आख़िरी चट्टान तक / भाग 4 / मोहन राकेश

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बस यात्रा की साँझ

चुन्देल से कालीकट के रास्ते में...।

बस एक छोटी-सी बस्ती के बाज़ार में रुकी थी। एक तरफ़ तीन-चार दुकानें थीं, दूसरी तरफ़ पत्थरों की मुँडेर। नीचे घाटी थी। सभी लोग बस से उतरकर वहाँ चाय-कॉफ़ी पीने लगे। सिर्फ़ एक इकन्नी में कॉफ़ी का बड़ा-सा गिलास पीकर मैं दुकान से सडक़ पर आया, तो देखा कि दिन का रंग सहसा बदल गया है। लग रहा था-जैसे आँधी आनेवाली हो। पहाड़ पर आँधी नहीं आती, इसलिए आश्चर्य भी हुआ। पर असल में आँधी-वाँधी कुछ नहीं थी-अस्त होते सूर्य के आगे बादल का एक टुकड़ा आ गया था।

च्वि-च्वीयु!...च्वि-च्वीयु-एक पक्षी लगातार बोल रहा था। मुझे लगा जैसे बार-बार वह मुझसे कुछ कह रहा हो। मन हुआ कि उसी की भाषा में मैं भी उसे उत्तर दूँ। कहूँ, “च्वि-व्वियु दोस्त, च्वि-च्वीयु! कहो, क्या हालचाल हैं तुम्हारे?”

मैं टहलता हुआ मुँडेर के पास चला गया और नीचे घाटी की तरफ़ देखने लगा। एक युवती तीन-चार गौओं को हाँकती ऊपर सडक़ की तरफ़ आ रही थी। जिस वेश में वह थी, उसमें मैंने कालीकट से आते हुए कई स्त्रियों को देखा था-दूधिया सफ़ेद तहमद, उतनी ही सफ़ेद चोली और वैसा ही सफ़ेद पटका। पटका बाँधने का उनका अपना ख़ास ढंग है। गज़-भर कपड़े का टुकड़ा लेकर एक तरफ़ के सिरों को वे सिर के पीछे गाँठ दे लेती हैं और दूसरी तरफ़ के सिरों को खुला छोड़ देती हैं। कन्नड़ नवयुवतियों के इस वेश को देखकर चित्रों में देखी मिस्र की रमणियों की याद हो आती है। परन्तु इस वेश की सादगी एक अतिरिक्त विशेषता है जो उस तुलना में नहीं रखी जा सकती।

युवती गौओं के साथ सडक़ पर पहुँच गयी और सीधी सधी हुई चाल से आगे चलती गयी। मेरा ध्यान तब आसपास मँडराती तितलियों में उलझ गया। सब एक ही तरह की तितलियाँ थीं-हरा शरीर और उस पर स्याह रंग के उलझे हुए दायरे। उनसे थोड़ी दूर कुछ और तितलियाँ थीं-गहरा मटियाला रंग और सफ़ेद बार्डर के पंख। वे सब ज़मीन से दो-एक फ़ुट की ऊँचाई पर ही उड़ रही थीं-जैसे कि उससे ऊँचा उड़ पाना उनके पंखों के लिए भारी पड़ता हो।

ड्राइवर ने हॉर्न दे दिया। मैं ड्राइवर के साथ की अपनी सीट पर जा बैठा। सूर्यास्त के बाद आकाश का रंग इस तरह बदल रहा था कि एक-एक क्षण में होनेवाले परिवर्तन को लक्ष्य किया जा सकता था। वह पक्षी उसी तरह बोल रहा था-च्वि-च्वीयु! च्वि-च्वीयु बस चल दी। मैं खिडक़ी से झाँककर देखने लगा। पक्षी की आवाज़ पीछे रहती जा रही थी। आगे घनी हरियाली में वृक्षों के नये सुर्ख़ पत्ते ऐसे लग रहे थे जैसे जगह-जगह सुर्ख़ फूलों के गुच्छे लटक रहे हों। एक मोड़ के बाद हम पहाड़ी के उस हिस्से में आ गये जहाँ बस डेढ़-दो हज़ार फ़ुट की सीधी ऊँचाई से चक्कर काटती हुई नीचे उतरती है। वहाँ से ज़मीन छोटी-छोटी नदियों, टीलों और हरियाली के द्वीपों का समूह नज़र आती है। ज्यों-ज्यों बस नीचे उतर रही थी, उस दृश्य के फैलाव पर अँधेरा घिरता जा रहा था। लग रहा था जैसे उजाले की दुनिया से हम लोग नीचे अँधेरे की दुनिया में उतर रहे हों।

जब तक हम नीचे पहुँचे, अँधेरा पूरी तरह घिर आया था। पर न जाने क्यों मुझे लग रहा था कि वह पक्षी अपनी झाड़ी में बैठा अब भी लगातार उसी तरह बोल रहा होगा-च्वि-च्वीयु! च्वि-च्वीयु! मेरा मन अपने अन्दर की किसी अनुभूति से उदास होने लगा। वह अनुभ्ूाति अपने एक आत्मीय को किसी अनजान बस्ती में रात को अकेला छोड़ आने-जैसी थी-बावजूद इसके कि वह लगातार मुझे पीछे से पुकारता रहा था-च्वि-च्वीयु! च्वि-च्वीयु!

सुरक्षित कोना

कालीकट से अर्णाकुलम् जाते हुए मैं रास्ते में त्रिचुर उतर गया-वडक्कुनाथन् का मन्दिर देखने के लिए। मन्दिर के पश्चिमी गोपुरम् के बाहर बने विशाल स्तम्भ के पास रुककर मैं कई क्षण उसकी भव्यता को मुग्ध आँखों से देखता रहा। फिर वहाँ से हटकर अन्दर को चला, तो पूजा करके लौटते एक युवक ने मुझे रोक दिया। ध्यान से मुझे देखते हुए कहा, “आप मन्दिर में जाना चाहते हैं?”

मैंने चिढ़े हुए भाव से उसकी तरफ़ देखा और सिर हिला दिया।

“परन्तु इस वेश में आप अन्दर नहीं जा सकते,” वह बोला। “अन्दर जाने के लिए आवश्यक है कि आप उचित वेश में हों-जिस वेश में इस समय मैं हूँ।”

वह दो गज़ की दक्षिणी धोती तहमद की तरह बाँधे था और कन्धे पर गज़-भर का टुकड़ा अँगोछे की तरह लिये था। गले में कुछ भी नहीं था। मुझे लगा कि मुझे बिना मन्दिर देखे ही लौट जाना होगा क्योंकि न तो वे कपड़े मेरे पास थे, न ही मैं ख़रीदकर पहनने का तरद्दुद कर सकता था। मैं वहाँ से लौटने को हुआ, तो उस युवक ने पूछ लिया, “आप कहाँ से आये हैं?”

“आज कालीकट से आ रहा हूँ,” मैंने कहा। “वैसे पंजाब से आया हूँ।”

“इतनी दूर से? बहुत दूर से आये हैं आप!” वह बात बहुत कोमल ढंग से कर रहा था। चेहरे से भी बहुत सौम्य जान पड़ता था। “आप मन्दिर देखना चाहते हैं, तो एक काम हो सकता है,” वह सहानुभूति के साथ बोला। “मेरा घर यहाँ से दूर नहीं है। आपको आपत्ति न हो, तो मैं वहाँ चलकर आपको धोती और अँगोछा दे सकता हूँ। आपको आपत्ति तो नहीं होगी न?” उसका स्वर ऐसा था जैसे मेरे लिए कुछ करने की जगह वह मुझसे अपने लिए कुछ करने को कह रहा हो।

“मुझे आपत्ति क्यों होगी?” मैंने कहा। “मैं तो बल्कि आपका आभार मानूँगा कि मुझे बिना मन्दिर देखे नहीं लौट जाना पड़ा।”

“तो चलिए,” वह बोला। “मैं ब्राह्मण हूँ, इसलिए आपत्ति की कोई बात भी नहीं है? मैंने केवल इसलिए पूछा था कि आपको धोती बाँधने में अड़चन न हो। मेरे लिए तो यह ख़ुशी की बात है कि मैं आपका इतना-सा काम कर सकूँ। आप इतनी दूर से आये हैं...।”

घंटा-भर बाद धोती बाँधे और कन्धे पर अँगोछा रखे मैंने मन्दिर के पश्चिमी गोपुरम् से उसके साथ अन्दर प्रवेश किया। तब तक मैं उसके विषय में थोड़ा-बहुत जान चुका था। उसका नाम 'श्रीधरन्' था। वह वहीं की एक धार्मिक संस्था में काम करता था। उस दिन इतवार होने से उसे छुट्टी थी।

मैं काफ़ी देर उसके साथ मन्दिर में घूमता रहा। वहाँ उस दिन मेरा कुछ नये देवताओं से परिचय हुआ। परम शिव,विघ्नेश्वर, पार्वती, शंकर-नारायण, राम और गोलाप-कृष्ण-ये सब परिचित देवता थे। नये देवता थे सिंहोदर (जिसे शिव-गण का मुखिया माना जाता है), धर्मशास्ता अय्यप्पा (जिसे शिव और मोहिनी-रूप विष्णु के संयोग से उत्पन्न माना जाता है, और जो भक्तों की नयी पीढ़ी का प्रिय देवता है) और कलि (जिसके सम्बन्ध में पुजारियों का विश्वास है कि वह दिन-प्रति-दिन आकार में बड़ा हो रहा है)।

देवताओं का परिचय देने के बाद श्रीधरन् मुझे कूथाम्बलम् में ले गया। वह वहाँ की नाट्यशाला थी जहाँ पौराणिक गाथाओं का अभिनय के साथ सस्वर पाठ किया जाता है। वहाँ से लौटते हुए वह मुझे मन्दिर के प्रधान उत्सव त्रिचुरपुरम् के विषय में बताने लगा। त्रिचुरपुरम् हर साल अप्रैल के महीने में पड़ता है। उस रात मन्दिर के बाहर थाकिनकाड मैदान में हज़ारों रुपये की आतिशबाज़ी चलायी जाती है। जिन दिनों ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ कोचिन का सम्बन्ध स्थापित हुआ, उन दिनों वहाँ राजा राम वर्मा का राज्य था। राम वर्मा को लोग शक्थ थम्पूरन् (योग्य शासक) के नाम से भी जानते हैं। राम वर्मा ने त्रिचुर के एक अभिजात नायर परिवार की कन्या के साथ विवाह किया था। त्रिचुरपुरम् उसी अवसर की याद में मनाया जाता है। उन दिनों मन्दिर के दक्ष्णि की ओर सागवान का घना जंगल था। जिस व्यक्ति को मृत्यु-दंड दिया जाना होता, उसे उस जंगल में भेज दिया जाता था और जंगली जानवर वहाँ उसे खा जाते थे। राम वर्मा ने अपने विवाह के अवसर पर वह जंगल कटवा दिया था जिससे त्रिचुर के लोगों में उसका मान बहुत बढ़ गया था।

बात करते हुए हम लोग वापस श्रीधरन् के घर पहुँच गये। वहाँ आकर मैंने कपड़े बदल लिये। श्रीधरन् ने अनुरोध किया कि जाने से पहले मैं कॉफ़ी की प्याली पी लूँ। उसके चेहरे के भाव और हाथों के हिलने से कुछ घबराहट और उत्तेजना झलक रही थी। वह मुझे बता चुका था कि त्रिचुर के बाहर का मैं पहला व्यक्ति हूँ जो उनके यहाँ अतिथि के रूप में आया हूँ। मुझे बाहर के कमरे में छोडक़र वह कॉफ़ी लाने के लिए अन्दर चला गया। मैं उस बीच कमरे के फ़र्श और दीवारों पर नज़र दौड़ाता रहा।

