आत्मकथा / भाग 3 / चार्ल्स डार्विन / सूरज प्रकाश

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उनकी प्राकृतिक प्रवृत्ति ये थी कि आसान तरीके और कुछेक औजार ही अपनाओ। उनकी युवावस्था के बाद से जटिल माइक्रोस्कोप का चलन बहुत बढ़ गया है और ये माइक्रोस्कोप सरल वाले की जगह पर आया है। आजकल हमें ये बात असाधारण लगती है कि जब वे बीगल की यात्रा पर निकले थे तो उनके पास जटिल माइक्रोस्कोप नहीं था। इस मामले में वे राबर्ट ब्राउन की बात को ही मानते हैं जो इस मामले में उस्ताद थे। उन्हें साधारण वाला माइक्रोस्कोप ज्यादा पसंद था और उनका मानना था कि आजकल तो इसे बिल्कुल भुला ही दिया गया है और कि हर आदमी को चाहिये कि जटिल माइक्रोस्कोप को अपनाने से पहले जितना ज्यादा हो सके, इस साधारण वाले यंत्र को ही इस्तेमाल में लाये। अपने एक पत्र में वे इसी मुÿñ पर बात करते हैं और उनकी टिप्पणी है कि मुझे उस आदमी के काम पर ही शक है जो साधारण माइक्रोस्कोप को इस्तेमाल ही नहीं करता।

चीर फाड़ करने वाली उनकी मेज एक मोटे से पुट्ठे की बनी हुई थी जिसे अध्ययन कक्ष की खिड़की में फंसा दिया गया था। इसकी ऊंचाई साधारण मेज की तुलना में कम थी ताकि उन्हें उस पर खड़े हो कर काम न करना पड़े। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अपनी ऊर्जा बचाने के लिए उन्होंने उसे ऐसा बनवाया होगा। वे चीर फाड़ करने की इस मेज पर एक निहायत ही छोटे से स्टूल पर बैठा करते थे। ये स्टूल उनके पिता का हुआ करता था। इसकी सीट एक आड़े खांचे पर घूमती थी। इसमें बड़े आकार के पहिये लगे हुए थे जिससे वे मनचाही दिशा में आसानी से घूम सकते थे। उनके साधारण औजार वगैरह मेज पर ही पड़े रहते थे लेकिन इस ताम झाम के साथ ही एक गोल मेज पर दूसरे कई तरह के यंत्र रखे रहते। ये मेज उनके दायें तरफ रखी होती। इस मेज में खुलने वाली दराजें बनी हुई थीं। इन दराजों पर लेबल लगे हुए थे। बेहतरीन औजार, रफ औजार,नमूने, नमूनों की तैयारी, वगैरह। इन दराजों में रखे साज सामान की सबसे अजब बात ये थी कि इस बेकार के कबाड़ को बहुत ही संभाल कर रखा गया था। वे इस सुनी सुनाई बात में पक्का यकीन करते थे कि अगर आप किसी चीज को फेंक देते हैं तो तुंत ही आपको उसकी जरूरत पड़ जायेगी। बस, यही सोच कर वे सब कुछ जमा करते चलते थे।

हां, अगर किसी की निगाह मेज पर फैले उनके साज सामान वगैरह पर पड़ जाती तो वह उनकी सादगी, जोड़ तोड़ कर बनाये गये सामान और अजीबो गरीब चीजों को देखकर हैरत में पड़ जाता।

उनकी दायीं तरफ शेल्फ बने हुए थे जिनमें कई तरह की चीजें,प्लेटें, बीजों को खमीरा करने के लिए बिस्कुटों के टिन के बक्से, रेत से भरी प्लेटें वगैरह भरे हुए थे। इस बात को देखते हुए कि वे अपने जरूरी काम काज में कितने सलीकापसंद और तौर तरीके वाले इन्सान थे, इस बात को देख कर हैरानी होती थी कि उन्होंने कितनी अल्लम गल्लम चीजें जुटा रखी थीं। मिसाल के तौर पर सामान रखने के लिए भीतर से काला किये हुए सही आकार के थिडब्बे रखने के बजाये वे कुछ भी ऐसा तलाशते जिस पर भीतर से जूता पालिश करके काला किया जा सके। बीजों के अंकुरण के लिए गिलासों के लिए उनके पास ढक्कन नहीं थे। इनके लिए वे किसी भी उल्टी सीधी चीज को इस्तेमाल में ले आते। कई बार तो ये चीजें इतने अजीब आकार की होतीं कि पूछिये मत। लेकिन उनके ज्यादातर प्रयोग सरल प्रकार के होते जिनके लिए लम्बे चौड़े ताम झाम की जरूरत न पड़ती। लेकिन मेरा ख्याल है कि इस मायने में उनकी ये आदत अपनी शक्तियों पर काबू पाने की ललक की वजह से ज्यादा रहती होगी बजाये जरूरी चीजों पर उसे बरबाद करने की।

यहां मैं चीजों पर निशान लगाने की उनकी आदत के बारे में बताना चाहूंगा। अगर उन्हें बहुत सारी चीजों में फर्क करना होता, मसलन,पत्तियां, बीज, फूल वगैरह तो वे उनके चारों तरफ अलग अलग रंग के धागे बांध देते। ये तरीका वे आम तौर पर तब अपनाते जब उनके सामने फर्क करने वाली दो ही चीजें होतीं। मिसाल के तौर पर अगर उन्हें क्रास और स्वयं पुष्पित होने वाले फूल के बीच फर्क दिखाना होता तो उन पर वे काला और सफेद धागा बांधते। मुझे याद है एक बार उन्होंने दो कैप्सूलों के बीच फर्क करना था तो एक ही ट्रे में रखे कैप्सूलों पर उन्होंने काले और सफेद धागे बांध रखे थे। अगर उन्हें एक ही गमले में उगाये गये दो बीजों के बीच के फर्क का अध्ययन करना होता तो वे उनके बीच जस्ते की पट्टी खड़ी कर देते और उन पर जस्ते के लेबल लगा देते जिनसे प्रयोग के सारे ब्योरे मिल जाते। ये उनकी एक तरफ मेज पर रखे रहते जिससे उन्हें पता चल जाता कि कौन सा क्रास है और कौन सा स्वयं पुष्पित।

संकरण के इन प्रयोगों में यह साफ प्रकट होता था कि प्रत्येक प्रयोग विशेष के प्रति उन्हें कितना लगाव था, और उससे भी ज्यादा उनका उत्साह कि प्रयोग से प्राप्त फल को भी नष्ट न होने दिया जाए - वे इतने सावधान रहते थे कि कोई भी कैप्सूल कभी किसी गलत ट्रे में न चला जाए, तथा ऐसी ही बहुत सी बातें। मुझे उनकी वह मुखमुद्रा कभी नहीं भूलती कि साधारण माइक्रोस्कोप के नीचे वे कितनी एकाग्रता से बीजों को गिनते थे - गिनती जैसा साधारण काम और उसमें भी इतने तल्लीन। मुझे लगता है कि प्रत्येक बीज उनके सामने एक व्यक्ति जैसा बन जाता था और उन्हें डर रहता था कि कहीं कोई बीज गलत ढेर में न चला जाए, और यह सब तौर तरीका उनके कार्य को एक खेल का रूप प्रदान कर देता था। उपकरणों पर भी उन्हें पूरा भरोसा था, और स्वाभाविक रूप से वे किसी भी पैमाने, नापने वाले गिलास आदि की शुद्धता पर संदेह नहीं करते थे। उन्हें तब बड़ा आश्चर्य हुआ जब उन्हें यह पता लगा कि उनके एक माइक्रोमीटर और दूसरे के बीच काफी अन्तर है। अपने अधिकांश उपकरणों में उन्हें कोई बहुत अधिक परिशुद्धता नहीं चाहिए थी, और उनके पास कोई बेहतर पैमाना था भी नहीं। बस एक पुराना सा तीन-फुटा पैमाना, जो सारे कुनबे का साझा पैमाना था। यह लगातार एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता था, और सारे घर में इस पैमाने की जगह तय थी, बशर्ते सबसे अन्त में उठाने वाले व्यक्ति ने इसे सही सलामत उसी जगह पर रख दिया हो। पौधों की उँŠचाई नापने के लिए उनके पास सात फुट की छड़ी थी,जिसे गाँव के ही बढ़ई ने तैयार किया था। बाद में काग़ज के पैमानों का प्रयोग करने लगे जिन पर मिलीमीटर तक के निशान लगे थे। यह सब बताने का मतलब यह नहीं है कि इस प्रकार के उपकरणों को उपयोग में लेने के कारण उनकी पैमाइश में शुद्धता नहीं रहती थी, बल्कि मैं यह बताना चाहता हूँ कि उनके उपकरण कितने सरल थे - और उपकरण बनाने वाले पर उन्हें कितना भरोसा था, जिसका पूरा व्यवसाय ही उनके लिए रहस्य था।

उनकी दिमागी खासियत में से कुछेक मुझे अभी भी याद आती हैं, और इनका असर उनके काम के तरीके पर भी था। उनके दिमाग की एक खासियत और बहुत बड़ी उपयोगिता यह थी कि वे हमेशा कुछ न कुछ तलाशने में लगे रहते थे। यह उनके दिमाग की ही कुछ ताकत थी जो अपवादों को भी नजरअंदाज नहीं करती थी। यदि कोई अपवाद खास हो या बार बार होने लगे तो कोई भी उस पर ध्यान देगा लेकिन किसी भी अपवाद को वे पहली ही बार में पकड़ लेते थे, और यही उनकी खासियत थी। कुछ बातें ऐसी होती थीं जो उनके वर्तमान काम के बारे में बहुत ही सामान्य होती थीं, जिन्हें उनसे पहले के बहुत से लोगों ने लगभग अनदेखा-सा ही किया होता था या फिर जिनकी अधूरी व्याख्या की होती थी, जो कि कोई व्याख्या नहीं कहलाती, और इन्हीं बातों को पकड़ कर वे अपना अध्ययन शुरू करते थे। एक तरह से देखा जाए तो इस तरीके में कुछ खास नज़र नहीं आता, लेकिन उन्होंने बहुत-सी खोजबीन इसी तरीके से की थी। मैं यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि मैं उन्हें जिस प्रकार से काम करते हुए देखता था, तो प्रयोगकर्ता के रूप में इस ताकत की कीमत ने मुझ पर बहुत असर डाला था।

