आत्मकथा / भाग 2 / चार्ल्स डार्विन / सूरज प्रकाश

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डाउन में घर - 14 सितम्बर 1842 से लेकर वर्तमान 1876 तक

सर्रे और दूसरे स्थानों पर काफी खोजबीन के बाद हमें यह घर मिला और हमने खरीद भी लिया। चाक मिट्टी की बहुतायत वाले इलाके में पायी जाने वाली हरियाली चारों ओर थी, और मिडलैन्ड इलाके में जिस वातावरण का मैं आदी था, उससे अलग माहौल था, तो भी उस स्थान की अत्यधिक शान्ति और नैसर्गिकता से मैं अभिभूत था। जर्मन पत्रिकाओं ने मेरे घर के लिए लिखा था कि वहाँ केवल टट्टू ही पहुंच सकते थे, लेकिन मेरा घर इतने एकान्त और दुर्गम स्थान पर भी नहीं था। हम कितनी अच्छी जगह रह रहे थे इसका बेहतर जवाब हमारी संतानें दे सकती हैं, कि वहाँ बार बार जाना और पहुंचना कितना आसान था।

जितने एकान्त में हम रह रहे थे, कुछ लोग उससे भी ज्यादा एकान्त में जीवन बिताते हैं। फिर भी अपने रिश्तेदारों के घर और समुद्र किनारे या फिर एकाध और जगह जाने के अलावा हम कहीं नहीं गए। यहां निवास के पहले दौर में हम थोड़ा-बहुत सोसायटी में जाते थे और कुछ दोस्तों को बुला लेते थे। मेरी सेहत खराब रहती थी, मुझे बार बार दौरे पड़ते। भयंकर कंपकंपी होती और कई बार उल्टियां शुरू हो जाती थीं। इसलिए मैं कई बरस तक डिनर पार्टियों से दूर रहा, और इस तरह कई चीज़ों से वंचित भी रहा, क्योंकि ये पार्टियां मुझमें जोश भर देती थीं। इस कारण से मैं अपने घर पर भी बहुत कम वैज्ञानिक सभाएं करा सका।

सारी ज़िन्दगी मेरी खुशी का कारण और एकमात्र रोज़गार वैज्ञानिक लेखन ही रहा, और मैं ऐसे काम में कुछ इस तरह से डूबता था कि समय का भान ही नहीं रहता था। यही नहीं, मैं अपनी तकलीफ भी भूल जाता था। शेष बचे जीवन के लिए कुछ लिखने को नहीं, हां इतना ज़रूर है कि मेरी कुछ किताबों का प्रकाशन उल्लेखनीय है। मैं यह ज़रूर बताऊंगा कि मेरी कुछ किताबों की रूपरेखा कैसे बनी।

मेरे विभिन्न प्रकाशन : सन 1844 के पहले भाग में मेरे संस्मरण प्रकाशित हुए थे जो बीगल की यात्रा के दौरान देखे गए ज्वालामुखीय द्वीपों के बारे में थे। सन 1845 में काफी मेहनत करके मैंने जर्नल ऑफ रिसर्च के नए संस्करण का संशोधन किया। पहले यह 1839 में फिट्ज राय के लेखन के साथ प्रकाशित हो चुका था। मेरी इस प्रथम साहित्यिक कृति की सफलता मुझमें मेरी ही अन्य पुस्तकों के मुकाबले अधिक गर्व का संचार कर देती है। आज भी इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमरीका में इसकी काफी बिक्री होती है, और जर्मन में इसका दो बार अनुवाद तो हुआ ही, फ्रेन्च तथा अन्य भाषाओं में भी इसके अनुवाद प्रकाशित हुए। यात्रा वृत्तांत, खासकर वैज्ञानिक कोटि की पुस्तक के प्रथम प्रकाशन के इतने दिन बाद भी ऐसी बिक्री आश्चर्यजनक है। इंग्लैन्ड में दूसरे संस्करण की दस हजार प्रतियां बिक गयीं। सन 1846 में मेरी कृति जिओलॉजिकल आब्जर्वेशन्स ऑन साउथ अमेरिका प्रकाशित हुई। मैं हमेशा एक डायरी लिखता था और उसमें यह दर्ज है कि मेरी तीनों जिओलॉजिकल पुस्तकों (कोरल रीफ्स् सहित) में साढ़े चार बरस की मेहनत लगी; और इंग्लैन्ड लौटे हुए मुझे दस बरस हो चुके हैं। कितना ही समय मैंने बीमारी में गंवाया। इन तीनों किताबों के बारे में मुझे और कुछ नहीं कहना। हां, इनमें से एक का नया संस्करण आ रहा है, इसकी हैरानी जरूर है।

अक्तूबर 1846 में मैं `सिरीपेडिया' (जलयान की तली में चिपके रहने वाले घोंघे) पर काम कर रहा था। चिली के समुद्र तट पर मुझे इसकी बड़ी ही अजीब किस्म मिली। यह कान्कोलेपास के खोल में घुसा हुआ था, और यह दूसरे `सिरीपेडिया' से इतना अलग था कि मुझे इसके लिए नया अनुक्रम बनाना पड़ा। बाद में पुर्तगाल के समुद्र तटों पर भी इसी प्रकार के समवर्गी शंख मिले। इस नए घोंघे की संरचना को समझने के लिए मुझे कई सामान्य प्रकार के घोंघों की चीरफाड़ करनी पड़ी और इससे मैंने क्रमश: एक नया समूह ही बना डाला। आने वाले आठ बरस तक मैं इसी विषय पर जी जान से जुटा रहा और अन्तत: दो मोटे खंड प्रकाशित कराए, जिनमें सभी जीवित प्रजातियों का विवरण था और दो छोटे प्रकाशन विलुप्त प्रजातियों के बारे में थे। मुझे संदेह नहीं कि सर ई लेट्टन बुलवर ने अपने एक उपन्यास में जिस प्रोफेसर लाँग का जिक्र किया है, वह मैं ही हूं। उपन्यास का प्रोफेसर भी चिपकू घोंघों के बारे में पुस्तकों के दो खंड लिखता है।

हालांकि मैं इस काम पर आठ बरस तक लगा रहा, लेकिन डायरी में मैंने बताया है कि दो बरस तो बीमारी की भेंट चढ़ गए। बीमारी के ही चलते मैंने 1848 में कुछ माह के लिए मेलवर्न में जाकर जलचिकित्सा से इलाज कराया, जिससे मुझे काफी फायदा भी हुआ। इसके बाद घर लौटते ही मैंने काम संभाल लिया। मेरी सेहत इतनी खराब थी कि 13 नवम्बर 1848 को पिताजी का देहान्त होने पर उनको दफनाने या बाद में वसीयत का हक लेने भी नहीं जा सका।

मैं समझता हूं कि सिरीपेडिया' के बारे में मैंने जो अध्ययन किया वह काफी मूल्यवान है, क्योंकि इसमें इस घोंघे के विभिन्न अंगों की सजातीयता का उल्लेख है। मैंने घोंघे के खोल बनाने वाले अंगों को खोजा, हालांकि खोल बनाने वाली ग्रन्थियों के बारे में मैंने बहुत बड़ी गलती की थी, और अन्तत: मैंने सिद्ध किया था कि घोंघों की कुछ नस्लों में सूक्ष्म नरों की विद्यमानता उभयलिंगियों की अनुपूरक और उन पर परजीवी होती है। मेरी अंतिम खोज की पूरी तरह से पुष्टि हो चुकी है, हालांकि एक समय ऐसा भी था जब एक जर्मन लेखक ने इस समूची खोज के बारे में कहा था कि यह सब मेरी कल्पना का विलास है। इस घोंघे की इतनी ज्यादा और अलग अलग प्रजातियां हैं कि सभी का वर्गीकरण करना बहुत कठिन है। मेरा यह काम उस समय मेरे बहुत काम आया जब मैंने `ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज' में प्राकृतिक वर्गीकरण पर विचार विमर्श प्रस्तुत किया। इस सबके बावजूद मुझे संदेह है कि इस काम में क्या इतना समय लगाना ठीक रहा।

सितम्बर 1854 से मैंने अपना सारा समय अपने नोट्स के ढेर को व्यवस्थित करने में लगाया, साथ ही जीव प्रजातियों की काया पलट के बारे में भी मैंने ध्यान दिया और कुछ प्रयोग भी किए। बीगल की यात्रा के दौरान मैंने पेम्पीयन संघटना के जीवाश्म खोजे थे, जो इस समय पाए जाने वाले आर्माडिलोस की भांति कठोर खाल से ढंके होते थे; दूसरी बात यह कि उसी महाद्वीप पर जैसे जैसे हम दक्षिण की ओर बढ़े तो बड़ी ही निकट सजातीयता वाले जीव एक दूसरे का प्रतिस्थापन करते दिखाई दिए। और तीसरी बात यह कि दक्षिण अमरीकी लक्षणों के मुताबिक गेलापेगोस द्वीप समूह के अधिकांश जीव जन्तु अलग ही थे। यही नहीं, प्रत्येक द्वीप पर वे अपने ही समूह के जीवों से थोड़ा-सा अलग थे; जबकि इनमें भूवैज्ञानिक दृष्टि से कोई भी द्वीप बहुत प्राचीन नहीं था।

यह तो स्पष्ट ही एक प्रकार के और इसी तरह के अन्य तथ्यों की व्याख्या केवल इसी प्रत्याशा के आधार पर की जा सकती है कि जीव प्रजातियां धीरे धीरे बदलती चली जाती हैं और फिर इसी विषय ने मुझे विचलित किया। लेकिन साथ-साथ यह भी स्पष्ट था कि प्रत्येक प्रकार का जीव अपने जीवन की परिस्थितियों के प्रति बड़े ही सुन्दर ढंग से अनुकूलित होता है। ऐसे असंख्य मामले दिखाई देंगे, लेकिन इसमें परिस्थितियों या जीव की इच्छा (खासकर पौधों के बारे में) का कोई योगदान नहीं होता है। उदाहरण के लिए कठफोड़वा या पेड़ पर चढ़ने वाले मेंढक या कांटों या पिच्छपर्ण की सहायता से दूर-दूर तक पहुंचने वाले बीज। मैं इस प्रकार की अनुकूलताओं से हमेशा ही प्रभावित हुआ और मुझे लगता है कि जब तक इनकी व्याख्या नहीं हो जाती है अप्रत्यक्ष प्रमाणों से यह सिद्ध करना कि जीव प्रजातियों में परिवर्तन हुए हैं, निरर्थक प्रयास ही कहा जाएगा।

इंग्लैन्ड लौटने के बाद मुझे यह लगा कि भूविज्ञान में लेयेल के उदाहरण का अनुसरण करने और घरेलू या प्राकृतिक वातावरण में जीव जन्तुओं और पेड़ पौधों में बदलाव के बारे में जरा-सा भी सम्बन्ध रखने वाले सभी तथ्यों का संग्रह करने के बाद ही समूचे विषय पर शायद कुछ रोशनी पड़ सके। मेरी पहली नोटबुक जुलाई 1837 में शुरू हुई। मैंने पूरी तरह से बेकोनियन सिद्धान्तों पर कार्य करना शुरू किया और बिना किसी नियम को अपनाए बड़े पैमाने पर तथ्यों का संग्रह करता रहा। इसमें मैंने पालतू पशुओं में प्रजनन पर अधिक ध्यान दिया। इसके लिए मुद्रित पूछताछ सामग्री एकत्र करता था। कुशल प्रजनन कराने वालों और मालियों से बातचीत करता और खूब पढ़ता था। जिन किताबों को मैंने पढ़ा और उनमें से तथ्यों का संग्रह किया, उनकी सूची और जर्नलों तथा ट्रंजक्शन्स की समूची श्रृंखला पर नज़र डालता हूं तो अपनी मेहनत पर मुझे भी आश्चर्य होता है। जल्द ही मुझे यह आभास हो गया कि जानवरों और पौधों की उपयोगी नस्ल तैयार करने में मानव की सफलता की महत्त्वपूर्ण कुंजी है प्रजातियों का सही चयन। लेकिन प्रजातियों का यह चयन प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले जीव जन्तुओं में किस तरह होता होगा। कुछ समय तक यह तथ्य मेरे लिए रहस्य बना रहा। मैंने पन्द्रह महीने बाद अक्तूबर 1838 में सूत्रबद्ध रूप से पूछताछ शुरू की। मैंने मनोरंजन के लिए माल्थस लिखित `दि पॉपुलेशन ' भी पढ़ा और जीव जन्तुओं तथा पौधों की आदतों पर लम्बे समय से लगातार ध्यान देते हुए ज़िन्दा रहने के संघर्ष की प्रशंसा भी करने लगा। इसी बीच मुझे अचानक ख्याल आया कि इन परिस्थितियों में अनुकूल विभेदों को संरक्षित करने और प्रतिकूल को नष्ट करने की प्रवृत्ति रहती है। इसके परिणामस्वरूप नई नस्ल का जन्म होता है। यहां आकर मुझे एक नियम मिला जिसके अनुसार मैं काम कर सकता था, लेकिन साथ ही मैं पूर्वाग्रहों से बचना चाहता था, इसलिए मैंने यह भी फैसला किया कि कुछ समय तक इसके बारे में लेशमात्र भी नहीं लिखूंगा। जून 1842 में मैंने अपने सिद्धान्तों का सारांश लिखने की शुरूआत की और लगभग 35 पृष्ठ पेन्सिल से लिखे; और 1844 की गरमियों तक मैंने 230 पृष्ठ लिख लिए। इसके बाद मैंने इनकी साफ साफ नकल तैयार की जो अभी तक मेरे पास है।

लेकिन उस समय मैंने एक महत्त्वपूर्ण समस्या की अनदेखी कर दी थी, और यह मेरे लिए अचरज की बात है, क्योंकि कोलम्बस और उसके अण्डे की कहानी वाली बात अलग थी, यहां मैंने अपनी समस्या और उसके समाधान दोनों की ही अनदेखी कर दी थी। समस्या यह थी कि जैसे जैसे संपरिवर्तन होता है तो एक ही वंशमूल के जीवों के लक्षणों में अन्तर आना शुरू हो जाता है। वे बड़े ही विशाल स्तर पर बंटते चले गए हैं। यह विभाजन इस रीति में भी प्रकट हो जाता है जिसके अनुसार सभी नस्लों को प्रजातियों, प्रजातियों को परिवारों, परिवारों को उप विभाजनों और इसी प्रकार आगे वर्गीकृत कर दिया गया है। मैं सड़क पर आज भी उस स्थान को भूला नहीं हूं, जहां पर मैं अपनी टमटम में बैठा था और अचानक ही मुझे इसका समाधान सूझ गया। यह बात डाउन आने के काफी बाद की है। मेरे मतानुसार समाधान यही है कि प्रकृति की गृहस्थी में सभी प्रमुख और वृद्धिशील नस्लों की संपरिवर्तित संततियां अनेक और अत्यधिक विभेदित स्थानों के अनुसार अपने आपको ढालती जाती हैं।

सन 1856 के प्रारम्भ में ही लेयेल ने मुझे सलाह दी कि मैं अपने दृष्टिकोण को विस्तारपूर्वक लिख डालूं, और मैंने तुरन्त ही तीन या चार गुणा बड़े पैमाने पर लेखन शुरू कर दिया जो मेरी पुस्तक दि ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज में भी दिखाई देगा। तो भी जितनी सामग्री मैंने बटोरी थी, उसका सारांश था इसमें। और इस रूप में मैं केवल आधा कार्य ही प्रस्तुत कर पाया। लेकिन मेरी योजना धरी रह गयी क्योंकि 1858 की गर्मियों की शुरुआत में ही मलय द्वीप समूह से मिस्टर वैलेस ने `आन दि टेन्डेन्सी ऑफ वैरायटीज टू डिपार्ट इन्डैफिनेटली फ्रॉम दि ऑरिजनल टाइप,' विषय पर एक निबन्ध भेजा। इस निबन्ध में वही सिद्धान्त थे जिनकी मैंने रूपरेखा बनायी थी। मिस्टर वैलेस ने लिखा था कि यदि मैं उनके निबन्ध को सही समझूं तो लेयेल के अवलोकन हेतु भिजवा दूं।

मैंने जर्नल ऑफ दि प्रोसीडिंग्स ऑफ दि लिन्नेयन सोसायटी, 1858, पृष्ठ ।45 पर उन परिस्थितियों का जिक्र किया है, जिनके कारण मैंने लेयेल और हूकर के इस अनुरोध को माना था कि मैं अपने संस्मरण वृत्तांत को 5 सितम्बर 1857 को एसा ग्रे के पत्र सहित भेजूं और वे भी वैलेस के निबन्ध के साथ ही छपें। पहले तो मैं सहमति देने का इच्छुक ही नहीं था, मुझे लग रहा था कि मिस्टर वैलेस मेरे इस काम को अन्यायपूर्ण मानेंगे, क्योंकि मैं नहीं जानता था कि उनकी मनोवृत्ति कितनी उदार और दयालुतापूर्ण है। मेरे संस्मरण वृत्तांत और एसा ग्रे को लिखा पत्र दोनों ही को छपवाने का अभिप्राय तो था ही नहीं, और ये बहुत बेकार ढंग से लिखे हुए भी थे। दूसरी ओर मिस्टर वैलेस का निबन्ध बेहतरीन अभिव्यक्ति और स्पष्टता के साथ लिखा हुआ था। इसके बावजूद हमारे संयुक्त प्रकाशन ने बहुत कम लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसके बारे में डबलिन के प्रोफेसर हॉटन ने ही एकमात्र समीक्षा प्रकाशित करायी थी, और कुल मिलाकर उनका फैसला यही था कि उन आलेखों में जो कुछ नया था वह असत्य था और जो कुछ सत्य था वह पुराना था। इससे यही सिद्ध होता है कि किसी भी नए दृष्टिकोण की व्याख्या काफी विशद होनी चाहिए ताकि उस पर लोगों का ध्यान भी जाए।

लेयेल और हूकर के काफी कहने पर सितम्बर 1858 में मैंने जीव प्रजातियों में तत्त्व परिवर्तन पर एक पुस्तक लिखने की तैयारी की। लेकिन सेहत ने बीच बीच में धोखा दिया। इस कारण मुझे मूर पार्क स्थित डॉक्टर लेन के सुन्दर जल चिकित्सा केन्द्र में भी जाना पड़ा। मैंने अपने वृत्तांत को 1856 में बड़े पैमाने पर शुरू किया था और अपनी पुस्तक को कुछ छोटा आकार देते हुए पूरा कर लिया। इसमें मुझे तेरह महीने और दस दिन मेहनत करनी पड़ी। नवम्बर 1859 में इसका प्रकाशन दि ऑरिजन ऑफ स्पीशेज के नाम से हुआ। यद्यपि बाद के संस्करणों में इसमें काफी कुछ जुड़ता गया और संशोधन भी हुए लेकिन पुस्तक का मूलरूप बरकरार रहा।

नि:सन्देह यह मेरे जीवन का प्रमुख कार्य रहा। यह पुस्तक प्रारम्भ से ही सफल रही। पहले संस्करण में छपी सभी 1250 प्रतियाँ पहले ही दिन बिक गयीं। इसके बाद जल्द ही दूसरे संस्करण की 3000 प्रतियाँ भी बिक गयीं। अब तक (1876) तक इंग्लैन्ड में इसकी सोलह हजार प्रतियाँ बिक चुकी हैं, और पुस्तक की जटिलता को देखते हुए यह संख्या काफी बड़ी है। इसका अनुवाद यूरोप की लगभग सभी जुबानों में हुआ, और स्पैनिश, बोहेमियन, पोलिश तथा रूसी भाषाओं में भी यह पुस्तक छपी। मिस बर्ड का कहना था कि इसका अनुवाद जापानी में हुआ और वहां भी काफी पढ़ी गयी। यही नहीं, हिब्रू भाषा में भी एक निबन्ध प्रकाशित हुआ, जिसमें यह कहा गया था कि यह सिद्धान्त तो ओल्ड टेस्टामेन्ट में भी है। इसकी समीक्षा भी जम कर हुई। ऐसा मुझे इसलिए मालूम है कि दि ऑरिजिन और मेरी अन्य किताबों के बारे में जो समीक्षाएं प्रकाशित होती थीं, उनको मैं एकत्र कर लेता था। कुल समीक्षाओं की संख्या (अखबारों में छपी समीक्षाएं शामिल नहीं) 265 थी। बाद में मैंने यह काम छोड़ दिया, क्योंकि इसका कोई उपयोग लग नहीं रहा था। इस विषय पर अलग से अनेक निबन्ध और पुस्तकें भी छपीं, और जर्मनी में प्रतिवर्ष या हर दूसरे वर्ष डार्विनवाद पर पुस्तक या ग्रन्थसूची प्रकाशित होती थी।

मेरा विचार है कि दि ऑरिजन की सफलता का श्रेय काफी हद तक दो संक्षिप्त रूपरेखाओं को जाता है जो मैंने काफी पहले लिखीं थी। और उसके बाद काफी बड़ी तैयारी के साथ लिखी पाण्डुलिपि को जाता है, जो अपने आप में सारांश थी। इन उपायों से मैं अधिक प्रबल तथ्यों और निष्कर्षों का चयन करने लायक बना। विगत कई वर्ष तक मैंने एक स्वर्णिम नियम अपनाए रखा। वह यह कि जब भी मैं अपना कोई तथ्य प्रकाशित करता और जैसे ही कोई ऐसा विचार मेरे मन में आता जो उस सामान्य परिणाम का विरोधी होता तो मैं बिला नागा फौरन ही उसे याददाश्त के लिए लिख लेता था, क्योंकि अपने अनुभव से मैंने जाना था कि विरोधी तथ्य और विचार याददाश्त में से जल्दी निकल जाते हैं। इस आदत के चलते मेरे दृष्टिकोणों के विरोध में बहुत कम आपत्तियाँ हुई जिन पर मैंने ध्यान न दिया हो या जिनका उत्तर न दिया हो।