मन्दिर जाने से पहले श्रीधरन् ने जो कुछ बताया था, उससे मैं जान चुका था कि व अपनी माँ के साथ घर में अकेला रहता है। उम्र पैंतीस की हो चुकी थी, फिर भी उसने ब्याह नहीं किया था। आगे भी उसका ज़िन्दगी-भर ब्याह करने का विचार नहीं था। वह बहुत छोटा था जब उसके पिता का देहान्त हो गया था। बीच में कई बार छोडक़र अट्ठाईस साल की उम्र में उसने मुश्किल से बी.ए. की पढ़ाई पूरी की थी। माँ धार्मिक विचारों की थीं-घर के काम-काज से जितना समय बचता, सारा पूजा-पाठ में बिताती थीं। श्रीधरन् पर शुरू से ही माँ का बहुत प्रभाव था। इसलिए बी.ए. करते ही उसने धार्मिक संस्था की यह नौकरी कर ली थी। दूसरी किसी नौकरी की बात उसने सोची ही नहीं थी। यहाँ से कुल पैंतीस रुपया महीना मिलता था। त्रिचुर के बाहर सवा सौ की एक नौकरी मिल रही थी, पर वह त्रिचुर छोडक़र जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। आज तक सिर्फ़, एक बार वह त्रिचुर से बाहर गया था-कालीकट। पर वहाँ से लौटने पर उसे कई दिन बुख़ार आता रहा। माँ का विश्वास था कि भगवान् वडक्कुनाथन् की सेवा से दूर जाने के कारण ही ऐसा हुआ है। स्वयं श्रीधरन् को भी इस बात का पूरा विश्वास था। माँ स्वयं घर से मन्दिर की सडक़ को छोडक़र जीवन-भर त्रिचुर की ओर किसी सडक़ पर भी नहीं गयी थीं। सिर्फ़ एक बार श्रीधरन् माँ को एक धार्मिक चित्र दिखाने ले गया था। उस रात माँ ने एक बहुत बुरा सपना देखा और निश्चय कर लिया कि भविष्य में अपने निश्चित रास्ते को छोडक़र और किसी रास्ते पर कभी नहीं जाएँगी। श्रीधरन् को गर्व था कि उनके घर का वातावरण बहुत शान्त है-और घरों की तरह कलह-क्लेश की ध्वनियाँ वहाँ की शान्ति को भंग नहीं करतीं। माँ को और उसे इस शान्ति का इतना अभ्यास था कि वे ऐसे किसी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं थे जिससे वह वातावरण बदल जाए। श्रीधरन् के ब्याह न करने का भी यही कारण था। माँ उसके इस जितेन्द्रिय संकल्प से सन्तुष्ट थीं। सोचती थीं कि आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करके लडक़ा अपना परलोक सुधार रहा है। आगे चलकर असुविधा न हो, इसलिए एक समय का चौका-बर्तन श्रीधरन् अपने हाथ से करता था।

फ़र्श इस तरह चमक रहा था कि धूल का एक ज़र्रा भी हो, तो साफ़ नज़र आ जाए। श्रीधरन् ने बताया था कि माँ बड़ी मेहनत से हर रोज़ पूरे घर की सफ़ाई करती हैं। यूँ घर काफ़ी ख़स्ता हालत में था और दीवारों में जगह-जगह दरारें पड़ी थीं। घर में कुल तीन कमरे थे। एक आगे का जिसमें मैं बैठा था। उससे पीछे का कमरा रसोई का था। तीसरा कमरा जिसे मैं नहीं देख सका, रसोई से पीछे था और वहाँ काफ़ी अँधेरा था। माँ उसी कमरे में रहती थीं और वहीं उन्होंने एक छोटा-सा मन्दिर भी बना रखा था। घर के आँगन में घर का अपना कुँआ था जिस पर मन्दिर जाने से पहले मैं नहाया था। घर से निकलने पर पहले घर की ही एक छोटी-सी गली थी जिसके साथ पाँच फ़ुट की दीवार उठी हुई थी। इस गली के सिरे पर एक छोटा-सा दरवाज़ा था जो बाहर की गली में खुलता था। उस दरवाज़े को बन्द कर देने से वह घर-बाहर की दुनिया से बिल्कुल कट जाता था। अन्दर की गली में, घर की सीढिय़ों के पास, एक बड़ा-सा पीपल का पेड़ था जिसकी सूखी पत्तियाँ टूट-टूटकर खिडक़ी के रास्ते अन्दर के चमकते फ़र्श पर आ गिरती थीं। घर की ख़ामोशी में पत्तियों के फ़र्श पर घिसटने का शब्द ऐसे लगता था जैसे कोई अपने नाख़ूनों से उस एकान्त को छील रहा हो।

श्रीधरन् कॉफ़ी की दो प्यालियाँ एक थाली में लिये हुए अन्दर से आ गया। उसके चेहरे पर उत्तेजना और घबराहट पहले से बढ़ गयी थी। प्यालियाँ वह तिपाई पर रखने लगा, तो मैंने देखा कि उसका हाथ भी ज़रा-ज़रा काँप रहा है। उसने एक प्याली मुझे दी और दूसरी प्याली अपने लिए उठाता हुआ प्रयत्न के साथ मुस्कराया। परन्तु वह मुस्कराहट मुस्कराहट नहीं, अपने अन्दर के कसी आवेग को रोकने की कोशिश थी। कुछ देर चुपचाप कॉफ़ी पीते रहे। फिर मैंने उससे पूछ लिया कि वह अपना छुट्टी का दिन किस तरह बिताता है।

“मन्दिर से लौटकर माँ को 'भगवद्गीता' का पाठ सुनाता हूँ,” वह किसी तरह अपनी घबराहट पर क़ाबू पाने की चेष्टा करता बोला। “उसके बाद...रामकृष्ण आश्रम के स्वामीजी के पास चला जाता हूँ। वहाँ से आकर...आकर माँ को उनका प्रवचन सुनाता हूँ। फिर खाना खाकर कुछ देर स्वाध्याय करता हूँ। सायंकाल फिर मन्दिर में चला जाता हूँ। मन्दिर से लौटने तक खाना बनाने का समय हो जाता है। मैंने आपको बताया था न कि रात का खाना मैं अपने हाथ से बनाता हूँ।”

“हमेशा यह एक ही तरह का कार्यक्रम रहने से कभी आपका मन नहीं ऊबता?” मेरे मुँह से ये शब्द निकलते-न-निकलते श्रीधरन् का चेहरा पीला, फिर स्याह पड़ गया। उसने जल्दी से एक नज़र अन्दर की तरफ़ देख लिया, फिर दबे स्वर में कहा, “देखिए, ऐसी बात आपको नहीं कहनी चाहिए। माँ अँग्रेज़ी नहीं समझतीं-नहीं तो यह बात सुनकर उन्हें बहुत दु:ख होता।”

मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने ऐसी बात क्यों पूछ ली। मैंने क्षमा माँगते हुए उससे कहा कि मैं केवल जानकारी के लिए पूछ रहा था-किसी तरह की आलोचना करना मेरा उद्देश्य नहीं था।

“आपको ऐसा लग सकता है,” श्रीधरन् काँपते स्वर में बोला। “परन्तु हमारे लिए इससे सुखकर जीवन का कोई रूप हो ही नहीं सकता। आप बाहर के आदमी हैं, इसलिए आप...आप शायद इस चीज़ को नहीं समझ सकते।” फिर एक बार अन्दर की तरफ़ नज़र डालकर अटकते स्वर में उसने कहा, “हमें तो लगता है कि धर्म-चर्चा के लिए अब भी हमें बहुत कम समय मिल पाता है। आदमी कितना कुछ और कर सकता है-पर बहुत-सा समय घर के कामों में व्यर्थ चला जाता है।”

सहसा बहुत ही अव्यवस्थित होकर वह उठ खड़ा हुआ और बड़े-बड़े पग उठाता अन्दर चला गया। मैं कॉफ़ी पी चुका था। प्याली रखकर मैं दीवार पर लगे चित्रों को देखने लगा। धर्मशास्ता अय्यप्पया और अभिजात नायर-परिवार की सुन्दरी। राजा राम वर्मा और ईस्ट इंडिया कम्पनी का कप्तान। रामकृष्ण मिशन के स्वामीजी। श्रीधरन् की माँ। रामेश्वर का मन्दिर...।

श्रीधरन् लौट आया। उसका चेहरा अब और भी बेजान हो रहा था। मैं उसके आते ही उठ खड़ा हुआ। उसे धन्यवाद देते हुए मैंने कहा कि मैं अब वहाँ से चलना चाहूँगा। “चलने से पहले एक बार अन्दर जाकर माँ को भी धन्यवाद दे दूँ...।”

“चलना चाहेंगे आप?” श्रीधरन् बहुत आकस्मिक ढंग से बोला। “तो आइए मैं आपको बाहर दरवाज़े तक छोड़ दूँ।”

“हाँ, बस एक बार अन्दर माँ से मिल लूँ...।”

“नहीं, नहीं,” श्रीधरन् जैसे किसी संकट में पडक़र हाथ झाड़ता बोला। “माँ की तबीयत ठीक नहीं है। सिर में दर्द है-शायद थोड़ा बुख़ार भी है। आप उनसे...मेरा मतलब है आप अगर उनसे...देखिए बुरा नहीं मानिएगा। हमारे घर का वातावरण कुछ दूसरी तरह का है। आपको शायद...शायद मैं समझा नहीं सकूँगा...।”

“अच्छा, आप मेरी तरफ़ से उन्हें धन्यवाद दे दीजिएगा,” मैंने कहा। बात कुछ-कुछ मेरी समझ में आ रही थी। श्रीधरन् की आँखें डरी-डरी-सी हो रही थीं। लग रहा था जैसे वह अपने एक अपराध को सामने मूत्र्त-रूप में देख रहा हो। मेरा वहाँ आना शायद उस घर के जीवन की तीसरी मनहूस घटना थी। “मुझे दु:ख है कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वे स्वस्थ होतीं, तो मैं अवश्य उनसे मिलकर जाता।”

मैं हाथ जोडक़र चलने को हुआ, तो श्रीधरन् बोला, “मैं आपके साथ दरवाज़े तक चल रहा हूँ। बुरा नहीं मानिएगा। इस घर में बाहर का आदमी पहले कभी नहीं आया। इसीलिए...इसलिए शायद माँ...।” और वह जैसे अपनी ही बात में उलझकर चुप कर गया।

अन्दर की गली के दरवाज़े तक वह मेरे साथ आया। वहाँ से उसने हाथ जोड़ दिये। मैंने भी हाथ जोड़ दिये। मैं बाहर निकलकर खुली गली में चलने लगा। श्रीधरन? ने दरवाज़ा बन्द कर लिया।

भास्कर कुरुप

अर्णाकुलम्, कोचिन।

कोचिन के समुद्र-तट से लौटते हुए गेट के पास आकर मैं एक पुरानी इमारत को देखने के लिए रुक गया। वहाँ जो लडक़े खेल रहे थे, उनमें से एक ने पूछने पर बताया कि उस जगह का नाम मटनचरी पैलेस है-हिज़ हाइनेस का पुराना पैलेस।

मैंने पैलेस देखने की इच्छा प्रकट की, तो लडक़ा भागता हुआ चौकीदार को बुलाने चला गया। दो मिनट बाद आकर बोला, “इन सीढिय़ों से ऊपर चले जाइए। चौकीदार अन्दर से दरवाज़ा खोल रहा है।”

मैं ऊपर चला गया। चौकीदार ने दरवाज़ा खोल दिया था। मेरे ड्योढ़ी में पहुँचने पर उसने गम्भीर भाव से दीवार पर लगे बोर्ड की तरफ़ इशारा कर दिया। ख़ुद आँखें नीची किये दरवाज़े के पास खड़ा रहा।

मैंने बोर्ड पर पढ़ा कि वह महल डच काल में बना था और कि वहाँ के कुछ कमरों की दीवारों पर बने चित्र उस काल की कला के उत्कृष्ट उदहारण हैं। एक कमरे के रामायण म्यूरेल का विशेष उल्लेख था।

मैं पढ़ चुका, तो चौकीदार उँगली में चाबी लटकाये चुपचाप आगे-आगे चल दिया। पहले वह मुझे जिस कमरे में ले गया,उसकी दीवारों पर शिव-पार्वती, अद्ध-नारीश्वर और लक्ष्मी-पार्वती के चित्र बने थे। अद्ध-नारीश्वर के चित्र में मुझे रंगों की योजना बहुत आकर्षक लगी। मैं कुछ देर रुककर उस चित्र को देखता रहा। चित्र से आँखें हटाते हुए मुझे लगा कि चौकीदार बहुत ध्यान से मेरे चेहरे को देख रहा है। मुझसे आँखें मिलने पर वह कुछ कहने को हुआ,पर चुप रह गया। मैं उसके बाद कुछ देर एक और चित्र के पास रुका रहा। वहाँ से हटने लगा, तो फिर देखा कि चौकीदार उसी तरह मुझे ताक रहा है। इस बार वह साहस करके थोड़ा पास आ गया और बोला, “इस चित्र में देखने को बहुत कुछ है-विशेष रूप से चेहरे का भाव और उँगलियों की स्थिति। यह कथाकलि की मुद्रा है।”

मैंने अब आश्चर्य के साथ उसकी तरफ़ देखा। बात उसने साफ़ अँगरेज़ी में कही थी-जो नि:सन्देह रटी हुई भाषा नहीं थी। मैं और कुछ देर रुककर उस चित्र को देखता रहा। देखते हुए लगा कि पहली बार सचमुच मैं उसकी वह विशेषता लक्ष्य नहीं कर पाया था। इस बार मेरी आँखें चौकीदार की तरफ़ मुड़ीं, तो वह थोड़ा दूर खड़ा था और आँखें झुकाए कोने की तरफ़ देख रहा था।