उनके प्रयोगात्मक कार्यों की एक और खासियत थी कि वे किसी एक विषय पर जैसे चिपक जाते थे, वे अपने इस धैर्य के लिए कई बार क्षमा माँगते थे, और कहते थे कि बस वे इस काम में हारना नहीं चाहते, भले ही यह उनके लिए कमज़ोरी का ही सबब क्यों न बन जाता हो। वे कई बार यह कहावत कह उठते थे, `गुड़ पर चींटे सा चिपक गया हूँ।'

और मैं सोचता हूँ कि यह `चींटे सा हठीला' उनके दिमाग के खाके को उनके अनथक प्रयासों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से प्रकट करता था। अनथक प्रयास तो मुश्किल से ही उनकी उस बलवली इच्छा को प्रकट कर पाता जो सत्य को उद्घाटित करने के लिए उनके मन में होती थी। वे अक्सर कहते थे कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह जानना ज़रूरी है कि वह सही मौका कौन-सा है जब अपनी तलाश खत्म की जाए। और मैं समझता हूँ कि यह उनकी प्रवृत्ति में था कि यह सही मौका अक्सर पीछे छूट जाता था और वे अपने अनथक प्रयास के लिए माफी माँगते थे और उनका काम में लगना गुड़ पर चींटे सा चिपकना हो जाता था। वे अक्सर यह भी कहते थे कि कोई भी व्यक्ति अच्छा प्रेक्षक तब तक नहीं बन सकता जब तक कि वह सक्रिय सिद्धान्तवादी न हो। यह बात याद आते ही मैं फिर से उनकी वह भावना याद करने लगता हूँ जिसके तहत वे अपवादों को तुरन्त पकड़ते थे। लगता है कि उनमें सिद्धान्तप्रियता इतनी थी कि वह जरा से भी विचलन को देखते ही सक्रिय हो उठते थे। इसलिए वास्तव में यह होता था कि छोटी से छोटी चीज भी उनमें सिद्धान्तों को सक्रिय कर देती थी, और इस प्रकार कोई भी तथ्य महत्त्वपूर्ण हो उठता था। इस प्रकार सहज ही उनके मन में कई सिद्धान्त मूर्त रूप ले चुके थे, लेकिन कल्पनाओं के साथ ही उनमें निर्णय करने का विवेक भी था जो इस प्रकार की विचित्रताओं को निक्रिय भी कर देता था। वे अपने सिद्धान्तों के प्रति ईमानदार थे, और उन्हें समझे बिना कभी भी नकारते नहीं थे। इस प्रकार से देखा जाए तो वे ऐसी बातों पर भी परीक्षण करने को आतुर रहते थे, जिन्हें अन्य लोग परीक्षण के लायक ही नहीं समझते थे। अपने कुछ परीक्षणों को वे मूढ़ परीक्षण कहते थे, और इनमें आनन्द भी लेते थे। मिसाल के तौर पर यह घटना ही लीजिए कि एक अनोखे किस्म के पौधे के बीजड़पत्र मेज के हिलने डुलने के कंपन के प्रति खास संवेदना रखते हैं तो उन्होंने यह कल्पना की शायद ये ध्वनि के कंपनों को भी पकड़ें और इसलिए मुझे कहा गया कि मैं उस पौधे के पास बेसून बजाऊँ।

कोई भी प्रयोग करने की बलवती इच्छा उनमें थी, और मुझे याद है जिस प्रकार वे कहा करते थे कि, `जब तक मैं इसका परीक्षण नहीं कर लूँगा मुझे चैन नहीं पड़ेगा,' जैसे कोई बाहरी शक्ति उन्हें प्रेरित कर रही हो। केवल कारण-परक कार्यों की तुलना में प्रयोगात्मक कार्य उन्हें अधिक पसंद थे, और जब कभी वे अपनी किसी ऐसी किताब में उलझे होते थे जिसमें तर्क और तथ्यों को सूत्रबद्ध करना अपेक्षित होता था तो वे महसूस कर लेते थे कि प्रयोगात्मक कार्यों को विराम या अवकाश दिया जाए। इस प्रकार, वेरिऐशनऑफएनिमल्सएन्डप्लान्ट्स पर 1860ड़61 के दौरान काम करते हुए उन्होंने ऑर्चिड का निषेचन प्रयोग भी किया और इन पर बहुत ज्यादा समय लगाने के लिए खुद को बेकार ही उलझा हुआ भी कहा। यह सोचना रुचिकर हो सकता है कि शोध के इस खास काम को फुर्सत में करने के बजाय और ज्यादा गंभीर कार्य के रूप में लेना चाहिए था। इस दौरान हूकर को लिखे अपने एक खत में उन्होंने बताया,`भगवान मुझे माफ करे कि मैं इतना आलसी क्यूँ हूँ; जबकि मैं पागलपन भरे दूसरे काम तो कर ही रहा हूँ।' इन पत्रों में उन्होंने बताया था कि निषेचन के प्रति पौधों की अनुकूलन क्षमता के समझने में उन्हें कितना आनन्द आता था। अपने किसी एक खत में उन्होंने लिखा था कि डीसेन्टऑफमैन से विराम लेते हुए उनका विचार था कि सन्डÎूपर काम किया जाए। अपने रीक्लेक्शन में उन्होंने बताया है कि विषम वार्तिकता की समस्या का समाधान करने में उन्हें कितनी खुशी हुई। एक बार मैंने उन्हें यह कहते सुना था कि दक्षिण अफ्रीका के भूविज्ञान ने उन्हें सबसे ज्यादा आनन्द दिया। शायद कार्य करने में यह खुशी प्राप्त करने के लिए बड़ी पैनी निगाह चाहिए जो अवलोकन को एक ताकत देती है, जो कि उनमें थी और उनके दूसरे गुणों की तरह ही उत्कृष्ट थी।

किताबों के लिए उनके मन में कोई आदर नहीं था। किताबें महज एक साधन थीं, इसलिए वे कभी भी उन पर जिल्द नहीं चढ़वाते थे, और किसी किताब के पन्ने निकल जाते थे तो वे चिमटी लगाकर रख देते थे। मुलर की बेफ्रचटंग नामक किताब को बचाने के लिए उन्होंने बस एक चिमटी भर लगा दी थी। इसी प्रकार वे किसी बहुत मोटी किताब को फाड़कर दो कर देते थे, ताकि उसे पकड़ कर पढ़ने में आसानी रहे। वे तो यहाँ तक कहते थे कि उन्होंने लेयेल को कहा कि वह अपनी किताब का नया संस्करण दो खण्डों में प्रकाशित कराए, क्योंकि उसकी मोटी किताब को उन्होंने दो फाड़ कर दिया था। पेम्फलेटों की तो और भी दुर्दशा होती थी। अपने कमरे में जगह बचाने के लिए केवल अपने मतलब के कामों को छोड़कर शेष सारे कागज फौरन कूड़ेदान के हवाले कर देते थे। नतीजा, उनकी लायब्रेरी बहुत सजी संवरी नहीं थी, बस निहायत ही ज़रूरी किताबों का संग्रह था।

किताबों को पढ़ने का उनका अपना ही तरीका था। यही हाल काम के पेम्फलेटों का था। उनकी एक अलमारी थी जिस पर वे किताबें रखी रहती थी, जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं गया था। किताबों को पढ़ने के बाद दूसरी अलमारी में रख दिया जाता था, और बाद में उनका वर्गीकरण होता था। वे अपनी उन किताबों पर खीझते भी थे, जिन्हें वे पढ़ नहीं पाए थे, क्योंकि वे यह जानते थे कि इन किताबों को कभी पढ़ा भी नहीं जाएगा। कुछ किताबें तो ऐसी थीं जो फौरन ही दूसरे ढेर में पहुँचा दी जाती थीं, और उनके पीछे एक बड़ा सा सिफर बना दिया जाता था। इसका मतलब होता था कि इसमें किसी भी स्थान पर कोई खास बात नहीं है या फिर किसी किताब पर लिख देते थे कि पढ़ी नहीं, या फिर बस उलट-पलट लिया। पढ़ ली गई किताबें उस दिन का इन्तजार करती पड़ी रहती थीं कि कब यह अलमारी भरेगी और उनका वर्गीकरण होगा। यह काम उन्हें निहायत ही नापसन्द था और जब मज़बूरी में करना ज़रूरी हो ही जाता था तो बड़ी ही तल्ख़ आवाज में कहते `इन किताबों को जल्द निपटाना होगा।'

किताबों को पढ़ते समय वे अपने काम की बातों पर निशान लगाते जाते थे। कोई किताब या पुस्तिका पढ़ते समय पृष्ठ पर ही वे पेन्सिल से निशान लगाते जाते थे और अन्त में निशान लगाए हुए पृष्ठों की तालिका बना देते थे। इसके बाद वर्गीकृत करके रखते समय निशान लगाए गए पृष्ठों को फिर से देख लिया जाता था और इस प्रकार उस किताब का सारांश मोटे तौर पर तैयार कर लिया जाता था। अलग-अलग विषयों पर लिखे गए तथ्यों को पहले से लिखी बातों के साथ जोड़ लिया जाता था। अपने सारांशों का वे एक सेट और भी तैयार करते थे, लेकिन यह विषयानुसार नहीं होता था बल्कि पत्रिकाओं के अनुसार होता था, जिससे वे सारांश लिए जाते थे। बड़ी मात्रा में तथ्यों का संग्रह करते समय पहले तो वे यही करते थे कि जर्नल की पूरी शृंखला को पढ़ते जाते और सारांश तैयार करते जाते थे।

अपने शुरुआती खतों में उन्होंने लिखा था कि स्पीसीज के बारे में अपनी किताब के लिए तथ्यों का संग्रह करते समय उन्होंने कई कापियाँ भर डालीं, लेकिन यह काफी पहले की बात है। बाद में वे पोर्टफोलियो बनाने लगे थे, जिसका ज़िक्र उन्होंने रीकलेक्शन में किया है। पिताजी और एम.दी केन्दोल को इस बात पर आपस में खुशी जाहिर करने का मौका मिलता था कि दोनों ही ने तथ्यों को वर्गीकृत करने की योजना एक जैसी बनाई थी। दी केन्दोल ने अपनी पुस्तक `फितालॉजी' में अपने तौर तरीकों का वर्णन किया, इसी बात का उल्लेख मेरे पिता के बारे में करते हुए उन्होंने लिखा कि डाउन में इसी को रूपाकार लेते हुए देखकर उन्हें काफी सन्तोष हुआ।