कई बार यह कहा जाता है कि दि ऑरिजिन की सफलता से यह सिद्ध हो जाता है कि, `इस विषय पर काफी कानाफूसी हुई,' या `लोगों का मन इसके लिए तैयार किया गया था।' लेकिन मैं इसे पूर्ण सत्य नहीं मानता, क्योंकि मैंने किसी भी मौके पर एक भी प्रकृतिवादी को इसकी भनक नहीं लगने दी, और किसी ऐसे व्यक्ति से मेरी भेंट भी नहीं हुई जो नस्लों के स्थायित्व के बारे में तनिक भी संदेह करता रहा हो। यहां तक कि लेयेल और हूकर जो बड़े मनोयोग से मेरी बातें सुनते थे, भी सहमत प्रतीत नहीं हुए। मैंने एकाध बार कुछ लायक लोगों को यह व्याख्या बताने का प्रयास भी किया कि प्राकृतिक चयन से मेरा आशय क्या है, लेकिन मैं असफल ही रहा। हाँ, मैं जो पूर्ण सत्य मानता हूं वह यह था कि सभी प्रकृतिवादियों के मन में सुविचारित तथ्यों की भरमार थी, और जैसे ही उन्हें पर्याप्त व्याख्या के साथ नियम मिला तो उनके असंख्य विचारों को एक दिशा मिल गयी। इस पुस्तक की सफलता का एक अन्य तत्त्व भी था। इसका सामान्य आकार, और मैं इसका श्रेय देता हूँ डॉक्टर वैलेस के निबन्ध को। यदि मैंने पुस्तक का आकार वही रखा होता जिस पर मैंने 1856 में लिखना शुरू किया था, तो यह ऑरिजिन जितनी बड़ी होती और बहुत कम लोगों में इसे पूरा पढ़ने का धीरज होता।

मेरी एक किताब की रूपरेखा 1839 से ही चल रही थी, लेकिन इसका प्रकाशन 1859 में हो पाया। इस देरी से मुझे भी फायदा ही हुआ, क्योंकि इतने समय में सिद्धान्त और भी स्पष्ट हो गया। इससे मुझे कुछ नहीं खोना पड़ा बल्कि इसमें कुछ लोगों ने मेरे या वैलेस के सिद्धान्तों में मूलरूप से योगदान ही दिया। वैलेस के निबन्ध ने तो मुझे इस सिद्धान्त को अपनाने करने में भी मदद की। मैंने केवल एक ही महत्त्वपूर्ण तथ्य के बारे में पूर्वानुमान लगाया था, जिसके लिए मेरा अन्तर्मन मुझे धिक्कारता भी रहा। वह तथ्य था दूरवर्ती पर्वत शिखरों और आर्कटिक प्रदेशों में एक ही नस्ल के पौधों और कुछ पशुओं की मौजूदगी हिमनद-काल के कारण है। इस दृष्टिकोण ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने इस पर विस्तारपूर्वक लिखा। मुझे यकीन है कि इस विषय पर ई फोर्ब्स के प्रसिद्ध संस्मरण प्रकाशित होने से काफी पहले ही हूकर मेरा लेख पढ़ चुके थे। मैं कुछ मुद्दों पर असहमत था, लेकिन मुझे लगता है कि मैं सही था। बेशक मैंने मुद्रित रूप में यह इशारा कभी नहीं किया कि मैंने इस दृष्टिकोण को स्वतत्र रूप से पोषित किया था।

दुनिया में कुछ नस्लें ऐसी हैं, जिनके वयस्कों और उन्हीं के भ्रूणों में काफी अन्तर होता है, और एक ही वर्ग के अलग अलग पशुओं के भ्रूणों में काफी समानता रहती है। इस स्पष्टीकरण ने मुझे इतना संतोष दिया, जितना अन्य किसी तथ्य ने नहीं दिया था। उस समय मैं द ओरिजिन पर काम कर रहा था। जहाँ तक मैं समझता हूँ द ओरिजिन की किसी भी समीक्षा में इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया गया था। मैंने एसा ग्रे को लिखे पत्र में इस बारे में हैरानी भी जाहिर की थी। कुछ ही वर्ष में विभिन्न समीक्षकों ने इसका पूरा श्रेय फिट्ज म्यूलेर और हेकेल को दिया, नि:सन्देह यही कार्य उन दोनों ने मेरी तुलना में अधिक व्यापक और सही रूप में किया था। इस बारे में पूरा अध्याय लिखने के लायक सामग्री मेरे पास थी, और मैंने विचारों को थोड़ा और विस्तार दिया होता तो बेहतर रहता। लेकिन यह तो स्पष्ट था कि मैं अपने पाठक को प्रभावित करने में असफल रहा और जो ऐसा करने में सफल हुआ, मेरे मतानुसार निश्चय ही श्रेय पाने का हकदार है।

मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि मेरे समीक्षकों ने मेरे कार्य को ईमानदारी से से जांचा परखा। इनमें वे पाठक शामिल नहीं हैं जिन्हें वैज्ञानिक ज्ञान नहीं था। मेरे विचारों को बहुधा पूरी तरह से गलत तरीके से पेश किया गया। बड़े ही तीव्र विरोध हुए और मज़ाक तक उड़ाया गया, लेकिन मैं समझता हूँ कि यह सामान्यतया सद्भावना से किया गया। कुल मिलाकर मुझे इसमें सन्देह नहीं कि मेरे कार्यों की तो कई बार ज़रूरत से ज्यादा तारीफ हुई। मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मैं कभी विवादों में नहीं पड़ा और इसका श्रेय लेयेल को जाता है, जिसने मेरे भूवैज्ञानिक लेखन के बारे में मुझे सख्त हिदायत दी थी कि कभी विवादों में मत पड़ो। इससे लाभ तो कुछ होता नहीं उल्टे समय और स्वभाव दोनों बिग़ड़ते हैं।

जब कभी भी मुझे लगा कि मैंने गलती की या मेरा काम दोषपूर्ण रहा, और जब भी बड़े ही अनादरपूर्वक मेरी आलोचना हुई या जब कभी अत्यधिक तारीफ के वशीभूत हुआ तो मैं अपने आप से बार-बार यही कह कर खुद को तसल्ली देता कि मैं जितनी मेहनत कर सकता था, मैंने की, जितनी शुद्धता ला सकता था, लाया, और दूसरा कोई भी इससे बेहतर नहीं कर सकता।' मुझे याद है जब गुड सक्सेस बे में, टियेरा डेल फ्यूगो में जब मैं सोच रहा था (मुझे याद है कि इसके बारे में घर पर खत भी भेजा था) कि प्राकृतिक विज्ञान में थोड़ा-सा योगदान करने से बढ़ कर मेरे जीवन का दूसरा उपयोग क्या हो सकता था। मैंने अपनी लियाकत के मुताबिक सर्वश्रेष्ठ किया। आलोचक जो चाहें कहते रहें, लेकिन वे इस दृढ़ विश्वास को नष्ट नहीं कर सकते।

सन 1859 के आखिरी दो महीनों में दि ओरिजिन के दूसरे संस्करण की तैयारी कर रहा था और साथ ही प्राप्त हुए खतों के विशाल ढेर से भी निपट रहा था। पहली जनवरी 1860 को मैं अपने आलेखों को व्यवस्थित करके घरेलू वातावरण में पशुओं और पौधों में बदलाव के बारे में वेरिएशनस ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्टस अन्डर डोमेस्टिकेशन शीर्षक से लेखन की तैयार कर रहा था। लेकिन यह काम 1868 की शुरूआत में ही प्रकाशित हो पाया। इस देरी का कुछ कारण मेरी बार बार की बीमारी रही। एक बार तो मैं पूरे सात महीने बीमार रहा। इसका कुछ कारण यह भी रहा कि मुझे उस समय कुछ अन्य विषयों में रुचि हुई और मैं उन्हीं पर कुछ लिखने और प्रकाशित कराने को लालायित हो उठा।

सन 1862 में 15 मई को शतावरी में निषेचन प्रक्रिया के बारे में मेरी छोटी सी पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था - फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड । इस पुस्तक में मेरी दस माह की मेहनत लगी थी। इसके अधिकांश तथ्यों का संग्रह विगत कई बरस में हुआ था। सन 1839 में ग्रीष्मऋतु के दौरान, और पिछली गर्मियों में मैंने कीट पतंगों द्वारा फूलों के संकर परागण पर ध्यान दिया था। इससे मैंने तो यही नतीजा निकाला था कि इस प्रकार का परागण विशिष्ट प्रकारों को स्थायी बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके बाद प्रत्येक ग्रीष्म ऋतु में मैं कमोबेश इसी काम पर लगा रहा। यही नहीं राबर्ट ब्राउन की सलाह पर मैंने सी के स्प्रेन्गेल की उत्कृष्ट पुस्तक दास एन्टडेक्टे गेहीम्निस डेर नेचुर मंगवा कर पढ़ी। इस पुस्तक को पढ़ कर मैं अपने इस काम में दूनी लगन से जुट गया। सन 1862 से पहले मैंने कुछ वर्ष तक अपने इस ब्रिटिश आर्चिड के परागण का अध्ययन किया था। इससे मुझे लगा कि मैं पौधों के समूहों पर बेहतर से बेहतर लेख तैयार करूं, बजाये इसके कि अन्य पौधों के बारे में धीरे-धीरे तथ्य बटोर कर उनके ढेर का प्रयोग करूँ।

मेरा संकल्प बुद्धिमानीपूर्ण सिद्ध हुआ, क्योंकि मेरी पुस्तक प्रकाशित होने के बाद से सभी प्रकार के फूलों में परागण विधि के बारे में लेखों और शोध प्रबन्धों का तांता-सा लग गया। यह मानना पड़ेगा कि ये सभी मेरे कार्य की तुलना में काफी बेहतर थे। बेचारे स्पेन्गेल का जो काम काफी समय तक बेनामी के गर्त में पड़ा था, उसकी मृत्यु के कई वर्ष बाद अचानक ही सर्वमान्य हो गया।

इसी बरस मैंने दि जर्नल ऑफ दि लिन्नेयन सोसायटी में एक आलेख प्रकाशित कराया जिसका शीर्षक था आन दि टू फार्म्स ऑफ डायमोर्फिक कन्डीशन ऑफ दि प्रिमुला । इसके बाद आगामी पाँच वर्ष में उभयरूपी और त्रिरूपी पौधों पर पाँच अन्य आलेख प्रकाशित हुए। इन पौधों की संरचना का आशय निरूपित करने में मुझे जितना संतोष मिला, पूरे जीवन में किसी वैज्ञानिक कार्य से नहीं मिला।

सन 1838 या 1839 की बात है, जब मैंने अलसी की उभयरूपता पर ध्यान दिया। पहली बार तो मैंने सोचा कि यह मात्र असंगत अस्थिरता का मामला है, लेकिन प्राइमुला की सामान्य नस्लों की जाँच करने के बाद मैंने पाया कि इसकी दो किस्में अधिक नियमितता और निरन्तरता लिए हुए थीं। इसलिए मैं लगभग यकीन कर चुका था कि सामान्यतया पाए जाने वाले पीत सेवली और बसंत गुलाब दोनों ही ऐसे पौधे हैं जिनके नर और मादा फूल अलग अलग लगते हैं, यह भी कि एक किस्म में छोटे स्तरा केसर और दूसरी किस्म में छोटे पुंकेसर अवर्धन की ओर अग्रसर थे। इसलिए इन दोनों पौधों को इसी दृष्टिकोण के तहत परखा गया; लेकिन जैसे ही छोटे स्तरा केसर वाले फूलों में परागण के बाद प्रजनन हुआ तो उनसे अधिक बीज प्राप्त हुए। इतने बीज अन्य चार सम्भव परागणों में से किसी में भी नहीं मिले, लेकिन अवर्धन का यह सिद्धान्त एक सिरे से ही खारिज कर दिया गया। इसके बाद किए गए कुछ और प्रयोगों से यह प्रमाणित हो गया कि इसकी दोनों ही किस्मों में साफ तौर पर उभयलिंगी गुण थे। इसके बावजूद इनमें आपस में वैसे ही परागण होते थे जैसे सामान्य पशुओं के नर और मादा में संसर्ग होता है। रक्त कुसुम (लायथ्रम) के साथ प्रयोग तो और भी रोचक रहे। इसकी तीनों किस्मों में एक दूसरे का संयोग स्पष्ट था। बाद में मैंने पाया कि एक ही किस्म के दो पौधों के संयोग से होने वाली संतति भी संवृत और प्रबल सादृश्यता रखती है। यह सादृश्यता दो अलग अलग प्रजातियों के पौधों के संयोग से उत्पन्न संकर किस्मों जैसी ही होती है।

सन 1864 की शरद ऋतु में मैंने लताओं के बारे में एक विशद लेख लिखा जिसका शीर्षक था - क्लाइम्बिंग प्लान्ट्स। यह लेख प्रकाशन के लिए लेन्नियन सोसायटी को भिजवा दिया। इस आलेख के लेखन में चार माह लगे, लेकिन जब इसका प्रूफ मुझे मिला तो मेरी सेहत इतनी खराब थी कि मैं इसे ठीक नहीं कर पाया और कुछ गूढ़ बातों को सही तौर से समझा भी नहीं सका। इस आलेख पर कम ही लोगों का ध्यान गया, लेकिन 1875 में जब इसी को संशोधित रूप में प्रकाशित कराया तो इसकी खूब बिक्री हुई। इस विषय की ओर मेरा रुझान एसा ग्रे के लेख को पढ़ कर हुआ था। यह लेख 1858 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने मुझे बीज भेजे और कुछ पौधे उगाने के बाद मैं पौधे के तने और लता तन्तुओं की घुमावदार बढ़ोतरी देखकर हैरान परेशान हो गया। यह बढ़ोतरी पहली नज़र में तो काफी जटिल प्रतीत हुई लेकिन वास्तव में काफी सरल थी। इसके बाद ही मैंने बहुत सी लताओं के पौधे लगाए और उनका अध्ययन किया। हेन्सलो ने अपने व्याख्यानों में जुड़वां बनते जाने वाले पौधों के बारे में जो व्याख्या दी थी उससे असन्तुष्ट हो कर मैं इस विषय की ओर और भी आकर्षित हुआ। उन्होंने कहा था कि इन पौधों की कोंपलों में ऊपर की ओर बढ़ने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की लताओं में भी अनुकूलन की प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार रोचक हैं, जिस प्रकार की प्रवृत्ति शतावरी में संकर परागण के दौरान दिखाई देती है।

वेरिएशन ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्ट अन्डर डोमेस्टिकेशन शीर्ष से मेरी पुस्तक की शुरुआत 1860 में ही हो चुकी थी, लेकिन इसके प्रकाशन का कार्य 1868 के शुरू में ही हो पाया। यह बहुत ही बड़ी पुस्तक थी। इसके लेखन में मुझे चार बरस और दो माह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। हमारे घरेलू वातावरण में जीव जन्तुओं और पौधों के परागण के बारे में विभिन्न स्रोतों से बटोरे गए तथ्यों को इस पुस्तक में मैंने विस्तार से प्रस्तुत किया है। पुस्तक के दूसरे खण्ड में परिवर्तनों के नियमों और कारणों, वंशानुक्रम आदि पर विचार किया गया है। हाँ, इतना अवश्य है कि इस विचार विमर्श का दायरा उस समय उपलब्ध जानकारी के भीतर ही रहा। पुस्तक के अन्त में मैंने पेग्नेसिस के बारे में अपनी तथाकथित बदनाम परिकल्पना का जिक्र किया है। यह देखते हुए कि अप्रमाणित परिकल्पनाओं का कम या कोई मूल्य नहीं होता है, लेकिन इतना ज़रूर है कि यदि इन परिकल्पनाओं से प्रभावित होकर कोई भी व्यक्ति इन पर शोधकार्य करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है और इन्हें प्रमाणित करता है, तो मैं समझता हूँ कि मैंने अच्छा कार्य किया है। इस तरीके से बहुत सारे प्रछन्न तथ्यों को आपस में जोड़ते हुए उन्हें बुद्धिपरक रूप दिया जा सकता है। सन 1875 में इसका दूसरा और काफी संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसमें मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी।

फरवरी 1871 में डीसेन्ट ऑफ मैन का प्रकाशन हुआ। सन 1837 या 1838 में मुझे यह आभास हुआ कि सभी प्रजातियों में विकार होते रहते हैं, तो इस नियम में मानव का भी तो समावेश होगा। बस इसी आधार पर मैंने अपने संतोष के लिए इस विषय पर तथ्यों का संकलन शुरू कर दिया, काफी समय तक इसे प्रकाशित कराने का मेरा कोई इरादा नहीं था। हालांकि द ओरिजिन ऑफ स्पीशेज में किसी प्रजाति विशेष के मूल उद्भव पर विचार नहीं किया गया है, तो भी मैंने यह उचित समझा कि, `मानव के उद्गम और उसके इतिहास पर भी कुछ प्रकाश डाला जाए,' ताकि कोई सज्जन मुझ पर यह आक्षेप न लगाएँ कि मैंने अपने दृष्टिकोण को छिपाया है। यदि अपनी पुस्तक में मैं मानव के उद्गम के बारे में अपनी अवधारणा के समर्थन में कोई प्रमाण न देता, तो यह पुस्तक अनुपयोगी रहती, साथ ही सफल भी न हो पाती।

लेकिन जब मैंने पाया कि बहुत से प्रकृतिवादियों ने प्रजातियों के उद्विकास के सिद्धान्त को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है तो मुझे यह उचित प्रतीत हुआ कि मानव के उद्गम के बारे में मेरे पास जो सामग्री उपलब्ध है उसके आधार पर विशेष लेख प्रकाशित कराऊं। ऐसा करने में मुझे काफी खुशी हुई क्योंकि इसमें मुझे नर मादा के चयन पर पूरा विचार विमर्श करने का मौका मिला। इस विषय में मेरी रुचि भी थी। यह विषय और हमारे घरेलू वातावरण में पौधों, जीव जन्तुओं की संततियों में बदलाव के साथ-साथ परिवर्तन के नियमों और कारणों, वंशानुक्रम और पौधों में संकर परागण मेरे एकमात्र विषय रहे, जिनके बारे में लिखते समय मैंने अपने पास एकत्र समस्त सामग्री का भरपूर उपयोग किया। दि डीसेन्ट ऑफ मैन के लेखन में मुझे तीन वर्ष लगे। हमेशा की तरह बीमारी ने मेरा पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा। कुछ समय नए संस्करणों में और छिटपुट लेखन में भी लग गया। दि डीसेन्ट ऑफ मैन का संशोधित द्वितीय संस्करण 1874 में प्रकाशित हुआ। सन 1872 की शरद में मानव और पशुओं में मनोभावों का प्रकटीकरण के बारे में मेरी पुस्तक एक्सपेशन ऑफ इ इमोशन्स इन मैन एन्ड एनिमल प्रकाशित हुई। मेरा अभिप्राय तो यही था कि डीसेन्ट आफ मैन पर केवल एक अध्याय ही लिखूँ, लेकिन जब मैंने सभी नोट्स बटोरने शुरू किए तो मुझे लगा, इसके लिए अलग से प्रबन्ध लेख लिखना पड़ेगा।

मेरी पहली संतान का जन्म 27 दिसम्बर 1839 को हुआ था, और फौरन ही मैंने उसकी सभी अभिव्यक्तियों पर बारीकी से ध्यान देना शुरू कर दिया था, क्योंकि मुझे लगा कि जिन जटिल और उत्कृष्ट अभिव्यक्तियों को हम बाद में देखते हैं, उनकी बुनियाद तो जीवन की शुरुआत में ही पड़ जाती है और बाद में उनका क्रमिक तथा प्राकृतिक विकास होता चला जाता है। मैंने अभिव्यक्तियों के बारे में सर सी बेल का प्रशंसनीय लेख भी पढ़ा था, और इससे मेरी रुचि इस विषय में बढ़ी, लेकिन मैं उनकी इस धारणा से सहमत नहीं हो पाया कि अभिव्यक्ति के लिए शरीर में विभिन्न पेशियां खास तौर पर बनी हुई हैं। इसके बाद मैं कभी कभार मानव और पालतू जीवों के सम्बन्ध में इसी विषय को लेकर कुछ लिख-पढ़ लेता था। मेरी पुस्तक खूब बिकी। प्रकाशन के पहले ही दिन इसकी 5267 प्रतियां बिक गयीं। सन 1860 की गरमियों में मैं हार्टफील्ड के निकट आराम करता रहा। वहाँ पर कीटाश (सनड्यू) के पौधों की दो प्रजातियाँ बहुतायत से थीं। मैंने यह भी ध्यान दिया कि इनके पत्तों में बहुत से कीट भी फंसे हुए थे। मैं कुछ पौधे घर पर लाया और उन पर फिर से कीट डालने के बाद मैंने देखा कि पत्तियों के रोमों में कुछ हलचल होने लगी थी। इसके आधार पर मैंने सोचा कि सम्भवतया यह पौधा कीटों को किसी खास मतलब से पकड़ता है। सौभाग्य से मैंने एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण भी किया। वह यह कि मैंने बहुत से पत्ते विभिन्न प्रकार के नाइट्रोजनयुक्त और नाइट्रोजन रहित घोल में डाल दिए। इन सभी घोलों का घनत्व एक समान था; इस परीक्षण से मैंने पाया कि केवल नाइट्रोजन सहित घोल में ही ऊर्जावान हलचल हुई। इससे इतना तो साफ ही था कि अन्वेषण का एक नया क्षेत्र सामने था।

बाद के वर्षों में जब भी मैं फुरसत में होता तो अपने प्रयोग शुरू कर देता था। और इस तरह कीट भक्षक पौधों पर मेरी पुस्तक इन्सेक्टीवोरस प्लान्टस् जुलाई 1875 में प्रकाशित हुई। यह प्रकाशन पूरे सोलह बरस बाद हुआ था। इस मामले में, और मेरी अन्य पुस्तकों के प्रकाशन में देरी से मुझे लाभ भी हुआ, क्योंकि इतने अन्तराल के बाद कोई भी अपने काम की आलोचना उसी तरह से कर सकता है, जैसे किसी दूसरे के काम की करता। उचित तरीके से उत्तेजित करने पर कोई पौधा ऐसा तरल पदार्थ भी निकालता है जिसमें अम्ल और खमीर हो। ऐसा तत्त्व किसी जीव के पाचकड रस की तरह होता है। इस तथ्य की खोज निश्चय ही उल्लेखनीय खोज है।

