आत्म-कथ्य : हृदयेश / पृष्ठ 4

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हृदयेश ने उससे पूर्व नेशनल पब्लिशिंग हाउस से निकला संग्रह ‘नागरिक’ भी प्रकाशक को लिखकर भिजवा दिया. फिर अपनी चार-पाँच प्रतिनिधि कहानियों की छाया प्रतियाँ भी. उनका मानना था कि सही और पूर्ण मूल्यांकन के लिए पर्याप्त सामग्री सामने होनी चाहिए.

उन्हीं दिनों डॉ. प्रदीप सक्सेना का अलीगढ़ से पत्र आया था कि ‘समय माजरा’ पत्रिका से उन्होंने उसमें एक लेख देने का वादा कर रखा है. वह चाहते हैं कि उनकी कहानियों पर लिखकर इस वादे को वह पूरा कर दें. एक वादा उन्होंने उनसे भी कर रखा है कि वह उनकी कहानियों पर लिखेंगे. उनके कहानीकार को विषय बनाने से दोनों ही वादे एक साथ पूरे हो जाएंगे.

प्रदीप सक्सेना ने उनके उपन्यासों पर ‘गांठ’ से लेकर ‘सांड’ तक पर, जो तब तक प्रकाशित हुए थे, एक आलोचनात्मक आलेख लिखा था. इस आलेख में उनके सोच व सरोकार की सकारात्मकता के साथ उनकी नकारात्मकता पर भी अंगुलि रखी गयी थी. विकास-क्रम का ग्राफ कहाँ नीचे गिरा इसको भी बेबाकी से बताया गया था. उस आलेख में सब-कुछ पक्ष में नहीं था. फिर भी ‘आलोचना’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उन पर लिखा जाना उनकी लेखकीय सेहत के लिए वह टॉनिक था. फोकस डाला जाना उनके अंधेरे से निकालना जैसा था. प्रदीप सक्सेना और उनके बीच खुलापन था, कुछ इतना कि संकोचता निस्संकोचता में बदली जा सकती थी. उन्होंने ही प्रदीप सक्सेना से कहा था कि उपन्यासों के बाद वह अब उनकी कहानियों पर भी कहीं लिखें. तीन-बार अपनी इस इच्छा का स्मरण भी कराया था. प्रदीप सक्सेना ने वैसा मन बना लिया है, यह जानकर उन्होंने प्रदीप सक्सेना को उनके पास गैर मौजूद संग्रहों को यथाशीघ्र मौजूद करवा दिया था. कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित नई कहानियों की जीराक्स कापियाँ भी रवाना कर दी थीं.

फिर इसी के आसपास एक और प्रस्ताव, वैसा ही सुहावना, मनभावना और उत्साहवर्धक. बल्कि कहा जाए अपने में पारस पत्थर जैसा बहुमूल्यवान. यह प्रस्ताव इलाहाबाद से विद्याधर शुक्ल का आया था, जिन्होंने अपनी पत्रिका ‘लेखन’ के कुछ अंक निकाले थे, जिनमें से निराला स्मृति अंक अति महत्वपूर्ण था. विद्याधर ने पत्र में लिखा था कि ‘लेखन’ के 6,7 व 8 सामान्य अंक होंगे. वह ‘लेखन’ 6 से नयी कहानी के बाद के जनधर्मी कहानीकारों पर मूल्यांकनपरक एक लेखमाला शुरू कर रहे हैं. अंक 6 में इसराइल पर और अंक 7 में उनपर उनके लम्बे लेख होंगे. वह उनके चहेते कहानीकार हैं, एक मुद्दत से. वह सही को सही और गलत को गलत कहे बिना रह नहीं सकते हैं. उनको साहित्य से कुछ पाना नहीं है, देना ही देना है. ‘वर्तमान साहित्य’ के कहानी महाविशेषांक में प्रकाशित उनकी कहानी ‘मनु’ ही सर्वश्रेष्ठ थी, लेकिन खंजड़ी बजी ‘ए लड़की’ की. ‘ए लड़की’ यानी खाए अघाए लोगों की आत्मरति.