इन पोर्टफोलियो में कई दर्जन तो लिखे हुए कागजों से भरे थे। इनके अलावा बहुत से बंडल पांडुलिपियों के थे - कुछ पर इस्तेमाल हुईलिखकर अलग रख दिया गया था। वे अपने लिखे हुए कागजों की बड़ी कद्र करते थे और यह भी डरते थे कि कहीं इनमें आग न लग जाए। मुझे याद है कि कहीं से भी आग लगने की चेतावनी मिलते ही वे बड़े ही अस्त-व्यस्त हो जाते थे और मुझसे कहने लगते थे, - देखो बेटा, बहुत होशियार रहना और ध्यान रहे कि ये किताबें और कागज अगर नष्ट हए तो मेरा बाकी का जीवन दूभर हो जाएगा।

यदि कोई पाण्डुलिपि नष्ट हो जाती थी, तो भी उनके दिल से यही आह निकलती थी - `शुकर है कि मेरे पास इसकी नकल रखी है वरना इसका नुक्सान तो मुझे मार ही डालता'। कोई किताब लिखते समय उनका ज्यादा समय और मेहनत लगती थी सारे विषय की रूपरेखा या योजना बनाने में, फिर कुछ समय लगता था प्रत्येक शीर्षक के विस्तार में और उसे उपशीर्षकों में बाँटने में, जैसा कि उन्होंने रीकलेक्शन में उल्लेख भी किया है। मुझे लगता है सारी योजना को तैयार करना उनके अपने तर्क वितर्क की आधार भूमि तैयार करने के लिए नहीं होता था बल्कि समूची योजना की प्रस्तुति के लिए और तथ्यों की व्यवस्था के लिए होता था। अपनी पुस्तक `लाइफऑफइरेस्मसडार्विन' में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है। पहले यह पर्चियों पर रही और फिर किस प्रकार से इसने पुस्तक का आकार लिया - उसका यह सारा रूपान्तरण हमने अपनी आंखों से देखा था। इस सारी व्यवस्था को बाद में बदल दिया गया, क्योंकि यह बहुत ही औपचारिक लगने लगी थी। यह इतनी वर्गीकृत थी कि उनके दादा का सम्पूर्ण चरित्र प्रस्तुत करने के स्थान पर उनके गुणों की फेहरिस्त ज्यादा लगने लगी थी।

यह तो अन्त के कुछ वर्षों में उन्होंने अपनी लेखन योजना में बदलाव किया था। रीकलेक्शन में उन्होंने बताया है कि अब वे शैली पर बिना कोई ध्यान दिए पूरी किताब की रफ़ कापी तैयार करना ज्यादा सुविधाजनक समझते हैं - यह उनकी सनक थी कि हमेशा पुराने प्रूफ या पांडुलिपियों के पीछे ही लिखते थे क्योंकि अच्छे कागज पर लिखते समय अतिरिक्त सावधानी रखने के चक्कर में वे लिख नहीं पाते थे। इसके बाद वे रफ कापी पर फिर से चिन्तन मनन करते और इसकी साफ नकल तैयार करते थे। इस प्रयोजन के लिए वे चौड़ी लाइनों वाले फुलस्केप कागज का प्रयोग करते थे। चौड़ी लाइनों के कारण खुलाड़खुला लिखना पड़ता था और बाद में किसी भी किस्म की काँटड़छाँट या संशोधन आसानी से हो जाते थे। साफड़साफ तैयार की गयी नकल में एक बार फिर संशोधन किया जाता, उसकी एक और नकल तैयार की जाती और तब कहीं जाकर उसे छपने के लिए भेजा जाता था। नकलनवीसी का काम मि. ई. नार्मन किया करते थे। वे यह काम काफी पहले तब से करते आ रहे थे जब वे डाउन में गाँव के स्कूल मास्टर हुआ करते थे। मेरे पिताजी तो मिस्टर नार्मन की लिखाई के ऐसे मुरीद थे कि जब तक मि. नार्मन किसी नकल को तैयार नहीं कर देते थे, तब तक वे पांडुलिपि में संशोधन के लिए कलम नहीं उठाते थे, भले ही वह नकल हम बच्चों ने ही क्यों न तैयार की हो। मि. नार्मन जब नकल तैयार कर देते थे तब पिताजी उस नकल को एक बार फिर देखते थे और तब वह प्रकाशन के लिए भेजी जाती थी। इसके बाद प्रूफ देखने का काम शुरू होता था जो कि पिताजी को निहायत ही थकाऊ काम लगता था।

जिस समय किताब `स्लिप' स्तर पर होती थे तो वे दूसरों से सुझाव और संशोधन पाकर बहुत खुश होते थे। इस प्रकार मेरी माँ ने`ओरिजिन' के प्रूफ देखे थे। बाद की कुछ किताबों में मेरी बहन मिसेज लिचफील्ड ने ज्यादातर संशोधन किए। बहन की शादी के बाद अधिकांश काम मेरी माँ के हिस्से में आ गया।

बहन लिचफील्ड लिखती हैं : `यह सारा काम अपने आप में बहुत ही रुचिकर था और उनके लिए काम करना सोच कर ही रोमांचित हो उठती हूँ। पिताजी समझने के लिए इतने लालायित रहते थे कि किसी भी सुझाव को वे एक सुधार मानते थे और बताने वाले द्वारा की गयी मेहनत के प्रति अभिभूत हो जाते थे। मुझे जहाँ तक याद आता है तो वे मेरे द्वारा किए गए सुधारों को मुझे बताना कभी भी नहीं भूले, और यदि मेरे किसी संशोधन से वे सहमत नहीं होते थे, तो लगभग स्वयं से माफी मांगने जैसी स्थिति में आ जाते थे। मैं समझती हूँ कि इस प्रकार काम करके मैंने जितना उनकी प्रकृति की शालीनता और उदात्तता को समझा, शायद किसी और तरीके से न समझ पाती।

शायद सबसे सामान्य सुधार वही होते थे, जो कारण तत्त्व में जरूरी सहड़सम्बन्ध न होने के बारे में होते थे, और इनके न होने का कारण यही था कि उन्हें विषय का पूरा ज्ञान था। ऐसा नहीं था कि विचारों के अनुक्रम में कोई कमज़ोरी या कमी थी, बल्कि उन्हें यह आभास नहीं रह जाता था कि जिस शब्द का प्रयोग उन्होंने किया वह उनके विचारों को पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाया। कई बार वे एक ही वाक्य में बहुत कुछ कह डालते थे और इसीलिए वाक्य को तोड़ना पड़ता था।

कुल मिलाकर मैं यह कह सकता हूँ कि मेरे पिता अपने लेखन कार्य के साहित्यिक या कलात्मक पक्ष पर जितना परिश्रम करते थे वह काफी ज्यादा होता था। अंग्रेजी में लिखते समय उन्हें कई बार जब दिक्कत आती थी तो वे खुद पर ही हंसते या खीझते थे। मिसाल के तौर पर अगर किसी वाक्य का विन्यास गलत तरीके से सम्भव था तो वे गलत तरीका ही अपनाते थे। एक बार परिवार को जो दिक्कत आयी उसे देखकर पिताजी को असीम संतोष और खुशी भी हुई। दुर्बोध, उलझे हुए वाक्यों, और अन्य दोषों को सही करने तथा उन पर हंसने में पिताजी को बड़ी खुशी होती थी और इस प्रकार वे अपने काम की आलोचना का बदला ले लेते थे। युवा लेखकों को मिस मार्टिन की सलाह का उल्लेख वे बहुत अचरज से करते थे कि सीधे ही लिखते जाओ और बिना किसी संशोधन के पांडुलिपि छापेखाने में भिजवा दो। लेकिन कुछ मामलों में वे खुद भी ऐसा ही कर बैठते थे। जब कोई वाक्य उम्मीद से ज्यादा उलझ जाता था तो वे स्वयं से ही पूछ बैठते थे, `अब आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?' और इसका जो उत्तर वे स्वयं ही लिखते थे वह भ्रम को कई बार दूर कर देता था।

उनकी लेखन शैली की काफी तारीफ होती थी। एक अच्छे आलोचक ने एक बार मुझसे कहा था कि यह शैली कुछ जमती नहीं। उनकी शैली बहुत ही खुली खुली और स्पष्ट थी और यह उनकी प्रकृति को ही सामने रखती थी। सरलता तो इतनी कि एकदम नौसिखिये के आसपास और इसमें किसी किस्म का दुराव छिपाव नहीं था। पिताजी को इस सामान्य विचार पर तनिक भी भरोसा नहीं था कि शास्त्रा्य विद्वान को अच्छी अंग्रेजी लिखनी चाहिए, बल्कि वे सोचते थे कि मामला ठीक उल्टा ही रहता है। लेखन में जब कोई ठोस व्याख्या उन्हें करती होती थे तो वही प्रवृत्ति अपनाते थे जो बातचीत में करते समय रखते थे। `ओरिजिन' के पेज 440 पर सिरीपीड लारवा का वर्णन कुछ इस प्रकार से है, `तैरने की अभ्यस्त छह जोड़ी सुन्दर टाँगें, एक जोड़ी अनोखी विवृत्त आँखें और बहुत ही जटिल स्पर्श शृंग।' इस वाक्य के लिए हम उन पर हँसा करते थे, और कहते थे कि यह तो एक विज्ञापन की तरह से है। अपने विचार को अत्यधिक व्याख्या के शिखर पर पहुँचाने की उनकी प्रवृत्ति को कभी भी यह भय नहीं हुआ कि उनके लेखन में कहीं यह मज़ाक तो नहीं लग रहा है।