सन 1876 में मैंने वनस्पति जगत में संकर और स्व निषेचन के प्रभावों के बारे में इफेक्टस ऑफ क्रास एन्ड सेल्फ फर्टिलाइजेशन इन दि वेजिटेबल किंग्डम, नामक पुस्तक प्रकाशित कराने का विचार बनाया है। यह पुस्तक फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड की अनुपूरक होगी, जिसमें मैंने यह दर्शाया था कि संकर निषेचन के उपाय कितने पारंगत थे, और इस पुस्तक में मैं बताऊंगा कि इनके नतीजे भी कितना महत्त्व रखते हैं। ग्यारह साल की इस अवधि के दौरान मैं ने जो विभिन्न प्रयोग किए उनका उल्लेख इस पुस्तक में है। वस्तुत: इस काम की शुरुआत महज संयोगवश हुई थी, और ऐसे कार्यों के लिए घटना भी मेरी आँखों के सामने ही हुई, जब मेरा ध्यान बहुत ही तेजी से इस ओर गया कि संकर निषेचन से पैदा हुए बीजों की नर्सरी के पौधों की तुलना में स्व निषेचित बीजों से तैयार नर्सरी के पौधे जल्दी कमजोर पड़ते हैं। मैं यह भी आशा कर रहा हूं कि आर्चिड के बारे में मैं अपनी पुस्तक का संशोधित संस्करण प्रकाशित कराऊँ। इसके बाद द्विरूपी और त्रिरूपी पौधों पर अपने आलेखों का प्रकाशन कराऊं। साथ ही इससे जुड़े कुछ और तथ्य भी प्रकाशित होंगे जिन्हें व्यवस्थित करने का समय मुझे नहीं मिला। यह भी लग रहा है कि अब कमजोरी बढ़ती जा रही है, और अब मैं किसी भी समय अल विदा कह सकता हूँ।

पहली मई 1881 को लिखा - द इफेक्ट ऑफ क्रास एन्ड सेल्फ फर्टिलाइजेशन का प्रकाशन 1876 की शरद में हुआ। इसमें प्राप्त परिणामों की व्याख्या की गयी है, और मेरा विश्वास भी है कि एक ही प्रजाति के पौधों में एक पौधे से दूसरे पौधे तक पराग कणों के अभिगमन में कितना सुन्दर क्रिया व्यापार निहित है। हालांकि इस समय मैं यह भी मानता हूं कि - खासतौर पर हर्मेन मुलेर को पढ़ने के बाद, मुझे स्व निषेचन पर बहुत सी अनुकूलताओं पर अधिक दृढ़तापूर्वक लिखना चाहिए था, हालांकि मैं बहुत सी अनुकूलताओं के बारे में जानकारी रखता था। फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड का मेरा काफी बड़ा संस्करण 1877 में प्रकाशित हुआ।

इसी वर्ष फूलों की विभिन्न किस्मों के बारे में दि डिफरेन्स फार्म्स ऑफ फ्लावर्स का प्रकाशन हुआ और 1880 में इसका दूसरा संस्करण भी आ गया। इस पुस्तक में भिन्न परागवाही नलिका वाले फूलों पर विभिन्न आलेखों का संशोधित संग्रह था जो लिन्नेयन सोसायटी द्वारा प्रकाशित किए गए थे। पुस्तक में उस बारे में कुछ नई सामग्री भी जोड़ दी गयी थी, और कुछ ऐसे पौधों के बारे में भी निष्कर्ष दिए गए थे, जिनमें एक ही पौधे पर दो किस्म के फूल पैदा होते हैं। मैंने पहले भी यह उल्लेख किया है कि भिन्न परागवाही नलिका वाले फूलों की छोटी-सी खोज ने मुझे जितनी खुशी दी, उतनी और किसी बात ने नहीं दी। ऐसे फूलों के गलत ढंग से निषेचन के परिणाम भी काफी महत्त्वपूर्ण होंगे, क्योंकि इसका प्रभाव संकर किस्मों की अनुर्वरकता भी हो सकता है; हालांकि इस प्रकार के परिणामों पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है।

मैंने सन 1879 में डॉक्टर अर्न्स्ट क्राउज लिखित लाइफ ऑफ इरेस्मस डार्विन का अनुवाद प्रकाशित कराया। मेरे पास उपलब्ध सामग्री के आधार पर मैंने उनके चरित्र और आदतों के बारे में भी एक रेखाचित्र इसी पुस्तक में जोड़ दिया। इस छोटी-सी जीवनी को पढ़ने में लोगों ने बहुत कम रुचि दिखायी। मुझे हैरत हुई कि इस पुस्तक की केवल आठ नौ सौ प्रतियाँ ही बिक सकीं।

पौधों में संचरण की शक्ति के बारे में मैंने (अपने पुत्र) फ्रैंक की मदद से 1880 में पॉवर ऑफ मूवमेन्ट इन प्लान्टस का प्रकाशन कराया। यह बहुत कठिन कार्य था। फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड का जो सम्बन्ध क्रास फर्टिलाइजेशन से रहा था, वही कुछ सम्बन्ध इस पुस्तक और क्लाइम्बिंग प्लान्टस में था क्योंकि उद्विकास के सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न वर्गों में विकसित लताओं की उत्पत्ति असम्भव होती, यदि सभी पादपों में समवर्गीय प्रकार का मामूली-सा भी संचरण न होता। मैंने इसे सिद्ध किया और मैं एक नए ही प्रकार के सामान्यीकरण की तरफ आगे बढ़ गया। और यह तथ्य थे कि संचरण के बड़े और महत्त्वपूर्ण वर्ग, प्रकाश से उत्तेजन, गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव तथा अन्य। ये सभी परिवृत्ति के आधारभूत संचरण की ही परिवर्धित किस्में हैं। पौधों को भी जीवित प्राणी मानते हुए उसी प्रकार से उनका विश्लेषण मुझे प्रिय रहा है, और यह बताने में खुशी होती है कि किसी भी पौधे की जड़ के मूल में नीचे की ही ओर बढ़ते जाने की जो अनुकूलता है वह कितनी प्रशंसनीय है।

केंचुओं द्वारा मिट्टी खोद खोदकर ढेर बनाने से वनस्पति गुच्छों के निरूपण के बारे में मैंने अब (पहली मई 1881) को प्रकाशक के पास एक पाण्डुलिपि भेजी है, जिसका शीर्षक है - दि फार्मेशन आफ वेजिटेबल माउल्ड थ्रू द एक्शन ऑफ वार्म्स। वैसे तो यह मामूली-सा विषय है और मुझे नहीं मालूम कि यह किसी पाठक को रुचिकर लगेगी, लेकिन यह विषय मुझे रोचक लगा। चालीस वर्ष पहले मैंने जिओलाजिकल सोसायटी के समक्ष एक आलेख पढ़ा था, उसी की पूर्णता इस पुस्तक में हुई। इसमें प्राचीन भूवैज्ञानिक विचारों को ही पुन: प्रस्तुत किया गया है।

इस समय तक मैंने अपनी सभी प्रकाशित कृतियों का जिक्र कर दिया है। ये पुस्तकें मेरे जीवन के महत्त्वपूर्ण सोपानों में से हैं, इसलिए अभी कुछ और भी कहने को बाकी है। पिछने तीस साल के दौरान मेरे दिमाग में हुए बदलाव के बारे में मैं सतर्क नहीं हूं। सिर्फ एक ही तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगा कि कोई विशेष बदलाव तो नहीं हुआ, हां, सामान्य-सी घिसावट ज़रूर हुई। मेरे पिताजी तिरासी साल तक जीवित रहे और उनके दिमाग में वही सतर्कता बरकरार थी जो शुरू में थी। उनके सोचने विचारने, चलने फिरने, यूँ कहिए दिमाग का हर हिस्सा जागरुक था; और मेरा विश्वास है कि मैं अपने दिमाग की सजगता में कमी आने से पहले ही चल बसूंगा। मैं समझता हूं कि मैं सभी स्पष्टीकरणों के बारे में अनुमान लगाने और प्रयोगात्मक परीक्षण में और भी दक्ष हो गया हूं, लेकिन शायद यह अभ्यास करते करते और ज्ञान की बढ़ोतरी से ऐसा हो गया होगा। मैं अपनी बात को स्पष्ट और सतर्क रूप में प्रस्तुत करने में हमेशा ही कठिनाई महसूस करता रहा हूं, और इस कठिनाई के चलते मेरा काफी समय भी बरबाद हुआ; लेकिन बदले में मुझे यह लाभ भी हुआ कि मैं प्रत्येक वाक्य के बारे में अधिक सजगतापूर्वक सोच सका, और इस प्रकार मैं वितर्क में गलतियों और अपने तथा दूसरों के निष्कर्षें में हुई चूक पर भी ध्यान दे सका।

मुझे ऐसा भी लगता है कि मेरे दिमाग में कुछ खराबी भी थी, जिसके कारण मैं पहले तो किसी कथन या तर्क वाक्य को गलत रूप से या बेतरतीब ढंग से प्रस्तुत करता था। शुरुआत में तो मैं अपने वाक्य लिखने से पहले सोचता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने पाया कि पूरा पृष्ठ बहुत ही तेजी से और शब्दों को अर्धरूप में लिखते जाने में काफी समय बचता है, और बाद में इनका संशोधन करना आसान रहता है। इस तरीके से लिखे गए वाक्य सोच समझकर लिखे गए वाक्यों की तुलना में कहीं बेहतर होते थे।

अपनी लेखन विधि के बारे में बताने के बाद अब मैं यह बताऊंगा कि अपनी बड़ी पुस्तकों में विषय की सामान्य व्यवस्था में मैंने काफी समय लगाया। सबसे पहले मैं दो या तीन पृष्ठों में मोटी-सी संक्षिप्त रूपरेखा तैयार करता था, और फिर व्यापक रुपरेखा जो कई पृष्ठों की होती थी। इसमें कुछ शब्द या कई शब्द समूचे विचार विमर्श या तथ्यों की श्रृंखला को प्रकट करने वाले होते थे। इनमें से प्रत्येक शीर्षक को और विस्तार देता था या फिर व्यापक रूप से लिखने से पहले कई बार शीर्षक बदलता भी था। मेरी विभिन्न पुस्तकों में दूसरों के द्वारा अनुभूत तथ्यों का व्यापक उपयोग हुआ है और यह भी कि एक ही समय में मैं कई कई विषयों पर काम करता था। इन सबको व्यवस्थित रखने के लिए मैं तीस या चालीस पोर्टफोलिया रखता था और इन्हें जिस कैबिनेट में रखता था उसके खानों पर लेबल लगा रखे थे। इनमें मैं अलग-अलग सन्दर्भ या स्मरण नोट तुरन्त रख लेता था। मैंने बहुत-सी पुस्तकें खरीदी भी थीं, और उनके अंत में अपने काम से सम्बन्धित तथ्यों के बारे में सूची बना कर लगा रखी थी। अगर मैं किसी से मांगकर किताब लाता था तो अलग से सारांश लिखकर रख लेता था और इस तरह के सारांशों से मेरी बड़ी दराज भर गयी थी। किसी भी विषय पर लिखना शुरू करने से पहले मैं सभी छोटी विषय सूचियों को निकालता और एक सामान्य तथा वर्गीकृत विषय सूची बनाता था। इस प्रकार एक या अधिक सही पोर्टफोलियो में मुझे प्रयोग के लिए संगृहीत सारी जानकारी मुझे मिल जाती थी।

मैं कह चुका हूं कि पिछले बीस या तीस बरस में मेरा दिमाग एक तरीके से बदल गया है। तीस बरस की उम्र तक या इसके कुछ बाद भी मैं मिल्टन, ग्रे, बायरन, वर्डस्वर्थ, कॉलरिज और शैली की रचनाओं के रूप में काव्य में रुचि लेता था। इन रचनाओं में मुझे काफी आनन्द भी मिला, स्कूली जीवन में तो मुझे शेक्सपीयर पसन्द था, उसके ऐतिहासिक नाटक तो मुझे खास तौर पर पसन्द थे। मैं यह भी कह चुका हूं कि पहले मुझे चित्रों में काफी और संगीत में बहुत ज्यादा आनन्द आता था। लेकिन अब कई बरस से मैं कविता की एक लाइन पढ़ना भी गवारा नहीं कर सका हूं। मैंने जब दोबारा शेक्सपीयर पढ़ना शुरू किया तो यह इतना नीरस लगा कि मैं बेचैन हो गया। चित्रों और संगीत के प्रति मेरी रुचि मर चुकी है। आम तौर पर संगीत के सहारे अब मुझे आनन्द तो कम मिलता है। जिस विषय पर काम कर रहा होता हूं, उसके प्रति अधिक ऊर्जावान ढंग से सोचने लगता हूं। मुझमें प्राकृतिक दृश्यों के लिए कुछ रुचि है लेकिन यह पहले जितनी प्रखर नहीं रह गयी है। दूसरी ओर, कोरी कल्पना के आधार पर लिखे गए उपन्यास कई बरस से मेरे लिए राहत और आनन्द का सबब रहे हैं, इसके लिए मैं सभी उपन्यासकारों को दुआ देता हूं। हालांकि ये उपन्यास बहुत उच्च कोटि के नहीं होते थे। मुझे बहुत से उपन्यास पढ़ कर सुनाए गए, मैं सामान्य तौर पर अच्छे और सुखांत उपन्यास पसन्द करता हूं। दुखांत उपन्यास के खिलाफ तो कानून बनना चाहिए। मेरी रुचि के मुताबिक कोई उपन्यास तब तक प्रथम कोटि का नहीं है जब तक कि इसमें कोई ऐसा चरित्र न हो जिसे आप खूब चाहें और खूबसूरत औरत का जिक्र भी हो तो क्या कहने।

उच्चस्तरीय सौन्दर्यपरक रुचि का अभाव मेरे लिए खेद का विषय है, क्योंकि मेरी रुचि हमेशा से इतिहास, जीवनी और यात्रा वृत्तांत (उनमें कोई वैज्ञानिक तथ्य हो या नहीं तो भी) और सभी विषयों पर लिखे गए निबन्धों में ही अधिक रही। मुझे लगता है कि मेरा दिमाग एक मशीन बन गया है जो तथ्यों के विशाल संग्रह का मंथन करके सामान्य नियमों को निकालता है, लेकिन मैं यह समझ नहीं पाता हूं कि इससे दिमाग का वही हिस्सा क्यों प्रभावित हुआ, जिसमें उच्च स्तरीय रुचियां जागृत होती हैं। मैं यह समझता हूं कि मेरे जैसे व्यवस्थित और सुगठित दिमाग वाले व्यक्ति को इस तरह की कमी का सामना नहीं होना चाहिए; अगर मुझे दोबारा जीवन मिले तो मैं एक नियम बना दूं कि सप्ताह में एक बार कुछ काव्य पढ़ना और कुछ संगीत सुनना ज़रूरी है, इससे मेरे दिमाग का जो हिस्सा विकसित नहीं हो पाया, शायद इस उपयोग से कुछ सक्रिय हो जाए। इस प्रकार की रुचियों का नष्ट होना बुद्धि के लिए ही नहीं शायद नैतिक चरित्र के लिए भी घातक भी है। इससे हमारी प्रकृति का संवेदनात्मक हिस्सा कमज़ोर होता चला जाता है। मेरी पुस्तकें ज्यादातर इंग्लैन्ड में बिकीं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ, और विदेशों में भी इनके कई संस्करण बिके। मैंने सुना है कि किसी भी लेखन कार्य का विदेशों में सफल होना ही स्थायी मूल्यवत्ता है। लेकिन मुझे संदेह है कि यह सब विश्वास योग्य भी है; लेकिन यदि इसी आधार पर देखा जाए तो लोगों को मेरा नाम कुछ ही वर्षों तक याद रहेगा। इसलिए उचित तो यही होगा कि मेरी दिमागी गुणवत्ता और उन परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाए जिन पर मेरी सफलता निर्भर रही; यद्यपि मैं जानता हूं कि कोई भी यह कार्य सही रूप में नहीं कर सकता है। बुद्धिमान लोगों में विचारों को तेजी से समझने की ताकत या प्रज्ञा काफी मुखरित होती है, जैसे हक्सले। लेकिन मैं किसी आलेख या पुस्तक को पहली बार पढ़ता हूं तो मैं तुरन्त ही प्रशंसा करने लग जाता हूँ, उसके कमज़ोर पहलुओं पर काफी विचार करने के बाद ही मेरा ध्यान जाता है। विचारों की अमूर्त और अटूट श्रृंखला मेरे मन में बहुत कम चल पाती है; और यही वजह रही कि मैं मेटाफिजिक्स या गणित में कभी सफल नहीं हो पाया। मेरी स्मृति काफी विशाल लेकिन धुंधली है।

मेरे कुछ आलोचकों ने कहा है, `अरे! वह तो अच्छे हैं, लेकिन उनमें तर्कशक्ति नहीं है।' मैं ऐसा इसे नहीं सोचता कि यह सत्य है, क्योंकि दि ओरिजिन ऑफ स्पीशिज शुरू से आखिर तक एक बड़ा तर्क ही तो है, लेकिन इसे बहुत से धुरंधर लोग भी समझ नहीं सके। यदि तर्कशक्ति बिल्कुल भी न होती तो कोई कैसे इस प्रकार की किताब लिखता। मुझमें अन्वेषण बुद्धि भी है और सामान्य या विवेक बुद्धि भी काफी है। इतनी बुद्धि तो है ही कि मैं सफल वकील या डाक्टर बन सकता था, लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि इससे अधिक मेधावी मैं नहीं हूं।

यदि बुद्धि के ही तराजू को देखा जाए तो एक बात मेरे पक्ष में जाती है जो सामान्यतया लोगों में नहीं होती है, और वह है चीज़ों को ध्यान से देखना। ऐसी चीज़ें जिन पर आम तौर पर लोगों की नज़र ही नहीं पड़ती है। और पड़ती भी है तो वे सावधानीपूर्वक नहीं देखते हैं। तथ्यों को ध्यान से देखने और तथ्यों के संकलन में मेरी कर्मठता गजब की है। एक बात और भी महत्त्वपूर्ण है कि प्राकृतिक विज्ञान के प्रति मेरा लगाव बहुत ही प्रगाढ़ और सतत है।

मेरे साथी प्रकृतिवादियों ने इस शुद्ध लगाव का समर्थन करके इसमें बढ़ावा किया है। थोड़ी-सी सज्ञानता आते ही मेरी यह आदत बन गई थी कि मैं जो कुछ भी देखता था उसे समझने या समझाने की तीव्र इच्छा रहती थी। इसे यूँ समझिए कि सभी तथ्यों को एक सामान्य नियम के तहत सूत्रबद्ध करने की आदत-सी हो गई है। इन्हीं सब कारणों ने मिल कर मुझमें ऐसा धीरज पैदा कर दिया कि किसी भी व्याख्या रहित समस्या का समाधान तलाशने में मैं कई कई बरस तक जुड़ा रह सकता था। जहाँ तक मैं अपने आप आप को समझ पाया हूं तो वह यह कि मैं दूसरे लोगों के दिखाए मार्ग पर आंख मूंद कर चल पड़ने का आदी नहीं रहा। मेरा हमेशा यही प्रयास रहा है कि मैं अपने दिमाग को आज़ाद रखूं ताकि मैं प्रिय से प्रिय परिकल्पना को भी (क्योंकि मैं प्रत्येक विषय पर कुछ न कुछ विचार संजोए रखता हूं) उस समय त्याग दूं, जब कोई ऐसा तथ्य मुझे बताया जाए जो मेरी परिकल्पनाओं का विरोधी हो। यदि मूंगा भित्तियों के बारे में लिखी किताब दि कोरल रीफ्स् को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो मुझे अपनी एक भी ऐसी परिकल्पना याद नहीं आती है, जिसे मैंने कुछ समय बाद बदल या पूरी तरह से छोड़ न दिया हो। स्वाभाविक रूप से मैंने मिश्रित विज्ञान में निगमागम के रूप में तर्क करने से स्वयं को दूर ही रखा। दूसरी ओर मैं बहुत हठधर्मी भी नहीं हूं, और मेरा विश्वास है कि यह हठधर्मिता विज्ञान की प्रगति के लिए घातक है। हालांकि वैज्ञानिक में सकारात्मक किस्म की हठधर्मिता होनी चाहिए, ताकि समय की अधिक बरबादी न हो, (लेकिन) मैं कुछ ऐसे लोगों से भी मिला हूं, और मुझे पक्का पता है कि इसी कारणवश वे ऐसे प्रयोगों या अवलोकनों से वंचित रह गए जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उनके लिए काफी उपयोगी होते।

इसके उदाहरण के रूप में मैं एक बहुत पुरानी बात बताता हूं जो मुझे अभी भी याद है। पूर्ववर्ती काउन्टियों से किसी सज्जन ने मुझे लिखा (बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि वे अपने इलाके में अच्छे वनस्पतिशास्त्री थे) कि सामान्य तौर पर पायी जाने वाली सेम की फलियों में इस वर्ष सभी स्थानों पर फलियां उल्टी तरफ लगी हैं। मैंने तुरन्त लिखा तथा उनसे कुछ और जानकारी भी मांगी क्योंकि मैं उनकी समस्या समझ नहीं पा रहा था, लेकिन उनसे काफी समय तक कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद दो अखबारों में, जिनमें से एक कैन्ट से छपा था तथा दूसरा यार्कशायर से, यह खबर छपी थी कि यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य रहा कि `इस वर्ष सेम की फलियाँ गलत दिशा में लगीं।' इसलिए मैंने सोचा कि इस प्रकार के सामान्य कथन की तह में कुछ तो असलियत होगी। यह सब पढ़ कर मैं अपने बूढ़े माली के पास गया, जो कैन्ट का निवासी था, और उससे पूछा कि, `क्या तुमने इस बारे में कुछ सुना है?' उसने जवाब दिया कि, `नहीं साहब, कुछ गलती हुई होगी क्योंकि केवल लीप वर्ष में ही फलियां गलत दिशा में लगती हैं।' फिर मैंने उससे पूछा कि बाकी के वर्ष में वे किस तरह लगती हैं, और लीप वर्ष में किस तरह से लगती हैं। लेकिन जल्द ही मुझे पता चल गया कि वह इस बारे में कुछ नहीं जानता है, पर वह भी अपने विश्वास पर अड़ा रहा।

कुछ समय बाद मुझे उस व्यक्ति का भी पत्र मिला जिसने सबसे पहले मुझे यह जानकारी दी थी। उसने माफी मांगते हुए लिखा था कि अगर यही बात उसने समझदार किसानों से न सुनी होती तो वह मुझे खत में इस बारे में न लिखता। अब उसने लगभग सभी से वही बात दोबारा पूछी तो उनमें से कोई भी यह नहीं बता सका कि आखिर इस बात का मतलब क्या था। इस प्रकार बिना किसी पुख्ता प्रमाण के एक विश्वास पूरे इंग्लैन्ड में फैल गया। यदि बिना किसी स्थायी विचार के इसे विश्वास कहा जा सकता हो तो ही इसे विश्वास मानेंगे।