वहाँ से निकलकर हम नीचे के एक कमरे में चले गये। वहाँ मटियाली सफ़ेद पृष्ठभूमि पर भूरी लकीरों से बने चित्र थे। विषय था पार्वती-विवाह। दीवार के एक कोने से शुरू करके बीच के हिस्से तक अरुन्धती और सप्तर्षियों का शिव से प्रार्थना करना कि असुर-विनाश के लिए वे विवाह कर लें तथा विवाह के लिए शिव का सज्जित होकर आना। शेष हिस्से में पार्वती के यहाँ विवाह की तैयारी तथा विवाह। कुछ जगह सफ़ेदी करनेवालों ने चित्रों पर अपनी कूचियाँ चला दी थीं। उस ओर संकेत करके चौकीदार ने कहा, “किसी भले आदमी को ये दीवारें मैली नज़र आती थीं। उसने इन्हें सफ़ेद करने की कोशिश की है।”

मैंने फिर उसकी तरफ़ देख लिया। यह भी लोगों को प्रभावित करने के लिए रटी गयी टिप्पणी नहीं हो सकती थी।

“कब की बात है यह?” मैंने पूछा।

उसने मुँह में कुछ कहा जो मेरी समझ में नहीं आया। शायद इसका उत्तर उसे मालूम नहीं था।

“तुम कब से काम कर रहे हो यहाँ?” मैंने इसलिए पूछा कि शायद यह बात उसके वहाँ नौकरी करने से पहले की हो।

“मैं यहीं पैदा हुआ था,” वह बोला। “यहीं पीछे हमारा घर है।”

मैंने उससे और नहीं पूछा। वह वहाँ से मुझे साथ के एक और कमरे में ले गया। वहाँ की दीवारों पर शिव-मोहिनी से लेकर पशु-पक्षियों तक के रति-समय के चित्र थे। वह वहाँ गोवद्र्धन पर्वत के चित्र की ओर संकेत करके बोला, “देखिए,इसमें पशु-पक्षियों के जीवन का कितना सूक्ष्म अध्ययन है।”

चित्र में सचमुच पर्वत-जीवन का बहुत सूक्ष्म और विस्तृत अध्ययन था, हालाँकि एक विसंगति भी उसमें थी। चित्रकार ने ब्रज के गोवद्र्धन पर्वत पर शेर और हरिण भी एकत्रित कर दिये थे। कुछ चित्रों में-विशेष रूप से कृष्ण-गोपी-विहार के चित्रों में-आँखों के वासनात्मक भाव का बहुत सुन्दर चित्रण था।

अन्त में हम उस कमरे में पहुँचे जहाँ रामायण-म्यूरेल बने थे। कमरे के एक कोने में दिया जल रहा था। उससे कमरे का धुआँरा वातावरण हल्के-हल्के काँपता महसूस होता था। चित्रों के रंगों में वहाँ अधिक निखार और स्पष्टता थी। मैं कमरे का पूरा चक्कर काटकर एक दीवार के पास रुका, तो चौकीदार ने पीछे से कहा, “इन चित्रों को इतना पास से मत देखिए। थोड़ा पीछे हटकर देखेंगे, तभी आपको इनकी वास्तविक सुन्दरता का पता चल सकेगा।”

हर बार बात कह चुकने पर उसकी आँखें दूसरी तरफ़ हट जाती थीं और निचला होठ क्षण-भर काँपता रहता था।”लगता है तुम चौकीदार ही नहीं, चित्रकला के पारखी भी हो,” मैंने हल्के से उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा। “यहाँ के सब चित्रों को लगता है तुमने बहत ध्यान से देख रखा है।”

उसकी आँखें पल-भर मेरी आँखों से मिली रहीं। फिर पहले से ज़्यादा झुक गयीं। “मैं भी एक चित्रकार हूँ,” उसने मुश्किल से सुनाई देते स्वर में कहा।

मैंने थोड़ा चौंककर उसे देखा। ख़ाकी निक्कर और बाहर निकली ख़ाकी कमीज़ पहने छोटे क़द और दुबले शरीर का वह चौकीदार एक चित्रकार था।

“तुम्हारा नाम क्या है?” मैंने पूछा। मेरी आँखें उसके फटे पैरों, बाँहों और टाँगों की रूखी चमड़ी और सूखे-मुरझाये होठों को देखती रहीं।

“भास्कर कुरुप,” उसने कहा। “मैं कोचिन स्कूल ऑव आर्ट में शिक्षा ले रहा हूँ।”

“तुम आर्ट स्कूल में शिक्षा ले रहे हो और साथ यह काम भी करते हो?”

इस पर उसने बताया कि पैलेस का चौकीदार वह नहीं, उसका पिता है। इन दिनों वह छुट्ठी पर गया है, इसलिए उसे अपनी जगह ड्यूटी पर छोड़ गया है। जब वह आर्ट स्कूल जाता है, तब उसकी जगह उसका भाई रामन ड्यूटी पर रहता है। यह वही लडक़ा था जिससे मैंने उस जगह के बारे में पूछा था।

बात करते हुए हम वापस ड्योढ़ी में आ गये। मैंने भास्कर से पूछा कि उसकी ड्यूटी का अभी कितना समय बाक़ी है। उसने बताया कि ड्यूटी का समय घंटा-भर पहले पूरा हो चुका है-इसीलिए मेरे आने तक दरवाज़ा बन्द हो चुका था। मैंने उससे कहा कि वह अगर ख़ाली है, तो हम कहीं चलकर साथ चाय पी सकते हैं।

भास्कर ने दरवाज़ा बन्द किया और मेरे साथ नीचे आ गया। वहाँ से हमने उसके छोटे भाई रामन को भी साथ ले लिया और पास ही एक चाय की दुकान में चले गये। वहाँ बात करते हुए मुझे भास्कर से पता चला कि उसकी उम्र कुल बाईस साल है, हालाँकि अपनी घनी मूँछों और चेहरे की गहरी लकीरों के कारण वह तीस-बत्तीस से कम का नहीं लगता था। वह पहले हाई स्कूल तक पढ़ा था। स्कूल से निकलने के बाद उसने दो-एक जगह नौकरी की, पर किसी भी नौकरी में उसका मन नहीं लगा। उसे बचपन से ही चित्र बनाने का शौक़ था। चाहता था किसी तरह अपने इस शौक़ को आगे बढ़ा सके। पिता आर्ट स्कूल की फ़ीस नहीं जुटा सकते थे, फिर भी किसी तरह वे वहाँ दाख़िल कराने के लिए राजी हो गये थे। वह पूरी कोशिश करता था कि उसकी पढ़ाई का बोझ पिता पर न पड़े। इसलिए अवकाश के समय मज़दूरी भी कर लेता था। मगर वह उसका निश्चित संकल्प था कि जैसे भी हो, वहाँ का अपना कोर्स ज़रूर पूरा करेगा।

स्वाभाविक रूप से मेरी यह इच्छा हो रही थी कि उसकी बनायी हुई चीज़ें देखी जाएँ। मैंने उससे कहा कि इसके लिए वहाँ से उठकर मैं उसके घर चलूँगा।

इससे भास्कर थोड़ा कुंठित हो गया। अपने नाख़ूनों को देखता बोला, “मैं अभी विद्यार्थी हूँ। सीख रहा हूँ। घर पर थोड़े से ख़ाके रखे हैं...पर उनमें ख़ास कुछ नहीं है।”

“ख़ास न सही,” मैंने कहा। “पर जो कुछ है, उसे दिखाने में तो तुम्हें एतराज़ नहीं?”

“नहीं, एतराज़ नहीं है मुझे,” वह बोला। “पर देखने को कुछ ख़ास नहीं है। आप अगर देखना ही चाहते हैं, तो मैं...रामन को भेजकर कुछ ख़ाके यही मँगवा लेता हूँ।”

उसके भाव से मुझे लगा कि ख़ाके दिखाने में शायद उसे उतना एतराज़ नहीं है, जितना मुझे साथ घर ले जाने में।

रामन जाकर जल्दी ही लौट आया। भास्कर ने उसके आते ही सब ख़ाके उसके हाथ से ले लिये और बहुत संकोच के साथ एक-एक करके मुझे दिखाने लगा। उसके विषय सीमित थे-फिर भी यह स्पष्ट था कि वह काफ़ी मेहनत और लगन से काम कर रहा है। एक बड़ा-सा फ्ऱेम उसने शुरू से ही अलग रख दिया था। और सब ख़ाके देख चुकने के बाद मैंने उससे कहा, “वह फ्ऱेम नहीं दिखाया तुमने।”

“वह...विघ्नेश्वर का चित्र है,” भास्कर अब और भी संकोच के साथ बोला। “वह मेरा पहला बड़ा चित्र है। परन्तु धार्मिक है, इसलिए...।”

उसने वह फ्ऱेम उठाकर मेरे सामने कर दिया। और चित्रों की तुलना में वह चित्र काफ़ी साधारण था। जब तक मैं उसे देखता रहा, भास्कर एकटक मेरी आँखों में कुछ पढऩे का प्रयत्न करता रहा। मैंने फ्ऱेम उसे लौटाया, तो उसकी आँखें अपने स्वभाव के अनुसार नीचे झुक गयीं।

“मैं धार्मिक चित्र नहीं बनाता,” उसेन जैसे सफ़ाई देते हुए कहा, “आज तक यही एक ऐसा चित्र मैंने बनाया है। यह मेरा पहला बड़ा चित्र था और मैंने सोचा कि...शुरुआत के लिए...यही ठीक होगा।”

कहते-कहते उसका चेहरा थोड़ा सुर्ख़ हे गया-अपनी आस्तिकता के अपराध-भाव से। मैं उसके दूसरे ख़ाकों को फिर और एक बार देखने लगा।

चाय पी चुकने के बाद भी हम लोग कुछ देर बात करते रहे। मैंने रामन से उसके बारे में पूछा, तो वह बहुत उत्साह से अपनी पढ़ाई-लिखाई का ब्यौरा मुझे देने लगा। उस बीच भास्कर अपनी कॉपी से एक काग़ज़ फाडक़र उस पर पेंसिल से कुछ लिखता रहा।

हम लोग चाय की दुकान से बाहर निकले, तो साँझ गहरी हो चुकी थी। तभी पानी के उस तरफ़ अर्णाकुलम् के बूलेवार की बत्तियाँ जल उठीं। साथ ही दायीं तरफ़ भारतीय नौ-सेना के दो जहाज़ भी जगमगा उठे। उन्हें गणतन्त्र दिवस के उपलक्ष्य में बत्तियों से सजाया गया था। भास्कर के नंगे पैर में कोई चीज़ खुभ गयी थी। वह झुककर उसे निकालने लगा। जब वह सीधा हुआ, तो मैंने विदा लेने के लिए उसकी तरफ़ हाथ बढ़ा दिया। भास्कर के होठ कुछ कहने के लिए हिले,पर उसने चुपचाप मुझसे हाथ मिलाया और वापस चल दिया। बोट जेट्टी की तरफ़ बढ़ते हुए मेरी नज़र एक बार पीछे की तरफ़ गयी, तो देखा कि भास्कर कुछ क़दम जाकर रुक गया है। मुझे अपनी तरफ़ देखते पाकर वह मुस्कराया और अनिश्चित भाव से मेरी तरफ़ बढ़ आया। पास आकर उसने काग़ज़ का वह टुकड़ा मेरे हाथ में दे दिया जिस पर उसने पेंसिल से कुछ लिखा था। मैंने खोलकर देखा। काग़ज़ पर उसका पता दिया हुआ था : भास्कर कुरुप, मटनचरी पैलेस,कोचिन।

मैंने अपनी पॉकेट-बुक से काग़ज़ फाडक़र उसे अपना पता लिख दिया और फिर एक बार उससे हाथ मिलाकर बोट जेट्टी की तरफ़ बढ़ आया।

यूँ ही भटकते हुए

एक भिखारिन, अपने बच्चे को छाती से सटाये, होठ उसके गाल पर रखे, अधमुँदी आँखों से फ़ुट-बोर्ड पर लटककर चलती गाड़ी से नीचे उतर गयी...।

गाड़ी आवली स्टेशन पर आकर रुक गयी।

आवली अर्णाकुलम् के पास ही है। किसी ने वहाँ की नदी के पानी की मुझसे बहुत प्रशंसा की थी। कहा था कि एक बार अवश्य मुझे वहाँ जाना चाहिए। मैं अपना सामान अर्णाकुलम् के होटल में छोडक़र वहाँ चला आया था।

प्लेटफ़ार्म पर उतरकर मैं रेल की पटरी के साथ-साथ चलने लगा। नदी तक जाने के लिए मुझे यही रास्ता बताया गया था। फिर भी दो-एक जगह रुककर मुझे लोगों से पूछना पड़ा। जिस समय नदी के किनारे पहुँचा, एक मल्लाह पार जाने के लिए सवारियों को बुला रहा थ। बिना यह सोचे कि पार जाकर क्या होगा, मैं नाव में बैठ गया।

पार पहुँचकर मैं किनारे के साथ-साथ चलने लगा। नदी में पानी ज़्यादा नहीं था। किनारे के उथले पानी में कुछ जगह पशु नहा रहे थे। कुछ जगह पतली ईंटें नावों में भरी जा रही थीं। एक जगह घाट-सा बना था जहाँ कुछ लोग पानी में डुबकियाँ लगा रहे थे। सामने पुल था। पुल बहुत ऊँचा था, इसलिए उसके नीचे से गुज़रता नदी का पानी बहुत ख़ामोश और उदास नज़र आ रहा था।