अपने पाठक के प्रति उनका रवैया काफी शालीन और समाधान परक रहता था, और शायद यह आंशिक रूप से उनका गुण था जो उनके व्यक्तिगत मृदुल चरित्र को उन लोगों के सामने भी प्रस्तुत कर देता था, जिन्होंने उन्हें कभी देखा नहीं। मैं भी इसे एक उत्सुकता भरा तथ्य मानता हूँ कि जिसने जीव विज्ञान का रूप ही बदल दिया, और इन अर्थों में जो आधुनिकतावादियों का मुखिया बन गया, उसने इतने गैर आधुनिक तरीके और भावना से एकदम दकियानूसी बातें लिखी होंगी। उनकी किताबों को पढ़ कर आधुनिक घराने के लेखकों का कम और प्राचीन प्रकृतिवादियों का आभास अधिक मिलता था। पुराने मत से देखा जाए तो वे शब्दों के प्रकृतिवादी थे, अर्थात ऐसा व्यक्ति जो विज्ञान की कई शाखाओं पर शोध करे न कि किसी विशेष विषय पर। इस प्रकार उन्होंने विशेष विषयों के नए प्रभाग तय कर दिए थे, जैसे कि फूलों का निषेचन, कीटड़भक्षी पौधे आदि। जो कुछ अपने पाठक के सामने वे प्रस्तुत करते थे उससे यह आभास नहीं होता था कि यह किसी विशेषज्ञ का लेख है। पाठक को ऐसा मित्रवत लगता था जैसे कि कोई सज्जन उसके सामने बातें कर रहा हो न कि ऐसा कि शिष्यों के सामने कोई प्रोफेसर व्याख्यान दे रहा हो। ओरिजिनजैसी किताब की ध्वनि मनमोहक ही नहीं, एक तरह से भाव-प्रधान है। यह एक ऐसे व्यक्ति का बलाघात है जो अपने विचारों की सच्चाई के प्रति आश्वस्त है,लेकिन फिर भी इसमें ऐसी शैली हो, जो दूसरों को प्रभावित नहीं करना चाहते। यह तो पाठक पर अपने विचार लादने वाली किसी दुराग्रही की शैली से एकदम उलट है। यदि पाठक के मन में कोई भ्रम होता भी था तो इसके लिए उसे तिरस्कृत नहीं करते थे, बल्कि उसके संशयों का निवारण बड़े ही धैर्यपूर्वक किया जाता था। उनके विचारों में सदा ही संशयी पाठक या शायद कोई अज्ञानी पाठक सदा ही मौजूद रहता था। शायद इसी विचार का नतीजा था कि वे ऐसे स्थलों पर काफी श्रम करते थे, जिन पर उन्हें लगता था कि यह उनके पाठक को भ्रमित कर सकता है, और वहाँ पर वे ऐसी रोचकता लाते या उसे जूझने से बचाते कि पाठक पढ़ने के लिए लालायित हो उठता था।

इसी वजह से वे अपनी किताबों में चित्र या उदाहारण देने में भी काफी रुचि लेते। यही नहीं, मुझे लगता है उनकी नज़र में इनकी बहुत अहमियत थी। उनकी शुरुआती किताबों के चित्र व्यवसायी चित्रकारों ने तैयार किए थे। एनिमल्सएन्डप्लान्टस, दीडीसेन्टऑफमैनऔरदएक्सप्रेशनऑफइमोशन्स इन्हीं चित्रकारों के चित्र थे। दूसरी ओर, क्लाइंम्बिंगप्लान्टस, इन्सेक्टीवोरसप्लान्टस, दिमूवमेन्टसऑफप्लान्टसऔरफॉर्म्सऑफफ्लावर्सके चित्रों को उनके बच्चों ने तैयार किया था, जिनमें सबसे ज्यादा चित्र मेरे भाई जॉर्ज ने तैयार किए थे। उनके लिए चित्र बनाना बड़ी ही खुशी की बात हुआ करती थी, क्योंकि बहुत सामान्यड़सी मेहनत पर वे दिल खोल कर तारीफ किया करते थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनकी एक बहू ने जब एक चित्र तैयार किया तो उन्होंने सच्चे मन से तारीफ करते हुए कहा, `---- से कहना कि माइकल एंंजेलो भी इसके आगे फीका पड़ गया है।' वे तारीफ के ही पुल बाँधकर नहीं रह जाते थे बल्कि चित्रों को बड़ी बारीकी से देखते थे और यदि कोई कमी या लापरवाही रह गई होती थे तो उसे भी पकड़ लेते थे।

पिताजी को काम के लम्बा खिंच जाने का भय भी रहता था। वैरिएशनऑफएनिमल्सएन्डप्लान्टस का लेखन कार्य जब बढ़ता जा रहा था,तो मुझे याद है कि एक दिन वे कह उठे - ट्रिस्ट्रम शैन्डी के शब्द एकदम ठीक ही हैं,`कोई कुछ नहीं कहेगा, चलो मैं बारहपेजी लिखता हूँ।'

दूसरे लेखकों के बारे में भी वे ठीक उतनी ही फिक्र करते थे जितनी अपने पाठक की। दूसरे सभी लेखकों के लिए वे कहते थे कि इन्हें भी सम्मान की दरकार है। इसकी एक मिसाल पेश करता हूँ - ड्रोसेरा के बारे में श्री---- के प्रयोगों को देखते हुए उन्होंने लेखक के बारे में काफी सामान्य विचार बना रखे थे, लेकिन यदि कहीं भी उन लेखक महोदय के बारे में कभी कुछ कहना होता था तो पिताजी ऐसे विचार प्रकट करते थे कि किसी को भी उनके मनोभावों का आभास नहीं हो पाता था। दूसरे मामलों में वे लापरवाह किस्म के भ्रमित लेखकों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे,मानो दोष लेखक का नहीं बल्कि स्वयं उन्हीं का हो कि वे विषय को समझ नहीं सके। आदर की इस सामान्य ध्वनि के अलावा वे उद्धृत लेख की मूल्यवत्ता पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करने का उनका अपना ही तरीका था या फिर किसी व्यक्तिगत जानकारी पर उनके अपने ही विचार थे।

वे जो कुछ पढ़ते थे उसके बारे में बहुत ही आदर की भावना रखते थे, लेकिन उनके मन में यह भावना भी जरूर रहती थी कि लेख को लिखने वाले भरोसेमन्द हैं या नहीं। वे जो भी किताब पढ़ते थे उसके लेखक की शुद्धता के बारे में एक खास विचार बना लेते थे और तर्क-वितर्क या उदाहरण के रूप में तथ्यों का चयन करते समय अपने विवेक का प्रयोग करते थे। मुझे तो यही लगता है कि किसी भी लेखक की विश्वसनीयता के बारे में अपनी इस विवेक शक्ति को वे बहुत ही अहमियत देते थे।

उनमें आदर करने की प्रबल भावना भी थी, जो कि अक्सर लेखकों में होती है। और यही नहीं, किसी भी दूसरे लेखक का उदाहरण देने में उन्हें डर भी लगता था। आदर और ख्याति के बारे में मोह का वे विरोध भी करते थे। अपने खतों में कई बार उन्होंने खुद को ही दोषी ठहराया है कि अपनी किताबों की सफलता से उन्हें कितनी खुशी मिलती थी, और यह तो एक तरह से अपने ही विचारों और सिद्धान्तों की हत्या करना था -क्योंकि वे मानते थे कि सच से प्रेम करो और ख्याति या प्रसिद्धि की चिन्ता हरगिज मत करो। सर जे.हूकर को लिखते समय कुछ एक खतों को उन्होंने शेखी बघारने वाला खत कहा है। एक खत में तो अपनी विनम्रता की भावना के लिए लालसा की भी हंसी उड़ाई है। `लाइफ' के दसवें अध्याय में ऐसा ही एक रोचक खत है जो मेरी माँ को उन्होंने समर्पित करते हुए लिखा और कहा कि यदि उनकी मृत्यु हो जाती है तो उद्विकास पर उनके पहले निबन्ध की पांडुलिपि को छपवाने के लिए उन्हें कितनी सावधानी से काम करना है। इस पूरे खत में केवल यही इच्छा प्रकट की गयी थी कि यह सिद्धान्त ज्ञान में योगदान करने वाला होना चाहिए। अपनी व्यक्तिगत प्रसिद्धि की तो कहीं कोई बात ही नहीं चलाई गयी थी। उनमें सफलता की प्रबल आकांक्षा थी जो कि एक व्यक्ति में होनी भी चाहिए, लेकिन ओरिजिन के प्रकाशन के समय यह स्पष्ट था कि वे लेयल, हूकर, हक्सले और एसा ग्रे जैसे विद्वानों से प्रशंसा पाकर वे बहुत खुश हुए थे, लेकिन बाद में जो नाम उन्होंने कमाया उसका सपना या इच्छा उन्होंने कभी भी नहीं संजोयी थी।

प्रसिद्धि के प्रति लगाव से तो उन्हें मोह नहीं ही था और साथ ही वे तरजीह के सवालों को भी उतना ही नापसन्द करते थे। ओरिजिन के प्रकाशन पर लेयल को लिखे खतों में उन्होंने अपने ऊपर खीझने का जिक्र किया और लिखा कि उन्हें खुद पर हैरानी है कि वे कई बरस की मेहनत पर मिस्टर पैलेस की पेशबन्दी पर निराशा को दबा नहीं पा रहे थे। इन खतों में उनकी साहित्यिक आकांक्षा और मान की भावना साफ तौर से सामने आयी है। यही नहीं, तरजीह के बारे में उनकी भावना उस तारीफ में सामने आयी है जो उन्होंने रीकलेक्शन में मिस्टर वैलेस के आत्म हनन के रूप में प्रकट की है।

अपने लेखन में संशोधनों के बारे में उनकी भावना बड़ी प्रबल थी और इसमें उनके लेखन पर हमलों के जवाब और सभी प्रकार की चर्चाएंं भी शामिल थीं। फाल्कोनर (1863) को लिखे एक खत में उन्होंने इसका इशारा करते हुए लिखा : `यदि तुम्हारे जैसे काबिल दोस्त पर मैं कभी गुस्सा उतारूं तो सबसे पहले मुझे अपने बारे में यही सोचना होगा कि मेरा दिमाग ठिकाने नहीं है। मेरे लेखन में तुमने जो संशोधन किए उनके लिए मुझे खेद है, और मैं मानता हूँ कि हर हाल में यह गलती ही है पर हम उसे दूसरों के लिए छोड़ें। अब चिढ़कर यह मैं खुद ही करने लगूँ तो बात अलग ही है।' यह भावना कुछ तो बहुत ज्यादा नज़ाकत की थी और कुछ इस प्रबल आकांक्षा की कि समय, शक्ति की बरबादी हुई सो हुई मन में गुस्सा अलग से पैदा हुआ।

लेयल ने जब उन्हें सलाह दी तो उस पर उन्होंने कहा कि वे भी तर्क वितर्क में पड़ना नहीं चाहते - लेयल ने यह सलाह अपने उन दोस्तों को दी थी जो उस समय एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हुए थे।

