एक थी तरु / भाग 11 / प्रतिभा सक्सेना

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"हाँ, मै हत्यारा हूँ! और तुम जो दिन-रात मेरा ख़ून पीती हो, तुम कौन हो?। । कभी नहीं सोचा भूखा हूँ कि थका, वहाँ से खट कर आता हूँ और यहाँ तुम नोचने को तैयार मिलती हो। घर में पाँव रखते ही क्लेश मचाना शुरू कर देती हो। मुझे तो कहीं भी चैन नहीं।”

"मैं खून पीती हूँ कि तुम? तुमने मार डाला मेरे बेटे को। --।”

"मैनें मार डाला? तुम यही समझती हो। तो मुझे मार डालो, तुम्हारी छाती ठण्डी हो जाये।”

"मैं काहे को मार डालूं?भगवान सब देखते हैं। वही समझेंगे।”

"कुछ नहीं देखता, भगवान है ही कहाँ, है तो अन्धा है।”

"फिर काहे को सोमवार का व्रत करते हो? काहे को ये तस्वीरें लाकर टाँगी हैं”अपने पाप के बदले ही तो करते हो।”

"मैनें कोई पाप नहीं किया। न कुछ बदले के लिये कर रहा हूँ।”

"मैं खूब समझती हूँ। , तुम और तुम्हारे संगी-साथी, जो तुम्हारे साथ मिल कर मुझे परेशान करते हैं।”

उन्होने विवश क्रोध से उनकी ओर देखा,”मेरा कोई संगी नहीं --तुम नहीं मानती तो लो --"उन्होने राम जी की फोटो उठा कर फेंक दी।”मैं लाया था न तस्वीर? अब से नहीं करूँगा व्रत। आग लगा दूँगा इस पूजा-पाठ में।”

"भगवान को क्यों मुझे झोंक दो आग में। मार डालो मुझे, ' वे चिल्ला कर झपटती हैं। गोविन्द बाबू ने पकड़ लिया है। रोक लिया है वे छूटने की कोशिश कर रही हैं। किसी तरह बस में नहीं आ रही हैं। चिल्ला रही हैं,”हाँ मारो, मारो मारो मुझे। मार डालो। ।”

वे हाथों से अपना सिर पीटती हैं, दीवार से टकराने की कोशिश करती हैं। गोविन्द बाबू ने पकड़ा है। उनकी आँखें लाल हो गई हैं। वे छूटने की कोशिश कर रहीं हैं, गोविन्द बाबू ने झिँझोड़ कर खड़ा कर दिया है। वे चिल्लाते हुये ज़मीन पर पड़ गईं।

दरवाजे पर कुछ आहटें होती हैं आवाज आती है,”क्या बात है गोविन्द बाबू?”

उढ़के हुये दरवाजे धक्का पड़ते ही खुल गये हैं, पड़ोसवाले दरवाजे पर खड़े कह रहे हैं,”गोविन्द बाबू, बड़ी बुरी बात है।”

पीछे से कुछ और चेहरे झाँक रहे हैं।

तरु की माँ को जमीन पर पड़ा देख पड़ोसिन अन्दर आ गई है।

"कैसे मारा है बिचारी को।”

"आप तो पढ़े लिखे आदमी हैं, शरम आनी चाहिये आप को।”

पड़ोसिन ज़न पर तरु की माँ के पास बैठ गई है।

"अरे इनकी तो दाँती भिंची है, बेहोश हो गई दीखें।” कई लोग अन्दर घुस आये।

"तू ना रोके, तरु अपने पिता जी को? कटोरी में पानी ले आ, चिम्मच भी लेती अइयो।”

"कैसे बेदरद मरद होवें, औरत को पैर की जूती समझें।”

कोई नहीं आता तो उठ कर खड़ी हो जातीं अब पड़ी रहेंगी। तरु जानती है पर कह नहीं सकती।

"ये बिचारी तो किसी का दुख भी ना देख सके। हमारी बीमारी में रोज़ बदाम घिस के लावे थी और बिना पिलाये जावे ना थी। अब देखो कैसी पड़ी है? और ये बच्चे। अपनी माँ की सम्हाल भी ना करें।”

पड़ोसिन अपने पति की ओर घूम कर बोली, ’तुम, घर से थोडा गुलूकोज ले आओ जी।”

तरु अन्दर से ग्लूकोज का डिब्बा ले आई है पानी में घोल रही है।

"बिचारी को ना मरद पूछे ना बेटा-बेटी।”

"तरु कहाँ गईं थीं?”