मैं किनारे के साथ-साथ चलता हुआ पुल के ऊपर पहुँच गया। वहाँ से नीचे झाँकने पर वह पुल मुझे और भी ऊँचा लगा। बहाव के एक तरफ़ खुली ज़मीन पर धोबियों ने कपड़े सूखने के लिए फैला रखे थे। सबके सब कपड़े बिल्कुल सफ़ेद थे। उनकी बाँहें-टाँगें इस तरह फैली थीं कि लगता था वे कपड़े नहीं मनुष्य-शरीर के तरह-तरह के व्यंग्य-चित्र हैं जो स्कूल से लौटते बच्चों ने चाक के चूरे से बना दिये हैं। मैं मन-ही-मन उन बाँहों-टाँगों को नयी-नयी व्यवस्था देता कुछ देर वहाँ खड़ा अपना मनोरंजन करता रहा।

नदी का बहुत बड़ा कैनवस मेरे सामने था। उस हिलते-बदलते कैनवस में लोग नहा रहे थे, कपड़े धो रहे थे, नावों में ईंटें ले जा रहे थे। पुल की ऊँचाई से देखते हुए लगता था कि ज़िन्दगी का वह छोटा-सा टुकड़ा, नदी के पानी के साथ, उसी की ख़ामोशी और गति लिये, चुपचाप बहा जा रहा है। मेरा मन होने लगा कि कुछ देर के लिए मैं भी उस कैनवस पर उतर जाऊँ-घाट पर कपड़े रखकर नदी के कमर तक गहरे पानी में दो डुबकियाँ लगा लूँ। मैं पुल से नीचे चला गया और काफ़ी देर बच्चों की तरह घाट पर हाथ रखे उथले पानी में पैर चलाता रहा।

नहाकर निकला, तो मन हो रहा था किसी से बात करूँ। ठंडे पनी ने शरीर में स्फूर्ति ला दी थी। मैंने एक मल्लाह से बात करने की कोशिश की, मगर उसमें सफलता नहीं मिली। भाषा अलग-अलग होने से बात की शुरुआत ही नहीं हो पायी। अगर मुझे कोई ख़ास बात कहनी होती, तो इशारों से भी काम चल सकता था। मगर मेरी इच्छा उस पर मन का कोई भाव प्रकट करने की नहीं, मुँह से बोलकर कुछ कहने की थी। अपनी यात्रा में बहुत कम ऐसे अवसर आये थे जब मुझे अपना भाषा न जानना उस तरह अखरा हो। मगर उस समय इस बात से मन बहुत उदास हुआ कि मैं वहाँ अजनबी हूँ-इतने लोगों के बीच होकर भी अकेला हूँ। इस मजबूरी से कि मैं किसी से बात ही नहीं कर सकता, इतना भी नहीं कह सकता कि पानी बहुत ठंडा है, नहाकर मज़ा आ गया-मुझे दिनों के बाद घर से दूर होने की चुभन महसूस हुई।

धूप में जिस्म सुखाकर कपड़े पहनने तक मैं पुल के कैनवस को देखता रहा। एक ऊँचा मेहराब जो हर चीज़ को अपनी तरफ़ खींच रहा था-पानी को,नावों को, लोगों को। दो लडक़े उस मेहराब के ऊपर से पानी की तरफ़ झाँक रहे थे। उनमें से एक ने पानी में ढेला फेंका। उससे कुछ छींटें उडक़र मेरे ऊपर पड़े। फिर दूसरे लडक़े ने ढेला फेंका। इस बार भी उसी तरह छींटे पड़े। लडक़े दो-एक मिनट यह खेलते रहे। फिर दौड़ते हुए पुल से सडक़ पर चले गये। मेरे पास की कुछ ज़मीन भी छींटों से भींग गयी थी। उससे जो गन्ध उठ रही थी, वह इतनी परिचित थी कि मेरी अजनबीपन की अनुभूति कुछ हद तक दूर होने लगी। मैंने गीली मिट्टी को पैर के नाख़ून से थोड़ा कुरेद दिया, फिर ऊपर की तरफ़ एक अनजान कच्चे रास्ते पर चल दिया।

वह रास्ता घरों के बीच से जाती एक गली-सी थी। एक घर के बरामदे में कुछ बच्चे खेल रहे थे। वहीं पास ही एक स्त्री खरल में चावल पीस रही थी। एक युवक फ़र्श पर टाँगें फैलाये अख़बार पढ़ रहा था। यह उस घर की अपनी दोपहर थी। मुझे अपने उस घर की याद आयी जिसमें मेरे बचपन के कई साल गुज़रे थे। उस घर की अपनी ही सुबह, अपनी ही दोपहर और अपनी ही शाम होती थी। सुबह स्कूल जाने की हलचल, दोपहर को रंगीन रोशनदानों से आती धूप की उदासी और शाम को बाहर बैठक में पिताजी के दोस्तों का अभाव। वह सुबह, दोपहर और शाम हमारे घर की संस्कृति थी। अब जिन घरों के पास से गुज़र रहा था, उनमें से हर घर की भी अपनी एक अलग संस्कृति थी-रोज़मर्रा के छोटे-छोटे टुकड़ों से बनी संस्कृति जो उस घर के हर व्यक्ति के आज और कल को किसी-न-किसी रूप में निर्धारित कर रही थी-साथ उस पूरे समूह के आज और कल को जिसकी व्यापक संस्कृति का निर्माण इन छोटी-छोटी संस्कृतियों के योग से होता है।

आगे खेत थे। खेतों के साथ मिट्टी की ऊँची मेंड़ें बनी थीं। बरसात से उनकी रक्षा के लिए उन्हें नारियल के पत्तों की चटाइयों से ढँका गया था। सामने मैदान की खुली धूप में एक मज़दूर ईंटें तोड़ रहा था। पास ही तीन-चार ढाँचों जैसे बच्चेे, जिनके सिर उनके शरीरों की तुलना में काफ़ी बड़े लगते थे, एक-दूसरे पर रोड़े फेंक रहे थे। उनसे कुछ हटकर एक स्त्री अपना सूखा स्तन बच्चे के मुँह में दिये बार-बार उसके गालों की रूखी चमड़ी को चूम रही थी। यह उस परिवार की अपनी दोपहर थी-एक और छोटी-सी संस्कृति!

रात को अर्णाकुलम् में वहाँ के आम्बलम् का वार्षिकोत्सव था। उस अवसर पर आम्बलम् को चारों ओर से दीयों से सजाया गया था। अन्दर देवालय के चारों ओर की जालियाँ अपने एक-एक झरोखे में टिमटिमाते दीयों की रोशनी में मोम की बनी-सी लग रही थीं। देवालय के सामने का स्वर्ण-स्तम्भ, काँपती लौ के नगीनों से जड़ा, किरणों की डोरियों में गुँथा, अपने और उत्सव के महत्त्व का विज्ञापन कर रहा था। स्तम्भ के आसपास की भीड़ में कुछ देर धक्के खाने के बाद में आम्बलम् के पिछले भाग की ओर चला गया। उधर उस समय और ज़्यादा हलचल थी। तीन बड़े-बड़े हाथी सामने आ रहे थे। लोगों की बहुत बड़ी भीड़ उन्हें घेरे थी। हाथी सुनहरे आभूषणों से सजे थे और उनके हौदों के ऊपर भी सुनहरे छत्र लगे थे। बीच के हाथी की पीठ पर मन्दिर के देवता को लाया जा रहा था। वहाँ लोगों से पता चला कि देवता को कई दिन इसी तरह हाथी की पीठ पर मन्दिर के चारों ओर घुमाया जाता है। वह रात आराट् की थी-अर्थात् देवता को जलस्नान कराने की। आराट् के साथ वह उत्सव समाप्त हो जाता था।

हाथियों के आगे तीन आदमी चार-चार जोतों की मशालें लिये चल रहे थे। साथ में पंचवाद्यम् था। लोगों में पंचवाद्यम् सुनने का बहुत उत्साह था। बजानेवाले भी बहुत मगन हाकर बजा रहे थे-विशेष रूप से शहनाईवाले।

रास्ते में कई घरों के आगे सजी हुई वेदिकाएँ बनी थीं। हर वेदिका के पास हाथियों को रोककर अक्षत, चन्दन आदि से उनकी पूजा की जाती। फिर बीच के हाथी को कुछ नैवेद्य दिया जाता और यात्रा आगे बढ़ जाती। ज्यों-ज्यों हाथी मन्दिर के पास पहुँच रहे थे, उनके आसपास भीड़ बढ़ती जा रही थी। भीड़ में प्राय: सभी स्त्री-पुरुष नंगे पाँव थे। अधिकांश स्त्रियों ने बड़े ढंग से केशों में फूल सजा रखे थे। फूल सजाने की उनकी अलग-अलग शैलियाँ थीं। कुछ ने अपनी साड़ी के साथ फूलों की अल्पनाएँ बना रखी थ्ीं। हाथी मन्दिर की सीमा के पास आ पहुँचे, तो लोगों का उत्साह दुगुना-तिगुना बढ़ गया। ज़ोर-शोर से पटाख़े चलाये जाने लगे और आतिशबाज़ी छोड़ी जाने लगी। आराट् का समय बहुत पास आ गया था।

आसपास सभी लोग किसी तरह मन्दिर के अन्दर पहुँचने के लिए संघर्ष कर रहे थे। भीड़ के उस दबाव में साँस लेना मुश्किल हो रहा था, इसलिए उलटा संघर्ष करके मैं किसी तरह भीड़ से बाहर निकल आया। सडक़ पर अब इक्का-दुक्का लोग ही थे। जो मेरी तरह भीड़ से बाहर निकल आये थे और एक तरफ़ खड़े होकर मन्दिर से छूटती आतिशबाज़ी के रंग देख रहे थे। कुछ मज़दूर थे जो अब उन वेदिकाओं को तोड़ रहे थे जिनमें थोड़ी देर पहले पूजा हुई थी। मैं भीड़ के बाहर आकर अभी दस क़दम भी नहीं चला था कि न जाने किस अँधेरे कोने से निकलकर एक व्यक्ति मेरे सामने आ खड़ा हुआ।”मिस्टर, तुम मुझे कुछ दे सकते हो?” उसने अँग्रेज़ी में कहा।

मैं थोड़ा अचकचाकर अपनी जगह पर रुक गया। उस आदमी को मैंने सिर से पाँव तक देखा। उसके सिर के बाल सड़ी हुई घास की तरह थे। कई दिनों की बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी एक खुरदुरे बुरुश-जैसी लग रही थी। फटी हुई कमीज़ की एक कन्नी नीचे लटक रही थी। बाँह पर फटा एक कम्बल था जिसे वह बच्चे की तरह छाती से चिपकाये था। नीचे उसने कुछ भी नहीं पहन रखा था।

“तुम्हें क्या चाहिए?” मैंने उससे पूछा।

“इकन्नी, दुअन्नी या जो भी तुम दे सको। मैं एक बार से ज़्यादा किसी से नहीं माँगता। उसे देना होता है, दे देता है। नहीं देना होता, नहीं देता।”

वह अच्छी अँग्रेज़ी बोल रहा था। मैंने सोचा कि कम-से-कम मैट्रिक तक तो वह पढ़ा ही होगा। “तुम भीख क्यों माँग रहे हो?” मैंने उससे कहा। “बातचीत से तो तुम ख़ासे पढ़े-लिखे जान पड़ते हो। अँग्रेज़ी इतनी अच्छी बोल लेते हो...।”

“मैं तीन भाषाएँ इतनी ही अच्छी बोल लेता हूँ,” वह बोला। “अँग्रेज़ी, संस्कृत और तमिल।” फिर तमिल में कुछ कहकर उसने कालिदास का एक श्लोक पूरा दोहरा दिया-”रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्...।” श्लोक पूरा करते ही उतावले स्वर में बोला, “बताओ तुम मुझे कुछ दे सकते हो या नहीं?”

“देने में मुझे एतराज़ नहीं,” मैंने कहा। “पर मैं जानना चाहता हूँ कि तुम पढ़े-लिखे होकर भी भीख क्यों माँग रहे हो?”