विद्याधर शुक्ल ने पत्र के अंत में लिखा था कि उनकी सम्पूर्ण कहानियों से गुजरना अब उनके लिए अत्यावश्यक हो गया है. उनके पास बस दो ही संग्रह हैं. अकिंचनता के चलते उनके लिए अन्य संग्रह खरीदना सम्भव नहीं हो पाया है. यदि उनके पास संग्रहों की अतिरिक्त प्रतियां हों तो वह उनको भिजवा दें.

उन्होंने विद्याधर शुक्ल को भी संग्रहों की प्रतियां जुटाकर भिजवा दी थीं.

पाँच-छह माह के समय के छोटे से टुकड़े में आगे-पीछे तीन महती संभावना गर्भित प्रस्तावों का द्वार पर आकर मुखर थापें देना उनको लगा था कि उनके भाग्य की शुभ रेखाएँ जाग्रत हो गयी हैं, या शनि जैसे उत्पाती ग्रहों ने भी अनुकूल ग्रहों में स्थान ग्रहण कर लिया है. उन्होंने अपनी हस्तरेखाएँ कभी किसी सामुद्रिक से परखवायीं नहीं थीं यों बड़े भाई के परिवार में इस विषय में गहरी आस्था होने के कारण जब-तब इस विद्या के पंडित बने व्यक्ति पधारते रहते थे. उनका जन्म-पत्र एक मुद्दत से गुम था, चालीस-पचास वर्षों से और इसको लेकर उनको कभी कोई खास मलाल नहीं हुआ था. उनकी राशि क्या है, इसका उन्होंने कभी पता नहीं लगाया. उनके नाम के आद्याक्षर के आधार पर किसी ने राशि मिथुन निश्चित की थी. उसे यदि उन्होंने सही नहीं माना था तो गलत भी नहीं. हस्तरेखाओं या ग्रहों के प्रभावों पर उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया. उनके पत्रकार पुत्र ने उनको बताया था कि जब कभी उसके दैनिक-पत्र में साप्ताहिक भविष्यफल के लिए संबंधित ज्योतिषी से किसी कारणवश समय पर सामग्री नहीं आ पाती है, कभी पहले प्रकाशित हो चुकी सामग्री को पच्ची कर दिया जाता है. बावजूद इस सबके कभी-कभी घिर आयीं एकदम प्रतिकूल या अनुकूल स्थितियों ने हस्तरेखाओं या ग्रहों की भूमिका के बारे में उनमें एक जिज्ञासा भाव कुनमुनाया था. गूढ़ संस्कारों से मुक्त हो जाने के बाद भी उसके कुछ रग-रेशे अन्दर बने जो रहते हैं.

फिर प्रस्तावों का मात्र प्रस्ताव रह जाना या उनका मरीचिका बन जाना या उनमें गर्भित महत्ती संभावनाओं का भ्रूणपात हो जाना.

विद्याधर शुक्ल की ओर से एक लम्बी चुप्पी की ओट खड़ी कर ली गयी. दीवार में सेंघ लगाने के लिए उन्होंने तीन-चार माह बाद पत्र लिखा. मगर सेंघ लग नहीं सकी. फिर बड़े अंतराल के बाद प्रयास किया, मगर सफलता नहीं मिली. ठहर-ठहर कर किए गए कई प्रयासों के बाद ईंट हिली.

‘हृदयेश जी, लघु-पत्रिका निकालने के लिए जिन साधनों की जरूरत होती है, विशेषकर धन की, उसकी व्यवस्था अभी कर नहीं सका हूँ. अंक निकालने में अभी समय लगेगा.’