यदि मेरे पिताजी के लेखकीय जीवन को समझना है तो उनकी सेहत की दशा को भी ध्यान में रखना होगा कि खराब सेहत के बावजूद वे लेखन में लगे रहे। अपनी बीमारियों को भी वे इतने शांत भाव से सहन करते थे कि उनकी संतानों को भी अहसास तक नहीं होने पाता था। संतानों के मामले में एक दुविधा और भी थी और वह यह कि हम बच्चों ने जब से होश संभाला था तो उन्हें बीमार ही पाया था - और इसके बावजूद उन्हें हमने हमेशा ही हंसता मुस्कराता और जीवट से भरपूर देखा था। इस तरह उनके बाद के जीवन में भी हम बच्चों के बचपन में उनकी दयालुता की जो छवि बनी थी वह कभी हट नहीं सकी, बावजूद इसके कि उनकी तकलीफों का एहसास हम सबको ज़राड़सा भी नहीं हो पाता था। असलियत यह थी कि हमारी माँ के अलावा किसी को यह मालूम नहीं हो पाता था कि अपनी तकलीफों को सहन करने में उनकी ताकत गज़ब की थी। बाद के जीवन में तो माँ ने उन्हें एक रात के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा और वे अपने सभी कामों की योजना कुछ इस तरह से बनाती थीं कि जो समय पिताजी के आराम का होता था, उस समय वे ज़रूर ही पास होती थीं। किसी भी तरह की घटना हो, वे पिताजी के सामने एक ढाल की तरह रहती थीं। उन्हें हर कठिनाई से बचातीं, या बहुत ज्यादा थकने से बचातीं या फिर ऐसी किसी भी गैर ज़रूरी, वाहियात किस्म की बात से दूर ही रखती थीं जो उनकी खराब सेहत में कुछ भी मुश्किल पैदा कर सकती थीं। मुझे ऐसी बात के बारे में कहते हुए संकोचड़सा होता है कि किस प्रकार से उन्होंने पिताजी की निरन्तर सेवा-टहल में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया था, लेकिन मैं फिर भी यही कहूँगा कि अपने जीवन के लगभग चालीस बरस उन्होंने एक भी दिन ऐसा नहीं गुज़ारा जबकि वे बीमार न रहे हों। उनका सारा जीवन ही बीमारी से जूझते ही बीत गया। और इसी तरह अंत तक जीवन संघर्ष में लगे रहे। एक अदम्य ताकत उनमें थी कि वे इस सारे कष्ट को सहन करते रहे।

III

चार्ल्स डार्विन का धर्म

मेरे पिता ने अपने प्रकाशित लेखों में धर्म के बारे में एक मौन ही साधे रखा। धर्म के बारे में उन्होंने जो थोड़ा-बहुत लिखा भी तो वह प्रकाशन के प्रयोजन से कभी नहीं।

मुझे लगता है कि कई कारणों से उन्होंने यह चुप्पी साधी थी। उनका मानना था कि इन्सान के लिए उसका धर्म निहायत ही व्यक्तिगत मसला होता है और इसकी चिन्ता भी उसके अपने लिए ही होती है। सन 1879 में लिखे एक खत में उन्होंने इसी बात की ओर इशारा किया है :

`मेरे जो अपने विचार हैं उनका किसी और के लिए वैसे तो कोई मतलब नहीं है। लेकिन आपने पूछा ही है तो मैं यह कह सकता हूँ कि मेरा दिमाग भी अस्थिर ही रहता है। --- अपनी अस्थिरता की चरम अवस्था में मैं कभी भी नास्तिक नहीं हूँ, नास्तिक भी केवल एक ही अर्थ में जो ईश्वर के अस्तित्व में यकीन नहीं करता। मैं आम तौर पर ऐसा ही सोचता हूँ (और अब उम्र भी तो बढ़ती जा रही है) लेकिन हमेशा नहीं, शायद मेरे दिमाग के लिए सबसे ज्यादा सही जुमला होगाड़संदेहवादी।

धार्मिक मामलों में वे दूसरों की भावनाओं को चोट पहुँचाने से दूर ही रहते थे, और उन पर इस चैतन्यता का भी प्रभाव था कि किसी इंसान को ऐसे विषय पर नहीं लिखना चाहिए जिसके बारे में उसने कभी खास तौर पर चिन्तन मनन नहीं किया हो। और यही नहीं, इस चेतावनी को उन्होंने धार्मिक मामलों पर विचार व्यक्त करते हुए अपने ऊपर लागू किया जैसा कि उन्होंने कैम्ब्रिज, यू एस के सेन्ट एफ.ई. ऐबट को लिखे खत में स्पष्ट किया था (सितम्बर 6, 1871)। खत में सबसे पहले उन्होंने यह बताया कि खराब सेहत के कारण वे मानव मन को प्रभावित करने वाले इस गहन, गम्भीर विषय पर उतना गहन, गम्भीर चिन्तन नहीं कर पाए जितना करना चाहिए। आगे वे यही कहते हैं कि - पहले लिखे हुए लेखों की विषयड़वस्तु को मैं पूरी तरह विस्मृत कर चुका हूँ। मुझे बहुत से खत लिखने हैं, और इन सब पर मैं प्रतिक्रिया कर सकता हूँ लेकिन सोचकर लिखना बहुत कम हो पाता है, फिर भी मुझे पूरी तरह से मालूम है कि मैंने ऐसा कोई शब्द नहीं लिखा है, जो मैंने सोच समझकर नहीं लिखा हो,लेकिन मैं समझता हूँ कि आप मुझसे असहमत भी नहीं होंगे कि जो कुछ भी आम लोगों के सामने छप कर जाना हो, उसका महत्त्व भी बड़ी ही परिपक्वता से तय करके सावधानी से प्रस्तुत करना चाहिए। मुझे यह कभी भी ध्यान में नहीं आया कि आप मेरे लेख में से कुछ सारांश निकालकर छापेंगे, यदि मुझे कभी यह अहसास हुआ होता तो मैं उनकी नकल रखता। मैं अपने ऐसे लेख पर आदतन निजी लिख दिया करता हूँ। हो सकता है जल्दबाजी में लिखे हुए मेरे किसी लेख में से यह अंश लिया गया है, और यह भी हो सकता है कि वह लेख छपने लायक रहा ही नहीं हो, या किसी अन्य प्रकार से आपत्तिजनक रहा हो। यह तो मानना निहायत ही बेहूदगी होगा कि मैंने जो लेख आपके पहले लिखे थे आप उन सब को मुझे लौटाएंं, और जो आप उसमें से छापना चाहते हैं, उस पर निशान भी लगा दें, लेकिन यदि आप ऐसा करना चाहते हैं तो मैं फौरन यही कहूँगा कि मैं ऐसा एतराज क्योंकर करूँ। कुछ हद तक मैं धार्मिक विषयों पर अपने विचार खुलेआम जाहिर करने का इच्छुक नहीं हूँ क्योंकि मुझे नहीं लगता कि इस प्रकार के प्रचार को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए मैंने गहराई से चिन्तन मनन किया है।

डॉ. ऐबट को लिखे एक खत में (16 नवम्बर 1871) में मेरे पिता ने अपनी ओर से उन सभी कारणों को गिना दिया है कि वे धार्मिक और नैतिक विषयों पर लिखने में खुद को सक्षम क्यों नहीं महसूस करते।

`मैं पूरी सच्चाई के साथ कह सकता हूँ कि इन्डेक्स में योगदान करने के लिए आपके अनुरोध से मेरा सम्मान बढ़ा है, और जो ड्राफ्ट आपने भेजा उसके लिए मैं अहसानमंद भी हूँ। मैं पूरी तरह से इस बात पर भी मुहर लगाता हूँ कि यह हर एक का कर्त्तव्य है कि जिस सत्य को वह मानता है उसका प्रसार भी करे; और ऐसा करने के लिए मैं आपका पूरे उत्साह और निष्ठापूर्वक आदर करता हूँ। लेकिन मैं आपके अनुरोध को पूरा करने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ जिसके कारण मैंने आगे चलकर बताए हैं, और इन कारणों को इतने ब्यौरों के साथ बताने के लिए आप मुझे माफ करेंगे, और आपकी नज़रों में इतना गुस्ताख होने के लिए मुझे खेद है। मेरी सेहत गिरीड़गिरी रहती है; 24 घंटे में शायद ही ऐसा कोई समय होता होगा जो मैं आराम से निकाल पाता हूँ, शायद आराम के समय में कुछ और सोच सकूँ। यही नहीं, लगातार दो माह का समय मैं गंवा चुका हूँ। इस बेइन्तहा कमज़ोरी और सिर में भारीपन के चलते अब ऐसे नए विषयों पर सोचना बहुत कठिन है। इन विषयों पर गहराई से विचार करना ज़रूरी है, और मैं तो अपने पुराने विषयों पर ही सहज महसूस करता हूँ। मैं कभी भी बहुत तेज़ विचारक या लेखक नहीं रहा हूँ। विज्ञान में मैंने जो कुछ किया है उसके लिए एक ही वजह है कि मैंने इन विषयों पर लम्बे समय तक चिन्तन, अध्यवसाय और मेहनत की है।

``मैंने विज्ञान के संदर्भ में या समाज के परिपेक्ष्य में नैतिकता के बारे में सूत्रबद्ध रूप से कभी नहीं सोचा, और ऐसे विषयों पर अपनी दिमागी ताकत को लम्बे समय तक मैं लगा नहीं पा रहा हूँ, तो ऐसे में ऐसा कुछ नहीं लिख पाऊँगा जो इन्डेक्स में भेजने लायक हो।”

उनसे एक नहीं बल्कि कई बार धर्म पर विचार प्रकट करने के लिए कहा गया, और उन्होंने अपने विचार प्रकट भी किए लेकिन यह काम उन्होंने अपने व्यक्तिगत खतों में ही किया। अपने एक डच विद्यार्थी के खत का जवाब देते हुए उन्होंने लिखा था (2 अप्रैल 1873),`मुझे भरोसा है कि इतना लम्बा खत लिखने के लिए तुम बुरा नहीं मानोगे, खासकर यह बात जान कर कि मेरी तबीयत काफी समय से खराब चल रही है और इस समय घर से दूर रहकर आराम कर रहा हूँ।