उसकी आँखों में एक चुभन आ गयी। “मैं बेकार हूँ और भूखा हूँ,” वह वितृष्णा और कड़ुआहट के साथ बोला।

“फिर भी पढ़ा-लिखा आदमी कुछ-न-कुछ काम तो...।”

वह सहसा तिरस्कारपूर्ण स्वर में हँसा और आगे चल दिया। उस स्वर से मुझे लगा जैसे चलते-चलते उसने मेरे गाल पर थप्पड़ मार दिया हो।

आम्बलम् में बहुत-से पटाख़े एक साथ छूटने लगे। आकाश में आतिशबाज़ी के कर्ई-कई रंग बिखर गये। इससे और पंचवाद्यम् के उत्तान स्वर से मुझे लगा कि आराट् का क्षण आ पहुँचा है।

मैंने एक बार अपने आसपास देख लिया। वह व्यक्ति अँधेरे में न जाने कहाँ गुम हो गया था।

पानी के मोड़

अर्णाकुलम् के जिस होटल में मैं ठहरा था, उसका मैनेजर बहुत मिलनसार आदमी था। उसकी मिलनसारी की वजह से बिल जहाँ ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाता था, वहाँ महसूस यही होता था कि एक दोस्त के यहाँ मेहमान बनकर ठहरे हुए हैं-और दोस्त भी ऐसा कि कह-कहकर हर चीज़ खिलाता था और बिना चाहे हर तरह का परामर्श देने लगता था।

“आज जा रहे हैं आप?” मैं चलने के दिन नाश्ते के बाद कॉफ़ी पी रहा था, तो वह मेरे पास आ बैठा। उसका पूछने का ढंग ऐसा था जैसे इसके बाद उसे यही कहना हो कि नहीं, मैं आज आपको नहीं जाने दूँगा।

“हाँ, आज शाम की बोट से अलेप्पी जाने की सोच रहा हूँ?” मैंने कहा।

“पेरियार लेक नहीं जाएँगे?”

मैं नहीं जानता था कि पेरियार लेक कहाँ है और उसकी विशेषता क्या है। मैंने उसे बता दिया कि न तो मुझे उस झील की कुछ जानकारी है और न ही मेरा वहाँ जाने का कार्यक्रम है।

“अरे!” वह बोला। “आप पेरियार लेक के बारे में नहीं जानते? वह दक्षिण-पश्चिमी भारत की सबसे सुन्दर झील है। दूसरी विशेषता यह है कि पहाड़ी झील है। चारों तरफ़ घना जंगल है जो हिंस्र जीवों की बहुत बड़ी सेंक्चुअरी है। आप नाव में बैठे-बैठे शेरों और चीतों को किनारे से पानी पीते देख सकते हैं। शिकार के लिए भी बहुत अच्छी जगह है। पर उसके लिए पहले इजाज़त लेनी पड़ती है।”

मैंने काफ़ी की प्याली ख़ाली करके रख दी। मेरी कल्पना में पेरियार लेक का चित्र बन रहा था-मीलों में फैला गहरे हरे रंग का पानी...पानी में उठती लहरें...एक छोटी-सी नाव...चारों तरफ़ घनी हरियाली...ऊँची-ऊँची पहाडिय़ाँ और एकान्त नि:स्तब्धता।

“यहाँ से कितनी दूर है?” मैंने पूछा।

“उसके लिए आपको यहाँ से अलेप्पी न जाकर पहले कोट्टायम् जाना होगा। कोट्टायम् से वह साठ-सत्तर मील है। बस या टैक्सी मिल जाती है। आप कहें, तो मैं यहीं से आपकी सारी व्यवस्था कर देता हूँ। सौ रुपये में जाना-आना और रहना सब हो जाएगा।”

सौ में से तीस-चालीस रुपये उसने बताया आने-जाने पर ख़र्च होंगे। तीस रुपये वहाँ नाव के देने होंगे। बाक़ी तीस-चालीस रहने-खाने और 'दूसरी सुविधाओं' पर लग जाएँगे। “ऐसी जगह आदमी का अकेले मन नहीं लगता न!” वह बोला। “इसलिए वहाँ के साथ का ख़र्च भी मैंने गिन लिया है। होटल वहाँ कोई है नहीं, इसलिए रहने-खाने का सारा इन्तज़ाम मेरे एक अपने आदमी के यहाँ होगा। वही आपके लिए दूसरा इन्तज़ाम भी कर देगा...एकदम ए क्लास। आप तय नहीं कर पाएँगे कि पेरियार लेक ज़्यादा ख़ूबसूरत है या...।”

मैं मन में मुस्कराया कि बनिये की आँख कितनी दूर तक जाती है। अर्णाकुलम् के होटल में बैठा वह आदमी पेरियार लेक के साथ-साथ वहाँ की किसी लडक़ी के सौन्दर्य का सौदा भी तय किये दे रहा था।

मैंने उसे नहीं बताया कि उस पूरी योजना पर ख़र्च करने के लिए सौ रुपया मेरे बजट में नहीं है। बहुत आभार के साथ उसे उसके सुझाव के लिए धन्यवाद देकर उठ खड़ा हुआ। कहा कि इस बार मेरे पास समय नहीं है-अगली बार आऊँगा, तो पेरियार लेक का कार्यक्रम अवश्य रखूँगा।

“ख़ैर जब भी जाएँ, जाइएगा मेरे प्रबन्ध से।” वह भी साथ उठता बोला। “मेरा कार्ड अपने पास रख लीजिए। पेरियार लेक पर मेरे-जैसी सुविधा आपको और कोई नहीं दे सकता।”

शाम को मैंने अलेप्पी जाने के लिए फ़ेरी ले ली। बैक-वाटर्ज़ की यात्रा का यह मेरा पहला अनुभव था। कोचिन से अलेप्पी तक बैक-वाटर्ज़ का खुला विस्तार है जो बेम्बनाद लेक के नाम से जाना जाता है। बेम्बनाद में फ़ेरी की वह यात्रा एक रोमांचक अनुभव था। कहीं खुले पानी में इतनी बत्तख़ें तैरती मिलतीं कि लगता हम बत्तखों के देश में प्रवेश कर रहे हैं। सहसा फ़ेरी का साइरन बजता और बत्तख़ें पानी की सतह छोड़ पंख फडफ़ड़ाती आकाश में उड़ जातीं। फ़ेरी के ऊपर उठते-गिरते पंखों की जाली-सी बुनी जाती। कुछ देर उड़ती रहने के बाद बत्तख़ें फिर पानी के किसी दूसरे हिस्से में उतर आतीं। तब दूर से देखकर लगता कि पानी पर रुई के फूलों का एक द्वीप तैर रहा है। पर कुछ ही देर में उधर से आती किसी फ़ेरी का साइरन बज उठता और रुई के फूलों का द्वीप फिर से फड़फ़ड़ाते पंखों में बदलकर आकाश में उड़ जाता।

अलेप्पी पहुँचने से पहले सुबह हो गयी। अब हम झील में नहीं, पानी की सडक़ों पर चल रहे थे-पानी की हाइवे, सबवे,दोराहे, चौराहे। यातायात के लिए बैकवाटर्ज़ को काटकर बनायी गयी उन नहरों की सतह पर सुबह की पहली किरणों के स्पर्श से सितारे-से झिलमिला रहे थे। फ़ेरी जहाँ किनारे के साथ-साथ छाया में चलती, वहाँ पानी में लचकते नारियलों के साये ऐसे लगते जैसे बड़े-बड़े अजगर, छटपटाते केंकड़ों को मुँह में लिये, धार से लड़ते हुए किलोल कर रहे हों। किनारे से थोड़ा हट आने पर पूरा आकाश पानी में प्रतिबिम्बित दिखाई देता और लगता कि नाव दो आकाशों के बीच से जाती धार में चल रही है। परन्तु फिर से धूप में आ पहुँचने पर नीचे का आकाश अदृश्य हो जाता और धार इकहरे आकाश के नीचे ठासे ज़मीन पर लौट आती।

शाम को अलेप्पी के समुद्र-तट पर तीन बच्चों के साथ मिलकर रेत के आम्बलम् बनाता रहा। जिस समय समुद्र-तट पर पहुँचा, वे बच्चे-एक लडक़ी, दो लडक़े-पहले से वहाँ रेत के घरौंदे बना रहे थे। मैं कुछ देर रुककर उनके हाथों का कौशल देखता रहा, फिर पैरों के भार उनके पास बैठ गया। लडक़ी ने न जाने कैसे-शायद अपनी स्त्री-बुद्धि से-पहचान लिया कि मैं मलयालम-भाषी नहीं हूँ। वह अटक-अटककर वाक्य बनाती बोली, “आप...क्या...हिन्दी-भाषी हैं?”

“हाँ,” मैंने कहा। “तुम्हें हिन्दी आती है?”

“मैं...हम...हिन्दी में...,” और रुककर उसने बस्ते से अपनी हिन्दी की किताब निकाल ली। उसमें देखकर बोली, “मैं...दूसरे फ़ार्म में...हिन्दी पढ़ती हूँ।”

हिन्दी में हम लोगों की बातचीत ज़्यादा नहीं चल सकी। उन लोगों को हिन्दी के थोड़े-से ही वाक्य बनाने आते थे। मगर इसके बावजूद जल्दी ही हममें घनिष्ठता हो गयी और वे मुझे रेत का आम्बलम् बनाना सिखाने लगे। जिस तरह उन्होंने चारों तरफ़ से रेत में सूराख़ करना शुरू किया, उससे मुझे लगा कि वे एक भट्ठी बनाने जा रहे हैं। मगर धीरे-ध्ीरे वे सूराख़ आम्बलम् के अन्दर जाने के रास्ते बन गये, रास्तों के आगे गोपुरम् खड़े हो गये और बीच में देवस्थान की स्थापना हो गयी। एक लडक़े ने अपनी जेब में लाल फूल भर रखे थे। वे उसने आम्बलम् में इधर-उधर बिखरा दिये। इससे शिल्प के अतिरिक्त आम्बलम् का वातावरण भी प्रस्तुत हो गया।

आम्बलम् बना चुकने पर उन्होंने मुझसे कहा कि अब मैं भी वैसा ही आम्बलम् बनाऊँ। मैंने बड़ी तत्परता से अपना निर्माण-कार्य शुरू किया। मगर जब मेरा आम्बलम् बनकर तैयार हुआ, तो वह आम्बलम् न लगकर भूतों का डेरा लग रहा था। बच्चे मेरे आम्बलम् पर काफ़ी देर हँसते रहे।

फिर हम सफ़ेद कबूतरों को पकडऩे के लिए उनका पीछा करने लगे। कबूतर कुछ ऐसे अविश्वासी थे कि हम अभी उनसे बीस क़दम दूर होते और वह सारे का सारा झुंड उडक़र पचास क़दम और आगे चला जाता। हम बहुत सावधानी से आगे बढ़ते हुए फिर उनसे पन्द्रह-बीस क़दम पर पहुँचते, तो वे फिर उडक़र बीच का फ़ासला उतना ही कर देते। हम शायद मील-भर उनके पीछे दौड़ते रहे। पर कबूतरों ने एक बार भी हमें अपने इतना पास नहीं पहुँचने दिया कि हम कपड़ा डालकर उनमें से किसी एक को पकडऩे की कोशिश कर सकते।

बच्चे चले गये, तो कुछ देर में थककर अकेला रेत पर लेटा रहा। कन्याकुमारी की ओर जाती समुद्र की तट-रेखा दूर तक दिखाई दे रही थी। समुद्र में पानी धीरे-धीरे बढ़ रहा था। एक लहर मुझसे एक गज़ दूर तक की रेत को भिगो गयी। फिर एक और लहर मुझसे पाँच-छह इंच दूर तक आकर लौट गयी। उसके बाद अगली लहर उससे भी दो फ़ुट आगे तक चली आयी। मगर मैं तब तक वहाँ से उठकर वापस चल दिया था।

अलेप्पी से मैं कोइलून आ गया। कोइलून में थंकासरी समुद्र-तट के पास लाइट-हाउस है। मन हुआ कि देखा जाए उस मीनार पर चढक़र समुद्र कैसा नज़र आता है। बड़ी मुश्किल से ऊपर जाने की इजाज़त मिली। ऊपर गुम्बज़ में पहुँचकर नीचे देखा, तो समुद्र समुद्र-जैसा न लगकर ऐसे लग रहा था जैसे रेशम की मुचड़ी हुई पतली सुरमई चादर यहाँ से वहाँ तक फैली हो। समुद्र में चलती नावें भी उस ऊँचाई से बहुत छोटी लग रही थीं-अपनी छायाओं और पीछे बनती सफ़ेद लकीरों-समेत उस कपड़े पर काढ़ी गयी आकृतियों-जैसी। दूसरी तरफ़ घने नारियलों के शिखर क्षितिज तक फैले थे। धूप और हवा मिलकर उनमें चमचमाती लहरें पैदा कर रही थीं। पानी और नारियल के झुंडों का वह एक-सा लहराव तट-रेखा के पास जाकर मिल गया था। तट-रेखा साँप की तरह बलखाती उत्तरोत्तर दक्षिण-पूर्व की ओर सिमटती गयी थी। वहाँ से उस रेखा को देखकर लगता था कि उसका छोर अब दूर नहीं है-थोड़ा और ऊँचे उठ सकें, तो वह बिन्दु भी नज़र आ सकता है जहाँ जाकर वह समुद्र में खो जाती है।

कोवलम्

कोवलम् बीच त्रिवेन्द्रम् से सात मील दूर है। उसे यह नाम शायद इसलिए दिया गया है कि उसका आकार मलयालम् के अक्षर 'को' से मिलता-जुलता है।

मेरा इरादा रात वहाँ के रेस्ट-हाउस में काटने का था। यह सोचकर कि बिस्तर वहीं मिल जाएगा, मैं अपना सामान त्रिवेन्द्रम् के होटल में ही छोड़ आया था।

