आत्म-कथ्य : हृदयेश / पृष्ठ 3

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सन् 1998 में भगवान सिंह शाहजहाँपुर आए थे. वह सुप्रसिद्ध इतिहासकार के साथ-साथ उपन्यासकार और आलोचक भी हैं. उनके छोटे भाई इस शहर में नहर विभाग में अधिशासी अभियन्ता थे, जिनके पास कैन्टुनमेंट क्षेत्र में अंग्रेजों के जमाने का बना हुआ कई एकड़ में विस्तृत सरकारी बँगला था, ऐसा बँगला जिसमें आम, जामुन, बेल जैसे फलों के पचासों दरख्त थे और साग-सब्जी व अनाज उगाने के लिए पर्याप्त खाली जमीन भी. ऐसे बंगलों में फूल और फूल की बिरादरी में आदर पाने वाले रंग-बिरंगे पौधों के लिए जैसी सुव्यवस्था रहती है, वह वहाँ थी ही. भगवान सिंह को दिल्ली के मुकाबले में, जहाँ वह रहते थे, यह जगह अपने सर्जनात्मक लेखन के लिए आदर्श लगी थी- शोर शराबे, धुआँ-धूल, जुलूस-धरना जैसे कुछ नहीं. दिल्ली में वह अपने नए उपन्यास ‘उन्माद’ को आधा-पौना लिख चुके थे. शेष भाग को लिखने के लिए वह शाहजहाँपुर में ही रुक गए. भगवान सिंह की भिजवायी सूचना पाकर कि वह अब उनके ही शहर में हैं, हृदयेश मिलने गए थे. फिर यह जाना सात-आठ दिन के अंतराल से होने लगा था. अंतराल लंबा खिंच जाने पर भगवान सिंह का फोन आ जाता था कि स्वास्थ्य तो ठीक है? अधिक व्यस्तता है क्या? बँगला दूर था, श्रद्धा पगी आत्मीयता रखने वाला मित्र चन्द्रमोहन दिनेश वाहन की व्यवस्था कर देता था और वह पहुँच जाते थे.

भगवान सिंह से उनका परिचय सन् 1993 में हुआ था, शाहजहाँपुर में ही. उनको ‘पहल सम्मान’ देने वाले आयोजन में वह भी सम्मिलित हुए थे और दिल्ली वापस होने से पहले सात-आठ घंटे उनके निवास स्थान पर ही ठहरे थे. वह भगवान सिंह की बेबाकी, स्पष्टवादिता और अपने लेखकीय दायित्व के प्रति उनकी ईमानदारी से प्रभावित थे. वह सम्मान देने वाले सत्र में अध्यक्ष मंडल के एक सदस्य के रूप में मंच पर बैठे थे, किन्तु अन्य सदस्यों की भांति उन्होंने कोई वक्तव्य नहीं दिया था. बाद में सफाई देते हुए बताया था कि वह उनके तब तक प्रकाशित उपन्यासों से प्रभावित नहीं हैं और वह उस औपचारिक प्रशंसा, जो मंच से ऐसे अवसरों पर बढ़ा-चढ़ाकर की जाती है, उससे करने से बचते हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि उनके मित्र आयकर अधिकारी विनोद कुमार श्रीवास्तव ने, जो उनके लेखकीय व्यक्तित्व का आदर करते हैं, उन पर उस सम्मान आयोजन में भाग लेने का दबाव बनाया था. इसके साथ वह गोपनीय सूचना भी दी थी कि उस वर्ष के सम्मान की दौड़ में काशीनाथ सिंह भी शामिल थे, किन्तु जूरी के सदस्यों ने बहुमत से उनके नाम की संस्तुति की थी.