``तुम्हारे सवाल का थोड़े में जवाब दे पाना संभव नहीं, और मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं कुछ लिख पाऊँगा। लेकिन इतना तो कह ही सकता हूँ कि हमारी चेतना इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि यह महान और आश्चर्यजनक ब्रह्मांड संयोगवश बन गया, और इसी प्रमुख तर्क के आधार पर ईश्वर का अस्तित्व कायम है, लेकिन यह तर्क वाकई में कोई मूल्य रखता है, मैं इस बारे में कभी भी निर्णय नहीं ले सका। मैं जानता हूँ कि यदि हम प्रथम कारण को स्वीकार कर लेंगे तो मन में पुन: यह सवाल पैदा होंगे कि यह कब हुआ, और कैसे इसका विकास हुआ। संसार में कष्टों और व्याधाओं की जो भरमार है, उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। जो लोग पूरी तरह से ईश्वर में विश्वास करते हैं, उन योग्य लोगों के विवेक पर भी मुझे कुछ हद तक भरोसा नहीं है, लेकिन इस तर्क का खोखलापन भी मुझे मालूम है। मुझे सबसे सुरक्षित नतीजा यही लगता है कि यह सारा विषय ही मानव की प्रज्ञा के दायरे में नहीं आता। इन्सान तो बस अपना कर्म कर सकता है।”

इसी तरह से एक बार सन 1879 में अपने एक जर्मन विद्यार्थी के सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने यही सब लिखा था। खत का जवाब पिताजी के पारिवारिक सदस्य ने लिखा था :

``मि. डार्विन ने मुझसे यह कहने का अनुरोध किया है कि उन्हें इतने खत मिलते हैं, जिनमें से सब का जवाब दे सकना कठिन है।

``वे मानते हैं कि उद्विकास का सिद्धान्त ईश्वर में विश्वास के साथ तुलनीय है; लेकिन तुम्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि ईश्वर का अर्थ अलगड़अलग लोगों के लिए अलग ही है।

इससे जर्मन युवक को संतोष नहीं हुआ और उसने फिर से मेरे पिता को लिखा और उसे इस प्रकार का जवाब दिया गया:-

``मैं एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति पहले ही बहुत से कामों को पूरा करने में लगा हुआ हूँ, और मेरे पास इतना समय नहीं है कि तुम्हारे सवालों का पूरा पूरा जवाब दे सकूँ ड़ और इनका पूरा जवाब दे सकना संभव भी नहीं है। विज्ञान को क्राइस्ट के अस्तित्व से कुछ भी लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि वैज्ञानिक अनुसंधान की आदत के कारण व्यक्ति प्रमाणों को स्वीकार करने के मामले में सजग रहता है। मेरा अपना मानना है कि कभी कोई अवतार नहीं हुआ। और भविष्य के जीवन में हर इन्सान को झूठी संभावनाओं के बीच आपसी विरोधाभासों को खुद ही देखना और समझना होगा।

आगामी अनुच्छेदों में उनकी आत्मकथा से कुछ अंश दिए गये हैं। ये उन्होंने 1876 में लिखे थे। इनमें मेरे पिता ने धार्मिक दृष्टिकोणों का इतिहास बताया है:

अक्तूबर 1836 से लेकर जनवरी 1839 तक दो वर्ष के दौरान मुझे धर्म के बारे में सोचने के लिए प्रेरणा मिली। बीगेल से समुद्र यात्रा पर जाने तक मैं पूरी तरह से लकीर का फकीर था, और मुझे याद है कि नैतिकता के कुछ सवालों के जवाब में प्रमाण देते हुए बाइबल से कुछ उदाहरण देने पर जहाज के अफसर (हालांकि वे भी लकीर के फकीर ही थे) मेरी हँसी उड़ाते थे। मुझे लगता है कि तर्क प्रस्तुत करने की नवीनता उन्हें चकित कर देती थी। लेकिन इस समय अर्थात 1836 से 1839 के दौरान मुझे मालूम होने लगा था कि ओल्ड टेस्टामेन्ट पर भी उतना ही भरोसा किया जा सकता है, जितना कि हिन्दुओं की धार्मिक पोथियों पर। इसके बाद मेरा यह सवाल कभी भी खतम नहीं हुआ - क्या यह बात यकीन के लायक है कि यदि ईश्वर को हिन्दुओं में अवतार लेना ही था तो वह विष्णु, शिव आदि में विश्वास से ही जोड़कर देखा जाना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे कि ईसाईयत को ओल्ड टेस्टामेन्ट से जोड़ दिया जाता है। यह मुझे पूरी तरह से अविश्वसनीय लगता है।

``आगे यह भी दिखाया जा सकता है कि जिन चमत्कारों से ईसाईयत का समर्थन किया जाता है, उनमें किसी भी समझदार व्यक्ति को भरोसा करने के लिए स्पष्टतया कुछ तो प्रमाण चाहिए - और यह भी कि जैसे-जैसे हम कुदरत के निर्धारित नियमों के बारे में जानकारी प्राप्त करते जाते हैं, उतना ही अविश्वास चमत्कारों पर होने लगता है ड़ उस समय इन्सान इतनी हद तक अनजान और भोला था कि आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते ड़ यह भी कि गोस्पेल के बारे में यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि घटनाओं की आवृत्ति के साथ ही इन्हें लिखने का काम भी कर दिया गया था ड़ इनमें बहुत से महत्त्वपूर्ण विवरणों में अन्तर है, मुझे लगता है कि यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं कि इन्हें प्रत्यक्षदर्शियों की सामान्य गलतियाँ मान लिया जाए ड़ इन्हीं सब प्रतिबिम्बों के कारण मैं इन्हें कोई नावेल्टी या मूल्यवत्ता प्रदान नहीं करता, लेकिन जैसे-जैसे इन विरोधाभासों का मुझ पर प्रभाव पड़ता गया, वैसे-वैसे दैवी अवतार के रूप में ईसाईयत के प्रादुर्भाव पर मेरा अविश्वास भी बढ़ता गया। सच तो यह है कि धरती के विशाल भू-भाग पर बहुत से मिथ्या धर्मों का प्रसार ठीक उसी तरह से हुआ है जैसे जंगल में आग फैलती है, और मुझे इसी पर पूरा यकीन है।

``लेकिन मैं अपने भरोसे को टूटने नहीं देना चाहता था, मैं इसके बारे में तो आश्वस्त था, क्योंकि प्रसिद्ध रोमनों के बीच हुए पुराने खतों के सूत्र तलाशते हुए और पोम्पेई या दूसरी किसी जगह से मिली पांडुलिपियों में दिवा स्वप्न देखते हुए बहुत ही मनोहर तरीके से वही सब बताया गया है जो गोस्पेल में लिखा हुआ है। लेकिन अपनी कल्पना को खुली छूट देने के बाद मेरे लिए यह कठिन से कठिनतर होता गया और मैं ऐसे प्रमाणों को तलाशने लगा जो मुझे प्रभावित कर सकें। इस तरह मुझ पर अविश्वास की धुंध गहराती चली गयी। हालांकि इसकी गति बहुत धीमी थी, लेकिन आखिरकार इसने मुझे पूरी तरह से ढंक ही लिया। एक बात ज़रूर कहूँगा कि इसकी गति इतनी धीमी थी कि मुझे कोई खास तकलीफ नहीं हुई।

``हालांकि अपने जीवन में काफी बाद तक भी मैंने किसी भी साकार ब्रह्म की मौजूदगी के बारे में नहीं सोचा, लेकिन मैं यहाँ कुछ मिथ्या निष्कर्ष प्रस्तुत करूँगा, जो कि मैंने अपने जीवन में निकाले। पाले ने प्रकृति में रूपरेखा के बारे में जो पुराना तर्क दिया था, और जो मुझे भी काफी निष्कर्षपरक लगा था, यहाँ विफल हो गया, क्योंकि अब प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त खोजा जा चुका है। उदाहरण के लिए अब हम और ज्यादा समय तक यह तर्क नहीं दे सकते कि सीपियों के सुन्दर कपाटों को किसी बुद्धिमान शक्ति ने ठीक उसी तरह से बनाया होगा जिस तरह से इंसान द्वारा दरवाजों के कपाट बनाए जाते हैं। जीव-जगत में रूपरेखा में और प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया में कोई अदला-बदली प्रतीत नहीं होती है, और उससे अधिक तो बिल्कुल नहीं कि हवा किस दिशा में बह रही है। मैंने वैरिएशन ऑफ डोमिस्टिकेटेड एनिमल्स एन्ड प्लान्ट्स के अन्त में इस विषय पर विचार किया है, और मैं देखता हूँ कि उसमें दिए गए सवालों के अभी तक जवाब नहीं मिले हैं।

``लेकिन जिन अंतहीन सुन्दर संकल्पनाओं को हम हर जगह देखते रहते हैं, उनके बारे में यह तो पूछा ही जा सकता है कि संसार के इस आम तौर पर लाभदायक रूप का श्रेय किसे दिया जाए? कुछ लेखक संसार में दुखों की मात्रा से इतने पीड़ित हो जाते हैं कि यदि सभी चेतन तत्त्वों को देखें तो वे यह शंका करने लगते हैं कि अधिकता दुखों की है या सुखों की।

मेरे विचार से सुख भी काफी है, हालांकि यह सिद्ध करना कठिन है। यदि इस निष्कर्ष के सत्य को ले लिया जाए तो यह उन्हीं तत्त्वों के साथ सुसंगत हो जाता है जो हम प्राकृतिक चयन से अपेक्षा करते हैं। यदि किसी प्रजाति के सभी सदस्यों को चरम सीमा तक दुख उठाना पड़े तो वे अपने अस्तित्व से ही इन्कार करने लगेंगे, लेकिन हमारे पास यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि ऐसा कभी भी या यदा-कदा हुआ होगा। इसके अलावा कुछ अन्य विचारधाराओं में यह विश्वास प्रधान है कि सभी चेतन तत्त्वों को सामान्यतया सुखानुभव के लिए सृजित किया गया है।