जिस बस्ती में बस ने छोड़ा, वहाँ से बीच एक मील पर था। शाम हो चुकी थी। मैंने स्टाप पर उतरकर अपने आसपास देखा। कुछ दूर तीन-चार बुड्ढे पत्थरों पर बैठे अपनी ज्ञान-गोष्ठी में लीन थे। एक लडक़ा साथ-साथ बँधी पन्द्रह-बीस बकरियों को हाँक रहा था। सडक़ के मोड़ के पास एक स्त्री चूल्हा जला रही थी। बायीं तरफ चाय की दुकान में अँगीठी पर पानी उबल रहा था। मैं पहले एक प्याली चाय पी लेने के लिए उस दुकान के अन्दर चला गया।

वहाँ कितने ही लोग चाय पी रहे थे। एक बाहर के व्यक्ति को आया देखकर उनकी बातचीत रुक गयी। मैं कुछ बेढब-सा महसूस करता एक तरफ़ जा बैठा। जब तक मेरी चाय आयी, तब तक एक अधेड़ व्यक्ति उठकर मेरे पास आ गया। उसने आते ही पूछना शुरू किया कि मैं कहाँ से आया हूँ और उस जगह मेरे आने का कारण क्या है। यह जानकर कि मैं दिल्ली की तरफ़ से आया हूँ, वह पास की कुर्सी पर बैठ गया और दिल्ली के बारे में तरह-तरह की बातें पूछने लगा।

कुछ देर बाद जब मैं चाय पीकर उस दुकान से निकला, तो वह भी मेरे साथ था। उसकी बातें अभी समाप्त नहीं हुई थीं,इसलिए कोबलम् की सडक़ पर भी वह मेरे साथ-साथ चलने लगा। सुनसान सडक़ थी। दूर तक कोई आता-जाता दिखाई नहीं दे रहा था। अँधेरा भी उतर आया था। मुझे उसका साथ चलना अच्छा ही लगा, क्योंकि अकेले में हो सकता था किसी ग़लत रास्ते पर भटक जाता। वह मुझसे सब कुछ पूछ चुकने के बाद अब अपने बारे में बता रहा था। वह वहाँ से कुछ मील दूर एक गाँव में रहता था। “हमारे गाँव का ज़मींदार बहुत ज़ालिम आदमी है,” वह कह रहा था। “मगर ऊपर तक उसकी इतनी पहुँच है, कि कभी उस पर कोई जाँच नहीं आती। सारा इलाक़ा उससे थर-थर काँपता है। किसानों पर झूठे मुक़दमे बनाना, उन्हें पिटवाना या जान से मरवा देना और उनकी बहू-बेटियों की इज्ज़त उतारना, ये सब उसके रोज़ के कारनामे हैं। क्या किसी तरह उस आदमी की रिपोर्ट पंडित नेहरू तक नहीं पहुँचायी जा सकती?”

रास्ता सँकरा था और जगह-जगह उसमें फिसलन भी थी। एकाध जगह मेरा पाँव फिसलने को हुआ, तो बाँह से पकडक़र उसने मुझे सँभाल लिया। ज़मींदार पर अपने मन का गुबार निकाल चुकने के बाद वह मुझे वहाँ के जीवन के बारे में और-और बातें बताने लगा। आख़िर हम उस दोराहे पर पहुँच गये जहाँ से एक रास्ता रेस्ट-हाउस की तरफ़ जाता था और दूसरा बीच की तरफ़। मैंने सोचा कि पहले कुछ देर बीच पर बैठते हैं-रेस्ट-हाउस में जाकर तो सोना ही है, वहाँ किसी भी समय जाया जा सकता है।

बीच पर आकर हम लोग काफ़ी देर रेत पर टाँगें फैलाये बैठे रहे। वह उसी तरह बात करता रहा-अपने बारे में, गाँव के बारे में, वहाँ के लोगों के बारे में-बच्चों की-सी सादगी के साथ। सामने समुद्र का पानी अजब बेबसी के साथ अँधेरे में छटपटा रहा था। लहरों का झाग एक धमाके के साथ रेत से टकराता, फिर हारा-सा लौट जाता। कुछ देर दूर कुनमुनाने के बाद फिर उसी तरह ज़ोर से आकर टकराता और फिर लौट जाता।

“हम लोग यहाँ आधे भूखे रहकर ज़िन्दगी काटते हैं,” वह कह रहा था। “महँगाई दिन-ब-दिन इस तरह बढ़ती जा रही है कि हम लोग चावल तो क्या, मर्चिनी-टेपियोका-भी भर-पेट नहीं खा पाते। वह दिन बहुत ख़ुशक़िस्मती का होता है जिस दिन खाने को चावल मिल जाए। कई बार हम लोग सिर्फ़ भुनी हुई मछली खाकर रह जाते हैं क्योंकि तेल के लिए पैसे नहीं होते। एक यह समुद्र ही है जिसने अब तक हमारे मछली के कोटे में कमी नहीं की-पता नहीं किस दिन सरकार इस पर भी प्रतिबन्ध लगा दे और हमें मछली मिलना भी मुश्किल हो जाए।”

मेरा आधा ध्यान उसकी बातों में था, आधा समुद्र की तरफ़। लहरें उछल-उछलकर रेत पर सिर पटक रही थीं-एक आवेश और पागलपन के साथ। जैसे रेत ने कोई चीज़ अपने में ढक रखी थी जिसे उन्हें रेत की सतह तोडक़र हासिल कर लेना था।

“ग़रीबी और बेकारी इतनी है कि कई घरों की लड़कियों को मजबूर होकर पेशा करना पड़ता है,”-मेरा साथी कह रहा था। “दो वक़्त खाने के लिए मर्चिनी तो किसी तरह मिलनी ही चाहिए। सरकारी तौर पर वेश्यावृत्ति पर प्रतिबन्ध है,पर सरकारी हलक़े में ही उन लड़कियों की माँग सबसे ज़्यादा है। वे रात को त्रिवेन्द्रम् के होटलों में ले जायी जाती हैं, या अपने घास और टाट के घरों में ही छिपे-छिपे यह व्यापार करती हैं। हम लोग आँखों से देखते हुए भी नहीं कह सकते। कहें, तो उन्हें खाना-दाना कहाँ से लाकर दें?”

अँधेरे के साथ-साथ समुद्र का पागलपन बढ़ता जा रहा था। अब लहरें आस-पास की पूरी रेत को घेर लेने की कोशिश में थीं। जब हमें लगा कि हमारे बैठने की जगह भी अब सुरक्षित नहीं है, तो हम उठकर रेस्ट-हाउस की तरफ़ चल दिये। पर वहाँ पहुँचने पर पता चला कि रेस्ट-हाउस में कोई भी कमरा या बिस्तर ख़ाली नहीं है। नौ बज रहे थे। लौटकर त्रिवेन्द्रम् जाने के लिए भी कोई बस नहीं मिल सकती थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करना चाहिए-बिना बिस्तर के सिवाय रेस्ट-हाउस के और कहाँ रात काटी जा सकती थी? मैंने चौकीदार की थोड़ी मिन्नत की, उसे लालच दिया,उससे बहस भी की-पर काम नहीं बना। आख़िर उस पर झल्लाकर मैं रेस्ट-हाउस से बाहर चला आया।

मेरा साथी भी मेरी वजह से परेशान था। पर उसके होठों पर हल्की मुस्कराहट भी थी। शायद इसलिए कि थोड़ी देर पहले तक मैं जितना गम्भीर और ख़ामोश था, रेस्ट-हाउस में जगह न मिलने से उतना ही बिखर गया था। बीतनेवाली रात का पूरा संकट माथे पर लिये मैं कुछ देर उसके साथ दोराहे पर खड़ा रहा-जैसे कि बस्ती, रेस्ट-हाउस और बीच के अलावा वहाँ से किसी चौथी तरफ़ भी जाया जा सकता हो। मेरा साथी भी मन-ही-मन स्थिति का जायज़ा लेता रहा। फिर बोला, घबराइए नहीं, अभी कुछ-न-कुछ इन्तज़ाम हो जाएगा। मैं गाँव में पता करता हूँ-शायद वे लोग स्कूल का कोई कमरा रात-भर के लिए खोल दें।”

वह जिधर को चला, मैं चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलता गया। गाँव वहाँ पास ही था। एक स्कूल की इमारत को छोडक़र बाक़ी सब कच्ची झोपडिय़ाँ थीं। वहाँ पहुँचकर उसने कुछ लोगों से बात की, तो उन्होंने स्कूल का कमरा खोल देने में आपत्ति नहीं की। कमरा खुलने पर हमने वहाँ तीन बेंचें साथ-साथ जोड़ लीं। गाँव के घरों से एक चादर और तकिया भी ला दिया गया। इस तरह रात काटने की व्यवस्था हो गयी। मुझे भूख लगी थी। रेस्ट-हाउस के चौकीदार से लड़ आया था, इसलिए खाना खाने वहाँ नहीं जाना चाहता था। मैंने कुछ संकोच के साथ अपने साथी से इसका ज़िक्र किया। उसने फिर जाकर गाँव के लोगों से बात की। पर पता चला कि खाने को उस समय वहाँ कुछ नहीं मिलेगा-सिर्फ़ किसी लडक़े को भेजकर बस्ती से दूध मँगवाया जा सकता है।

एक लडक़े को बस्ती भेजकर हम लोग काफ़ी देर स्कूल के बरामदे में बैठे बात करते रहे। जिस आदमी से स्कूल की चाबी ली गयी थी, वह भी अपने दामाद के साथ वहीं आ गया। दो-एक और लोग भी आ गये। उनमें अँग्रेज़ी बोलने-समझनेवाला कोई नहीं था, इसलिए मेरा साथी एक तरह से इंटरप्रेटर का काम करता रहा। बातचीत का विषय वही था-भूख, बीमारी और बेरोज़गारी। दिल्ली की तरफ़ से आये व्यक्ति को वे अपने पूरे हालात बता देना चाहते थे। एक बुड्ढा बार-बार कह रहा था-गम्भीर भाव से-कि क्या दिल्ली की सरकार ऐसा कोई क़ानून नहीं बना सकती जिससे हर आदमी को दोनों वक़्त का खाना मिलना अनिवार्य हो जाए? “बैल चारा खाता है, तभी हल जोतता है,” उसने कहा। “उसे चारा न मिले, तो वह काम नहीं कर सकता। हम लोग सरकार के बैल हैं। क्या सरकार का यह फ़र्ज़ नहीं कि हमें पूरा चारा दे?”

जो लडक़ा बस्ती गया था, वह दूध लेकर लौट आया। उसके पीछे-पीछे दो व्यक्ति भी आये-एक लकड़ी टेकता बुड्ढा और एक युवा स्त्री। स्त्री ज़रा पीछे रुकी रही, बुड्ढा हम लोगों के पास आ गया। उसकी सफ़ेद दाढ़ी काफ़ी ऊँची-नीची कटी हुई थी। पास आकर वह कुछ पल मुझे ध्यान से देखता रहा, फिर अपनी भाषा में कुछ कहने लगा। मेरे साथी ने मेरे लिए अनुवाद कर दिया। बुड्ढे का लडक़ा कुछ दिन पहले घर छोडक़र चला गया था। किसी ने उसे बताया था कि वह भागकर दिल्ली गया है। आज यह जानकर कि मैं दिल्ली की तरफ़ से आया हूँ, वह अपनी बहू को साथ लेकर मील-भर से यह पता करने आया था कि दिल्ली में रहते कभी मेरी नज़र भूमिनाथन् नाम के किसी लडक़े पर तो नहीं पड़ी-लडक़े की उम्र लगभग मेरे जितनी है, रंग साँवला है और बात करते हुए वह थोड़ा हकलाता है।

मैंने उसे बताया कि एक तो मैं दिल्ली का रहनेवाला नहीं हूँ, दूसरे दिल्ली-जैसे शहर में किसी को इस तरह पहचान पाना सम्भव नहीं है। बुड्ढा निराश होकर पल-भर कुछ सोचता खड़ा रहा। फिर वापस चल दिया। अपनी बहू के पास पहुँचकर रुक गया। युवा स्त्री कुछ देर धीमे स्वर में उसे कुछ समझाती रही। उसकी बात सुनकर वह फिर हम लोगों के पास चला आया। आकर मुझे लडक़े के क़द-काठ और चेहरे-मोहरे के बारे में विस्तार से बताने लगा। पर मैं इस पर भी उसे कोई आश्वासन नहीं दे सका, तो वह अविश्वास की एक नज़र मुझ पर डालकर फिर वापस चला गया। इस बार उसकी बहू ने भी उससे और बात नहीं की-सिर झुकाये चुपचाप उसके पीछे-पीछे चली गयी।

उनके चले जाने के बाद मुझे बताया गया कि भूमिनाथन् को घर छोडक़र गये साल से ऊपर हो चुका है। उन लोगों के पास पहले अपनी ज़मीन थी जो लगान न दे सकने के कारण उनके हाथों से चली गयी थी। घर में बूढ़े बाप और पत्नी के अलावा भूमिनाथन् के दो बच्चे भी थे। मज़दूरी करके वह पाँच आदमियों का पेट नहीं भर पाता था। एक दिन ग़ुस्से में आकर उसने बाप को पीट दिया। फिर इस बात का मन को इतना रंज लगा कि उसी रात घर छोडक़र चला गया। कुछ लोगों का ख़याल था कि उसने वहाँ से जाकर आत्महत्या कर ली थी। बुड्ढा रात-दिन उसकी याद में रोता रहता था,इसलिए लोगों ने उससे कह दिया था कि भूमिनाथन् मरा नहीं है, दिल्ली में है-एक आदमी ने अपनी आँखों से उसे वहाँ देखा है।

“अब इसकी बहू मज़दूरी करके घर का ख़र्च चलाती है। तब इसी बात पर बाप-बेटे में लड़ाई हुई थी। लडक़ा चाहता था कि उसकी बीवी भी साथ मज़दूरी करे, पर बाप इसके लिए राजी नहीं था। उसका हठ था कि उनके घर की कोई लडक़ी-औरत मज़दूरी करने नहीं जा सकती। अब भी वही घर है, वही वह ख़ुद है जो बहू की कमाई खाकर चुपचाप पड़ा रहता है। आदमी का पेट है-कब तक भूखा रह सकता है?”

