आवरण / पवन करण / दराबा / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत की सामाजिक संरचना की तह और सतह पर जो बदलाव आए, आजादी के बाद की पूँजी और राजनीति, भारतीय समाज की मानसिकता में जो परिवर्तन लेकर आई, हम उसे दराबा में देख सकते हैं। दराबा स्वतंत्रता के दशक से सदी के अंतिम दशक तक समाज में आए इस पतनशील बदलाव की अपनी नुकीली औजार-गति से शल्य चिकित्सा करता है। आजादी के आंदोलन, देश के विभाजन, नेहरू युग से स्वप्नभंग, राजनैतिक पतन, धार्मिक अराजकता और नैतिक मूल्यों में आए हास को हम इस उपन्यास में पढ़ते हैं।
इसका हटकर होना इस वजह से भी है कि किसी समाजशास्त्री की तरह इसमें समाज की आँख से, एक परिवार, एक कस्बे, एक शहर, राज्य और देश के कोने-कोने में गुथे-बिंधे जीवन को नहीं देखा गया है बल्कि एक लेखक की पीड़ा ने एक परिवार के माध्यम से उस दौर में सम्पूर्ण भारतीय समाज में आए बदलाव को देखने की महीन कोशिश की है। अपनी भलमनसाहत में लेखक ने भले ही इसे काल्पनिक कथा कहा हो लेकिन इसे वास्तविक कथा कहा जाना ही इसके साथ न्याय करना होगा। एक ऐसी कोशिश जो इस बीच मनुष्यता, नैतिकता, व्यवहार, विचार और इच्छाओं में आए क्षरण की वेदना को कहती चलती है।
कथानक में जगह-जगह लेखक की टिप्पणियों की इतनी तार्किकता है कि वह इस उपन्यास को इस अवधि में समाज में आए बदलाव पर लिखे उपन्यासों की श्रेणी में खुद को खड़ा करने की विनम्र कोशिश करती है। पाठक को खुद को नोंचकर होश में आने के लिए इस तरह से विवश करती है कि वह यह चुन सके कि उपन्यास में जो आत्माराम, महेश, कैलाश, प्रताप, विशाल खाँ, सीता, नफीसा, नवाब जान और जोया हैं, उस दौर में वह उनमें से कौन है।
जहाँ तक दराबा के स्वाद का प्रश्न है तो अपने प्रारंभमें वह मीठा, मध्य में कड़वा और तीखा तथा अंत में आजादी के स्वाद की तरह ठीक आँसू जैसा खारा हो जाता है।