भगवान सिंह बंगले पर उनका सोत्साह मेवा, मिठाई और चाय से स्वागत करते थे. आम की फसल तैयार हो जाने पर तरह-तरह के स्वाद वाले आम खिलाते थे. उनको अगर अंगूर की बेटी से परहेज नहीं होता तो वह उनको उसकी संगत से हसीन हो जाने वाली शाम के शबाब का पुरलुत्फ आनन्द उठाने का भी मौका देने में कोताही न करते. लेकिन सकल पदारथ हैं जग मांही, करम हीन नर पावत नाहीं. भगवान सिंह के अन्दर उनके प्रति तरस का कुछ ऐसा ही भाव होता, मगर वह उस भाव पर स्वयं तरस खाने से अपने को बचाते थे. मदिरा से हृदयेश का कैसा रिश्ता है, इसको एक वाक़या से अच्छी तरह समझा जा सकता है. वाक़या का बयान ठोस होता है बिला मिलावट का. और यह वाक़या भगवान सिंह से ही जुड़ा हुआ है. अवसर था ‘पहल-सम्मान’ का जब भगवान सिंह उनके घर ठहरे हुए थे. अँधेरा घिर आने पर वह बोले थे, ‘हृदयेश जी, आप तो शौक करते नहीं, लेकिन मेरी शाम बिना शराब का साथ पाए गुजर नहीं सकती है. आसपास कही दुकान होगी. चलिए वहां से ले आते हैं.’ हृदयेश अपने ही चौक क्षेत्र में स्थित उनको अंग्रेजी शराब की दुकान पर ले गए थे. बदनामी के डर से वह दूर दूसरी पटरी पर खड़े रहे थे. भगवान सिंह ने अपने ही पैसों से रम का एक क्वार्टर खरीदा था. घर लौटकर गिलास और पानी की जरूरत बताए जाने पर उन्होंने वे दोनों चीज़ें मुहैया करा दी थीं. रम की चुस्कियाँ लेते-लेते भगवान सिंह उखड़ गए थे. आवाज में तमक आ गयी थी, ‘शराब के साथ चीखना भी जरूरी होता है. क्या पापड़ या नमकीन चने तक की भी व्यवस्था यहाँ नहीं हो सकती है?’ नीचे दुकान से तली मूंगफली के दाने ले आए गए. हृदयेश बाद में आदरणीय मेहमान के साथ अपने उस भदेस रवैये पर कई बार सोचकर हँसे थे. यह हंसना अपनी अबोधता पर तरस खाना भी होता था, साथ ही बेवकूफी की सीमा को छूती अपनी अव्यावहारिकता की खिल्ली उड़ाना भी.

बंगले पर होने वाली बातचीत में भगवान सिंह बात पर कब्जा स्वयं जमाए रहते थे. बोलने का धर्म वह निभाते और सुनने का हृदयेश और अपना-अपना धर्म निभाने में दोनों सुख पाते थे. वह उपन्यास के पूरा कर लिए गए अध्याय को भी सुनाते थे और उनकी प्रतिक्रिया चाहते थे. जब वह कहते थे कि हर बिन्दु पर अध्याय में लम्बे-लम्बे विमर्श हैं और वह बौद्धिकता से बोझिल है, तो वह हँस देते थे, ‘मैं बौद्धिक तो हूँ ही.’ उनका वह दावा असत्य नहीं है;, हृदयेश ऐसा अनुभव करते थे. साहित्य के अलावा भी विभिन्न सामाजिक अनुशासनों पर उनकी पुख्ता पकड़ थी. वह पढ़े और गुणे हुए दोनों थे.

उन्होंने दिल्ली से अपना कंप्यूटर मंगवा लिया था और सीधे उसी पर लिखते थे. वह छह-सात घंटे कम्प्यूटर पर बैठकर दस-पन्द्रह पृष्ठ तक का लेखन मजे से कर लेते थे.

हृदयेश अपनी मेज पर इतने समय तक बैठकर एक-एक वाक्य को कलम से जोड़ते-बैठाते हुए बमुश्किल एक या डेढ़ पृष्ठ लिख पाते थे. भगवान सिंह को आश्चर्य होता था, इतना कम.

‘भाई साहब, आप पेट्रोल पीकर लिखते हैं जबकि मैं पानी पीकर. रफ्तार में फर्क तो होगा ही.’ भगवान सिंह का उपन्यास ‘अपने अपने राम’ उन्होंने पढ़ रखा था. उसमें लोग मानस में गहरी पैठ बना चुके राम, भरत, वसिष्ठ जैसे देव-पात्रों से संबंधित मिथकों को खंडित किया गया था, किन्तु कथा-प्रवाह को संवेदनात्मक बनाए रखकर. वह बातचीत में जब तब उस उपन्यास की सराहना करते थे. भगवान सिंह ने उनको इसके बाद का अपना लिखा दूसरा उपन्यास ‘परमगति’ पढ़ने को दिया था, एकदम उसे नए शिल्प में रचा हुआ बताते हुए. वह पूरा पद्य में लिखा गया था. उसकी सार्थक प्रयोगधर्मिता को लेकर वह आत्मसंतुष्ट थे. प्रौढ़ रचनाकार भी अपने लिखे हुए का सही मूल्यांकन करने से प्रायः चूक जाता है भले ही वह दूसरों का सही-सही करता हो. उन्होंने पढ़कर प्रतिक्रिया में कहा था, यह अपने से केवल अतिसहिष्णु, अति उदार और अति धैर्यवान पाठक ही जोड़ सकता है.