थोड़ी देर में बुड्ढा फिर वापस आता दिखाई दिया। उसकी बहू अब उसके साथ नहीं थी। इस बार आकर वह बोला कि मैं लौटकर दिल्ली जाऊँ तो ख़याल ज़रूर रखूँ। हो सकता है कभी उस पर मेरी नज़र पड़ जाए। उस हालत में मैं उसे चिट्ठी डाल दूँ। और वह नये सिरे से मुझे लडक़े नयन-नक्श और रंग-रूप आदि के विषय में बताने लगा।

मैंने इस बार कह दिया कि मैं दिल्ली जाऊँगा, तो ज़रूर ख़याल रखूँगा। बुड्ढे की आँखें भर आयीं। वह चलने के लिए तैयार होकर आँखें पोंछता हुआ बोला कि सुबह मैं वहाँ से जल्दी न चला जाऊँ, उसका इन्तज़ार कर लूँ-वह आकर मुझे अपना पता लिखा एक पोस्ट-कार्ड दे जाएगा।

आख़िरी चट्टान

कन्याकुमारी। सुनहले सूर्योदय और सूर्यास्त की भूमि।

केप होटल के आगे बने बाथ टैंक के बायीं तरफ, समुद्र के अन्दर से उभरी स्याह चट्टानों में से एक पर खड़ा होकर मैं देर तक भारत के स्थल-भाग की आख़िरी चट्टान को देखता रहा। पृष्ठभूमि में कन्याकुमारी के मन्दिर की लाल और सफ़ेद लकीरें चमक रही थीं। अरब सागर, हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी-इन तीनों के संगम-स्थल-सी वह चट्टान,जिस पर कभी स्वामी विवेकानन्द ने समाधि लगायी थी, हर तरफ़ से पानी की मार सहती हुई स्वयं भी समाधि-स्थित-सी लग रही थी। हिन्द महासागर की ऊँची-ऊँची लहरें मेरे आसपास की स्याह चट्टानों से टकरा रही थीं। अरब सागर,हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी-इन तीनों के संगम-स्थल-सी वह चट्टान, जिस पर कभी स्वामी विवेकानन्द ने समाधि लगायी थी, हर तरफ़ से पानी की मार सहती हुई स्वयं भी समाधि-स्थित-सी लग रही थी। हिन्द महासागर की ऊँची-ऊँची लहरें मेरे आसपास की स्याह चट्टानों से टकरा रही थीं। बलखाती लहरें रास्ते की नुकीली चट्टानों से कटती हुई आती थीं जिससे उनके ऊपर चूरा बूँदों की जालियाँ बन जाती थीं। मैं देख रहा था और अपनी पूरी चेतना से महसूस कर रहा था-शक्ति का विस्तार, विस्तार की शक्ति। तीनों तरफ़ से क्षितिज तक पानी-ही-पानी था, फिर भी सामने का क्षितिज, हिन्द महासागर का, अपेक्षया अधिक दूर और अधिक गहरा जान पड़ता था। लगता था कि उस ओर दूसरा छोर है ही नहीं। तीनों ओर के क्षितिज को आँखों में समेटता मैं कुछ देर भूला रहा कि मैं मैं हूँ, एक जीवित व्यक्ति, दूर से आया यात्री, एक दर्शक। उस दृश्य के बीच में जैसे दृश्य का एक हिस्सा बनकर खड़ा रहा-बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच एक छोटी-सी चट्टान। जब अपना होश हुआ, तो देखा कि मेरी चट्टान भी तब तक बढ़ते पानी में काफ़ी घिर गयी है। मेरा पूरा शरीर सिहर गया। मैंने एक नज़र फिर सामने के उमड़ते विस्तार पर डाली और पास की एक सुरक्षित चट्टान पर कूदकर दूसरी चट्टानों पर से होता हुआ किनारे पर पहुँच गया।

पश्चिमी क्षितिज में सूर्य धीरे-धीरे नीचे जा रहा था। मैं सूर्यास्त की दिशा में चलने लगा। दूर पश्चिमी तट-रेखा के एक मोड़ के पीली रेत का एक ऊँचा टीला नज़र आ रहा था। सोचा उस टोले पर जाकर सूर्यास्त देखूँगा।

यात्रियों की कितनी ही टोलियाँ उस दिशा में जा रही थीं। मेरे आगे कुछ मिशनरी युवतियाँ मोक्ष की समस्या पर विचार करती चल रही थीं। मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा-चुपके से मोक्ष का कुछ रहस्य पा लेने के लिए। यूँ उनकी बातों से कहीं रहस्यमय आकर्षण उनके युवा शरीरों में था और पीली रेत की पृष्ठभूमि में उनके लबादों के हिलते हुए स्याह-सफ़ेद रंग बहुत आकर्षक लग रहे थे। मोक्ष का रहस्य अभी बीच में ही था कि हम लोग टीले पर पहुँच गये। यह वह 'सैंड हिल'थी जिसकी चर्चा मैं वहाँ पहुँचने के बाद से ही सुन रहा था। सैंड हिल पर बहुत-से लोग थे। आठ-दस नवयुवतियाँ, छह-सात नवयुवक और दो-तीन गाँधी टोपियोंवाले व्यक्ति। वे शायद सूर्यास्त देख रहे थे। गवर्नमेंट गेस्ट हाउस के बैरे उन्हें सूर्यास्त के समय की कॉफ़ी पिला रहे थे। उन लोगों के वहाँ होने से सैंड हिल बहुत रंगीन हो उठी थी। कन्याकुमारी का सूर्यास्त देखने के लिए उन्होंने विशेष रुचि के साथ सुन्दर रंगों का रेशम पहना था। हवा समुद्र की तरह उस रेशम में भी लहरें पैदा कर रही थी। मिशनरी युवतियाँ वहाँ आकर थकी-सी एक तरफ़ बैठ गयीं-उस पूरे कैनवस में एक तरफ़ छिटके हुए कुछ बिन्दुओं की तरह। उनसे कुछ दूर का एक रंगहीन बिन्दु, मैं, ज़्यादा देर अपनी जगह स्थिर नहीं रह सका। सैंड हिल से सामने का पूरा विस्तार तो दिखई दे रहा था, पर अरब सागर की तरफ़ एक और ऊँचा टीला था जो उधर के विस्तार को ओट में लिये था। सूर्यास्त पूरे विस्तार की पृष्ठभूमि में देखा जा सके, इसके लिए मैं कुछ देर सैंड हिल पर रुका रहकर आगे उस टीले की तरफ़ चल दिया। पर रेत पर अपने अकेले क़दमों को घसीटता वहाँ पहुँचा, तो देखा कि उससे आगे उससे भी ऊँचा एक और टीला है। जल्दी-जल्दी चलते हुए मैंने एक के बाद एक कई टीले पार किये। टाँगें थक रही थीं, पर मन थकने को तैयार नहीं था। हर अगले टीले पर पहुँचने पर लगता कि शायद अब एक ही टीला और है, उस पर पहुँचकर पश्चिमी क्षितिज का खुला विस्तार अवश्य नज़र आ जाएगा। और सचमुच एक टीले पर पहुँचकर वह खुला विस्तार सामने फैला दिखाई दे गया-वहाँ से दूर तक रेत की लम्बी ढलान थी, जैसे वह टीले से समुद्र में उतरने का रास्ता हो। सूर्य तब पानी से थोड़ा ही ऊपर था। अपने प्रयत्न की सार्थकता से सन्तुष्ट होकर मैं टीले पर बैठ गया-ऐसे जैसे वह टीला संसार की सबसे ऊँची चोटी हो, और मैंने, सिर्फ़ मैंने, उस चोटी को पहली बार सर किया हो।

पीछे दायीं तरफ़ दूर-दूर हटकर उगे नारियलों के झुरमुट नज़र आ रहे थे। गूँजती हुई तेज़ हवा से उनकी टहनियाँ ऊपर को उठ रही थीं। आकाश की तरफ़ उठकर हिलती हुई वे टहनियाँ ऐसे लग रही थीं जैसे उन्मुक्त रति के क्षणों में किन्हीं नग्न वन-युवतियों की बाँहें। पश्चिमी तट के साथ-साथ सूखी पहाडिय़ों की एक शृंखला दूर तक चली गयी थी जो सामने फैली रेत के कारण बहुत रूखी, बीहड़ और वीरान लग रही थी। सूर्य पानी की सतह के पास पहुँच गया था। सुनहली किरणों ने पीली रेत को एक नया-सा रंग दे दिया था। उस रंग में रेत इस तरह चमक रही थी जैसे अभी-अभी उसका निर्माण करके उसे वहाँ उँडेला गया हो। मैंने उस रेत पर दूर तक बने अपने पैरों के निशानों को देखा। लगा जैसे रेत का कुँवारापन पहली बार उन निशानों से टूटा हो। इससे मन में एक सिहरन भी हुई, हल्की उदासी भी घिर आयी।

सूर्य का गोला पानी की सतह से छू गया। पानी पर दूर तक सोना-ही-सोना ढुल आया। पर वह रंग इतनी जल्दी-जल्दी बदल रहा था कि किसी भी एक क्षण के लिए उसे एक नाम दे सकना असम्भव था। सूर्य का गोला जैसे एक बेबसी में पानी के लावे में डूबता जा रहा था। धीरे-धीरे वह पूरा डूब गया और कुछ क्षण पहले जहाँ सोना बह रहा था, वहाँ अब लहू बहता नज़र आने लगा। कुछ और क्षण बीतने पर वह लहू भी धीरे-धीरे बैज़नी और बैज़नी से काला पड़ गया। मैंने फिर एक बार मुडक़र दायीं तरफ़ पीछे देख लिया। नारियलों की टहनियाँ उसी तरह हवा में ऊपर उठी थीं, हवा उसी तरह गूँज रही थी, पर पूरे दृश्यपट पर स्याही फैल गयी थी। एक-दूसरे से दूर खड़े झुरमुट, स्याह पडक़र, जैसे लगातार सिर धुन रहे थे और हाथ-पैर पटक रहे थे। मैं अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और अपनी मुट्िठयाँ भींचता-खोलता कभी उस तरफ़ और कभी समुद्र की तरफ़ देखता रहा।

अचानक ख़याल आया कि मुझे वहाँ से लौटकर भी जाना है। इस ख़याल से ही शरीर में कँपकँपी भर गयी। दूर सैंड हिल की तरफ़ देखा। वहाँ स्याही में डूबे कुछ धुँधले रंग हिलते नज़र आ रहे थे। मैंने रंगों को पहचानने की कोशिश की, पर उतनी दूर से आकृतियों को अलग-अलग कर सकना सम्भव नहीं था। मेरे और उन रंगों के बीच स्याह पड़ती रेत के कितने ही टीले थे। मन में डर समाने लगा कि क्या अँधेरा होने से पहले मैं उन सब टीलों को पार करके जा सकूँगा? कुछ क़दम उस तरफ़ बढ़ा भी। पर लगा कि नहीं। उस रास्ते से जाऊँगा, तो शायद रेत में ही भटकता रह जाऊँगा। इसलिए सोचा बेहतर है नीचे समुद्र-तट पर उतर जाऊँ-तट का रास्ता निश्चित रूप से केप होटल के सामने तक ले जाएगा। निर्णय तुरन्त करना था, इसलिए बिना और सोचे मैं रेत पर बैठकर नीचे तट की तरफ़ फिसल गया। पर तट पर पहुँचकर फिर कुछ क्षण बढ़ते अँधेरे की बात भूला रहा। कारण था तट की रेत। यूँ पहले भी समुद्र-तट पर कई-कई रंगों की रेत देखी थी-सुरमई, ख़ाकी, पीली और लाल। मगर जैसे रंग उस रेत में थे, वैसे मैंने पहले कभी कहीं की रेत में नहीं देखे थे। कितने ही अनाम रंग थे वे, एक-एक इंच पर एक-दूसरे से अलग...और एक-एक रंग कई-कई रंगों की झलक लिये हुए। काली घटा और घनी लाल आँधी को मिलाकर रेत के आकार में ढाल देने से रंगों के जितनी तरह के अलग-अलग सम्मिश्रण पाये जा सकते थे, वे सब वहाँ थे-और उनके अतिरिक्त भी बहुत-से रंग थे। मैंने कई अलग-अलग रंगों की रेत को हाथ में लेकर देखा और मसलकर नीचे गिर जाने दिया। जिन रंगों को हाथों से नहीं छू सका, उन्हें पैरों से मसल दिया। मन था कि किसी तरह हर रंग की थोड़ी-थोड़ी रेत अपने पास रख लूँ। पर उसका कोई उपाय नहीं था। यह सोचकर कि फिर किसी दिन आकर उस रेत को बटोरूँगा, मैं उदास मन से वहाँ से आगे चल दिया।

