो मैंने उससे पूछा, “मौसम में यह फल यहाँ खूब खाया जाता है?”

“खाया भी जाता है और फेंका भी जाता है,” वह बोला। “पहले इसका शराब बनता था, पर अब शराब निकालने का मना है। निकालने वाला अब भी निकालता है, पर बहुत-सा फल ऐसे ही जाता है। आज़ाद मुल्क में ऐसा-ऐसा चीज़ का कौन परवाह करता है?”

हम कॉफ़ी के बगीचे में पहुँच गये। ढलानों पर कॉफ़ी के पेड़ों के साथ-साथ नारंगियाँ और काली मिर्चें लगायी गयी थीं। कई-एक स्त्री-पुरुष कॉफ़ी के लाल-लाल बेर टोकरियों में जमा कर रहे थे। कहीं पहले के तोड़े बेर सूख रहे थे, कहीं ताज़ा बेर सूखने के लिए फैलाये जा रहे थे। गोविन्दन् ने बताया कि चार-पाँच दिनों में जब बेर सूखकर काले पड़ जाते हैं, तो वहाँ से क्योरिंग के लिए भेज दिये जाते हैं। यह भी बताया कि उस ज़मीन में पानी देने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वह अपने अन्दर के पानी से ही पौधों को हरा रखती है।

तभी ऊपर की तरफ़ से कुछ कुत्तों के ज़ोर-ज़ोर से भौंकने की आवाज़ सुनाई देने लगी। एक मज़दूर लडक़ी दौड़ती हुई उधर से आयी और ऊपर की तरफ़ इशारा करके उसने गोविन्दन् से कुछ कहा। गोविन्दन् ने मुझे बताया कि मालिक ने ऊपर से उस लडक़ी को यह पूछने के लिए भेजा है कि मैं कौन हूँ और बिना इजाज़त उसकी ज़मीन पर क्यों आया हूँ। फिर आवाज़ ज़रा धीमी करके वह बोला, “वह डरता है कि उस दिन जिस तरह मज़दूर लोग चाय-फ़ैक्टरी का मैनेज़र को पकड़ लिया, उसी तरह इसको भी न पकड़ ले। सोचता है तुम शायद मज़दरों के बीच प्रोपेगेंडा करने के वास्ते आया है। इस आदमी के पास यहाँ तीन-चार सौ एकड़ ज़मीन है। हर साल एक-एक एकड़ से इसको चार-चार पाँच-पाँच हज़ार रुपये आमदनी होती है।”

कुत्ते भौंकते हुए हमारी तरफ़ उतर रहे थे। उनका गोरा मालिक डंडा हाथ में लिये उनके पीछे-पीछे आ रहा था। गोविन्दन् ने अपनी भाषा में लडक़ी से कुछ कहा, फिर मुझसे बोला, “आओ, चलें। यहाँ ठहरने में ख़तरा है। इस आदमी का कुत्ता बहुत ज़बरदस्त है।”

लडक़ी डरी-सी लौट गयी। कुत्ते अब काफ़ी नीचे आकर भौंक रहे थे। हम लोग वापस चलने लगे, तो गोविन्दन? बोला, “देखो, कितना बड़ा-बड़ा कुत्ता है और कैसे भौंकता है! ऐसे आदमी को आदमी की मदद का तो भरोसा नहीं है न। ख़ाली कुत्ते का ही भरोसा है।” अपनी इस बात से ख़ुश होकर वह हँसा। बात उसने ऐसे ढंग से कही थी कि मुझे भी हँसी आ गयी।

“अकेला आदमी है,” गोविन्दन् कहता रहा। “न बीवी है, न बच्चा है। दोस्त-यार, सगा-सम्बन्धी, जो कुछ है, यह कुत्ता ही है।”

कुत्ते उसी तरह भौंक रहे थे। मालिक उनसे काफ़ी पीछे खड़ा डंडा हिलाता हुआ हमें लौटते देख रहा था।

हम लोग ऊपर सडक़ पर पहुँच गये, तो गोविन्दन् बोला, “पता नहीं किस तरह यह आदमी अपनी ज़िन्दगी काटता है। दिन-भर करने को कुछ होता नहीं। ख़ाली कमरे में बैठा रहता है, या डंडा और कुत्ता लिये घूमता रहता है। जब यह मरकर परमात्मा के घर जाएगा, तब भी डंडा और कुत्ता रखवाली के लिए साथ लेता जाएगा। पर पता नहीं कुत्ता वहाँ इसके साथ जाने को तैयार होगा या नहीं।” इस बात पर हम दोनों फिर हँस दिये।

हम लोग लौटकर वहाँ पहुँच गये थे जहाँ से गोविन्दन् मेरे साथ चला था। उसे धन्यवाद देकर मैं उससे विदा लेने लगा,तो नीचे काम करते अपने साथियों को आवाज़ देकर उसने उनसे कुछ कहा और मुझसे बोला, “मैं तुम्हारे साथ बस की सडक़ तक चलता है। काम तो मेरे हिस्से का रखा है, मैं आ के पूरा करेगा।” और वह फिर मेरे साथ आगे चल दिया।