जयपुर का नक़्शा / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
भला कौन विश्वास करेगा कि राजपूतों की रजधानी का ख़ाक़ा एक बंगाली ने खींचा था और तब उसका प्रामाणिक इतिहास भी दो बंगालियों ने ही लिखा!
किंतु यही तथ्य है कि महाराजा सवाई जयसिंह के आग्रह पर एक सुनियोजित नगर के रूप में जयपुर का नक़्शा खींचने वाले व्यक्ति का नाम था- विद्याधर भट्टाचार्य, और बाद उसके जयपुर के इतिहास का प्रामाणिक अध्ययन कर उसका वृत्तांत रचने वाले विद्वानों के नाम थे- डॉ. असीम कुमार राय और जदुनाथ सरकार। इधर मानोषी भट्टाचार्य ने भी "द रॉयेल राजपूत्स" पर एक चित्ताकर्षक पुस्तक लिखी है!
विद्याधर, असीम और जदुनाथ के बहुत साल बाद सत्यजित राय ने भी एक फ़िल्म बनाई, जिसमें एक बालक को सोने के एक दुर्ग के दु:स्वप्न आते थे। सत्यजित को भी अपनी फ़िल्म के "गोल्डन फ़ोर्ट्रेस" की तलाश करने राजस्थान ही आना पड़ा। वो क़िला था- जैसलमेर का दुर्ग, और फ़िल्म थी- "सोनार केल्ला।" लगभग समग्र ही राजस्थान में फ़िल्माई गई वो इकलौती बांग्ला फ़िल्म है!
भारत देश में ऐसे ही इतिवृत्तों से पूरब-पच्छिम का मेल होता रहता है और अद्वैत की भावना से गंगा-सिंधु एक होती रहती हैं।
यों, विद्याधर भट्टाचार्य का नगर-नियोजन से कोई सीधा सरोकार न था। वे तो आमेर के महक़मा-हिसाब में नायब-दरोग़ा के पद पर काम करते थे। किंतु वे भारतीय वास्तुकला और शिल्पकला के गहरे जानकार थे और महाराजा सवाई जयसिंह ने उनकी इस प्रतिभा को ताड़ लिया। प्रतिभा की परख करना भी स्वयं एक प्रतिभा है, इस बात को, अफ़सोस है कि, लोक और इतिहास में उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना कि दिया जाना चाहिए। क्योंकि ऐसे पारखियों ने ही जाने कितने यशस्वी प्रवर्तनों का प्रतिपादन किया है।
जब महाराजा सवाई जयसिंह अपने राज्य की राजधानी को आमेर से जयनगर ले आए तो इस नए नगर के आकल्पन का दायित्वभार उन्होंने विद्याधर को सौंप दिया। विद्याधर ने उन्हें निराश नहीं किया और "ग्रिड-आयरन पैटर्न" पर समान प्रखंडों में विभक्त एक सुनियोजित नगर की कल्पना की, जिसकी चौड़ी सड़कें समकोण पर एक-दूसरे को काटती थीं। सन् 1728 में भारत देश में इतना सुनियोजित नगर कोई दूसरा ना था। ज्यों एक-एक सूत नापकर इसे बनवाया गया था। मजाल है जो कहीं कोई एक अंश की भूल दिखा सके।
विद्याधर ने नौ नक्षत्रों के आधार पर जयपुर को नौ चौकड़ियों में बांटा था। दो चौकड़ियों में महल और प्रशासनिक भवन थे, और शेष में सामान्यजन के निवास। आमेर का भव्य क़िला तो राजा मानसिंह पहले ही बना गए थे, किंतु ये सवाई जयसिंह ही थे, जिनके निर्देशन में जयपुर के लगभग सभी मुख्य भवनों का निर्माण हुआ। विद्याधर के मार्गदर्शन में चंद्रमहल बनाया गया, जो आज नगर प्रासाद या सिटी पैलेस का एक मुख्य हिस्सा है। जयगढ़ और नाहरगढ़ के दुर्ग भी सवाई जयसिंह के काल में बनाए गए। सुरम्य कल्पनाओं-सा जल महल बनाया गया। और चूंकि सवाई जयसिंह खगोलविद् भी थे, इसलिए जयपुर ही नहीं, तत्कालीन भारत के पांच प्रमुख नगरों में उन्होंने वेधशालाएं भी बनवाईं, जो आज जंतर-मंतर कहलाती हैं।
जयपुर के प्रमुख भवनों में एक हवा महल ही है, जो सवाई जयसिंह ने नहीं बनवाया। कृष्ण के किरीट-सी सुंदर इस कृति के निर्माण का यश सवाई प्रताप सिंह के खाते में है। सवाई जयसिंह के दुर्भागे पुत्र ईश्वरी सिंह, जो नैराश्य में डूबकर आत्महत्या करने वाले विरल शासक थे, ने सरगा सूली बनवाई थी, जो उन्हीं के नाम से "ईसर लाट" भी कहलाती है। सीकरी की इमारतें लाल पत्थर की थीं और आगरे की सफ़ेद पत्थर की, जयपुर में इन दोनों के मेल यानी गुलाबी पत्थर की इमारतें बनवाने का निर्णय सवाई रामसिंह द्वितीय ने लिया था, जिन्होंने सुनिश्चित आकार में पक्की दुकानें कटवाईं और उनमें गुलाबी रोग़न करवाया। इस तरह अपने विन्यास में वैभव और भारहीनता के असम्भव द्वैत का निर्वाह करने वाला यह सुंदर और अतिशय शैलीकृत नगर बनकर तैयार हुआ, मानो शहर नहीं चित्रशाला हो।
जयपुर की परिकल्पना करने वाले मास्टर मोशाय विद्याधर भट्टाचार्य के नाम पर आज नगर में एक बाग़ और एक सड़क है, जबकि विद्वानों की बैठक छोड़ दें तो डॉ. असीम कुमार राय और जदुनाथ सरकार का तो कोई नामलेवा भी नहीं। किंतु यही संसार है, वह एक सुचिंतित विस्मरण के ही लोक में जीता है। फिर अब वो एक-एक सूत से नापा गया नगर भी कहां, उसका पुरातन वैभव अब जनाकीर्ण हो चला है। राजधानी होने की अपनी हानियां हैं और वे जयपुर के खाते में ख़ूब आई हैं। किंतु विस्मरण के प्रति अपने दुर्दम्य वैरभाव के कारण मैं आज यह लघुलेख लिख रहा हूं और जयपुर के नागरिकों को बतला रहा हूं कि पुण्य-स्मरण के पर्व में और कौन-सी प्रतिमाएं उन्हें जोड़ देना हैं। इति!