समुद्र में पानी बढ़ रहा था। तट की चौड़ाई धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। एक लहर मेरे पैरों को भिगो गयी, तो सहसा मुझे ख़तरे का एहसास हुआ। मैं जल्दी-जल्दी चलने लगा। तट का सिर्फ़ तीन-तीन चार-चार फ़ुट हिस्सा पानी से बाहर था। लग रहा था कि जल्दी ही पानी उसे भी अपने अन्दर समा लेगा। एक बार सोचा कि खड़ी रेत से होकर फिर ऊपर चला जाऊँ। पर वह स्याह पड़ती रेत इस तरह दीवार की तरह उठी थी कि उस रास्ते ऊपर जाने की कोशिश करना ही बेकार था। मेरे मन में ख़तरा बढ़ गया। मैं दौडऩे लगा। दो-एक और लहरें पैरों के नीचे तक आकर लौट गयीं। मैंने जूता उतारकर हाथ में ले लिया। एक ऊँची लहर से बचकर इस तरह दौड़ा जैसे सचमुच वह मुझे अपनी लपेट में लेने आ रही हो। सामने एक ऊँची चट्टान थी। वक़्त पर अपने को सँभालने की कोशिश की, फिर भी उससे टकरा गया। बाँहों पर हल्की खरोंच आ गयी, पर ज़्यादा चोट नहीं लगी। चट्टान पानी के अन्दर तक चली गयी थी-उसे बचाकर आगे जाने के लिए पानी में उतरना आवश्यक था। पर उस समय पानी की तरफ़ पाँव बढ़ाने का मेरा साहस नहीं हुआ। मैं चट्टान की नोकों पर पैर रखता किसी तरह उसके ऊपर पहुँच गया। सोचा नीचे खड़े रहने की उपेक्षा वह अधिक सुरक्षित होगा। पर ऊपर पहुँचकर लगा जैसे मेरे साथ एक मज़ाक़ किया गया हो। चट्टान के उस तरफ़ तट का खुला फैलाव था-लगभग सौ फ़ुट का। कितने ही लोग वहाँ टहल रहे थे। ऊपर सडक़ पर जाने के लिए वहाँ से रास्ता भी बना था। मन से डर निकल जाने से मुझे अपना-आप काफ़ी हल्का लगा और मैं चट्टान से नीचे कूद गया।

रात। केप होटल का लॉन। अँधेरे में हिन्द महासागर को काटती कुछ स्याह लकीरें-एक पौधे की टहनियाँ। नीचे सडक़ पर टार्च जलाता-बुझाता एक आदमी। दक्षिण-पूर्व के क्षितिज में एक जहाज़ की मद्धिम-सी रोशनी।

मन बहुत बेचैन था-बिना पूरी तरह भीगे सूखती मिट्टी की तरह। जगह मुझे इतनी अच्छी लगी थी कि मन था अभी कई दिन, कई सप्ताह, वहाँ रहूँ। पर अपने भुलक्कड़पन की वजह से एक ऐसी हिमाक़त कर आया था कि लग रहा था वहाँ से तुरन्त लौट जाना पड़ेगा। अपना सूटकेस खोलने पर पता चला था कि कनानोर में सत्रह दिन रहकर जो अस्सी-नब्बे पन्ने लिखे थे, वे वहीं मेज़ की दराज़ में छोड़ आया हूँ। अब मुझे दो में से एक चुनना था। एक तरफ़ था कन्याकुमारी का सूर्यास्त, समुद्र-तट और वहाँ की रेत। दूसरी तरफ़ अपने हाथ के लिखे काग़ज़ जो शायद अब भी सेवाय होटल की एक दराज़ में बन्द थे। मैं देर तक बैठा सामने देखता रहा-जैसे कि पौधे की टहनियों या उनके हाशिये में बन्द महासागर के पानी से मुझे अपनी समस्या का हल मिल सकता है।

कुछ देर में एक गीत का स्वर सुनाई देने लगा जो धीरे-धीरे पास आता गया। एक कान्वेंट की बस होटल के कम्पाउंड में आकर रुक गयी। बस में बैठी लड़कियाँ अँग्रेज़ी में एक गीत गा रही थीं जिसमें समुद्र के सितारे को सम्बोधित किया गया था। उस गीत को सुनते हुए और दूर जहाज़ की रोशनी के ऊपर एक चमकते सितारे को देखते हुए मन और उदास होने लगा। गहरी साँझ के सुरमई रंग में रंगी वह आवाज़ मन की गहराई के किसी कोमल रोयें को हलके-हलके सहला रही थी। लग रहा था कि उस रोयें की ज़िद शायद मुझे वहाँ से जाने नहीं देगी। लेकिन उससे भी ज़िद्दी एक और रोयाँ था-दिमाग़ के किसी कोने में अटका-जो सुबह वहाँ से जानेवाली बसों का टाइम-टेबल मुझे बता रहा था। गीत के स्वरों की प्रतिक्रिया में साथ टाइम-टेबल के हिन्दसे जुड़ते जा रहे थे-पहली बस सात पन्द्रह, दूसरी आठ पैंतीस,तीसरी...। थोड़ी देर में बस लौट गयी, गीत के स्वर विलीन हो गये और मन में केवल हिन्दसों की चर्खी चलती रह गयी।

ग्रेजुएट नवयुवक मुझे बता रहा था कि कन्याकुमारी की आठ हज़ार को आबादी में कम-से-कम चार-पाँच सौ शिक्षित नवयुवक ऐसे हैं जो बेकार हैं। उनमें से सौ के लगभग ग्रेजुएट हैं। उनका मुख्य धन्धा है नौकरियों के लिए अ$िर्जयाँ देना और बैठकर आपस में बहस करना। वह ख़ुद वहाँ फ़ोटो-अलबम बेचता था। दूसरे नवयुवक भी उसी तरह के छोटे-मोटे काम करते थे। “हम लोग सीपियों का गूदा खाते हैं और दार्शनिक सिद्धान्तों पर बहस करते हैं,” वह कह रहा था।”इस चट्टान से इतनी प्रेरणा तो हमें मिलती ही है।” मुझे दिखाने के लिए उसने वहीं से एक सीपी लेकर उसे तोड़ा और उसका गूदा मुँह में डाल लिया।

पानी और आकाश में तरह-तरह के रंग झिललिाकर, छोटे-छोटे द्वीपों की तरह समुद्र में बिखरी स्याह चट्टानों की चोट से सूर्य उदित हो रहा था। घाट पर बहुत-से लोग उगते सूर्य को अघ्र्य देने के लिए एकत्रित थे। घाट से थोड़ा हटकर गवर्नमेंट गेस्ट-हाउस के बैरे सरकारी मेहमानों को सूर्योदय के समय की कॉफ़ी पिला रहे थे। दो स्थानीय नवयुवतियाँ उन्हें अपनी टोकरियों से शंख और मालाएँ दिखला रही थीं। वे लोग दोनों काम साथ-साथ कर रहे थे-मालाओं का मोल-तोल और अपने बाइनाक्युलर्ज़ से सूर्य-दर्शन। मेरा साथी अब मोहल्ले-मोहल्ले के हिसाब से मुझे बेकारी के आँकड़े बता रहा था। बहुत-से कडल-काक हमारे आसपास तैर रहे थे-वहाँ की बेकारी की समस्या और सूर्योदय की विशेषता,इन दोनों से बे-लाग।

मेरे साथियों का कहना था कि लौटते हुए नाव को घाट की तरफ़ से घुमाकर लाएँगे, हालाँकि मल्लाह उस तूफ़ान में उधर जाने के हक़ में नहीं थे। बहुत कहने पर मल्लाह किसी तरह राज़ी हो गये और नाव को घाट की तरफ़ ले चले। नाव विवेकानन्द चट्टान के ऊपर से घूमकर लहरों के थपेड़े खाती उस तरफ़ बढऩे लगी। वह रास्ता सचमुच बहुत ख़तरनाक था-जिस रास्ते से हम आये थे, उससे कहीं ज़्यादा। नाव इस तरह लहरों के ऊपर उठ जाती थी कि लगता था नीचे आने तक ज़रूर उलट जाएगी। फिर भी हम घाट के बहुत क़रीब पहुँच गये। ग्रेजुएट नवयुवक घाट से आगे की चट्टान की तरफ़ इशारा करके कह रहा था, “यहाँ आत्महत्याएँ बहुत होती हैं। अभी दो महीने पहले एक लडक़ी ने उस चट्टान से कूदकर आत्म-हत्या कर ली थी।”

मैंने सरसरी तौर पर आश्चर्य प्रकट कर दिया। मेरा ध्यान उसकी बात में नहीं था। मैं आँखों से तय करने की कोशिश कर रहा था कि घाट और नाव के बीच अब कितना फ़ासला बाक़ी है।

“वह आत्महत्या करने के लिए ही यहाँ आयी थी,” ग्रेजुएट नवयुवक कह रहा था। “सुना है उसे कुँवारेपन में ही बच्चा होनेवाला था। अर्णाकुलम् और त्रिवेन्द्रम् के बीच के किसी गाँव की थी वह। बाद में मुट्टम् के पास उसका शरीर लहरों ने किनारे पर निकाल दिया था।”

एक लहर ने नाव को इस तरह धकेल दिया कि मुश्किल से वह उलटते-उलटते बची। आगे तीन-चार चट्टानों के बीच एक भँवर पड़ रहा था। नाव अचानक एक तरफ़ से भँवर में दाख़िल हुई और दूसरी तरफ़ से निकल आयी। इससे पहले कि मल्लाह उसे सँभाल पाते, वह फिर उसी तरह भँवर में दाख़िल होकर घूम गयी। मुझे कुछ क्षणों के लिए भँवर और उससे घूमती नाव के सिवा और किसी चीज़ की चेतना नहीं रही। चेतना हुई जब भँवर में तीन-चार चक्कर खा लेने के बाद नाव किसी तरह उससे बाहर निकल आयी। यह अपने-आप या मल्लाहों की कोशिश से, मैं नहीं कह सकता। भँवर से कुछ दूर आ जाने पर ग्रेजुएट नवयुवक ने बताया कि हम उस चट्टान को लगभग छूकर आये हैं जिस पर से कूदकर उस नवयुवती ने कन्याकुमारी की साक्षी में आत्महत्या की थी।

पर मैंने तब तक उस चट्टान की तरफ़ ध्यान से नहीं देखा जब तक हम किनारे के बहुत पास नहीं पहुँच गये। यह भी वहाँपहुँचकर जाना कि घाट की तरफ़ से आने का इरादा छोडक़र मल्लाह उसी रास्ते से नाव को वापस लाये हैं जिस रास्ते से पहले ले गये थे।

कन्याकुमारी के मन्दिर में पूजा की घंटियाँ बज रही थीं। भक्तों की एक मंडली अन्दर जाने से पहले मन्दिर की दीवार के पास रुककर उसे प्रणाम कर रही थी। सरकारी मेहमान गेस्ट-हाउस की तरफ़ लौट रहे थे। हमारी नाव और किनारे के बीच हल्की धूप में कई एक नावों के पाल और कडलकाकों के पंख एक-से चमक रहे थे। मैं अब भी आँखों से बीच की दूरी नाप रहा था और मन में बसों का टाइम-टेबल दोहरा रहा था। तीसरी बस नौ चालीस पर, चौथी...।***

      • [उसके बाद एक शाम और वहाँ रुककर कनानोर लौट आया। वहाँ जाकर अपने लिखे काग़ज़ मिल तो गये, पर तबतक चौकीदार ने उन्हें मोड़कर अपनी कॉपी बना ली थी। काग़ज़ों पर लिखाई एक ही तरफ़ थी, इसलिए उनके ख़ाली हिस्सों पर उसने अपना हिसाब लिखना शुरू कर दिया था। जब मैंने वह कॉपी उससे ली, तो उसे शायद उससे कम निराशा नहीं हुई जितना कन्याकुमारी पहुँचकर अपना सूटकेस खोलने पर मुझे हुई थी।]