मेरे जीवन के दौरान केवल तीन ही ऐसे झूठे वक्तव्य मिले जो जानबूझ कर फैलाए गए थे, और इनमें से एक तो पूरी तरह से कपट था (और इस तरह के बहुत से वैज्ञानिक कपट होंगे) जो कि अमरीकी कृषि जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया था कि बोस (मुझे मालूम है कि इनमें से कुछ तो पूरी तरह से बधिया होते हैं) की ही एक किस्म से हालैन्ड में एक नई नस्ल का साँड तैयार किया गया है। यही नहीं लेखक ने यह भी दावा किया था कि उसने मेरे साथ पत्राचार भी किया था, और मैं उसके नतीजों के महत्त्व से काफी प्रभावित हुआ था। यह लेख किसी इंग्लिश जर्नल के सम्पादक ने मेरे पास भिजवाया था और इसे पुन: प्रकाशित करने से पहले वे मेरा अभिमत जानना चाहते थे।

एक और प्रकरण में लेखक ने दावा किया था कि उसने प्राइमुला की कई प्रजातियों से अलग अलग किस्में पैदा की थीं, यद्यपि मूल पादपों को सावधानीपूर्वक कीटों की पहुंच से दूर रखा गया था तो भी सभी में भरपूर बीज भी हुए। यह लेख तब प्रकाशित हुआ था, जब मैंने विषमलिंगी पादपों के बारे में ठीक से जानकारी प्राप्त नहीं की थी। यह समूचा व्याख्यान ही एक धोखाधड़ी था, या फिर कीटों को दूर रखने में थोड़ी बहुत असावधानी हुई जिस पर पूरा ध्यान नहीं दिया गया।

तीसरा मामला तो अधिक जिज्ञासापूर्ण था, मिस्टर हथ ने अपनी पुस्तक कन्सेनजीनियस मैरिज में किसी बेल्जियमवासी लेखक के उदाहरण दिए थे कि उसने खरगोशों की कई पीढ़ियाँ बड़े ही निकटतापूर्ण ढंग से तैयार की थीं, जिनमें घातक प्रभाव रहे ही नहीं। यह विवरण रॉयल सोसायटी ऑफ बेल्जियम के सम्माननीय जर्नल में प्रकाशित हुआ, लेकिन मैं संदेह प्रकट करने से बाज नहीं आया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि कोई भी दुर्घटना क्यों नहीं हुई, जबकि पशुओं के प्रजनन में अपने अनुभव से मैं यही सोचने लगा कि यह असम्भव है।

इसलिए मैंने काफी संकोच के साथ प्रोफेसर वान बेनेडेन को लिखा और पूछा कि क्या लेखक भरोसे के लायक है। इसके प्रति उत्तर में मुझे यही पत्र मिला जिसमें लिखा था, `यह जान कर सोसायटी को आघात लगा है कि यह समूचा लेख एक प्रपंच था। इसके लेखक को जर्नल में ही खुलेआम चुनौती दी गयी कि वह यह बताए कि प्रयोग के दौरान खरगोशों के बड़े झुंड को उसने कहाँ और कैसे रखा, क्योंकि इसमें कई साल लग गए होंगे, पर उस लेखक से कोई उत्तर नहीं मिला।

मेरी आदतें बड़ी ही सिलसिलेवार हैं और जिस तरह का मेरा काम है उसके लिए बहुत कम उपयोगी हैं। अन्त में मैं यह भी कहूंगा कि मुझे अपना पेट पालने के लिए कहीं नौकरी नहीं करनी पड़ी, यह मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। यही नहीं, खराब सेहत के कारण मेरे जीवन के कई साल बेकार गए। लेकिन इसका यह फायदा हुआ कि मैं समाज में मन बहलाव और मनोरंजन के प्रति आकर्षित नहीं हुआ।

इसलिए मैं कह सकता हूं कि एक वैज्ञानिक के रूप में मेरी सफलता चाहे जितनी भी रही हो, पर जितना मैं समझ पाया हूं मेरे जटिल और विविधतापूर्ण मानसिक गुणों के कारण पूरी तरह से सुनिर्धारित थी। इन गुणों में कुछ प्रमुख थे - विज्ञान के प्रति लगाव, किसी भी विषय पर लम्बे समय तक सोचते रहने का असीम धैर्य, तथ्यों के अवलोकन और संग्रह का परिश्रम, और अन्वेषण के साथ साथ सामान्य बुद्धि का भी योगदान रहा। मेरे लिए यह आश्चर्य की बात है कि बस इन्हीं सामान्य सी योग्यताओं के बल पर मैंने कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर वैज्ञानिकों के विश्वास को काफी हद तक प्रभावित किया।


मेरे पिता के दैनिक जीवन के संस्मरण - फ्रांसिस डार्विन

इस लेखन में मेरा उद्देश्य यही है कि मैं अपने पिता के दैनिक जीवन के बारे में कुछ विचार प्रस्तुत करूं। मुझे यही लगा कि मैं इसका एक सामान्य-सा रेखाचित्र डाउन के दैनिक जीवन से शुरू करूं और मेरे जेहन में और इधर-उधर उनके बारे में जो कुछ जानकारियां बिखरी पड़ी हैं, उनका उल्लेख करूं। यादगार बातों में से कुछ ऐसी भी हैं जो मेरे पिता के परिचितों के लिए अर्थपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन अपरिचितों के लिए बेहूदी और बकवास। फिर भी, मैं इनका उल्लेख इस आशा से कर रहा हूं कि इससे परिचितों के दिलो दिमाग़ पर उनके व्यक्तित्व का प्रभाव कुछ और समय तक बना रहेगा। ये परिचित उन्हें जानते थे और उन्हें खूब प्यार करते थे। यह प्रभाव एकदम अमिट तो था ही, इसे शब्दों में बयान कर पाना भी मुश्किल है।

उनकी कद काठी, चेहरे-मोहरे आदि (आजकल विविध फोटोग्राफ बनते हैं) के बारे में बहुत कहने की ज़रूरत नहीं है। उनका कद लगभग छह फुट था, लेकिन वे लम्बे नहीं लगते थे, क्योंकि वे काफी मोटे थे; बाद में वे कुछ दुबला गये; मैंने उन्हें कई बार बाजुओं को तेजी से झुलाते हुए देखा था। उनको देखकर यही लगता था कि वे ताकतवर तो नहीं लेकिन सक्रिय ज़रूर हैं। उनके कन्धे कद के अनुपात में चौड़े नहीं थे, लेकिन बहुत तंग भी नहीं थे। अपनी जवानी में वे काफी सशक्त रहे होंगे, क्योंकि बीगल की यात्रा के दौरान जहाँ सभी लोग पानी पानी चिल्ला रहे थे, वहीं मेरे पिता उन दो लोगों में से एक थे जो दूसरों की तुलना में पानी के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे। एक लड़के के रूप में भी वे बहुत ऊधम मचाते थे और अपने गले की ऊंचाई तक की छलांग मार जाते थे।

वे झूलते हुए से चलते थे। हाथ में छड़ी रखते थे। छड़ी के निचले सिरे पर लोहे का बंद लगा था। चलते हुए जब छड़ी को ज़मीन पर ठकठकाते थे तो ठक-ठक की आवाज़ दूर तक सुनाई देती थी। उनकी छड़ी की यह लय-ताल पूरे डाउन में सैन्ड वाक के समय आसानी से पहचानी जा सकती थी। दोपहर में जब वे घूमने जाते थे तो कन्धे पर वाटरप्रूफ जैकेट या लबादा डाले होते थे, क्योंकि गरमी के कारण इसे पहनना मुश्किल हो जाता था। ऐसे में यह साफ दिखाई देता था कि वे अपना लहराता हुआ कदम बमुश्किल घसीट रहे होते थे। घर में भी उनके कदम बहुत धीमे और घिसटते हुए से रहते थे। दोपहर में जब कभी वे सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर जाते थे तो उनका उठा हुआ कदम बहुत तेजी से गिरता था, जैसे एक एक कदम बहुत कठिनाई से उठ रहा हो। जब वे कोई काम मनोयोग से कर रहे होते थे तो वे काफी तेज़ी से और आसानी से चलते-फिरते थे, और कई बार लेख लिखाते लिखाते वे तेज़ी से हॉल में आते और एक चुटकी नसवार लेते थे। अध्ययन कक्ष का दरवाजा खुला ही रहता था और कमरे से बाहर आते आते वाक्य का आखिरी शब्द बोल देते थे।

उनके क्रियाकलापों के अलावा मैं समझता हूं कि उनकी चाल-ढाल में कोई सहज रौब या चलने-फिरने में नफ़ासत नहीं थी। उनके हाथ बड़े ही चंचल थे और उनसे चित्रकारी नहीं हो पाती थी। इस बात का उन्हें हमेशा ही मलाल रहा और कई बार उन्होंने इस बात का ज़िक्र किया कि एक प्रकृतिवादी की ड्राइंग भी बेहतरीन होना बेहद लाजमी है।

वे साधारण से माइक्रोस्कोप की सहायता से भी चीर-फाड़ कर लेते थे, लेकिन मैं समझता हूं कि अपने धीरज और बेहद सावधानी के बल पर ही वे ऐसा कर पाते थे। उनकी खासियत थी कि वे यह भी मानते थे कि चीर-फाड़ में थोड़ी-सी भी दक्षता लगभग अति-मानवीय होती है। उन्होंने एक दिन न्यूपोर्ट द्वारा भौंरे की चीर-फाड़ देखकर उसकी खूब तारीफ की। बड़ी ही सफाई से उसने भौंरे का स्नायुतत्र पतली सी कैंची से थोड़ा-सा काट कर ही निकाल लिया था। वे सूक्ष्म टेढ़ी काट को बहुत बड़ा काम मानते थे। जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने बड़े ही जीवट के साथ जड़ों और पत्तियों की टेढ़ी काट का काम सीखा। उनके हाथ कांपते थे इसलिए काटी जा रही वस्तु को स्थिर नहीं रख पाते थे। वे सामान्य माइक्रोटोम में पदार्थ को पकड़े रखने के लिए उसकी मेरू नाड़ी को जकड़ देते थे और रेजर को काँच की पतली पट्टी सतह पर चलाते जाते थे। टेढ़ी काट के मामले में वे अपनी होशियारी पर खुद भी हँसते थे और कहते - `भाव विभोर हो मूक हूँ'। दूसरी ओर वे आँख और ताकत का ताल मेल बड़ा ही सुन्दर बिठाते थे। वे बहुत अच्छे बंदूकची भी थे और बचपन में पत्थरों से पक्का निशाना लगाते रहे थे। बचपन में उन्होंने घर की पुष्प वाटिका में कंचे से ही एक खरगोश का शिकार कर लिया था और जवानी में पत्थर फेंक कर एक क्रास बीक मार गिराया था। उस पक्षी की हत्या का उन्हें इतना दुख था कि इस घटना को कई बरस तक बताया ही नहीं। बाद में बोले कि अगर उन्हें मालूम होता कि पुरानी निशानेबाजी अभी तक कायम है तो वे हरगिज पत्थर न फेंकते। उनकी दाढ़ी भरी हुई थी और वे कभी भी दाढ़ी की ट्रिमिंग नहीं करते थे। बाल उनके भूरे और सफेद थे तथा खूब मुलायम थे। उनके बाल हमेशा लहराते रहते थे। उनकी मूंछें काफी अजीब थीं क्योंकि उनका एक हाथ मूँछे तराशता रहता था। उम्रदराज होने के साथ-साथ वे गंजे हो गए थे और सिर के पीछे बालों का घेरा-सा रह गया था।

उनके चेहरे की रंगत लाली लिए हुए थी जिसे देखकर लोग उन्हें शायद इतना कमज़ोर नहीं समझते थे, जितने कि वे वास्तव में थे। उन्होंने सर जोसफ हूकर (13 जून 1849) को लिखा - सभी मुझे कहते हैं कि मैं काफी खिला-खिला और सुन्दर दिखाई देता हूँ, और ज्यादातर सोचते हैं कि मैं स्वांग कर रहा हूँ, लेकिन आप उनमें से नहीं हैं। और यह बात ध्यान में रखने की है कि उस समय वे गम्भीर रूप से बीमार थे और बाद के समय में तो हालत और भी खराब हो गयी। उनकी आँखें नीलापन लिए हुए भूरी थीं, भृकुटी खूब गहरी और घनी भौंहे आगे को निकली हुई थीं। उनके ऊंचे ललाट पर थोड़ी-सी लकीरें थीं। इसके अलावा उनके चेहरे पर निशान या झुर्रियां नहीं थीं। लगातार बीमारी के बाद भी उनके हाव-भाव से किसी तरह की पीड़ा नहीं झलकती थी।

जब भी वे आनन्ददायक बातें सुनते, एकदम प्रफुल्ल हो उठते थे, और यह प्रफुल्लता उनके चेहरे से झलक उठती थी। उनकी हँसी उन्मुक्त और अट्ठहास जैसी होती थी। ऐसी जैसे कोई व्यक्ति अपना सर्वस्व उस बात पर और व्यक्ति को समर्पित कर दे, जिससे उसका मन प्रसन्न हुआ है। अपनी हँसी के साथ वे शरीर को भी हिला डालते थे। हँसते हँसते ज़ोर से ताली भी मारते थे। मैं समझता हूं कि सामान्यतया वे भावों को इशारों में भी प्रकट करते थे। कई बार वे कुछ भी स्पष्ट करने के लिए अपने हाथों का प्रयोग करते थे (उदाहरण के लिए फूल का निषेचन) और यह इस प्रकार होता था कि इससे श्रोता को कम उन्हें अधिक मदद मिलती थी। ऐसे वे तब करते थे जब ठीक उसी बात को समझाने के लिए दूसरे लोग पेंसिल से रेखाचित्र बनाते थे। ज्यादातर लोग जिस मौके पर पेंसिल से चित्र बनाकर समझाते थे, वे वही बात हाथों के इशारे से समझाते थे। वे गहरे रंग के कपड़े पहनते थे जो ढीले लेकिन सहज होते थे। हाल ही के कुछ बरसों से उन्होंने लन्दन में भी लम्बा हैट पहनना छोड़ दिया था, और सरदियों में मुलायम काला हैट तथा गरमियों में बड़ा स्ट्रॉ हैट पहनते थे। घर के बाहर वे आम-तौर पर छोटा लबादा पहनते थे। इसी पोशाक में ईलीयट और फॉय द्वारा तैयार किए गए फोटोग्राफों में उन्हें बरामदे में खम्बे के सहारे टिका दिखाया गया है। घर के भीतर पहनने वाली पोशाकों में दो खास बातें थीं। एक तो यह कि वे हमेशा कन्धों पर दुशाला रखते थे, और पैरों में कपड़े के बूट पहनते थे जिसके भीतर फर लगे थे। इन्हीं के ऊपर वे घर में पहने जाने वाले जूते भी पहन लेते थे।


वे सवेरे जल्दी उठते थे और नाश्ते से पहले थोड़ा-सा घूमकर आते थे। यह आदत उन्हें तब पड़ी थी जब वे पहली बार जल चिकित्सा के लिए गए थे, और यह आदत अंतिम साँसों तक बनी रही। जब मैं छोटा था तो अक्सर उनके साथ जाता था और सरदियों में कितनी ही बार लाल लाल उगता सूरज देखा था। यही नहीं, उनका साथ बड़ा ही आनन्दप्रद था। मैं आज भी उसमें सम्मान और गर्व महसूस करता हूँ। जब वे मुझे यह बताते कि सरदियों की अंधियारी सुबह में इससे भी जल्दी चला जाए तो ऊष: काल के झिटपुटे में लोमड़ियों का फुदकना भी देखा जा सकता है।

सवेरे तकरीबन 7.45 पर नाश्ता करने के साथ ही वे काम में लग जाते थे। वे मानते थे कि 8 और 9.30 के बीच के डेढ़ घंटे काम करने के लिहाज से बेहतरीन होते हैं। सुबह 9.30 पर वे ड्राइंगरूम में आ जाते थे और आये हुए खत पढ़ते थे। अगर खत हल्के फुल्के होते तो वे खुश हो जाते। यदि ऐसे खत नहीं मिलते थे तो वे थोड़ा चिन्तित भी हो जाते थे। फिर वे सोफे पर अधलेटे से हो जाते और पारिवारिक खतों को पढ़वा कर सुनते थे।

पढ़वा कर सुनने का यह काम साढ़े दस बजे तक चलता था। इसमें कई बार किसी उपन्यास के हिस्से भी होते थे। इसके बाद बारह या पौन बजे तक फिर काम में लगे रहते थे। इतना काम करने के बाद वे समझते थे कि बस बहुत हुआ, और कई बार बड़े ही सन्तोष के साथ कहते,`आज पूरे दिन का काम निपटा लिया'। इसके बाद मौसम चाहे अच्छा हो या बारिश हो रही होती वे बाहर निकल जाते थे। उनकी सफेद टैरियर कुतिया, पॉली भी उनके साथ जाती थी, लेकिन अगर मौसम बारिश का होता तो वह मना कर देती या बरामदे में ही आनाकानी करती रहती थी। उसके हाव-भाव में अपने ही साहस के प्रति परेशानी और शर्म भी होती थे। आम तौर पर उसका अन्तर्मन ही जीतता था और जैसे ही वे बाहर निकल जाते थे तो वह भी पीछे नहीं रुक पाती थी।

मेरे पिता को कुत्तों से बहुत लगाव था, और जवानी में वे अपनी बहन के पालतू कुत्तों का ध्यान आसानी से अपनी ओर बंटा लेते थे। कैम्ब्रिज में तो उन्होंने अपने कजिन डब्ल्यू डी फॉक्स के कुत्ते का दिल जीत लिया था, और इतना कि वह छोटा-सा जानवर हर रात को उनके बिस्तर में घुस जाता और उनके कदमों में सोया रहता था। मेरे पिता के पास एक बड़ा ही दबंग कुत्ता भी था, जो उनके प्रति तो समर्पित था लेकिन दूसरों को काट खाने को दौड़ता था। बीगल की यात्रा से लौटने के बाद उस कुत्ते ने उन्हें कैसे याद रखा, उस तरीके को पिताजी ने कई बार बताया था। वे दालान में गए, खड़े होकर चिल्लाए और वह कुत्ता तुरन्त उनके साथ बिना कोई भाव या जोश खरोश दिखाए बस पीछे पीछे चल पड़ा, जैसे पिताजी ने उसे पाँच साल बाद नहीं बल्कि बस कल के बाद ही आज पुकारा था। इस वाकये को दि डीसेन्ट ऑफ मैन, दूसरा संस्करण, पृ.74 में भी बताया गया है।

मेरी याद में तो इतना ही है कि केवल दो ही कुत्ते ऐसे थे जो मेरे पिता से बहुत लगाव रखते थे। एक कुत्ते का रंग काला सफेद था और वह सोंधियार कुत्ते की संकर नस्ल का था। बॉब नामक इस कुत्ते को हम बच्चे भी खूब प्यार प्यार करते थे। दि एक्सप्रेशन ऑफ इमोशन्स में `हॉट हाउस फेस ' की कहानी में इसी कुत्ते का ज़िक्र है।

हमारी कुतिया, पॉली पिताजी को बहुत चाहती थी। वह सफेद रंग की फॉक्स टैरियर नस्ल की कुतिया थी। बहुत ही तेज़-तर्रार और प्यारी कुतिया थी वह। जब भी उसका मालिक किसी यात्रा पर जाने की तैयारी में होता तो उसे अध्ययन कक्ष में सामान बाँधने के क्रिया-कलापों से उसे इसका आभास हो जाता और वह एकदम सुस्त-सी हो जाती। इसके अलावा जैसे ही उसे अध्ययन कक्ष में चीज़ों को सलीके से रखने की कवायद दिखाई देती तो वह समझ जाती कि मालिक आने वाले है। वह बड़ी ही चतुर जीव थी। पिता के देहान्त के बाद वह कभी लड़खड़ा कर गिरती तो कभी उदास होकर पड़ी रहती। अपने डिनर के लिए तो वह ऐसे पड़ी रहती मानो अभी पिताजी उसे बुलाएँगे और कहेंगे कि (जैसा वे हमेशा करते थे) ये देखो यह `भूख से मरी जा रही है।' पिताजी उसकी नाक के ठीक ऊपर बिस्कुट पकड़ते और वह उछलती, और वे भी उसको मौन रूप से दुलराते हुए अपने हावभाव से ही कह देते - बहुत अच्छे बेटा। हमारी कुतिया की पीठ का एक हिस्सा एक बार जल गया था। उस जगह सफेद नहीं बल्कि लाल रंग के बाल उगे थे। उसकी इस कलगी के बारे में पिताजी कहते कि यह पेनजेनेसिस के सिद्धान्त का बेहतरीन उदाहरण है, क्योंकि इस कुतिया का जनक रेड बुलटैरियर था, और जलने के बाद लाल बालों का उगना यह बताता है कि लाल कलिकाएँ प्रछन्न रूप में विद्यमान हैं। वे पॉली को बहुत चाहते थे, और उस पर बहुत ध्यान देने में कभी भी अधीर नहीं होते थे। चाहे वह दरवाजे पर बाहर से भीतर आना हो या बरामदे की खिड़की में बैठकर शरारती लोगों पर भौंकना हो, उसकी इस कर्त्तव्यनिष्ठा पर वह भी बहुत खुश होते थी। पिताजी के देहान्त के कुछ ही दिन बाद वह भी चल बसी, या यूँ कहिए उसने खुदकशी कर ली।

पिताजी का दोपहर भ्रमण सामान्यतया ग्रीनहाउस से शुरू होता था। वहाँ पर वे अंकुरित हो रहे बीजों या प्रयोगाधीन पादपों का निरीक्षण करते थे, लेकिन इस समय वे कोई गम्भीर निरीक्षण नहीं करते थे। इसके बाद वे अपने नियमित भ्रमण `सैन्ड वाक के लिए जाते या फिर घर के ठीक पड़ोस में खाली पड़े मैदानों में घूमने चले जाते थे। `सैन्ड वाक ' डेढ़ एकड़ भूमि पर फैली हुई पट्टी थी, जिसके चारों ओर बजरी बिछाकर रास्ता बनाया गया था। इसके एक तरफ शाहबलूत के बड़े बड़े पेड़ों का झुरमुट था, जिससे रास्ता छायादार बन गया था, दूसरी ओर नागफनी की बाड़ लगाकर उसे पड़ोस के चरागाह से अलग किया गया था। उस तरफ जाने पर छोटी-सी घाटी दिखाई देती थी, वह घाटी वेस्टरहेम हिल के किनारे पर जाकर विलीन हो गई थी। कभी वहाँ पर घने पेड़ थे लेकिन अब पिंगल की झाड़ियाँ और श्रीदारु के पेड़ दिखाई देते थे, जो कि वेस्टरहेम हाई रोड तक फैले थे। मैंने पिताजी से कई बार यह कहते सुना था कि इस छोटी-सी घाटी की खूबसूरती ही इस जगह घर बनाने का कारण थी।

