आत्म-कथ्य : हृदयेश / पृष्ठ 5

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भेजी गयी शुभकामनाओं की एवज में कभी प्रतिशुभकामनाएँ आ जाती थीं, कभी वे भी नहीं. चन्द्रमोहन दिनेश ने भगवान सिंह को फोन किया था. भगवान सिंह के शाहजहाँपुर प्रवास के दिनों में चन्द्रमोहन प्रायः उनके साथ भगवान सिंह से मिलने जाते थे और उनका बताया हुआ कोई काम भी सोत्साह कर देते थे. वह जिलाधीश के वैयक्तिक सचिव थे. उन्होंने यह फोन अपनी ओर से किया था, यो ही हालचाल लेने के लिए. उनको इस बात का इल्म भी नहीं था कि भगवान सिंह ने कोई लेख लिखने का वादा हृदयेश से कर रखा है. फोन पर हुई बातचीत में भगवान सिंह ने चन्द्रमोहन से कहा कि वह हृदयेश जी को बता दें कि उनपर उनको लेख लिखना है, पर वह लेख कब लिखा जाएगा इसे वह स्वयं भी नहीं जानते हैं. संदेश पाने पर मन बसा रहे दूध से दही बन गया. भगवान सिंह ने फोन के चोंगे के पीछे उनकी उपस्थिति पायी थी.

उन्होंने नारायण बाबू से कहा, ‘आप सलाह देंगे तब भी मैं इस विषय में अब किसी भी प्रकार का कोई सम्पर्क नहीं साधूंगा. वैसा करने पर मैं खुद अपनी निगाह से गिर जाऊँगा.’

उनकी ओर से भी खामोशी.

नहीं, उन्होंने फिर पत्र लिखा ता, कई माह बाद और एक दूसरे संदर्भ में. रवीन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘पत्थर ऊपर पानी’ पूरा का पूरा ‘कथादेश’ के एक अंक में प्रकाशित हुआ था. भगवान सिंह ने पत्रिका में पाठकीय प्रतिक्रिया स्वरूप उस उपन्यास की जमकर प्रशंसा की थी. उतनी प्रशंसा उनको सही नहीं लगी थी. उन्होंने पत्रिका को न लिखकर सीधे भगवान सिंह को लिखा था कि वह उनकी धारणा से असहमत हैं क्योंकि उपन्यास में दर्शन की बघार ज्यादा है. इसने उसे पाठकीय स्वाद की दृष्टि से कुछ बेस्वाद कर दिया है. भगवान सिंह ने उत्तर देते हुए लिखा था कि कृति में दर्शन का होना बुरा नहीं होता है. असल में जैसे हमारी रुचि, प्रकृति, अनुभव, की भिन्नता हमारी सर्जना को प्रमाणित करती है और हमें एक खास तरह का लेखक बनाती है, उसी तरह हमें एक खास तरह का पाठक भी बनाती है. फिर इसी पत्र में उन्होंने उनपर न लिख सकने का स्वतः स्पष्टीकरण दिया था कि वह अभी निष्क्रियता के दौर से गुजर रहे हैं. उनपर जो कुछ लिखना शुरू किया था वह अभी वहीं ठहरा हुआ है जहाँ व्यवधान आया था. लिखा हुआ अंश वह साथ में भेज रहे हैं. पर यह इस बात का संकेत नहीं कि इसकी यहीं इतिश्री है. संकेत यह कि इसे लिखने की भीतर से उठी उमंग अभी स्थगित है.

उनपर लिखा वह अंश पाँच-छह सौ शब्दों का था. शीर्षक दिया गया था ‘मिट्टी के भी होते हैं अलग-अलग रंग.’ भगवान सिंह ने लेख की शुरूआत यह बताते हुए की थी कि हृदयेश हिन्दी के उन रचनाकारों में हैं जिनका अपना रंग है और इसके बाद भी वह बहुतों के इतने करीब पड़ते हैं कि उनका अलग रंग पहचान में नहीं आता. इस प्रसंग में अन्य रचनाकारों के साथ प्रेमचंद का नाम भी लिया गया है. यदि हृदयेश किसी परम्परा में आने का प्रयत्न करते तो वह हृदयेश नहीं हो सकते थे. खुदा जैसा बनने का प्रयत्न करने पर खुदी को गंवाना पड़ता है.