उन्होंने सुझाव दिया, ‘क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि इन स्थितियों में आप अपना प्रस्तावित लेख किसी उस दूसरी पत्रिका को दे दें जिसे आप सही समझते हों.’

हिली ईंट को मजबूती से जड़ दिया गया.

दो वर्ष बाद ‘लेखन’ का अंक आया. उत्सुकता से लौटने पर देखने को मिली उनके अपने एक कहानी-संग्रह पर मात्र छोटी-सी समीक्षा, वह भी थी आलोचना का ककहरा सीख रहे किसी विद्यार्थी की लिखी हुई.

प्रदीप सक्सेना ने भी चुप्पी की ओट ले ली थी. पत्र डालने पर उत्तर आया, ‘भाई साहब, मैं अपने बेटे को लेकर मानसिक विचलन में हूँ. ट्यूशन लगवा देने के बावजूद बेटे की पढ़ाई की गाड़ी ठीक से बढ़ नहीं पा रही है.’

इसके बाद डाले गए पत्र का उत्तर था, ‘मकान बन रहा है. इधर सारी शिक्षेत्तर गतिविधियां उसी को लेकर हैं.’

अगले पत्र का उत्तर था, ‘कुछ बड़ी योजनाएँ हाथ में ले ही हैं. अभी उन्हीं पर काम करना है.’

नारायण बाबू ने हस्तक्षेप किया, ‘भाई साहब, आप अपने मित्र प्रदीप सक्सेना की विवशताओं को समझदारी से समझिए. उनके पास करने को जो अब काम आ गए हैं, वे आप वाले काम से ज्यादा जरूरी होंगे. आपने ही एक बताया था कि लेनिन को किसी पत्रिका के लिए गोर्की के एक लेख की आवश्यकता थी. गोर्की से उसके लिए आग्रह करते हुए लेनिन ने लिखा था कि यदि उनकी संलिप्तता किसी अधिक महत्वपूर्ण कार्य में हो तो वह उनकी मांग को निस्संकोच नजर अन्दाज कर सकते हैं. लेनिन जैसा आचरण, भाई साहब, आप भी अपनाइए.’

भगवान सिंह के सान्निध्य से प्राप्त अपने अनुभवों के आधार पर वह उनको सहज ही ईमानदार मान सकते थे बतौर एक लेखक और व्यक्ति दोनों. उनके व्यवहार में खरेपन की खुरखुराहट थी, पर साथ ही वहां बनी पारदर्शिता उस खुरखुराहट को महसूस नहीं होने देती थी. प्रदीप सक्सेना में भी यों ये ही विशेषताएँ थीं, पर स्थितियाँ जन्य विवशताएँ वहां बड़ी बन गयी थीं. भगवान सिंह अपनी वचनबद्धता निभाएंगे, उनसे ऐसी आशा अधिक थी. इसलिए भी कि ढांचों में वही अंतिम व्यक्ति थे.

भगवान सिंह को यथास्थिति जानने के लिए पत्र डाला गया. उत्तर आया, ‘ताप जाता रहा है. उसके वापस आने की प्रतीक्षा है.’

एक बड़े वक्फे के बाद फिर पत्र डाला, ‘ताप वापस आया या अभी दूरस्थ है?’

उत्तर, ‘इधर एक पुस्तक की समीक्षा करने को आ गई थी. दो-एक लेख भी लिखने पड़े. आ गया दूसरा काम पहले वाले काम को पीछे ठेल देता है.’

एक और बड़े वक्फे के बाद फिर पत्र डाला. इस बार उत्तर की बजाय खामोशी. नारायण बाबू ने कहा कि हो सकता है आपका पत्र कहीं रास्ते में गुम हो गया हो. आपको मुद्दे पर सीधे लिखते हुए अगर संकोच होता हो तो दीपावली, नववर्ष पर शुभकामनाएँ भेजिए. ये शुभकामनाएँ भी उनको आप वाले काम का स्मरण कराती रहेंगी.