पिताजी ने सैन्ड वाक पर अलग अलग किस्म के पेड़ लगा रखे थे जिनमें पिंगल झाड़ी, भोजपत्र, जम्बीरी नीबू, श्रृंगीपेड़, बेंत, गुलमेंहदी और डागवुड थे। खुली जगह के किनारे किनारे शूलपर्णी की लम्बी कतार खड़ी थी। शुरू-शुरू में वे रोज़ एक निश्चित संख्या में चक्कर लगाते थे। चक्करों की गिनती के लिए वे हर चक्कर के बाद एक निश्चित जगह पर चकमकी पत्थरों को ठोकर से रास्ते में ले आते थे, और जितने पत्थर, उतने चक्कर हो जाते थे। हाल ही के कई बरसों से उन्होंने चक्करों की गिनती छोड़ दी थी और जब तक शरीर साथ देता था, तब तक घूमते रहते थे। बचपन में सैन्ड वाक ही हमारे खेल का मैदान भी रहा, और यहाँ मैं भ्रमण के दौरान पिताजी को लगातार देखता रहता था। वे हमारी बातों में भी रुचि लेते थे और बच्चे जो भी मज़े करते, उससे वे भी आनन्दित होते थे। यह मुझे भी बड़ा ही विचित्र लगता है कि मेरे पिताजी के सैंड वाक के बारे मे मेरी स्मृतियों में आज भी वही सब तैर उठता है जो उस समय बचपन में मैं सोचता था। यह बताता है कि उनकी आदतों में किसी किस्म का बदलाव कभी नहीं आया।

जब कभी वे अकेले होते थे तो पक्षियों या जानवरों को ध्यान से देखने के लिए वे बुत से बन जाते थे या एकदम दबे पैरों से चल कर आगे जाते थे। ऐसी अवस्थाओं में कई बार गिलहरियों के छोटे छोटे बच्चे उनके ऊपर, पीठ पर, पैर पर चढ़ जाते और उन बच्चों की माँ पेड़ के तने पर से ही गुस्से में किटकिटाती रहती थी। उनमें तलाश की अद्भुत क्षमता थी। ऐसा हम बचपन में मानते थे, लेकिन जीवन के अंतिम वर्षों में भी वे पक्षियों के घोंसले खोज लाते थे। दबे कदमों चलने की अपनी कला का इस्तेमाल करके वे कई बार अपरिचित पक्षियों के पास तक चले जाते थे, लेकिन मैं समझता हूँ कि यह कला मुझसे छुपाते नहीं थे। उन्हें इस बात का दुख था कि मैं चटिका (हरे रंग का छोटा-सा पक्षी) या स्वर्ण चटिका (सुनहरे रंग का छोटा-सा पक्षी) या इन्हीं जैसे कई अनोखे पक्षियों को नहीं देख पाया। वे बताते थे कि एक बार वे `विग वुड्स' में बेआहट खिसकते हुए आगे बढ़ रहे थे कि दिन में सोई हुई एक लोमड़ी के सामने जा पहुँचे। वह लोमड़ी इतनी हैरान हुई कि कुछ देर तो जड़वत उन्हें घूरती रही और फिर भाग छूटी। उनके साथ में स्पिट्ज कुत्ता भी था, वह भी लोमड़ी को देखकर जरा भी उद्वेलित नहीं हुआ। इस बात को खतम करते हुए वे यही कहते कि उस समय कुत्ता भी कैसे बुझे दिल से चला जा रहा था।

उनके भ्रमण की दूसरी पसन्दीदा जगह थी - आर्चिस बैंक । यह जगह शांत कुडहम घाटी के ऊपरी हिस्से में थी। इस इलाके में धूप चन्दन की झाड़ियों के साथ-साथ शतावरी और मश्कबू पौधे भी खूब थे। यही नहीं करंजवृक्षों की शाखाओं की छाया में सेफालेन्थेरा और नियोट्टिया भी उगे हुए थे। इसके ठीक ऊपर `हैंगग्रूव ' नामक छोटा जंगल भी था, जिसे पिताजी काफी पसन्द करते थे। मैंने कई बार उन्हें वहाँ पर विभिन्न प्रकार की घास का संग्रह करते देखा था, खासकर जब उन्हें सभी प्रकार की घास का नामकरण करना होता था। वे एक छोटे बच्चे की बात दोहराया करते थे कि एक लड़के को कोई ऐसी घास मिली जो उसके पिता ने पहले कभी नहीं देखी थी। वह घास को डिनर के समय प्लेट में रखकर बोला,`हम तो बहुत विचित्र घास खोजक हैं।'

पिताजी को बाग में ऐसे ही घूमते रहना काफी पसन्द था। साथ में कोई बच्चा या मेरी माँ होतीं या फिर ऐसे ही मंडली बना लेते, और वहीं लॉन में बेंच पर बैठ जाते। आम तौर पर वे घास पर ही बैठते थे। कई बार मैंने उन्हें विशालकाय लाइम-वृक्ष के नीचे लेटे देखा था। पेड़ की जड़ में निकले हरे गूमड़ पर वे अपना सिर रख लेते थे। ग्रीष्म ऋतु में हम अक्सर बाहर ही रहते थे। कुँए से पानी निकालने के लिए लगी चर्खी की आवाज उन दिनों की याद आज भी ताज़ा कर देती है। हम लॉन टेनिस खेलते और वे मज़े से देखते रहते थे। कई बार वे अपनी छड़ी की घुमावदार मुठिया से हमारी गेंद को मारकर हमारे पास लौटाते थे।

वैसे तो वे बगीचे को सजाने संवारने में कोई हाथ नहीं बंटाते थे, लेकिन फूल उन्हें बहुत पसन्द थे। ड्रॉइंग रूम में एजालेस का गुच्छा वे खुद ही लगाते थे। मुझे लगता है कि फूल की बनावट और उसकी अप्रतिम सुन्दरता, दोनों को वे कई बार गुम्फित कर देते थे। डाइक्लीट्रा के गुलाबी और सफेद रंग के बड़े लटकते फूलों के बारे में तो यही अक्सर होता था। इसी प्रकार नीले रंग के छोटे छोटे फूलों के प्रति भी उन्हें कुछ कलापूर्ण और कुछ वनस्पति शास्त्रीय लगाव था। फूलों की प्रशंसा में वे धूसर रंग के हाईआर्ट पर हँसते थे और उनकी तुलना प्रकृति के चमकदार रंगों से करते थे। वे जब किसी फूल की प्रशंसा में बातें करते थे तो मैं ज़रूर सुनता था। यह तो एक प्रकार से फूल के प्रति आभार होता था, उसकी नाजुक बनावट और रंग के लिए उनका प्यार था। मुझे याद है कि जिस फूल को देखकर वे प्रमुदित जोते थे उसे बड़े ही हौले से स्पर्श करते थे, उनका यह स्नेह और दुलार ठीक एक बच्चे की तरह निश्छल था।

वे प्राकृतिक घटनाओं का मानवीकरण करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। यह भावना प्रशंसा और बुराई, दोनों ही स्थितियों में प्रकट हो जाती थी। उदाहरण के लिए नर्सरी के बारे मं़ - ये छोटे छोटे भिखमंगे वही कर रहे हैं जो मैं नहीं चाहता। किसी संवेदनशील पौधे को पानी की जिस चिलमची में लगाते थे, अगर उसकी पत्तियाँ बाहर निकलने लगती थीं तो उन पत्तियों को करीने से सजाते समय भी वे पत्ते की चतुराई की प्रशंसा सम्मिलित भाव से करते थे। सनड्यू, केंचुओं, आदि के बारे में भी वे इसी प्रकार बोलते रहते थे।

जहाँ तक मुझे याद आता है घूमने फिरने के अलावा घर से बाहर उनका एकमात्र मनोरंजन था - घुड़सवारी। डॉक्टर बेन्स जोन्स के कहने पर उन्होंने घुड़सवारी शुरू की थी। इस मामले में हम भाग्यशाली रहे कि हमें उस समय `टॉमी ' नामक टट्टू मिल गया था, जो सीधा साधा और तेज चाल वाला था। वे इस प्रकार की सैर का खूब आनन्द लेते थे। आसपास के इलाकों का चक्कर लगाकर वे लंच तक आवश्य लौट आते थे। इस प्रयोजन से हमारे आसपास का इलाका बहुत ही रमणीक था। इसका कारण था कि इस इलाके में छोटी छोटी घाटियाँ थीं जो मैदानी इलाके की टेढ़ी मेढ़ी सड़कों की तुलना में कहीं ज्यादा मनोहर नज़ारा पेश करती थीं। मुझे लगता है कि उन्हें अपने ऊपर भी हैरानी होती होगी कि वे कितने अच्छे घुड़सवार थे, लेकिन बुढ़ापे और खराब सेहत ने उनका यह गुण उनसे छीन लिया था। वे कहते थे कि घुड़सवारी करते समय उतना गहराई से नहीं सोच पाते थे, जितना कि पैदल घूमते समय सोचते थे, क्योंकि घोड़े पर ध्यान देने के कारण गहराई से सोचना नहीं हो पाता था।

यदि अपने अनुभव के अलावा उनकी कही हुई बातों के आधार पर कहूँ तो मैं उनके खेल प्रेम आदि के बारे में कह सकता हूँ, लेकिन वह सब उन बातों का दोहराव ही होगा, जो उन्होंने अपने संस्मरणों में कही हैं। अपने बचपन से ही वे बन्दूक के शौकीन और पक्के निशानेबाज थे। वे कई बार बता चुके थे कि किस प्रकार से दक्षिण अमरीका में तेईस अबाबील पक्षी मारने के लिए उन्होंने केवल चौबीस गोलियाँ चलायी थीं। यह कहानी बताते समय वे यह भी ज़रूर बताते थे कि वहाँ की अबाबीलें हमारे इंग्लैन्ड के मुकाबले कम जंगली होती थीं।

दोपहर का भ्रमण करने के बाद वे डाउन में लंच करते थे। इस मौके पर मैं उनके भोजन के बारे में एक आध बात कर लेता था। मिठाइयाँ खाने की ललक उनमें बच्चों की तरह थी, पर दुर्भाग्य यह कि उन्हें मिठाई खाने की सख्त मनाही थी। वे अपने इस `दुख' को अधिक समय तक छिपा नहीं पाते थे। यह दुख उन्हें मिठाई न खाने को लेकर होता था, इस दुख को जब तक वे कह नहीं लेते थे, तब तक वे इससे निपट भी नहीं पाते थे।

वे बहुत थोड़ी-सी मदिरा लेते थे, लेकिन ये थोड़ी-सी भी उन्हें काफी फुर्ती देती थी। वे पीने से बहुत डरते थे, और अपने बच्चों को लगातार चेतावनी देते रहते थे कि कोई भी इस लत को अपने पास भी न फटकने देना। मुझे याद है कि एक बार अपने छुटपन में मैंने उनसे पूछा था कि क्या कभी वे मदहोश हुए थे, और बड़ी ही संज़ीदगी से उन्होंने बताया था कि एक बार कैम्ब्रिज में बहुत ही ज्यादा पी गए थे। मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ, इतना कि आज भी मुझे वह जगह याद है जहाँ मैंने यह बात पूछी थी।

लंच के बाद वे ड्राइंग रूम में सोफे पर लेटकर अखबार पढ़ते थे। मैं समझता हूँ कि विज्ञान के अलावा अखबार ही पठन-सामग्री थी, जिसे वे खुद पढ़ते थे। इसके अलावा उपन्यास, यात्रा-वृतांत, इतिहास दूसरों से पढ़वा कर सुनते थे। वे जीवन के अन्य पहलुओं पर इतना व्यस्त रहते थे कि अखबार की उसमें कोई जगह नहीं थी, हालांकि वे वाद विवाद की शब्दावली को पढ़कर हँसते ज़रूर थे, मैं समझता हूँ कि केवल ऊपरी मन से। वे राजनीति में रुचि रखते तो थे लेकिन इस बारे में उनकी राय महज एक व्यवस्था के आधार पर थी, वे खुद इस पर गहराई से नहीं सोचते थे।

अखबार पढ़ने के बाद उनका पत्र-लेखन शुरू होता था। साथ ही, वे अपनी पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ भी तैयार करते थे। इसके लिए वे आग के पास अपनी हार्स चेयर रख लेते। कुर्सी के हत्थे पर लगे बोर्ड पर वे अपने कागज रखते थे। यदि खतों की संख्या ज्यादा होती, या खत लम्बे होते तो पहले वे खतों की एक प्रति लिख लेते थे और फिर उसी से बोल बोलकर लिखवाते थे। इन रफ कापियों को वे पाण्डुलिपियों या प्रूफशीट के पीछे लिखते थे। मज़े की बात यह कि कई बार वे अपना लिखा खुद भी नहीं पढ़ पाते थे। उन्हें जितने भी खत मिलते थे, उन सब को सहेज कर रख लेते थे। यह आदत उन्होंने मेरे दादाजी से सीखी थी और वे बताते थे कि यह काफी उपयोगी रहता था।

मूर्ख, उजड्ड लोग भी उन्हें बहुत से खत भेज देते थे, और पिताजी सबका जवाब देते थे। वे कहते थे कि अगर जवाब नहीं दूँगा तो यह बात अवचेतन में तैरती रहेगी। एक बात और कि यह उनकी विनम्रता को भी दर्शाता था। वे बड़ी विनम्रता से सभी का जवाब देते थे, इससे उनकी दयालुता चारों ओर प्रसिद्ध हो गयी, और यह बात उनकी मृत्यु पर जाकर स्पष्ट हुई।

ऐसी दूसरी छोटी मोटी बातों का ध्यान वे दूसरे खतों का जवाब देते समय भी रखते थे। उदाहरण के लिए किसी विदेशी को खत लिखवाते समय वे मुझसे यह कहना कभी नहीं भूलते थे,`तुम बेहतर लिख सकते हो इसलिए लिखो क्योंकि यह किसी विदेशी को जाएगा।' वे अपने अधिकांश खत इस प्रत्याशा के साथ लिखते थे कि इन्हें पढ़ने वाला लापरवाही से पढ़ेगा, इसीलिए पत्र लिखवाते समय वह मुझे सावधानी से बहुधा बताते जाते थे कि किसी भी महत्त्वपूर्ण बात से नया पैरा शुरू करो ताकि पाठक का ध्यान खींचा जा सके। प्रश्न पूछ पूछकर वे दूसरों को परेशान करने के बारे में स्वयं भी कितना सोचते रहते थे, यह बात उनके पत्रों से स्पष्ट हो जाएगी।

ऊल जलूल किस्म के खतों का जवाब देने के लिए उन्होंने एक सामान्य प्रकार से लिखा हुआ पत्र छपवा रखा था, लेकिन वह खत उन्होंने शायद ही कभी भेजा हो। मुझे लगता है कि उन्हें ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला जिसके लिए वह पत्र भेजा जा सके। मुझे याद है कि एक बार ऐसा मौका आया था जब उन मुद्रित पत्रों का प्रयोग किया जा सकता था। उन्हें एक अजनबी ने लिखा था कि वाद विवाद की एक सभा में `द इनोल्यूशन' पर चर्चा होगी, और बहुत ही व्यस्त होने कारण उसके पास समय बहुत कम है, इसलिए आप अपने दृष्टिकोणों की एक रूपरेखा भिजवा दीजिए। हालांकि, उस नौजवान को काफी शालीनता भरा जवाब मिला था, तथापि उसे अपने भाषण के लिए अधिक सामग्री नहीं मिली। पिताजी का नियम था कि मुफ्त पुस्तक भेजने वाले हर एक को धन्यवाद देते थे, लेकिन पेम्फलेट के बारे में वे ऐसा नहीं करते थे। वे कई बार हैरानगी जाहिर करते थे कि उनकी अपनी किताबों के लिए किसी ने भी कभी भी उन्हें धन्यवाद नहीं दिया। उन्हें जैसे ही कोई पत्र मिलता था तो वे खुश हो जाते थे, क्योंकि उनकी नज़र में उनके सभी लेखन कार्यों का इससे बेहतर मूल्यांकन और कुछ नहीं हो सकता था। उनकी पुस्तकों में दूसरे रुचि लेते थे तो पिताजी भाव विभोर हो उठते थे।

धन और व्यापार के मामले में वे अत्यधिक सतर्क और सटीक रहते थे। वे सावधानी पूर्वक बहीखाता रखते थे, उसे वर्गीकृत करते और साल के अंत में एक व्यापारी की तरह से लेखे-जोखे का चिट्ठा तैयार करते। मुझे याद है कि भुगतान के लिए दिए गए हरेक चेक को वे फौरन से पेशतर बही में दर्ज करते, मानो यदि ऐसा नहीं किया तो भूल जाएंगे। मुझे लगता है कि दादाजी ने उन्हें यह एहसास दिला दिया था कि वे जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा गरीब हैं। क्योंकि इस इलाके में घर खरीदते समय उन्हें दादाजी की ओर से बहुत ही कम धन मिल पाया था। इसके बावजूद वे जानते थे कि आगे चलकर उन्हें तकलीफ नहीं होगी, क्योंकि अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि डाक्टरी पढ़ने में मेहनत करने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि उन्हें अपनी आजीविका की अधिक चिन्ता नहीं।

वे कागज का इस्तेमाल बहुत किफायती ढंग से करते थे, लेकिन वास्तव में ये बचत कम और आदत ज्यादा थी। जितने भी खत मिलते उनके साथ मिले खाली कागजों को वे सहेज कर रख लेते थे; कागज का वे इतना आदर करते थे कि खुद अपनी ही किताबों की पाण्डुलिपियों के पीछे लिख डालते थे, दुर्भाग्यवश इस आदत के चलते किताबों की मूल पांडुलिपियाँ भी खराब हो गईं। कागज के बारे में उनकी यह भावना रद्दी कागजों के लिए भी थी, और कई बार तो मज़ाक में कहते कि मोमबत्ती जलाने के बाद बचे छोटे कागज़ के टुकड़े को भी आग में मत फेंको।

वे विशुद्ध बनियागिरी का भी पूरा आदर करते थे और अपने एक रिश्तेदार की प्रशंसा में कह उठते थे कि उसने अपना भविष्य संवार लिया। अपने बारे में तो वे इतना ही कहते कि जितना धन उन्होंने बचाया उसका उन्हें गर्व है। अपनी किताबों के जरिए प्राप्त धन का भी उन्हें संतोष था। धन की बचत वे इस चिन्ता से भी करते थे कि उनकी संतानों की सेहत ऐसी नहीं कि वे अपना जीवन यापन कर सकें। यह एक ऐसी बात थी जिससे वे कई बरस तक परेशान रहे। मुझे उनकी बातों में से एक अभी भी थोड़ी बहुत याद है। वे कहा करते थे,`भगवान का शुक्र है कि उसने तुम्हें दाल रोटी का सिलसिला दे रखा है'। बचपन में मैं इस बात का मतलब केवल शब्दों के रूप में ही समझता था।

खतों का काम निपटाने के बाद दोपहर करीब तीन बजे वे बेडरूम में आराम करते थे। एक सोफे पर लेट जाते, सिगरेट पीते हुए कोई उपन्यास या विज्ञान के अलावा कुछ और पढ़वा कर सुनते थे। वे केवल आराम करते समय ही धूम्रपान करते थे, जबकि नौसादर उन्हें तरोताज़ा कर देती थी। नौसादर वे केवल काम करते समय ही लेते थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने नौसादर का काफी सेवन किया। यह लत उन्हें विद्यार्थी जीवन के दौरान ही एडिनबर्ग में लग गयी। नौसादर रखने के लिए उनके पास चाँदी की सुन्दर डिबिया थी, जो उन्हें मायेर में मिसेज वुडहाउस ने दी थी। इस डिबिया को बहुत प्यार करते थे, लेकिन कभी भी अपने साथ बाहर नहीं ले जाते थे, क्योंकि इससे नौसादर की सुंघनी ज्यादा हो जाती थी। अपने किसी पुराने पत्र में उन्होंने लिखा था कि कई माह से उन्होंने नौसादर बन्द कर रखी है, और इस दौरान उनकी हालत एकदम अहदी, आलसी, और बौड़म जैसी हो गयी। हमारे पुराने पड़ोसी और पादरी मुझे बताते थे,`एक बार तुम्हारे पिताजी ने यह संकल्प कर लिया कि घर के बाहर रहेंगे तो ही नौसादर की सुंघनी लेंगे, यह तो उनके लिए बड़ा ही संतोषप्रद इंतजाम था, क्योंकि मैं अपनी डिबिया अध्ययनकक्ष में रखता था और बगीचे से वहाँ आने का काम नौकरों को बिना बुलाए किया जा सकता था, और इसी बहाने मैं अपने प्यारे दोस्त के पास कुछ अधिक समय गुजार लेता था, दूसरे हालात में शायद यह नामुमकिन होता।' वे बड़े दालान में रखी मेज पर रखे मर्तबान में से नौसादर निकालते थे, नौसादर की एक चुटकी के लिए इतनी दूर जाना कोई बड़ी बाधा नहीं थी, नौसादर के मर्तबान के ढक्कन की खनक अलग ही आवाज़ करती थी। कई बार जब वे ड्राइंगरूम में होते थे, तो उन्हें अचानक ही इलहाम होता था कि अध्ययन कक्ष में जल रही आग धीमी पड़ गयी लगती है, और जब हम में से कोई एक कहता कि चलो देख कर आते हैं, तो पता चलता कि नौसादर की चुटकी भी आ गयी है। सिगरेट पीने की आदत उन्हें बाद के वर्षों में पक्की सी हो गई, हालांकि पम्पास की सैर के दौरान उन्होंने गाउकोस के साथ सिगरेट पीने की आदत पड़ गयी थी। मैंने उन्हें यह कहते सुना था कि मेट के प्याले के साथ सिगरेट का कश सारे सफर की थकान और भूख दोनों को दूर कर देता था।