फिर उन्होंने हृदयेश की ओर लोगों का उचित ध्यान न देने के लिए इसका एक कारण उनके शहर शाहजहाँपुर का बताया था जो भारत के मुख्य भू-भाग से अलग छिटके हुए एक द्वीप जैसा है. यह भी संभावना उनके नाम के आधार पर प्रकट की थी कि उन्होंने अपने लेखन का प्रारम्भ कविता से किया होगा. अगले पैराग्राफ में उनका कथन था कि यदि हृदयेश अधिक पढ़े होते तो वह जो कुछ लिखते उसमें हृदयेश की दुनिया से लेकर किताबों की वह दुनिया भी समाई होती जिसके होने से उनका रचा हुआ संसार फैलने के अनुपात में ही बेगाना भी होता जाता. संभाल न पाने पर कुछ बोझिल और अनगढ़ भी. उनकी कहानियाँ जिन्दगी से, खासकर उस जिन्दगी से, जिसमें मुक्तिबोध के मुहावरे के अनुसार आदमी जमीन में धंसकर भी जीने की कोशिश करता है, पैदा हुई हैं. कुछ लेखक सीधे जमीन फोड़कर निकलते हैं. उसी में अपनी जड़ों का विस्तार करते हैं और नम्र भाव से अपने रेशे से उस जमीन से ही अपनी शक्ति, खाद-पानी लेकर बढ़ते हैं और अपने और जमीन के बीच आसमान को नहीं आने देते हैं. वे इस सत्य को बखूबी समझते हैं कि आसमान जितना भी ऊँचा हो, उस पर किसी के पाँव नहीं टिकते. औंधा लटका हुआ बिरवा तो किसी को छाया तक नहीं दे सकता. मंटो हों या हृदयेश या छेदीलाल गुप्त, ये कलम से लिखते हैं तो भी लगता है जैसे कोई जमीन पर धूल बिछाकर उस पर अपनी उँगली घुमाता हुआ कोई तस्वीर बना रहा हो. उनकी उंगलियों के स्पर्श में ही कुछ होगा कि आंधियां तक वहाँ आकर विराम करने लगती हैं और उनकी लिखत, जिसने भांड लेख होने तक का भ्रम नहीं पाला था, शिलालेख बनने के करीब आ जाता है.

फिर इसके आगे यह बताते हुए कि हृदयेश ने बीच-बीच में आने वाले तमाम आंदोलनों को गुजर जाने दिया बिना अपने लेखकीय तेवर या प्रकृति में बदलाव लाए हुए, कि वह चुनाव पूर्वक अपनी जमीन पर टिके रहे न दैन्यं न पलायनम्, कि हृदयेश एक साथ कई परम्पराओं से जुड़ते हैं क्योंकि प्रत्येक रचानाकार अपने वरिष्ठों, समवयस्कों, यहाँ तक कि अल्पवयस्कों की कृतियों के प्रभाव को अपनी अनवधानता में सोख लेता है जैसे पौधे की जड़ें खाद के रस को सोख लेती हैं, लेख को असमाप्त छोड़ दिया था, कोई व्यवधान आ जाने के कारण.

अंश को पढ़कर उनमें हूक उठी थी गर्म उसांसों से भरी हुई. काश भगवान सिंह लेख को पूरा कर डालते भले ही उसे अधिक न बढ़ाते. उन्होंने जो लिखा है सराहना भरा, उनको जमीन से दो इंच नहीं पूरे दो मीटर ऊँचा करता हुआ, सिद्धों की पंक्ति में बैठाने वाला, उनका वह अभिमत उन्हीं तक रह गया है, केवल उन्हीं तक, किसी बंद कमरे में दो मौजूद व्यक्तियों में से एक के द्वारा दूसरे के बारे में कोई उम्दा टिप्पणी की गयी जैसा. लेख प्रकाशित होने पर दूसरे उनके लेखन की विशेषताओं के बारे में जानते. आलोचकों, संपादकों और प्रकाशकों के बीच उनकी स्वीकार्यता सुदृढ़ हो जाती. तब मोर जंगल में न नाचकर बस्ती में नाचता.