भगवान सिंह को अपने को ताजा रखने के लिए उनके साथ की जरूरत थी और उनको अपने ज्ञान के संवर्धन के लिए उनकी.

‘उन्माद’ पूरा कर भगवान सिंह दिल्ली लौट गए थे. पोढ़ी लेखकीय हैसियत व अपने मानीखेज रसूखों की वजह से उन्होंने प्रथम पंक्ति के प्रकाशकों में से एक से उपन्यास के प्रकाशन की बात पहले ही पक्की कर ली थी.

आठ-नौ माह बाद भगवान सिंह शाहजहाँपुर फिर आए थे. भाई अभी यहीं तैनात थे. इस बार वह विदेश में बस गए अपने एक मित्र के लिए अप्रकाशित उपन्यास की पुनःरचना करने के उद्देश्य से आए थे. उनके अपने शब्दों में ‘उद्धार करने.’

उनके दुबारा आगमन की सूचना पाकर हृदयेश का उनके पास बैठने, गपियाने, कुछ अर्जित करने का सिलसिला फिर शुरू हो गया था. वह आम का ही मौसम था, जून-जुलाई का महीना. भगवान सिंह ने बताया था कि आम खिलाने के वास्ते वह साथ में नामवर सिंह को भी लाना चाहते थे. बात तय हो चुकी थी. किन्तु नामवर सिंह के इस बीच एकाएक बन गए कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के कारण उनका यहाँ आना रद्द हो गया. नामवर सिंह जाते तो वह उनकी भी उनसे भेंट-मुलाकात कराते. नामवर सिंह की बौद्धिकता उनकी कद्दावर शख्सियत को लेकर हृदयेश में आतंक था. नामवर सिंह से मिलते, बात करते हुए वह सहज नहीं रह पाते.

भगवान सिंह को, जो उनके तब तक पढ़े गए उपन्यासों से संतुष्ट नहीं थे, और जिन्होंने उनमें से कई के अच्छे बनते-बनते रह जाने के लिए दो-बार चूकों या कुछ जरूरी तत्वों, सावधानियों की अनदेखियों की ओर इशारा किया था, उनको उन्होंने अपना बाद में प्रकाशित उपन्यास ‘पगली घंटी’ पढ़ने को दिया था. पढ़ चुकने के बाद बोले थे, ‘यह बेहतर रचना है. हिन्दी में जेल जीवन पर लिखा गया कोई उपन्यास है भी नहीं.’ उन्होंने अपने भाई से उस उपन्यास की पढ़ने की सिफारिश की थी और उसे रोक भी लिया था.

प्रतिक्रिया से उत्साहित होकर उन्होंने अपना ताजा निकाला कहानी-संग्रह ‘सम्मान’ पढ़ने को दिया. उनकी कहानियाँ उन्होंने बहुत कम पढ़ी थीं. संग्रह पर उनकी प्रतिक्रिया और भी सराहना लगी थी, ‘उपन्यासकार के मुकाबले आपका कहानीकार कही अधिक वयस्क, कहीं अधिक समझदार है. संग्रह की कई कहानियों में औपन्यासिक विस्तार है.’

इस बार वह दिल्ली जल्द ही लौट गए थे.

कुछ समय बाद भगवान सिंह का पत्र आया था, ‘आपकी कहानियों पर मेरा लिखने का मन बना है’

उन्होंने उनको अपना वह विचार कुछ समय के लिए स्थगित करने की सलाह दी थी, ‘मेरा किताबघर से नयी कहानियों का संग्रह दो-एक माह में आने वाला है. कृपया इस संग्रह की कहानियों पर भी आप पहले नजर डाल लें.’

उत्तर आया, ‘लिखने का ताप मुझमें अभी है. ताप ठंडा नहीं होना चाहिए. आप प्रकाशक से कहकर मुझे संग्रह की डमी तुरन्त भिजवा दें.’

डमी उनको भिजवा दी गयी.