दिन में चार बजे के करीब वे सैर के लिए कपड़े पहनने के लिए नीचे आते और इस काम में इतने पक्के थे कि सीढ़ियाँ उतरते हुए उनके कदमों की आवाज़ सुनकर कोई भी कह सकता था कि अब चार बजे के आस पास का समय है।

दिन में लगभग साढ़े चार बजे से साढ़े पाँच बजे तक वे काम करते और फिर ड्राइंग रूम में आ जाते थे, और फिर उपन्यास पढ़वाने तथ सिगरेट पीते हुए आराम करने (लगभग छह बजे) तक वे खाली बैठे रहते थे।

आगे चलकर उन्होंने देर से डिनर करना छोड़ ही दिया था, और साढ़े सात बजे चाय (हम सब डिनर करते थे) और साथ में एक अण्डा या गोश्त का छोटा-सा टुकड़ा ले लिया करते थे। डिनर के बाद वे कभी भी कमरे में नहीं रुकते थे और यह कहते हुए माफी माँगते कि जिसकी घोड़ी बूढ़ी हो उसे अपना सफर जल्दी शुरू कर देना चाहिए। यह भी उन संकेतों में से एक था कि उनकी कमज़ोरी बढ़ती जा रही थी। आधा घंटे भी कम या ज्यादा बातचीत की तो सारी रात की नींद का कबाड़ा और अगले दिन का आधा काम तो बिगड़ ही जाता था।

डिनर के बाद वे मेरी माँ के साथ बैकगेमोन नामक खेल खेलते थे। हर रात दो बाजियाँ होती थीं। कई बरस से खेल में हार जीत का रिकार्ड भी रखा जा रहा था, और इसके स्कोर में उन्हें बहुत रुचि थी। इन बाजियों में वे दिलो जान से जुट जाते थे। खेल में अपनी बदनसीबी को कोसते और मेरी माँ की खुशनसीबी पर बनावटी गुस्सा जाहिर करते हुए बिफरने का नाटक करते।

बैकगेमोन खेलने के बाद वे कोई वैज्ञानिक किताब खुद ही पढ़ने बैठ जाते। अगर ठीक हुआ तो ड्राइंगरूम में ही और अगर वहाँ शोरगुल हुआ तो अपने अध्ययनकक्ष में।

शाम को वे इस समय तक अपनी ताकत के मुताबिक पढ़ चुके होते थे, और कोई पढ़कर सुनाए इससे पहले ही, बहुधा वे सोफे पर लेट जाते और मेरी माँ उन्हें पियानो पर धुनें सुनाती। हालांकि उन्हें संगीत की बारीकियाँ नहीं मालूम थीं, लेकिन उन्हें अच्छे संगीत से बहुत प्यार था। वे इस बात पर खेद जाहिर करते थे कि उम्र बढ़ने के साथ साथ वे संगीत में खुशी पाना भूलते जा रहे हैं। तो भी जहाँ तक मुझे याद है कि अच्छी धुनों को अभी भी पसन्द करते थे। मैंने उन्हें एक ही धुन गुनगुनाते सुना था - और वह थी वेल्श गीत की धुन `Ar hydy nos', यह धुन वे एकदम सही तरीके से गुनगुनाते थे; वे कभी कभी ओटाह्वाइटियन गीत भी गुनगुना लेते थे। संगीत की समझ न होने के कारण वे किसी भी धुन को दुबारा समझने में नाकाम रहते थे, लेकिन उन्होंने अपनी पसन्द में निरन्तरता बनायी हुई थी। जब कभी भी उनकी पसंदीदा पुरानी धुन बजायी जाती तो वे पुलक उठते और कहते,`यह इतनी मधुर धुन कौन-सी थी?' वे बीथोवन की सिम्फनी के कुछ अंशों और हेन्डेल की कुछ धुनों को भी पसन्द करते थे। वे शैली में विभिन्नता के प्रति भी संवेदनशील थे। वे मिसेज वर्नन लशिन्गटन को भावोत्पादक रूप से संगीत बजाते सुनते थे। यही नहीं जून 1881 में हेन्स रिचर जब डाउन आए थे, तो पियानो पर उनके संगीत को सुन वे विमुग्ध हो गए थे। वे अच्छी गायकी का भी लुत्फ उठाते थे और संगीत की अन्तिम गत या करुणामय धुन को सुनकर लगभग रो पड़ते थे।

उनकी भतीजी लेडी फेरेर जब सुलिवन के गीत `Will he come' पर साज छेड़ती थीं तो वह उनके लिए सुख की पराकाष्ठा होती थी। वे अपनी रुचि के लिए अत्यधिक भाव विभोर रहते थे, और यदि कोई दूसरा भी उनसे सहमत होता था तो वे उसके सामने प्रमुदित हो उठते थे।

वे शाम को बहुत थक जाते थे, और जीवन के आखिरी वर्षों में तो यह थकान बहुत बढ़ गई थी। वे रात में लगभग दस बजे के करीब ड्राइंग रूम से निकल जाते थे और साढ़े दस के करीब सोने चले जाते। उनकी रातें बहुत कष्टप्रद होती थीं। वे घंटों जागते रहते या बिस्तर पर बैठे रहते थे, और बेचैनी में पहलू बदलते। रातों में वे अपने विचारों की ऊहापोह में अधिक परेशान होते थे, और कई बार उनका दिमाग किसी ऐसी समस्या में उलझ जाता था जिसे वे लगभग नकार चुके होते थे। रात में भी अक्सर ऐसा होता कि दिन में परेशान करने वाली कोई समस्या फिर से उनहें परेशान करने लगती थी, मैं समझता हूं यह तब ज्यादा होता था जब वे किसी झंझटी खत का जवाब नहीं दे पाते थे।

इस प्रकार की यह लगातार पढ़ाई, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, कई बरस तक चलती रही, और इसी वजह से वे साहित्य के विनोदपरक पहलू को समझ पाए। उन्हें उपन्यासों का चस्का-सा लग गया था और मुझे याद है कि उन्हें इस बात पर कितना आनन्द आता था कि वे लेटे हुए सिगरेट के कश ले रहे हैं और कोई उपन्यास पढ़कर उन्हें सुना रहा हो। वे उपन्यास की कथा वस्तु और चरित्र चित्रण, दोनों में गहरी रुचि लेते थे, और कथा समाप्त होने तक वे उसके अन्त का अंदाज़ा नहीं लगा पाते थे। वे यह मानते थे कि उपन्यास का अन्त स्त्रैण कुटेव की तरह होता है। दुखान्त कथाओं को वे पसन्द नहीं कर पाते थे। इसी वजह से वे जार्ज ईलियट की प्रशंसा नहीं कर पाते थे, जबकि वे सिलास मार्नर की यदा कदा प्रशंसा करते थे। वाल्टर स्कॉट, मिस ऑस्टेन और मिसेज गास्केल की कृतियाँ तो बार बार पढ़वाते थे, इतना पढ़वाते कि पढ़ते पढ़ते उनमें नीरसता आ जाती थी। वे एक बार में दो या तीन किताबें उठा लेते थे, एक उपन्यास और शायद एक जीवनी तथा एक पुस्तक यात्रा वृत्तान्त के बारे में। वे ऐसे ही या पुरानी पद्धति की किताबों को पढ़ना शुरू नहीं कर देते थे, बल्कि वे नवीनतम पुस्तकों को पसद करते थे। ये पुस्तकें वे पुस्तकालय से लाते थे।

उनकी साहित्यिक रुचि और अभिमत उस स्तर के नहीं थे, जितना तेज़ उनका दिमाग़ था। वे खुद भी सोचते थे कि जिस बात को वे अच्छा समझते थे उसके बारे में पूरी तरह स्पष्ट थे। वे मानते थे कि साहित्यिक रुचि के मामले में वे किसी दूसरी दुनिया के थे, और इसमें से अपनी पसन्द और नापसन्द के बादे में भी बताते थे, साहित्यिक लोगों के बारे में तो वे कहते थे कि इस सम्प्रदाय से उनका कोई नाता नहीं है।

कला के सभी मामलों पर वे आलोचकों पर हंसते थे और कहते थे कि उनके अभिमत पुरानपंथी हैं। इसी प्रकार चित्रकारी के बारे में वे कहते थे कि आज जिन चित्रकारों की उपेक्षा हो रही है कभी अपने जमाने में वे धुरंधर माने जाते थे। युवक के रूप में चित्रों के प्रति उनका अनुराग एक तरह से इसका प्रमाण है कि कला के एक उपादान के रूप में वे इन चित्रों को पसन्द करते थे, केवल पसन्द दिखाने के लिए नहीं। इसके बावजूद वे पोर्टेट को काफी हल्का मानते थे और कहते थे कि फोटोग्राफ इसके मुकाबले कहीं बेहतर हैं, जैसे कि वे चित्रकार की समस्त कला के प्रति उदासीन हो अपनी आँखें बन्द कर लेते थे। लेकिन यह सब वे इसलिए कहते थे ताकि हम उनका पोर्टेट बनवाने का विचार छोड़ दें, क्योंकि इसकी प्रक्रिया उन्हें बहुत ही उबाऊ लगती थी।

इस प्रकार कला के सभी विषयों के बारे में उन्हें एक अनभिज्ञ के रूप में देखने की हमारी भावना इस बात से और मजबूत हो जाती थी कि वे अपने चरित्र के अनुरूप ही इस बारे में भी दिखावटीपन नहीं रखते थे। रुचि के साथ साथ अन्य गंभीर बातों के मामले में भी उन्होंने अपने सुदृढ़ विचार बना रखे थे। मुझे एक मौका याद आता है जो कि इसका अपवाद हो सकता है। एक बार वे जब मिस्टर रस्किन के बेडरूम में टर्नर्स को देख रहे थे, तो उन्होंने बाद में भी और उस समय भी यह स्वीकार नहीं किया कि मिस्टर रस्किन ने उनमें क्या देखा था, उस बारे में कुछ भी नहीं समझ पाए थे, लेकिन यह बहानेबाजी वे अपने बचाव के लिए नहीं कर रहे थे बल्कि अपने मेजबान के बचाव में कर रहे थे। वे इस बात पर काफी खुश और हैरान हुए थे, जब बाद में मिस्टर रस्किन कुछ चित्रों के फोटोग्राफ लाए (मैं समझता हूँ कि वे वेनडाइन के पोर्टेट) और उनके बारे में बड़े ही आदरपूर्वक मेरे पिताजी से अभिमत माँगा।

पिताजी का वैज्ञानिक अध्ययन ज्यादातर जर्मन भाषा में होता था, और यह उनके लिए बहुत ही श्रमसाध्य था। मुझे यह बात तब पता लगी जब मैंने उनकी पढ़ी किताबों में पेंसिल से लगाए गए निशानों को देखा, तो पाया कि निशान बहुत कम अन्तरालों पर लगाए गए थे। वे जर्मन को `वर्डाम्टे' कहते थे, मानो अंग्रेजी उच्चारण ही करना है। वे जर्मन लोगों के प्रति विशेष रूप से क्रोधित हो उठते थे, क्योंकि वे यह बात मानते थे कि यदि जर्मन चाहें तो सरल भाषा भी लिख सकते हैं, वे कई बार फ्रेइबर्ग के प्रोफेसर हिल्डब्रान्ड की तारीफ करते हुए कहते कि वे फ्रान्सीसी भाषा जैसी सरल और स्पष्ट जर्मन लिखते हैं। वे कई बार अपनी जर्मन मित्र को जर्मन भाषा का वाक्य देकर अनुवाद करने को कहते और यदि वह जर्मन भक्त महिला उस वाक्य को सहज रूप से अनुवाद न कर पाती तो हँसते। उन्होंने शब्दकोश में सिर खपा खपाकर जर्मन खुद ही सीखी थी। वे कहते थे कि किसी वाक्य को कई कई बार दोहराता हूँ, तब तक दोहराता हूँ जब तक कि उसका अर्थ मुझे स्पष्ट न हो जाए। काफी पहले जब उन्होंने जर्मन सीखना शुरू किया था तो वह इस बात का बखान करते (जैसा वे बताते) कि सर जे हूकर ने यह सुनकर कहा था,`मेरे प्रिय मित्र, यह कुछ भी नहीं है, मैं तो यह शुभ काम कई बार शुरू करके छोड़ चुका हूँ।'

व्याकरण में कमज़ोरी के बावज़ूद वे जर्मन बेहतर तरीके से समझ लेते थे, और जिन वाक्यों को वे समझ नहीं पाते थे, वे वाक्य वास्तव में कठिन होते थे। उन्होंने जर्मन सही प्रकार से बोलने का का प्रयास कभी नहीं किया, बल्कि शब्दों का उच्चारण ऐसे करते थे, मानो वे अंग्रेजी के हों। इससे उनकी कठिनाई कम नहीं होती थी, खासकर जब वे जर्मन वाक्य पढ़कर उसका अनुवाद कराते थे। उच्चारित ध्वनियों की बारीकी वे नहीं पकड़ पाते थे, इसलिए उच्चारण में थोड़े से भेद को समझना उनके लिए मुश्किल था।

उनकी एक खासियत यह भी थी कि वे विज्ञान की उन विधाओं में भी रुचि लेते थे, जो उनकी अपनी विधा से बिल्कुल अलग थीं। जीव विज्ञान से जुड़े विषयों के बारे में उनके विश्लेषणपरक सिद्धान्तों को काफी ख्याति प्राप्त हुई। यह तो कहा ही जा सकता है कि वे सभी विधाओं में कुछ न कुछ तलाश लेते थे। उन्होंने विभिन्न विषयों की खास खास किताबें भी पढ़ीं। इनमें पाठ्य पुस्तकें काफी थीं, जैसे हक्सले की इन्वर्टेब्रेट एनाटोमी या बेलफॉर की एम्ब्रयोलॉजा। इन सभी पुस्तकों की विषयवस्तु उनकी अपनी विशेषज्ञता से कहीं परे की बातें थीं। इसी प्रकार मोनोग्राफ प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन नहीं करते थे।

इसी प्रकार जीव विज्ञान के अलावा अन्य प्रकार की पुस्तकों के प्रति भी वे संवेदना रखते थे, खासकर जिन्हें वे परख नहीं पाते थे। उदाहारण के लिए उन्होंने नेचर को पूरा पढ़ लिया था, भले ही इस पुस्तक का अधिकांश भाग गणित और भौतिकी से सम्बन्धित था। मैंने उन्हें कई बार यह कहते भी सुना था कि जिन आलेखों को (स्वयं उन्हीं के अनुसार) वे समझ नहीं पाते उन्हें पढ़ने में भी उन्हें बहुत आनन्द आता था। काश! मैं भी उन्हीं की तरह से हँस पाता, जब वे यह बात कहकर ठहाका मारते थे।

यह भी काफी मज़ेदार बात है कि वे उन विषयों पर भी अपनी रुचि बरकरार रखते थे, जिन पर वे पहले ही काम कर चुके होते थे। भूविज्ञान के बारे में तो यह बात एकदम खरी उतरती थी। अपने एक पत्र में उन्होंने मिस्टर जुड को लिखा था कि वे अवश्य घर आएँ, क्योंकि लेयेल की मृत्यु के बाद से उन्होंने भूविज्ञान पर चर्चा नहीं की थी। साउथम्पटन के भूगर्भ में पड़े कंकरों के बारे में उन्होंने सर ए गेकेई से कुछ चर्चा अपने पत्रों के जरिए की थी, जो इसका ही दूसरा उदाहरण है। यह चर्चा उन्होंने अपने देहान्त से कुछ ही पहले की थी। इसी प्रकार डॉक्टर डोहर्न को लिखे एक पत्र में उन्होंने बार्नकल (एक समुद्री जीव जो जलयानों के पेंदे में चिपका रहता है) के बारे में अपनी रुचि के बरकरार रहने का जिक्र किया था। मैं समझता हूँ कि यह उनके दिमाग की ताकत और उर्वरता के कारण था। इस बारे में वे कहते थे कि यह किसी दैवी शक्ति का उपहार है। वे अपने बारे में यही नहीं बल्कि कभी कभी यह भी बताते थे कि वे किसी विषय या प्रश्न के बारे में कई-कई बरस तक सजग रहते थे। उनकी यह मेधा शक्ति किस सीमा तक थी, यह बात इससे सिद्ध हो जाती है कि उन्होंने नाना प्रकार की समस्याओं का समाधान किया, जबकि ये समस्याएँ उनके समक्ष काफी पहले आ खड़ी हुई थीं।

यदि अपने आराम के क्षणों के अलावा भी वे कभी खाली बैठे होते थे तो उसका मतलब यही होता था कि उनकी तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं; क्योंकि ज़रा-सा आराम मिलते ही वे अपने जीवन के बंधे हुए रास्ते पर चल पड़ते थे। रविवार और बाकी के दिन सब उनके लिए बराबर थे। उनके जीवन में काम और आराम का समय निर्धारित था। उनके दैनिक जीवन को निकट से देखने वालों के अलावा किसी दूसरे के लिए यह समझ पाना निहायत ही नामुमकिन था कि उनकी राजी-खुशी के लिए उनका नियमित जीवन कितना ज़रूरी था। अभी मैंने उनकी जिस जीवनचर्या का जिक्र किया है उसको सही रूप में चलाए रखने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे। यदि लोगों के सामने कुछ बोलना होता था तो भले ही वह सामान्य-सी बात हो, वे उस समय बहुत तैयारी करते थे। सन 1871 में अपनी बड़ी बेटी की शादी के लिए जब वे गाँव के छोटे से गिरजे में गए तो उस समय प्रार्थना के दौरान वे सहज नहीं हो पाए। इसी तरह के अन्य मौकों पर भी वे सहज नहीं रह पाए थे।

मेरे ख्यालों में अभी भी वह घटना तरोताज़ा है जब वे ईसाईयत की दीक्षा के दौरान हमारे साथ चर्च में थे। हम बच्चों के लिए यह एक अनोखी घटना होती थी कि वे चर्च में रहें। मुझे याद है कि अपने भाई ईरास्मस को दफनाने के मौके पर वे कैसे लग रहे थे। बर्फ की फुहारों के बीच काले लबादे में खड़े हुए उनका चेहरा निहायत ही संज़ीदा और पीड़ा से भरा हुआ दिखाई दे रहा था।

कई बरस तक दूर रहने के बाद जब एक बार वे लिनेयन सोसायटी की सभा में गए, वास्तव में यह एक गंभीर विषय था, किसी भी के लिए यह घटना दिल बैठाने के लिए काफी होती, और इस सबके बाद जो परेशानियाँ उठानी पड़तीं उन सबसे हम किसी तरह बच गए। इसी प्रकार सर जेम्स पेगेट ने एक ब्रेकफास्ट पार्टी दी थी, उसमें मेडिकल कांग्रेस (1881) के कुछ प्रमुख मेहमान भी थे, और यह दावत उनके लिए बहुत ही कष्टदायक साबित हुई।

सुबह सुबह का समय ऐसा होता था जब वे अपने आप को सहज समझते थे, और अपने सभी कामों को कहीं ज्यादा महफूज ढंग से पूरा करते थे। इसीलिए जब वे अपने वैज्ञानिक दोस्तों से मिलने लन्दन जाते थे तो, इस आवागमन का समय सवेरे दस बजे तक ही रखा जाता था। यही कारण था कि वे यात्रा पर जाते समय सबसे पहली गाड़ी पकड़ने का प्रयास करते थे, और लन्दन में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के घर पहुँचते थे तो वे सब अपनी नित्य क्रियाओं में ही लगे होते थे।

वे अपने एक एक दिन का हिसाब रखते थे। किस दिन उन्होंने काम किया और किस दिन अपनी खराब सेहत के कारण वे कुछ नहीं कर पाए, उनके लिए यह बताना संभव होता था कि साल भर में कितने दिन वे निष्क्रिय रहे। उनका यह रोजनामचा, पीले रंग की एक डायरी के रूप में हुआ करता था। यह डायरी उनके आतिशदान पर रखी रहती थी। यह डायरी दूसरी पुरानी डायरियों के ऊपर रहती थी। इस डायरी में वे यह भी दर्ज करते थे कि कितने दिन वे अवकाश पर रहे और कब लौटे।

अवकाश के दिनों में वे ज्यादातर एक सप्ताह के लिए लन्दन जाते थे। या तो अपने भाई के घर (6, क्वीन एन्न स्ट्रीट) या फिर अपनी बेटी के घर (4, ब्रायन्स्टन स्ट्रीट)। अवकाश के दिनों में मेरी माँ उनके साथ ही रहती थीं। जब उनकी बीमारी के दौरे बढ़ जाते या बहुत ज्यादा काम करने की वजह से उनका सिर झूलने लगता था, तो इस तरह का अवकाश उनके लिए ज़रूरी हो जाता था। वे बड़े ही बेमन से लन्दन जाते थे, और इसके लिए सौदेबाजी भी करते थे। उदाहरण के लिए कभी कहते कि छह दिन की जगह पाँच दिन में ही लौट आएंगे। इस सारी यात्रा में उन्हें जो बेचैनी होती थी, वह केवल यात्रा की कल्पना से ही हो जाती थी, उन्हें तो यात्रा के नाम से ही पसीना छूटता था, और यह हालात सिर्फ शुरुआत में ही रहती थे, वर्ना तो कानिस्टन की लम्बी यात्रा के बाद भी उन्हें बहुत कम थकान हुई। उनकी कमज़ोरी को देखते हुए यह थकान हमें कम ही लगी। इस यात्रा में उन्होंने बच्चों जैसी खुशी जाहिर की थी, और यह खुशी बेइन्तहा थी।

हालांकि, जैसा उन्होंने बताया था कि उनकी सौन्दर्यपरक रुचि में गिरावट आ रही थी, तो भी प्राकृतिक नज़ारों के लिए उनका प्रेम तरोताज़ा और पुख्ता ही बना रहा। कोनिस्टन में की गयी हर सैर उन्हें ताज़ा दम बना देती थी। एक बड़ी झील के दो किनारों पर बसे इस पर्वतीय देश की खूबसूरती का बखान करते वे थकते नहीं थे।