अंश वह दुबारा-तिबारा पढ़ लेते और हर बार यह चाहना बेचैनी भरी हो जाती. किन्तु उन्होंने भगवान सिंह को लेख पूरा कर लेने के लिए लिखा नहीं. पहले लिखे गए अपने किसी पत्र में उन्होंने उनको उस वचनबद्धता से मुक्त कर दिया था, ‘बाप अपने को उस वादे से बंधा हुआ न मानिए. सहज भाव से अन्य महत्वपूर्ण कार्य करिए.’

जब एक लम्बा समय बीत जाने पर भी व्यवधान को परे ढकेल देने वाली उमंग उधर न उठी, उन्होंने मान लिया कि उस लेख की वही नियति थी.

और पीछे. काफी पीछे, यानी सन् 1968 या 69 का वर्ष.

आहत प्रसंग मानव-स्मृति में अपने निशान गहरे छोड़ते हैं, वर्षों-वर्षों तक बने रहने वाले. उन प्रसंगों की छटपटाहट, खड़क अन्तस के कोमल पटल को रगड़ती, छीलती जो रहती है. या फिर यह कि मानव-स्मृति दुःखी, पीड़ित प्रसंगों को संरक्षा देने में अधिक सचेत, अधिक उदार रहती है. हृदयेश को कहानियाँ लिखते लम्बा समय हो गया था, पन्द्रह-सोलह वर्ष का. प्रकाशित कहानियों की संख्या पचास-साठ हो गई थी, जिसमें से अनेक ‘कल्पना’, ‘कहानी’ ‘ज्ञानोदय’ ‘धर्मयुग’ जैसी प्रथम पंक्ति की पत्रिकाओं में स्थान पा चुकी थीं. किन्तु उनका कोई कहानी संग्रह आया नहीं था. उनमें इसको लेकर बेकली थी, कुछ तेज ही. कई प्रकाशकों को लिखा था. या तो उधर से मौन साधकर मनाही या लिखित शब्दों द्वारा. जारी प्रयासों के क्रम में उन्होंने इलाहाबाद के अभिव्यक्ति प्रकाशन से सम्पर्क किया था. प्रकाशक नया है किन्तु सही पुस्तकें सही ढंग से निकाल रहा है, ऐसा पता चला था. लिखते हुए उन्होंने यह भी लिखा था कि अपने ‘लेखकीय अवदान की दृष्टि से वैसा हकदार होते हुए भी उनकी अभी तक कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है और बहुत जरूरी होने पर वह पाँच-सौ रुपए तक बतौर सहयोग राशि दे सकते हैं. प्रकाशक का तुरन्त उत्तर आ गया कि उनकी यह बात उसको छुई है कि पुस्तक निकालने के हकदार होते हुए भी वह अभी तक यह हक पा नहीं सके हैं. वह उनकी पुस्तक अवश्य प्रकाशित करेगा. सवा-सौ से डेढ़ सौ पृष्ठों के संग्रह के लिए वह चुनकर अपनी कहानियाँ भेज दें. साथ में पाँच सौ रूपए का ड्राफ़्ट भेजना वक्त का तकाजा ही मानें.’


उन्होंने वह सब भेज दिया था. उस समय पाँच-सौ रुपए एक बड़ी रकम होती थी. उन जैसी दुर्बल आर्थिक स्थिति वालों के लिए और भी बड़ी. उन रुपयों का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने उधार लेकर जुटाया था.

संग्रह छह माह के भीतर निकलना था, मगर निकला नहीं था. पत्र डालने पर उत्तर आया कि प्रकाशन शिड्यूल गड़बड़ा गया था. व्यवस्था ठीक होते ही संग्रह निकल जाएगा.

गड़बड़ाया शिड्यूल ठीक हो नहीं रहा था. समय बीतता जा रहा था.