"हर व्यक्ति जो मेरी ही तरह यह विश्वास करता है कि सभी प्राणियों को सभी दैहिक और मानसिक अंगों (उन इन्द्रियों के अलावा जो उनके अधिष्ठाता के लिए न तो लाभप्रद हैं और न ही लाभकारी) का विकास प्राकृतिक चयन के माध्यम से हुआ है, या श्रेष्ठतम ही जीवन यापन करेगा। जो जीता वही सिकंदर। इन सब के साथ ही अंगों का प्रयोग या आदतें भी शामिल होती हैं, जिनके आधार पर इन अंगों का गठन हुआ है, ताकि इन अंगों वाले प्राणी अन्य जीवों के साथ सफलतापूर्वक स्पर्धा कर सकें और इस प्रकार अपनी तादाद बढ़ा सकें। अब देखो, प्राणि मात्र तो उस संक्रिया की तरफ बढ़ते हैं जो उनकी प्रजाति के लिए सर्वाधिक लाभदायक होती है। यह संक्रिया पीड़ा, भूख, प्यास और डर जैसी व्यथाओं या खाने-पीने जैसी आनन्ददायक घटनाओं और प्रजाति विशेष के उत्थान को प्रेरित करती हैं; यह फिर व्यथा और आनन्द दोनों का संयुक्त रूप सामने आता है जैसे कि भोजन की तलाश करना। लेकिन किसी भी प्रकार की पीड़ा या व्यथा लम्बी अवधि तक बरकरार रहे तो वह अवसाद पैदा करती है और प्रक्रिया शक्ति को कम कर देती है, हालांकि यह भी उस जीव को किसी बड़ी या आकस्मिक विपत्ति से बचाने के लिए ही होता है। दूसरी ओर आनन्ददायक अनुभूतियाँ अवसाद को जन्म दिए बिना ही लम्बे समय तक कायम रह सकती हैं और यही नहीं बल्कि सारी जीवन प्रणाली की सक्रियता को बढ़ा देती हैं। वैसे तो यह मालूम ही है कि सभी या अधिकांश चेतन जीवों का विकास इस रूप में हुआ है कि उसका माध्यम प्राकृतिक चयन ही है, और आनन्द की अनुभूतियाँ उनकी आदतों की ओर इशारा करती हैं। हम देखते हैं कि अपने आप को झोंक देने से भी आनन्द प्राप्त होता है। बहुधा यह अर्पण शारीरिक या मानसिक रूप से हो सकता है ड़ जैसे हम अपने दैनिक भोजन से जो आनन्द प्राप्त करते हैं, और कई बार जो आनन्द हम सामाजिकता और अपने परिवार जनों के लिए प्रेम से प्राप्त करते हैं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि बार-बार या आदतन होने वाले आनन्द की गुणीभूत मात्रा अधिकांश चेतन प्राणियों को दुखों पर सुख की छाया प्रदान करती है, हालांकि कुछ प्राणी दुख ज्यादा भी उठाते हैं। इस प्रकार का दुख भोग पूरी तरह से प्राकृतिक चयन के विश्वास के साथ तुलनीय है, जो कि अपनी सक्रियता में दक्ष नहीं है, लेकिन इसकी प्रवृत्ति यही रहती है कि अन्य प्रजातियों के साथ जीवन संघर्ष की राह में हरेक प्रजाति को यथासंभव सफल बनाए, और यह समस्त क्रिया व्यापार सुन्दरता से लबालब भरे और हर समय बदलते रहने वाले परिवेश में होता है।

``संसार अपने आप में दुखों का विशाल पर्वत है और इस पर कोई विवाद नहीं। कुछ विचारकों ने इस तथ्य की व्याख्या मानव मात्र के बारे में करने का प्रयास किया है, और यह कल्पना की है कि वह अपने नैतिक विकास के लिए संसार में आया है। लेकिन संसार में मानव की संख्या की तुलना अन्य जीवों के साथ नहीं की जा सकती और नैतिक विकास के बिना वे दुख भी उठाते हैं। मुझे लगता है कि बुद्धिमत्तापूर्ण प्रथम कारण की मौजूदगी की तुलना में दुखों की मौजूदगी का यह प्राचीन तर्क बहुत ही मजबूत है, जबकि जैसा कि अभी बताया गया है, बहुत ज्यादा दुखों की मौजूदगी का साम्य इस दृष्टिकोण से अधिक है कि सभी जीवों का विकास विभंजन और प्राकृतिक चयन के माध्यम से हुआ है।

``आज के युग में बुद्धिमान ईश्वर की मौजूदगी के सबसे सरल तर्क का जन्म ज्यादातर लोगों के भीतरी अनुभवों और संकल्पनाओं के आधार पर हुआ है।

``इससे पहले मैं इसी अनुभव से प्रेरित था (हालांकि मैं नहीं समझता कि मुझमें कभी भी धार्मिक भावनाओं का प्रबल विकास हुआ), और मैं भी ईश्वर की मौजूदगी तथा आत्मा की अनश्वरता की ओर बढ़ा। अपने जर्नल में मैंने लिखा था कि ब्राजील के घने वनों की विशालता और विराटता के बीच खड़े होकर मैं यही विचार कर रहा था,`अचरज, श्रद्धा और समर्पण की ऊँची भावना को पर्याप्त विचार दे पाना संभव नहीं है, जो कि इस समय मेरे मन को आन्दोलित कर रही हैं, मैं अपनी इस संकल्पना को याद रखूँगा कि मानव में इस श्वास-प्रश्वास के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है;लेकिन अब महानतम दृश्य भी मेरे मन में इस प्रकार की संकल्पनाओं को लेशमात्र भी अवकाश नहीं देगा। यह सत्य ही है कि मैं एक वर्णान्ध मनुष्य की तरह हूँ और लाली की मौजूदगी के बारे में मानव का विश्वास मेरी वर्तमान हानि को दुरुस्त करने के लिए कुछ भी सुबूत जुटा नहीं पाती है। यह तर्क तो एक मान्य तर्क तभी बन सकेगा जब सभी प्रजातियों के सभी लोग ईश्वर की मौजूदगी के बारे में एक जैसी संकल्पना रखते हों;लेकिन हम जानते हैं कि यह असलियत से बहुत दूर है। इसलिए मैं यह नहीं देख पा रहा हूँ कि इस तरह की अन्दरूनी संकल्पनाओं और भावनाओं के बलबूते पर यह प्रमाण नहीं दिया जा सकता है कि वास्तव में क्या प्राप्त है। इन विराट दृश्यों को देखने के बाद शुरू में मेरे दिलो-दिमाग में जो कुछ जागा, और जो कि ईश्वर के लिए गहरे विश्वास से जुड़ा हुआ है, यही नहीं बल्कि यह सब कुछ अलौकिकता की भावना से अलग नहीं था, और इस सबके बाद इस भावना के पैदा होने और बढ़ते रहने को समझाना कठिन है। ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस तर्क को ज्यादा आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। यह तो संगीत सुनने के बाद पैदा हुई ताकतवर लेकिन डांवाडोल सोच से ज्यादा बड़ी बात नहीं है।

अब आते हैं अनश्वरता की बात पर। मुझे कोई भी बात (इतनी) स्पष्ट नहीं लगती जो कि इस विश्वास और लगभग भीतरी भाव जैसी बात पर है कि ज्यादातर भौतिकशास्त्रा् यह मानते हैं कि समय बीतने के साथ ही सूर्य और इसके साथ के सभी ग्रह इतने ठंडे हो जाएंंगे कि जीवन का नामो-निशान मिट जाएगा। हाँ, इतना ज़रूर हो सकता है कि कोई बड़ा पिंड आकर सूर्य से टकरा जाए और सूर्य फिर से ऊर्जावान हो उठे तो जीवन बचा रहेगा। मैं यह मानता हूँ कि मानव इस समय जितना दक्ष है, आगे चलकर उससे कहीं ज्यादा दक्ष बनेगा। इस विचार को भी नकारा नहीं जा सकता कि मानव और सभी जीव अपनी इस सतत प्रगति के अन्त में प्रलय का सामना ही करेंगे। जो यह मानते हैं कि आत्मा अजर अमर है उनके लिए संसार का विनाश ज्यादा डरावना नहीं होगा।

``ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करने का एक और जरिया भी है जो कि भावनाओं से नहीं बल्कि कारण से जुड़ा है, और यह मुझ पर ज्यादा असर डालता है और इसमें कुछ वजन भी है। मानव में अपने अतीत में भी काफी पुरानी घटनाओं और कुछ हद तक भविष्य का अंदाजा लगाने की क्षमता है। इससे यह मानना कठिन या यूँ कहिए नामुमकिन सा हो जाता है कि यह विराट और सुन्दर ब्रह्मांड अचानक ही या किसी ज़रूरत से बन गया होगा। जब मैं इस तरह का विचार प्रकाट करता हूँ तो मैं जबरन प्रथम कारण की ओर झुकने को मजबूर हो जाता हूँ कि मैं भी मानव की ही भांति बुद्धिमान हूँ और यहाँ मैं आस्तिक कहलाना पसंद करूंगा। उस समय मेरे दिमाग में यही निष्कर्ष काफी मजबूती से पैर जमाये था, और जहाँ तक मुझे याद है उस समय मैंने दि ओरिजिन ऑफ स्पीसिज लिखी थी और तब से अब तक वह विचार भी काफी नरम हो चुका है। लेकिन यहीं पर संदेह पैदा होता है कि मानव का दिमाग क्या शुरू में एकदम तुच्छ जीवों जैसा रहा होगा जो विकसित होते-होते इस दशा में पहुँच गया है। मेरा मानना है कि किसी बड़े नतीजे पर पहुँचने के लिए इस बात को मानना होगा।

``इस गूढ़ से गूढ़ समस्या पर मैं जरा-सा भी बोलने या कहने का साहस नहीं जुटा सकता। सभी चीजों के जन्म का रहस्य हमारे लिए रहस्य ही है और ऐसे में हमें संदेहवादी ही रहना चाहिए।

जीवनी में जो कुछ सारांश के तौर पर लिखा गया है, कुछ हद तक वही बात आगे के खतों में दोहरायी गयी है। पहला खत जुलाई 1861 में मैकमिलन मैगजीन में दि बाउंड्रीज ऑफ साइंस : ए डायलॉग में प्रकाशित हुआ था।