इन लम्बे अवकाशों के अलावा वे कुछ समय के लिए दूसरे रिश्तेदारों के पास भी जाते रहते थे। कभी लेइथहिल के पास रिश्तेदारी में तो कभी अपने बेटे के पास साउथेम्पटन। उन्हें ऊबड़ खाबड़ ग्रामीण इलाके में घुमक्कड़ी बहुत पसन्द थी। लेइथहिल और साउथेम्पटन के पास ग्राम्य भूमि, एशडाउन जंगल के पास झाड़ियों से भरी हुई परती जमीन, या उनके दोस्त सर थॉमस फेरेर के घर के पास बंजर में उन्हें बहुत मजा आता था। अपने अवकाश काल में भी वे निठल्ले नहीं बैठते थे, बल्कि कुछ न कुछ तलाशते रहते थे। हार्टफील्ड में उन्होंने ड्रोसेरा नामक पौधे को कीड़े वगैरह पकड़ते देखा और इसी तरह टॉर्के में उन्होंने शतावरी का परागण देखा, और यही नहीं थाइम के नर मादाओं के सम्बन्ध भी जाँचे परखे।

अवकाश बिता कर घर लौटने पर वे प्रसन्न हो उठते थे। लौटने पर अपनी कुतिया पॉली से उन्हें जो प्यार मिलता था उस पर वे बहुत खुश होते थे। उन्हें देखते ही वह खुशी से व्याकुल हो उठती थी, उनके चारों ओर घूमती, किंकियाती, कदमों में लोटती, कूद कर कुर्सी पर चढ़ जाती और वहीं से छलांग मार कर नीचे आती। और पिताजी - वे नीचे झुककर उसे थपथपाते, उसके चेहरे को अपने चेहरे से छुआते, और वह उनका चेहरा चाट भी लेती। वे उस समय बहुत ही नरम और प्यार भरी आवाज़ में बोलते थे।

पिताजी में कुछ ऐसी ताकत थी कि गरमी की इन छुट्टियों को खुशनुमा बना देते थे। सारा परिवार इस बात को महसूस करता था। घर पर उन्हें काम का जो बोझ रहता था, उसके चलते जैसे उनकी खुशमिजाजी काफूर हो जाती थी, और जैसे ही इस बोझ से निजात मिलती तो अवकाश के दिनों का आनन्द उठाने के लिए वे जैसे जोश से भर जाते थे, और उनका साथ बहुत ही रोचक बन जाता था। हमें तो यही लगता था कि एक सप्ताह के साथ में उनका जो रूप हमें दिखाई देता था, वह रूप तो एक महीने घर रहने के दौरान भी देखने को नहीं मिलता था।

मैंने अभी जिन अवकाशों की बात की है, उनके अलावा वे जल चिकित्सा के लिए भी जाते रहते थे। सन 1849 में जब वे बहुत बीमार थे और लगातार पीड़ित थे, तो उनके एक दोस्त ने जल चिकित्सा के बारे में बताया। काफी समझाने के बाद वे मेलवर्न में डॉक्टर गुली के चिकित्सा केन्द्र में जाने को तैयार हो गये। मिस्टर फॉक्स को लिखे पत्रों में पिताजी ने बताया था कि इस इलाज से उन्हें काफी फायदा हुआ था, और उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा था कि मानो अब सभी बीमारियों का इलाज मिल गया, लेकिन बाद में वही हुआ कि इलाज के दूसरे तौर तरीकों की तरह यह भी बेअसर साबित होने लगा। जो भी हो यह तरीका उन्हें इतना पसन्द आया कि घर आकर अपने लिए डूश बाथ का इंतज़ाम कर लिया और हमारा खानसामा उन्हें नहलाने का काम भी सीख गया।

मूर पार्क में एल्डरशॉट के पास डॉक्टर लेन के जल चिकित्सा केन्द्र में वे बार बार जाने लगे थे, वहाँ से लौटने के बाद उनका चित्त प्रसन्न हो जाता था।

उन्होंने अपने बारे में जो कुछ बताया है उसके आधार पर यह अंदाज़ लगाया जा सकता है कि परिवार और दोस्तों के साथ उनके सम्बन्ध किस प्रकार थे, हालांकि इन सम्बन्धों का पूरी तरह से वर्णन कर पाना नामुमकिन सा है, लेकिन मोटे तौर पर अंदाज़ लगा पाना मुश्किल नहीं है। उनके वैवाहिक जीवन के बारे में, मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता। हाँ, इतना ज़रूर है कि माँ के साथ उनका रिश्ता और लगाव बहुत गहरा था। उनके प्रति वे बहुत ही प्रेमपूर्ण व्यवहार रखते थे। उनकी मौजूदगी में पिताजी को सबसे ज्यादा खुशी होती थी। यदि उनका साथ न होता तो शायद पिताजी का जीवन बहुत ही ग़मगीन होता। उनके जीवन में संतोष और खुशी का दरिया मेरी माँ ने ही प्रवाहित किया था। उनकी पुस्तक द एक्सप्रेशन ऑफ द इमोशन्स से ज्ञात होता है कि वे बच्चों की हरकतों को कितना बारीकी से देखते थे। यह उनका जन्मजात गुण था (मैंने उन्हें कहते सुना था)। हालांकि वे रोते चिल्लाते बच्चों के हाव भाव को बारीकी से देखने को आतुर रहते थे, लेकिन उसके दुख के प्रति उनकी संवेदना के चलते यह आतुरता धरी रह जाती थी। अपनी एक नोट बुक में उन्होंने अपने छोटे बच्चों की बातों को लिख रखा था, जिससे आप समझ सकते हैं कि वे बच्चों के बीच रहकर कितनी खुशी महसूस करते थे। कभी कभी ऐसा लगता है कि उन सभी घटनाओं की याद करके वे एक तरह से दुखी भी होते थे, क्योंकि बचपन दूर जा चुका है। उन्होंने अपने री कलेक्शन्स में लिखा है : `जब तुम बहुत छोटे थे तो तुम्हारे साथ खेलकर मैं भी आनन्द मग्न हो जाता था, उन दिनों की याद बड़ी ही दुखद है क्योंकि वे बीते दिन कब आने वाले!'

छोटी बिटिया एनी की असमय ही मृत्यु के कुछ दिन बाद उन्होंने जो वाक्य लिखे, वे उनके मन की सुकोमलता को बताते हैं-

`हमारी बेचारी बिटिया एनी 2 मार्च 1841 को गॉवर स्ट्रीट में पैदा हुई थी और 23 अप्रैल 1851 की दोपहर को मेलवर्न में हमसे सदा के लिए बिछुड़ गई।

`मैं उसकी याद में ये चन्द पेज लिख रहा हूँ, क्योंकि मैं समझता हूँ कि अपने वाले समय में, यदि हम जिन्दा रहे, तो लिखी हुई ये सभी घटनाएँ उसकी याद को और भी गहराई से हमारे सामने लाएँगी। मैं जिस तरह से भी उसके बारे में सोचूं हमारे बीच से उसके चले जाने के बावजूद उसकी जो शरारतें आज भी हमारे सामने कौंध जाती हैं वे उसकी किलकारियाँ। इसके अलावा उसकी खासियत में पहली तो थी उसकी संवेदनशीलता जो कि अजनबी लोगों के ध्यान में नहीं आती थी और दूसरे उसका गहरा प्रेम। उसके चेहरे से ही पता चल जाता था कि वह कितनी प्रसन्न और अबोध है, उसके लिए एक एक पल असीम शक्ति और जीवंतता से भरा हुआ था। उसे गोद में उठाकर घूमना भी बहुत खुशी प्रदान करता था। आज भी उसका प्यारा चेहरा मेरी आँखों के आगे तैर उठता है। कई बार वह मेरे लिए नौसादर की चुटकी लाती थी, और उस समय मुझे खुश देखकर स्वयं भी पुलक उठती थी। उसका वह पुलकित मुखड़ा अब भी मेरे सामने दिखाई देता है। जब वह अपने चचेरे भाई-बहनों के साथ खेल रही होती थी, तो मेरी आँखों के इशारे मात्र से उसके चेहरे के हाव-भाव बदल जाते थे, हालाँकि मैं कभी भी अप्रसन्नता भरी नज़र से उसे नहीं देखता था, तो भी उसकी चंचलता को एक विराम-सा लग जाता था।

उसकी दूसरी खासियत यह थी कि उसमें बड़ा ही गहरा स्नेह था जो कि उसकी प्रसन्नता और किलकारियों को और भी भावपूर्ण बना देता था। जब वह छोटी-सी थी तो भी यह बात दिखाई देती थी। अपनी माँ को छुए बिना तो जैसे उसे चैन ही नहीं आता था, खासकर जब वह बिस्तर में लेटी होती थी, मैं देखता था कि बहुत बहुत देर तक अपनी माँ के बाजुओं को सहलाती रहती थी। वह जब कभी बहुत बीमार पड़ती तो उसकी माँ भी उसके साथ लेटकर उसे दुलराती रहती थी, यह सब दूसरे बच्चों से बिल्कुल अलग होता था। इस तरह वह आधे आधे घंटे तक खड़ी मेरे बालों को संवारती रहती थी, वह कहती थी `बाल' ठीक कर रही हूँ। फिर बोलती बहुत सुन्दर या फिर मेरी प्यारी बच्ची मेरे कॉलर और कफ के साथ खेलती रहती थी।

उसकी इन किलकारियों के अलावा भी उसका व्यवहार बहुत ही प्रेमपूर्ण, निश्छल, सहज, सरल था। उसमें जरा भी दुराव छिपाव नहीं था। उसका मन अबोध और निर्लिप्त था। उसे देखते ही कोई भी उस पर भरोसा कर सकता था। मैं हमेशा यही सोचता था कि इस बुढ़ापे में भी हमारी आत्मा उसी तरह बनी रहती जिस पर इस संसार चक्र का कोई असर किसी भी दशा में न पड़ता। उसके सभी काम ऊर्जा से भरे, सक्रिय और सलीकेदार होते थे। मैं सैन्डवाक पर काफी तेज़ चलता था, लेकिन जब कभी वह मेरे साथ होती थी तो मेरे आगे आगे ही अपनी पैरों के पंजों पर फुदकती चलती तो बड़ा ही मनोहर लगता था, और इस सारे समय उसके चेहरे की आभा और मधुर मुस्कान आज भी आँखों के आगे तैर जाती है। मेरे सामने वह जिस तरह से नखरे करती थी, उसकी याद भी मुझे भाव विभोर कर देती है। कई बार वह बातें बढ़ा चढ़ाकर पेश करती थी, और जब मैं उसी की भाषा का प्रयोग करते हुए उससे कुछ पूछता तो अपने सिर को हल्का सा झटका देकर कहती,`ओह! पापा! आपको इतना भी नहीं मालूम!' अपनी बीमारी के छोटे से दौर में उसके मुखड़े पर बहुत ही ज्यादा सहजता और दैवतुल्य भाव दिखाई देते थे। उसने कभी कोई शिकायत नहीं की, कभी भी अधीर नहीं हुई, हमेशा दूसरों का ख्याल रखती थी और उसके लिए जो कोई भी जो कुछ भी करता था, तो वह बड़े ही सभ्य और करुणामय ढंग से अपना आभार प्रकट करती थी। जब वह बहुत थक गई और बोलने में तकलीफ होने लगी तो भी उसका लहजा नहीं बदला। जब भी उसे कोई चीज दी जाती थी तो वह आभार जरूर प्रकट करती जैसे,`वह चाय तो बहुत अच्छी थी।' जब मैं उसे पानी पिलाता थे वह बोल उठती, इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद, और मुझे लगता है कि यही उसके वे बेशकीमती बोल थे, जो उसके होंठो से निकल कर मेरे कानों में शहद घोल जाते थे।

पिताजी ने उसके बारे में लिखा था,`हमारे पूरे परिवार की रौनक चली गई, हमारे बुढ़ापे की चश्मे चिराग थी वो, उसे भी मालूम होगा कि हम उसे कितना प्यार करते थे। काश वह जान पाती कि हम कितनी गहराई और नज़ाकत से उसे प्यार करते थे। उसका प्यारा मुखड़ा आज और हमेशा हमारी आँखों के आगे घूमता रहेगा। उसे बहुत बहुत दुआएँ!'

`अप्रैल 30, 1851'

बचपन में हम सभी उनके साथ खेलने का आनन्द उठाते थे। वे जो कहानियाँ सुनाते थे इतनी अनूठी होती थीं कि हमें अपने साथ बाँध कर रख लेती थीं।

उन्होंने हमारा लालन पालन किस तरह किया, वह इस घटना से स्पष्ट हो जाएगा। यह घटना मेरे भाई लियोनार्ड के बारे में है। पिताजी हमें यह घटना अक्सर सुनाते रहते थे। वे बैठक में आए और देखा कि लियोनार्ड सोफे के किनारे पर खड़ा नाच रहा था, इससे तो सारी कमानियाँ खराब हो जाएँगी, पिताजी बोले,`अरे लेनि! यह ठीक नहीं है,' इस पर लियोनार्ड जवाब देता तो फिर ठीक है कि आप कमरे से बाहर चले जाइए। लेकिन पिताजी ने आजीवन किसी भी बच्चे पर गुस्सा नहीं किया, फिर भी कोई बच्चा ऐसा नहीं तो जो उनकी अवज्ञा करता था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब एक बार मेरी लापरवाही के लिए पिताजी ने मुझे झिड़क दिया था, मुझे अभी भी वह घड़ी याद है कि किस प्रकार मैं उदास हो गया था, लेकिन पिताजी ने मुझे ज्यादा देर तक उदास नहीं रहने दिया। जल्द ही इतनी दयालुता से उन्होंने मुझसे बात की, कि मेरी सारी उदासी दूर हो गई। हमारे प्रति उनकी प्रसन्नतापूर्ण, प्रेमपूर्ण भावना सदा सर्वदा बनी रही। कई बार मुझे हैरानगी होती है कि वे ऐसा किस तरह से कर पाते थे, क्योंकि हम लोग तो उनके मुकाबले कुछ भी नहीं थे, लेकिन मुझे इतना तो पता ही है कि उन्हें यह मालूम था कि उनके प्रेमपूर्ण वचनों और व्यवहार से हम सब कितना खुश होते थे। वे अपने बच्चों के साथ हँसते थे, और अपने ऊपर भी हँसने देते थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हमारे बीच के सम्बन्ध काफी संतुलित थे।

वे हरेक की योजनाओं या सफलताओं में हमेशा रुचि लेते थे। हम उनके साथ ठिठोली करते थे, और कहते थे कि उन्हें अपने बेटों पर भरोसा नहीं है। मिसाल के तौर पर, वे अपने बेटों की इस बात पर जल्दी यकीन नहीं करते थे कि हम लोगों ने कुछ काम किया है, क्योंकि वे यह नहीं मानते थे कि हम सब पूरी तरह समझदार हो चुके हैं। दूसरी तरफ यह भी रहता था कि वे हमारे काम को देखकर काफी तरफदारी भी करते थे। जब मैं यह सोचता था कि किसी भी काम को लेकर उन्होंने काफी ऊँची कसौटियाँ बना रखी हैं, तो इस समय वे काफी रुष्टता दिखाते और झूठे क्रोध से भर जाते थे। उनके संदेह भी उनके चरित्र के अभिन्न अंग थे। जिस किसी भी चीज़ को स्वयं से जोड़कर देखते तो उस काम के प्रति उनका नज़रिया बहुत ही अनुकूल रहता था, और इसीलिए वे हरेक के प्रति उदार रहते थे।

वे अपने बच्चों के प्रति भी आभार प्रकट करना नहीं भूलते थे, इसके लिए उनका अपना ही तरीका था। मुझे याद नहीं आता कि मैंने उनके लिए कोई खत लिखा हो या कोई किताब पढ़कर सुनायी हो और उन्होंने आभार न प्रकट किया हो। अपने छोटे पौत्र बर्नार्ड पर तो वे जान छिड़कते थे। वे कई बार बताते थे कि लंच करते समय ठीक सामने अगर बर्नार्ड बैठा होता था, तो उन्हें बेहद खुशी होती थी। उनकी और बर्नार्ड की पसन्द भी एक जैसी ही थी। स्वाद को ही लें तो दोनों ही सफेद शक्कर के बजाय भूरी शक्कर पसंद करते थे, और नतीजा होता, `हमारी पसंद एक है न!' मेरी बहन लिखती है :

`हमारे साथ खेलकर पिताजी कितना खुश होते थे, यह मुझे अच्छी तरह से याद है। वह अपने बच्चों के साथ बहुत गहराई तक जुड़े हुए थे, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे संतानों के प्रति अंध प्रेम रखते थे। हम सभी के लिए वे बहुत अच्छे दोस्त थे, बहुत ही श्रेष्ठ, संवेदनशील व्यक्ति थे। हालांकि इस बात को बता पाना पूरी तरह से नामुमकिन है कि वे अपने परिवार के प्रति कितना प्रेमपूर्ण व्यवहार रखते थे। जब हम बच्चे थे तब भी और जब हम बड़े हो गए तब भी।'

हमारे बीच प्रगाढ़ता और खेल के दौरान वे कितने अच्छे साथी थे। इन दोनों बातों का प्रमाण इससे मिल जाएगा कि एक बार उनके चार वर्षीय बेटे ने उन्हें सिक्स पेन्स (जैसे भारत में पहले इकन्नी चलती थी उसी प्रकार इंग्लैंड का एक सिक्का) का लालच दिया और कहा कि चलो काम के समय भी खेलें।

वे अपने आप में बहुत ही सहनशील और प्रसन्नवदन नर्स भी थे। मुझे याद है कि जब भी मैं बीमार होता था तो मैं उनके साथ स्टडी सोफे पर बैठा हुआ महसूस करता मानों मैं शांति और आराम के सागर में बैठा हूं। इस दौरान मैं दीवार पर टंगे भूगर्भीय नक्शे पर आँखें गड़ाए रखता था। शायद उनके काम करने का समय होता था क्योंकि वे हमेशा घोड़े के बाल से बनी कुर्सी पर अलाव के पास बैठे रहते थे।

उनमें कितना धैर्य था, इसका पता इस बात से भी चल जाएगा कि जब कभी भी हमें बैंड एड टेप, गोंद, धागे, पिन, कैंची, डाक टिकटों, फुट पट्टी या हथौड़ी की ज़रूरत होती तो उनके अध्ययनकक्ष में दनदनाते हुए चले जाते थे। ये सब चीज़ें और ऐसी ही कई दूसरी ज़रूरी चीज़ें जो कहीं और नहीं मिलती थीं, उनके पास शर्तिया मिलती थीं। वैसे तो उनके काम के समय में हमें वहाँ जाना गलत लगता था, लेकिन जब बहुत ज़रूरी हो जाता था तो हम जाते ही थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनके चेहरे पर कितना धैर्य था जब उन्होंने मुझसे यह कहा था,`तुम्हें क्या लगता है कि तुम बाद में नहीं आ सकते थे, मुझे बहुत परेशानी होती है।' जब कभी भी हमें स्टिकिंग प्लास्टर की ज़रूरत होती थी तो उनके कमरे में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, क्योंकि उन्हें यह बिल्कुल पसन्द नहीं था कि हम अपने हाथ-पैर काटते रहें। यहीं तक होता तो चल जाता लेकिन खून देखकर उनके जो संवेदनशील भाव जाग उठते थे, हम उससे भी बचना चाहते थे। मैं हमेशा ध्यान रखता था कि वे पर्याप्त दूरी पर चले गए हों और तभी मौका पाकर प्लास्टर ले उड़ता था।

`मैं अतीत में झांक कर देखूं तो जीवन के उन शुरुआती दिनों में काफी नियम कायदे थे, और सिवाय कुछ रिश्तेदारों (और कुछेक ज़िगरी दोस्तों) के अलावा, हमारे घर में कोई और नहीं आता था। दिन की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद हम जहाँ चाहें वहाँ जाने के लिए आज़ाद थे, और हमारे जाने की जगह खास तौर पर दीवानखाना या बगीचा होता था, और इस तरह से हम लोग हमेशा अपने माता-पिता के साये में ही रहे। हमें उस समय बहुत ही खुशी होती थी, जब वे बीगेल की कहानियाँ या श्रूजबेरी में बीते बचपन की घटनाएँ - कुछ स्कूली जीवन और कुछ अपनी शरारतों के बारे में बताते थे।'

वे हमारी रुचियों और इच्छाओं का बहुत ख्याल रखते थे और उन्होंने हमारे साथ जीवन जिस ढंग से बिताया वैसा तो बहुत कम ही लोग कर पाते हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि इस प्रगाढ़ता में भी हमें कभी भी यह नहीं लगता था कि हम दूसरों की इज़्ज़त करने और उनका हुक्म मानने में कोई आनाकानी करें या कमी आने दें। वे जो कुछ भी कहते थे वह हमारे लिए पत्थर की लकीर होता था। हमारे किसी भी सवाल का जवाब देने में वे अपना पूरा दिलो-दिमाग़ लगा देते थे। ऐसा ही रोमांचक वाकया मुझे याद आता है, जो मुझे यह एहसास दिलाता है कि हम जिस चीज़ की फिक्र करते थे, उसकी उन्हें भी उतनी ही फिक्र रहती थी। वे बिल्लियों में बहुत रुचि नहीं लेते थे, लेकिन मेरी बहुत-सी बिल्लियों की खासियत उन्हें मालूम थी, और कुछेक की आदतों और खासियतों का बखान तो उन्होंने तब भी किया जबकि उन बिल्लियों को मरे हुए कई साल हो चुके थे।

`अपनी संतानों के साथ वे जिस तरह से पेश आते थे, उसकी एक और खासियत यह भी थी कि वे अपने बच्चों की आज़ादी और व्यक्तित्व के बारे में ऊँचे विचार रखते थे। यहाँ तक कि छोटी लड़की के रूप में जो आज़ादी मुझे मिली थी उसकी याद भी मुझे खुशी से भर देती है। हमारे माता-पिता को यह जानने या सोचने की ज़रूरत नहीं रहती थी कि हम लोग क्या करते हैं, जब तक कि हम खुद ही न बताएँ। वे हमें हमेशा यह याद दिलाते रहते थे कि हम भी ऐसे प्राणी हैं जिनके विचार और ख्यालात उनके लिए बहुत खास हैं। इसलिए हमारे भीतर के सभी गुण उनकी मौज़ूदगी में और भी निखर उठे। `हमारे सद्गुणों के बारे में जो उन्हें अतिशय विश्वास था, हमारे बौद्धिक या नैतिक गुणों पर उन्हें जो गर्व था, उससे हम लोग बिगड़ैल या घमण्डी नहीं बने बल्कि और भी विनम्र और उनके प्रति शुक्रगुजार ही रहे। इसके पीछे नि:सन्देह यही कारण था कि उनके चरित्र, उनकी सदाशयता और उनकी अन्तरात्मा की महानता ही तो थी, जिसका अमिट प्रभाव हम पर पड़ा था। यह प्रभाव उनके द्वारा हमारी प्रशंसा या उत्साहवर्धन से कहीं ज्यादा हमारे भविष्य का नियन्ता बन गया।

