एक अबूझ भाषा का रहस्य / सुनो बकुल / सुशोभित

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एक अबूझ भाषा का रहस्य
सुशोभित


सभी पुरातन नागरी सभ्यताओं में से एक सिंधु घाटी सभ्यता ही ऐसी है, जिसकी लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।

यही कारण है कि इसे तमाम सभ्यताओं में सबसे रहस्यपूर्ण माना जाता है। कोई एक सहस्राब्दी तक फलने-फूलने के बाद इसका सहसा लुप्त हो जाना भी पुराविदों को चकित करता रहा है।

यह भी ज्ञात नहीं हो सका है कि हड़प्पा सभ्यता की लिपि किस प्रकार की थी : क्या वह "क्यूनीफ़ॉर्म" स्क्र‍िप्ट है, जैसे कि बेबीलोन में पाई गई। या वह "हाइरोग्ल‍िफ़" स्क्र‍िप्ट है, जैसी कि मिस्र में पाई गई है। वह "अल्फ़ाबेट" पर केंद्रित है या "सिलेबरी" पर। विद्वान कहते हैं दोनों ही नहीं।

शायद वह "लोगोग्राफ़िक-सिलेबिक" लिपि है, शायद नहीं। इतना तो तय है कि वह बहुत चित्रात्मक या "पिक्टोरियल" लिपि है, लेकिन उसकी गुत्थी सुलझने नहीं पाती।

एक बार यह पता चले कि लिपि कौन-सी है, तब जाकर इसका पता लगाएं कि भाषा कौन-सी है। वह संस्कृत का आदिरूप है या किसी द्रविड़ भाषा का?

एन. झा और एन.एस.राजाराम जैसे विद्वानों ने सिंधु घाटी की लिपि पर वैदिक प्रभावों का दावा किया है। उन्होंने कहा है कि इस लिपि की शैली वैदिक सूत्रों और ऋचाओं के अनुरूप है। दो-एक मुद्राओं पर "यास्क" का नाम पढ़ने की भी बात कही है। ग़ौरतलब है कि "यास्क" वैदिक शब्दावली "निघंटु" के टीकाकार थे और उनकी टीका को "निरुक्त" कहा जाता है। लेकिन पुष्ट‍ि इसकी की नहीं जा सकी है।

सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि सिंधु घाटी सभ्यता की मुद्राओं पर सामान्यत: पांच से अधिक अक्षर नहीं पाए जाते हैं। एक अभिलेख पर अक्षरों की अधिकतम संख्या 26 तक पहुंची है, जिसे धोलावीरा से प्राप्त एक पट्ट‍िका पर पाया गया था, लेकिन उस सांसें थाम देने वाली बरामदगी के बावजूद उसे पढ़ा नहीं जा सका।

याद रहे, "इजिप्श‍ियन सिविलाइज़ेशन" की लिपि को वर्ष 1799 में तभी पढ़ा जा सका था, जब "रोसेत्ता स्टोन" बरामद हुआ था, जिस पर एक लंबा-चौड़ा अभिलेख उत्कीर्ण था। "ब्राह्मी" लिपि को भी कालांतर में इसी तरह पढ़ा जा सका। लेकिन सिंधु घाटी सभ्यता से ऐसा कोई बड़ा अभि‍लेख प्राप्त नहीं हुआ है।

अलबत्ता यह मानने वाले कम नहीं हैं कि सिंधु लिपि या सरस्वती लिपि से ही ब्राह्मी लिपि का आविर्भाव हुआ है।

सुमेर और बेबीलोन से हड़प्पावासियों के व्यापारिक रिश्ते थे।

पुराविद इस खोज में भी हैं कि अगर कोई "बायलिंग्वल" सील प्राप्त हो जाए, जिस पर एक तरफ़ सुमेर या मेसापोटामिया की लिपि हो और दूसरी तरफ़ सिंधु घाटी की, तब उसका लिप्यांतर पढ़ा जा सकेगा। अभी तक ऐसी कोई द्व‍िभाषी सील भी नहीं मिली है। यह भी पता नहीं चल सका है कि उस लिपि में कितने वर्ण या स्वर थे : 12 से लेकर 958 तक इनकी गणना की जाती है।

"एकसिंगा" (यूनिकॉर्न) और "पशुपति" और "मातृका देवी" की रहस्यपूर्ण आकृतियों वाली हड़प्पाकालीन मुहरों को जब तक पढ़ा नहीं जा सकेगा, सिंधु घाटी सभ्यता और मोहनजोदड़ो का रहस्य बना ही रहेगा।

वैदिक-सनातन परंपरा का, आर्यों का भारतभूमि से क्या नाता है, इसकी अंतिम पुष्ट‍ि भी इसी से हो सकेगी, जब यह जाना जा सकेगा कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग क्या सोच रहे थे, किन प्रतीकों को पूज रहे थे और किन भाषाई रूपकों को वे रच रहे थे।