चार्ल्स डार्विन की ओर से मिस जूलिया वेजवुड को, 11 जुलाई 1861

किसी ने मुझे मैकमिलन का अंक भेजा है, और मैं आपको यह ज़रूर बताना चाहूँगा कि मैं आपके लेख की प्रशंसा करता हूँ, हालांकि साथ ही साथ मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि कुछ अंशों को मैं समझ नहीं सका, और शायद लेख के वही अंश खास अहमियत रखते हों, और इसका कारण यही है कि मेरे दिमागी घोड़ों को तत्त्वज्ञान की भारी गाड़ी खींचने की आदत नहीं है। मैं समझता हूँ कि आपने दि ओरिजिन ऑफ स्पीसिज को अच्छी तरह से समझ लिया होगा, हालांकि मेरे आलोचकों के लिए ऐसा कर पाना टेढ़ी खीर ही है। आखिरी पेज पर लिखे विचार कई बार मेरे दिमाग में बेतरतीबी से आए। बहुत सारे खतों का जवाब लिखने में लगा रहा और आपके द्वारा उठाए गए खासुलखास मुÿाò पर सोचने का तो समय ही नहीं मिला या यूँ कहिए कि सोचने का प्रयास भी नहीं कर पाया। लेकिन मैं जिस नतीजे पर पहुँचा वह हक्का-बक्का कर देने वाला रहा - कुछ ऐसा ही जो शैतान के जन्म के बारे में सोचने लगा, और आपने भी तो इसी तरफ इशारा किया है। यह दिमाग इस ब्रह्मांड की ओर देखने से भी इंकार करता है, कि इसकी रचना तो सोच समझ कर की गयी है, तो भी हम इसमें रूपरेखा की आशा करते हैं, जैसे सभी जीवों की बनावट में, लेकिन इस बारे में मैं जितना सोचता हूँ, मुझे कला कौशल में दैवत्व उतना ही कम मिलता है। एसा ग्रे और कुछ दूसरे विद्वानों ने प्रत्येक बदलाव तो नहीं लेकिन कम-से-कम हरेक लाभदायक बदलाव के लिए कहा है कि इसकी रचना सोच-समझ कर दैविक रूप से हुई है (एसा ग्रे ने इसकी तुलना बरसात की बूँदों से की है जो सागर पर नहीं बल्कि धरती पर गिरकर उसे उपजाऊ बनाती हैं)। इस बारे में जब मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या उन्होंने पहाड़ी कबूतर के बदलावों पर गौर किया है - जिसे पाल पोस कर इंसान ने ही लोटन कबूतर बनाया, क्या इसकी रचना भी दैविक रूप से इंसान के मनोरंजन के लिए हुई, तो उनके पास कोई जवाब नहीं। वे या कोई दूसरा यदि यह स्वीकार कर लें कि ये बदलाव प्रयोजन को देखते हुए बस संयोगवश हा (दरअसल अगर उनकी उत्पत्ति को देखा जाए तो वह संयोगवश नहीं है) तो मुझे कोई कारण नहीं दिखाई देता कि हुदहुद या कठफोड़वे की रचना दैविक रूप से होने के बदलाव को वे क्यों नहीं देखते हैं। कारण यही है कि यह सोचना आसान है कि लोटन कबूतर या पंखदार पूँछ वाले कबूतर की दुम उस पखेरू के लिए भी कुछ उपयोगी होगी, खासकर उस प्राकृतिक हालात में जो जीवन की आदतों को बदलती रहती है। इस रचना के बारे में इन सब विचारों के कारण मुझे काठ मार जाता है, पर क्या आप इस तरफ कुछ ध्यान देंगे। मुझे तो नहीं पता।

परिरूप के बारे में उन्होंने डॉ. गे को लिखा (जुलाई 1860):

``परिरूपित विधि और गैर ज़रूरी नतीजे के बारे में मैं कुछ और भी कहना चाहता हूँ। मान लीजिए मैंने एक चिड़िया देखी और मेरे मन में उसे खाने की इच्छा पैदा हुई, मैंने बन्दूक उठायी और चिड़िया को मार गिराया, यह सब मैंने सोच-समझ कर किया। अब यह भी देखिए कि एक बेचारा भला आदमी पेड़ के नीचे खड़ा है और अचानक ही आकाश से बिजली गिरती है और उस आदमी का काम तमाम हो जाता है। क्या आप मानेंगे (और इस बारे में मैं आपसे जवाब ज़रूर चाहूँगा) कि ईश्वर ने उस आदमी को मारने के लिए रूपरेखा तैयार की होगी? बहुत से या ज्यादातर लोग इस बात को स्वीकार कर लेंगे; लेकिन मैं कर नहीं सकता और करता भी नहीं। यदि आप मानते हैं तो क्या आप यह भी मानेंगे कि जब एक अबाबील किसी मच्छर को पकड़ता है, तो क्या ईश्वर ने यह रूपरेखा बनायी होगी कि कोई खास अबाबील ही किसी खास मच्छर पर झपटे और वह भी ठीक उसी खास मौके पर? मैं मानता हूँ कि वह आदमी और यह मच्छर दोनों ही एक समान संकट या कष्ट की हालत में हैं। यदि उस आदमी या इस मच्छर की मौत की रूपरेखा नहीं बनायी गयी है तो फिर मैं इस बात को मानने में कोई औचित्य नहीं देखता कि उन दोनों ही का पहला जन्म या उत्पत्ति अनिवार्य रूप से रूपरेखा बनाकर की गयी होगी।

चार्ल्स डार्विन की ओर से डब्ल्यू. ग्राहम को लिखा गया खत (डाउन, 3 जुलाई 1881)

महोदय

आप मेरी इस गुस्ताखी को माफ करेंगे कि मैं आपकी काबिले-तारीफ पुस्तक क्रीड ऑफ साइंस को पढ़ने के बाद आपको धन्यवाद कर रहा हूँ। दरअसल इस किताब ने मुझे असीम आनन्द दिया। हालांकि अभी मैंने इस किताब को पढ़ कर खतम नहीं कर पाया हूँ। कारण इसका यही है कि अब बुढ़ापे में बहुत धीरे-धीरे पढ़ पाता हूँ। बहुत दिन के बाद मैं किसी किताब में इतनी रुचि ले पाया हूँ। जाहिर है कि इस काम में आपको कई बरस जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ी होगी और इस काम को काफी समय भी देना पड़ा होगा। आप हरेक से तो यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आप से पूरी तरह से सहमत हो खासकर इस प्रकार के अनजान विषय के बारे में, यही नहीं, आपकी किताब में कुछ ऐसे तथ्य भी हैं, जिन्हें मैं हजम नहीं कर पा रहा हूँ। इसमें सबसे पहली बात तो यही है कि इस तथाकथित प्राकृतिक कानून में भी कुछ प्रयोजन छुपा हुआ है। मैं तो यह नहीं समझ सकता। यह कहने के लिए तो गुंजाइश नहीं बचती कि बहुत से लोग यह आशा रखते हैं कि एक दिन ऐसा आएगा कि सभी बड़े-बड़े नियम अनिवार्य रूप से किसी एक ही नियम के पीछे चल रहे होंगे। अब इन नियमों को भी देखिए जिन पर हम बात कर रहे हैं। जरा चाँद की ओर देखिए वहाँ पहुँच कर गुरुत्व का नियम कहाँ चला जाता है - और ऊर्जा को बचाने के बारे में क्या कहेंगे - जब परमाणु शक्ति का सिद्धान्त या ऐसे ही अन्य नियम हों जो कि सत्य तो हैं ही। क्या इसमें भी कोई प्रयोजन हो सकता है कि चाँद पर भी कोई ऐसा निम्नकोटि का जीव हो जो अकल से भी पैदल हो। लेकिन मुझे इस तरह धूल में लठ चलाने का अनुभव नहीं है, और ऐसे में मैं तो भटक ही जाता हूँ। यह ब्रह्मांड महज संयोग का परिणाम नहीं है -यह मेरे दिल की बात थी, और कुल मिलाकर देखूं तो आपने यह इतने रोचक ढंग और साफ तौर पर कही है कि शायद मैं भी न कह पाता। लेकिन ऐसे में यह भयानक संदेह फिर भी घेरे रहता है कि मानव का दिमाग जो कि निम्नतर जीवों के दिमाग से विकसित हुआ है, उसका कुछ भी मूल्य है या यह ज़रा भी यकीन करने लायक है। क्या कोई भी किसी बन्दर के दिमाग में आयी संकल्पनाओं पर भरोसा करेगा, या फिर ऐसे दिमाग में किसी प्रकार की संकल्पना आयी भी होगी। दूसरे मैं सोचता हूँ कि आपने हमारे महानतम लोगों को जो व्यापक महत्त्व दिया है तो मैं इस पर कुछ केस बनाउँŠ, मैं तो दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर चल रहे लोगों को भी खासुल-खास समझता हूँ और विज्ञान के मामले में तो खासकर। और आखिर में मैं यही कहना चाहूँगा कि मानव सभ्यता की प्रगति के लिए प्राकृतिक चयन ने बहुत कुछ किया है और कर रहा है, लेकिन आप इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, और इस पर तो मैं बहस करने को तैयार हूँ। जरा ध्यान दीजिए कि यह कोई सदियों पुरानी बात नहीं है जब यूरोप के देशों में तुर्क लोगों के आक्रमण का कितना भय लगा रहता था, और अब यही विचार कितना मज़ाकिया लगने लगा है। तथाकथित सभ्य काकेशियन प्रजातियों ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए तुर्क हमले का मुँहतोड़ जवाब दिया। सारे संसार को देख लीजिए और इसके लिए वह दिन दूर नहीं जब अनगिनत निम्न प्रजातियों को उच्चवर्गीय सभ्य प्रजातियों द्वारा तबाह कर दिया जाएगा। लेकिन अब मैं और नहीं लिखूँगा और आपके लेख की उन बातों का जिक्र भी नहीं करूँगा जिनसे मैं बहुत प्रभावित हुआ। वैसे तो मुझे आपसे इस गुस्ताखी के लिए माफी माँगनी चाहिए कि मैंने अपने विचारों से आपको परेशान किया, और इसका एकमात्र बहाना मेरे पास यही है कि आपकी किताब ने मेरे मन में तूफान खड़ा कर दिया।

मान्यवर,

मैं तो हमेशा ही आपका अनुग्रही और दासानुदास बन कर रहना चाहता हूँ।

डार्विन ने इन विषयों पर बहुत कम ही जुबान खोली और मैं उनकी बातचीत के हिस्सों से भी कोई बहुत याद नहीं कर पा रहा हूँ, जिनसे यह ज्ञात हो सके कि धर्म के प्रति उनकी क्या भावना थी। उनके विचारों के बारे में हो सकता है कि उनके खतों में छिटपुट कुछ अभिमत मिल जाएँ।

समाप्त।