परिवार के मुखिया के रूप में उन्हें बहुत स्नेह और इज़्ज़त मिली हुई थी। वे नौकरों से बहुत ही नरमी से पेश आते थे। नौकरों से कुछ भी माँगने से पहले वे यह ज़रूर कहते थे, `देखो, तुम मेरी मदद करो---' अपने नौकरों पर उन्होंने शायद ही कभी गुस्सा किया हो। मुझे याद है कि कभी बचपन में एक बार उन्हें किसी नौकर को डाँटते सुना था, मैं सारे माहौल से इतना घबरा गया था कि डर के मारे छत पर भाग गया। वे बगीचे, गायों आदि की रखवाली के पचड़े में नहीं पड़ते थे। वे घोड़ों पर थोड़ी बहुत चिन्ता जाहिर करते थे, कभी कभी बड़े ही संदेह में पड़ कर पूछते कि वे घोड़ागाड़ी चाहते हैं, ताकि सनड्यू के लिए केस्टन को भेजें या फिर पौधे मंगवाने के लिए वेस्टरहेम नर्सरी भेजें, या ऐसा ही कोई काम करायें।

एक मेज़बान के रूप में मेरे पिता में एक खास तरह का आकर्षण था; मेहमानों की मौज़ूदगी उन्हें उत्तेजना से भर देती थी और वे अपने सर्वोत्तम रूप में सामने आने को लालायित हो उठते थे। श्रूजबेरी में वे कहा करते थे कि ये उनके पिता की इच्छा थी कि मेहमाननवाजी लगातार करते रहना चाहिये। मिस्टर फॉक्स को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस बात के लिए खेद व्यक्त किया था कि घर मेहमानों से भरा होने के कारण वे खत नहीं लिख पा रहे हैं। मेरा ख्याल है कि वे इस बात से हमेशा बेचैनी महसूस किया करते थे कि वे अपने मेहमानों की आवभगत के लिए ज्यादा सब कुछ नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन नतीजे अच्छे ही रहते और इसमें कोई कमी रह भी जाती तो उसे इस तरीके से पूरा कर लिया जाता कि मेहमान इस बात के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र थे कि वे जो चाहें, करें। अमूमन सबसे ज्यादा आने वाले मेहमान वे ही लोग होते तो शनिवार को आते और सोमवार को लौट जाते। जो लोग इससे ज्यादा अरसे तक टिके रहते, आम तौर पर रिश्तेदार वगैरह होते और उनकी जिम्मेवारी पिता की तुलना में मां की ज्यादा रहती।

इन मेहमानों के अलावा कुछ विदेशी लोग होते। कुछ अजनबी लोग भी आते। ये लोग लंच के लिए आते और दोपहर ढलने पर लौट जाते। पिता जी उन लोगों को लंदन से डाउन के बीच की लम्बी दूरी के बारे में बताने के लिए खासी मेहनत करते और बताते कि ये सफर कितनी मुश्किलों से भरा हुआ है। वे सहज ही ये मान कर चलते कि इस सफर में जितनी तकलीफ खुद उन्हें होती है, उतनी ही मेहमानों को भी होगी। फिर भी, अगर वे आने से अपने आपको आने से रोक नहीं पाते तो पिता जी उनकी यात्रा का इंतज़ाम करते। वे उन्हें बताते कि कब आयें, और ये बताने से भी न चूकते कि वापिस कब जायें। उन्हें अपने मेहमानों से हाथ मिलाते देखना एक शानदार नज़ारा होता था। जब वे किसी से पहली बार मिल रहे होते तो उनका हाथ इतनी तेजी से आगे आता मानो मेहमान से मिलने के लिए वे कितने उतावले थे। पुराने यार दोस्तों से हाथ मिलाते समय उनका हाथ पूरी हार्दिकता से लहराता हुआ आता और ये देख कर दिल जुड़ा जाता। हॉल के दरवाजे पर खड़े हो कर जब वे किसी को विदाई देते तो इसमें खुशी की खास बात ये रहती कि वे मेहमानों के प्रति इस बात के शुक्रगुज़ार होते कि उन्होंने मिलने के लिए वक्त निकाला और आने के लिए जहमत उठायी।

ये लंच पार्टियां मौज मजे के मौके जुटाने में बहुत सफल रहतीं। न किसी की टांग खिंचाई होती और न ही किसी को नीचा ही दिखाया जाता। पिताजी शुरू से आखिर तक उत्तेजना से भरे चहकते रहते। प्रोफेसर दे कांडोल ने मेरे पिता का एक सराहनीय और सहानुभूतिपूर्ण खाका खींचते हुए डाउन में अपनी एक विजिट के बारे में बताया था। वे लिखते हैं कि पिता का तौर तरीका वैसा ही था जैसा कि ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज में किसी स्कालर का होता है। मुझे तो ये तुलना बहुत अच्छी नहीं लगी। जब पिताजी सहज होते और अपनी प्राकृतिक अवस्था में होते तो उनकी तुलना किसी फौजी से की जा सकती थी। उस समय वे किसी भी आडम्बर और दिखावे से परे होते थे। उनकी इस आडम्बरहीनता, स्वाभाविकता और सादगी का ही कमाल था कि वे अपने मेहमानों के साथ बातचीत को उन्हीं विषयों पर ले आते जिन पर वे लोग बात करना चाहते हों, और ये बात पिताजी को किसी अजनबी के सामने भी एक शानदार मेजबान के रूप में पेश करती थी। वे जिस कुशलता से बातचीत का बेहतरीन विषय चुनते, वह उनके व्यक्तित्व के सहानुभूतिपूर्ण रवैये और विनम्रता से आता था और उसमें ये तथ्य छुपा रहता कि वे दूसरों के कामों में कितनी दिलचस्पी लेते हैं।

मेरा ख्याल है कि कुछेक लोगों को वे अपनी विनम्रता से हैरान परेशान भी कर बैठते थे। मुझे स्वर्गीय फ्रांसिस बेलफार का किस्सा याद है जब उन्हें एक ऐसे विषय पर अपना ज्ञान बघारने वाली स्थिति में आ जाना पड़ा जिसके बारे में पिताजी का हाथ बिलकुल तंग था।

मेरे पिताजी की बातचीत की विशेषताओं पर उंगली रख कर बताना निहायत ही मुश्किल काम है। उन्हें इस बात से खासी कोफ्त होती थी कि लोग बाग उनके किस्से दोहरायें। वे अक्सर कह बैठते, `आपने मुझे ये कहते सुना ही होगा', या `मुझे लगता है, मैं आपको बता चुका हूं।' उनकी एक खास आदत थी जिससे वे अपनी बातचीत में एक रोचक प्रभाव ले आते। वे अपना वाक्य बोलना शुरू ही करते कि पहले ही कुछ शब्दों से उन्हें उस बात के पक्ष में या विपक्ष में कुछ और याद आ जाता और जो वे कहने जा रहे होते और इससे वे भटक कर किसी और मुद्दे पर जा पहुंचते और बात कहां की कहां जा पहुंचती। एक उप वाक्य से दूसरा उप वाक्य निकलता जाता और जब तक वे अपना वाक्य खतम कर देते, बातचीत का सिर पैर समझ में न आता कि वे कह ही क्या रहे थे। वे अपने बारे में कहा करते कि किसी के साथ तर्क को आगे बढ़ाने में वे तेजी नहीं दिखा पाते। मेरा ख्याल है, इस बात में सच्चाई भी थी। जब तक बातचीत का विषय वही न होता जिस पर वे उन दिनों काम कर रहे होते तो वे अपने विचारों को तरतीब देने में मुश्किल महसूस करते। ये बात उनके खतों में भी देखी जा सकती है। उन्होंने प्रोफेसर सेम्पर को एकांतवास के प्रभाव के बारे में दो खत लिखे थे और उनमें वे अपने विचारों को तरतीब नहीं दे पाये थे। ये कुछ दिन बाद तभी हो पाया था जब पहला खत भेजा जा चुका था।

जब बातचीत करते हुए वे अपने शब्दों में ही फंस जाते तो उनकी एक खास आदत सामने आती थी। वे वाक्य के पहले शब्द पर हकलाने लगते। और मुझे याद आता है कि इस तरह का हकलाना सिर्फ एक ही अक्षर डब्ल्यू के साथ होता था। ऐसा लगता है कि इस अक्षर के साथ उन्हें खासी मशक्कत करनी पड़ती थी। इसके पीछे उन्होंने ये कारण बताया था कि बचपन में वे डब्ल्यू का उच्चारण नहीं कर पाते थे और एक बार तो उन्हें छ: पेंस के सिक्के का लालच भी दिया गया कि व्हाइट वाइन शब्द का उच्चारण करके दिखायें। वे इन्हें राइट राइन ही कहते रहे थे। शायद ये उच्चारण दोष उन्हें इरास्मस डार्विन से विरासत में मिला हो। वे भी हकलाया करते थे।

वे कई बार भाषा संबधी अन्य भूलें भी कर बैठते और तुलनात्मक वाक्यों में कुछ नये ही गुल खिला देते। वे दरअसल जिस बात पर जोर देना चाहते, उसके चक्कर में गलत वाक्य विन्यास कर बैठते। वे कई बार ऐसी जगह बात को बढ़ा चढ़ा कर कह देते जहां जरूरत न होती। लेकिन इससे एक बात तो होती ही कि उनकी उदारता और गहरी प्रतिबद्धता के ही दर्शन होते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि वे बात करते हुए गुस्से में आ गये और अपनी बात कह नहीं पाये। वे जानते थे कि गुस्सा विवेक का दुश्मन होता है और वे चाह कर भी ऐसे मामले में कुछ नहीं कर पाते थे।

वे बातचीत में अत्यधिक विनम्र बने रहते। इसका सबूत मैं यही दे सकता हूं कि एक बार रविवार की दोपहर उनसे मिलने सर जॉन लब्बाक्स के उनके कई मेहमान आये। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि वे भाषणबाजी में या उपदेश देने जैसी मुद्रा में आयें हों, हालांकि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ था। जब वे किसी से छ़ेड़खानी करते और वह भी मजे लेने के लिए तो वे बहुत भले लगते। ऐसे वक्त में वे बेहद हल्के फुल्के स्वभाव वाले और बच्चों जैसे हो जाते और तब उनकी प्रकृति की बारीकी बहुत मुखर हो उठती। इसलिए ऐसा भी होता कि जब वे किसी ऐसी महिला से बात कर रहे होते जिसने उन्हें खुश और मुदित किया हो तो वे उस पर सौ जान न्यौछावर हो जाते और उसके प्रति सम्मान और चुटकी लेने की उनकी भावना देखते ही बनती। उनके व्यक्तित्व में एक निजी किस्म का आत्म सम्मान था जो बहुत अधिक परिचित मुलाकातों में भी डिगता नहीं था। सामने वाले को यही लगता कि कम से कम इस व्यक्ति के साथ तो छूट नहीं ही ली जा सकती है। और न ही मुझे ऐसा कोई वाक्या याद ही आता है कि किसी ने इस तरह की छूट लेने की कोशिश की हो।

जब मेरे पिता से मिलने कई मेहमान एक साथ आ जाते तो वे बहुत ही बढ़िया ढंग से उनसे निपटते। सबसे अलग अलग बात करते या फिर दो तीन मेहमानों को अपनी कुर्सी के आस पास बिठा लेते। इस तरह की बातचीत में आमतौर पर मज़ाक चलता, वे अपनी बात को किसी हंसी भरी बात की तरफ मोड़ देते या फिर खुलापन आ जाता बातचीत में जिससे सबको अच्छा लगता। शायद मेरी स्मृति में हंसी मज़ाक वाले मौके ज्यादा दर्ज हैं। उनकी सबसे अच्छी बातें मिस्टर हक्सले के साथ होती थीं। उनमें गजब का हास्यबोध था। मेरे पिता को उनका ये हास्यबोध बहुत भाता था और वे अक्सर कहते थे,`मिस्टर हक्सले भी क्या शानदार आदमी हैं।' मेरा ख्याल है, लायेल और सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी बातचीत वैज्ञानिक तर्कों के रूप में (एक तरह से झगड़े की तरह) ज्यादा होती थी।

वे कहा करते थे कि इस बात से उन्हें तकलीफ होती है कि जिंदगी के बाद के हिस्से वाले दोस्तों के लिए वे अपने भीतर वह गर्मजोशी नहीं पाते जो युवावस्था के दोस्तों के लिए हुआ करती थी। कैम्ब्रिज से हरबर्ट और फॉक्स को लिखे गये उनके शुरुआती पत्र इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं। लेकिन इस बात को मेरे पिता के अलावा और कोई नहीं कहेगा कि अपने दोस्तों के प्रति उनका स्नेह पूरी जिदंगी उसी तरह की गर्मजोशी वाला नहीं रहा। अपने किसी दोस्त के लिए कुछ करते समय वे अपने आपको भी नहीं बक्शते थे और उसे अपना कीमती समय और शक्ति सवेच्छा से दिया करते थे। इस बात में कोई शक नहीं कि वे किसी भी सीमा तक जा कर अपने दोस्तों को अपने से बांधे रखने की ताकत रखते थे। उनकी कई शानदार दोस्तियां थीं। लेकिन सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी जो दांत काटी दोस्ती थी, वैसी दोस्ती की मिसाल आम तौर पर पुरुषों में कम ही दिखायी देती है। अपनी रीकलेक्शंस में उन्होंने लिखा है,`मैंने हूकर जैसे प्यारे शायद ही किसी दूसरे इन्सान को जाना हो।'

गांव के लोगों के साथ उनका नाता खुश कर देने वाला था। वे जब भी उनके सम्पर्क में आते तो वे उनके सुख दुख में बराबरी से शामिल होते और उनके जीवन में दिलचस्पी लेते और सब के साथ एक जैसा व्यवहार करते। जब वे डाउन में बसने के लिए आ गये तो कुछ ही अरसे बाद उन्होंने एक मैत्री क्लब स्थापित करने में उनकी मदद की और तीस बरस तक उस क्लब के खजांची बने रहे। वे क्लब की गतिविधियों में खूब रस लेते और बारीकी से और एक दम सही तरीके से उसका हिसाब किताब रखते। क्लब को फलता फूलता देख उन्हें बहुत खुशी होती। हरेक छुट्टी वाले सोमवार के दिन क्लब बैनर लगाये घर के सामने गाजे बाजे के साथ जुलूस की शक्ल में निकलता और खूब रौनक रहती। वहां पर वे क्लब के लोगों से मिलते और उन्हें क्लब की शानदार माली हालत के बारे में बताते। इस मौके के लिए पिता जी खास कुछ घिसे पिटे लतीफों के साथ अपना भाषण देते। अक्सर ये होता कि वे बीमार चल रहे होते और इतनी सी कवायद कर पाना भी उनके लिए भारी पड़ता। लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि वे उन लोगों से न मिले हों।

वे कोयला क्लब के भी खजांची थे। उन्हें वहां के लिए भी कुछ काम करना पड़ता। वे कुछ बरस तक काउंटी मजिस्ट्रेट के पद पर भी काम करते रहे।

गांव की गतिविधियों में पिता जी की दिलचस्पी के बारे में मिस्टर ब्रॉडी इन्स ने कृपापूर्वक मुझे अपनी स्मृति के खजाने में से ये घटना सुनायी है:

`जब मैं 1846 में डाउन का धर्मगुरू बना तो हम दोनों दोस्त बन गये और ये दोस्ती उनकी मृत्यु तक चलती रही। मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका स्नेह असीम था और बदले में हम भी उनके स्नेह का प्रतिदान करने की कोशिश करते थे।'

चर्च के सभी मामलों में वे हमेशा सक्रियतासे हिस्सा लेते। स्कूलों, धर्मार्थ कामों और दूसरे कारोबारों में वे हमेशा दिल खोल का दान देते और कभी कहीं कोई विवाद हो भी जाता, जैसा कि दूसरे गिरजाघरों में होता रहता था, मुझे यकीन होता था कि वे अपना समर्थन किसे देंगे। वे इस बात के कायल थे कि जहां सचमुच कोई महत्त्वपूर्ण आपत्ति न हो, वहां पर उनका समर्थन पादरी के पक्ष में जाना चाहिये। वही व्यक्ति ऐसा होता है जो सारी स्थितियों को जानता बूझता है और वही मुख्य रूप से जिम्मेवार भी होता है।'

अजनबी लोगों के साथ उनकी मुलाकात सजग और औपचारिक विनम्रता से पगी होती। दरअसल सच तो ये था कि उन्हें अजनबियों के सम्पर्क में आने के मौके ही बहुत कम मिलते और डाउन में जिस तरह के एकांत में वे जी रहे थे, वहां बड़े भीड़ भड़क्के वाले आयोजनों में वे अपने आपको भ्रम में पउा़ हुआ पाते। उदाहरण के लिए रॉयल सोसाइटी के आयोजनों में वे अपने आपको संख्याओं में खोया हुआ महसूस करते। बाद के बरसों में यह भावना कि उन्हें लोगों को जानना चाहिये और उस पर तुर्रा यह कि वे नाम भूल जाते थे, इस तरह के मौकों पर उनकी मुश्किलें और बढ़ा देते थे। वे इस बात को समझ नहीं पाते थे कि वे तो फोटो से ही पहचान लिये जायेंगे, और मुझे एक किस्सा याद आता है कि क्रिस्टल पैलेस एक्वेरियम में जब एक अजनबी ने उन्हें पहचान लिया तो वे खासे बेचैन हो उठे थे।

मैं यहां पर थोड़ा सा जिक्र इस बात का भी करना चाहूंगा कि वे अपना काम किस तरह से करते थे। उनकी सबसे खास बात थी समय के लिए सम्मान। वे समय के मूल्य को कभी भी नहीं भूलते थे। इस बात का अंदाजा इस तथ्य से ही लग जायेगा कि वे किस तरह से अपनी छुट्टियों को कम करते जाते थे। और इस बात को ज्यादा साफ तौर पर बताऊं तो वे अपनी कम अवधि की छुट्टियों को तो बिल्कुल खत्म ही कर देते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि समय की बचत करना, काम पूरा करने का एक तरीका होता है। मिनट दर मिनट बचाने के प्रति अपने प्यार को वे चौथाई घंटे और दस मिनट में किये गये काम के बीच के अंतर के जरिये बताते थे। वे कभी कुछ पलों की भी बरबादी भी सहन नहीं कर पाते थे कि काम के समय समय बरबाद तो नहीं ही करना है। मैं अक्सर इस बात को ले कर हैरान रह जाता था कि वे अपनी सामर्थ्य की अंतिम बूंद तक काम करते रहते थे कि तभी अचानक यह कह कर डिक्टेशन देना बंद कर देते थे कि मुझे लगता है कि बस हो गया, मुझे और नहीं करना चाहिये। समय बरबाद न करने की यही उत्कट चाह तब भी सामने आती थी जब वे काम करते समय चुस्ती से अपने हाथ पांव हिलाते। मैंने इस बात को खास तौर पर उस वक्त नोट किया जब वे फलियों की जड़ों पर एक प्रयोग कर रहे थे जिसके लिए बहुत सावधानी से काम करने की जरूरत थी, जड़ों के ऊपर कार्डों के छोटे छोटे टुकड़े बांधने का काम बहुत सावधानी से और अनिवार्य रूप से धीरे धीरे किया गया, लेकिन बीच के सभी हावभाव बहुत तेज थे। एक ताजी फली लेना, ये देखना कि उसकी जड़ स्वस्थ है, उसे एक पिन पर उठाना और कार्क पर टिकाना, ये देखना कि ये सीधी खड़ी है आदि। ये सारी प्रक्रियाएंं अपने आपको नियंत्रण में रखते हुए उत्सुकता से पूरी की गयीं। वे सामने वाले को ये अहसास दिला देते थे कि वे अपने काम में बहुत आनंद ले रहे हैं और कत्तई बोझ की तरह नहीं कर रहे हैं। मेरी स्मृति में उनकी वह छवि भी अंकित है जब वे किसी और प्रयोग के नतीजे दर्ज कर रहे थे और प्रत्येक जड़ को उत्सुकता से देख रहे थे और उतनी ही तेजी से लिखते जा रहे थे। मुझे याद है, जब वे प्रयोग की वस्तु और अपने नोट्स देख रहे थे तो उनका सिर तेजी से हिल रहा था।

वे किसी भी काम को दोबारा न होने दे कर अपना बहुत सासमय बचा लेते थे। हालांकि वे अपने ऐसे प्रयोग भी धैर्यपूर्वक दोहराते रहते थे जहां कुछ भी हासिल होने वाला नहीं होता था, लेकिन वे इस बात को भी सहन नहीं कर सकते थे कि जो प्रयोग पूरी सावधानी बरतने के बावजूद पहली ही बार में कुछ नतीजे नहीं दे सकता था, उसे दोहराने का मतलब नहीं लेकिन इससे उन्हें लगातार ये चितां भी बनी रहती थी कि प्रयोग व्यर्थ नहीं जाने चाहिये। वे मानते थे कि प्रयोग पवित्र होते हैं भले ही उनके नतेजे मामूली ही क्यों न हों। वे चाहते थे कि प्रयोगों से जितना अधिक सीख सकें, सीखें ताकि उन्हें वे सिर्फ उसी बिन्दु के आस पास चक्कर न काटते रहें जिसके लिए प्रयोग किया जा रहा था। एक साथ कई चीजों को देखने की उनकी शक्ति गजब की थी। मुझे नहीं लगता कि वे शुरुआती या रफ प्रेक्षणों की तरफ ध्यान देते रहे होंगे कि इन्हें मार्गदर्शक के रूप में और दोहराने के लिए इस्तेमाल में लाया जाये। जो भी प्रयोग किया जाता था, उसका कोई न कोई महत्त्व होता ही था और मुझे याद है, इस बारे में वे इस बात की जरूरत पर बहुत बल देते थे कि किसी भी असफल प्रयोग के नोट्स रखे जायें और इस नियम का वे कड़ाई से पालन करते थे।

अपने लेखन के साहित्यिक पक्ष में भी उन्हें समय बरबाद होने का यही हौवा सताता रहता था और उस वक्त वे जो कुछ भी कर रहे होते थे, उसी उत्साह से उसे निपटाते थे। इस बात ने उन्हें इतना सतर्क बना रखा था कि वे ऐसा लेखन करें कि किसी को बिना वजह दोबारा न पढ़ना पड़े।