"पिता जी, मीना के घर।’

"तीन घन्टे हो गये तुम्हें घर से निकले हुये, कुछ तो सोचना चाहिये!”

तरु पिता के बिल्कुल पास चली आई, धीरे से बोली,”पिता जी, मेरे पास पॉलिटिकल साइन्स की किताब नहीं है। मीना रेगुलर है। लाइब्रेरी से इशू करवाती है अलग-अलग राइटर्स की। उसी के साथ पढ़ लेती हूँ।”

"घर के लिये क्यों नहींले आतीं? अपनी अम्माँ की आदत जानते हुये भी।”

तरु की आँखों मे विवशता छलक उठी है।

"वह हफ़्ते भर को लाती है पिता जी, साथ में डिस्कस करने में देर लग जाती है। उसके कॉलेजवाले नोट्स भी वहीं देख लेती हूँ। अब उससे कहूँगी। घर में लाकर उसके नोट्स बना दिया करूँगी। फिर साथ में बैठ कर उसे डिटेल्स मे बताना तो पड़ेगा ही।”

पिता ने फिर कुछ नहीं कहा।

बी। ए। का फ़ार्म भरवाते समय ही उन्होंने कहा था,”तुम्हारी अम्माँ को लड़कियों को पढ़ाना पसन्द नहीं। मेरे पास किताबों के लिये अलग से पैसे नहीं। घर का हाल तुम देख ही रही हो, फार्म तो किसी तरह भरवा दिया पर आगे कैसे करोगी?”

अम्माँ का हाल खूब अच्छी तरह जानती है तरु। उन्हें पढाई से चिढ़ हो गई है। पढ़ने की बात पर, किताबों की बात पर, कॉलेज की बात पर आपे से बाहर हो जाती हैं।

तरु की एक सहेली है, मीना -बचपन की साथिन। उसने कॉलेज में एडमिशन लिया है। तरु ने उसी का साथ पकड़ लिया है। वह किताबें लाती है, तरु उससे लेकर नोट्स बना देती है। मीना को बने-बनाये नोट्स मिल जाते हैं। वह अपने क्लास नोट्स भी तरु को सौंप देती है और तरु बैठ कर पूरा मैटर छानती है।

मीना के विश्वास पर ही पिता को आश्वस्त कर दिया था उसने, कि कॉलेज की बात नहीं करेगी, किताबें नहीं खरिदवायेगी, घर का काम पूरा कर तब कुछ और करेगी। फिर भी दो-तीन किताबें पिता ने लाकर दीं थीं।

अम्माँ बहुत अस्वस्थ रहती हैं और बहुत असन्तुलित। तरु के ऊपर घर का सारा काम आ पड़ा है। वह चुपचाप सब निपटा लेती है, फिर वे उसके आने-जाने पर ज्यादा रोक-टोक नहीं करतीं।

शुरू-शुरू में कई बार उन्होंने टोका तो तरु बहुत स्पष्ट स्वर में बोली,”अम्माँ, मैं कभी कोई गलत काम करूँ या तुम किसी से मेरी शिकायत सुनो तो मना करो। बेकार में क्यों रोकती हो? मैं सिर्फ़ मीना के घर जाती हूँ, उससे मुझे बडी़ मदद मिलती है।”

पर जिस दिन उसे बाहर दो-तीन घन्टे हो जाते, वे नाराज़ होने लगतीं। चिल्लाती हैं, पढाई को कोसती हैं, तरु को कहनी-अनकहनी सुनाती हैं।

पता नहीं इन्हें पढ़ने से क्यों इतनी चिढ़ है, तरु समझ नहीं पाती। समझाने की कोशिश करने पर वे उसी पर उलट पडती हैं। वे क्या चाहती हैं तरु समझ नहीं पाती।

मीना ने एक मोटी सी किताब तरु को दी है। खुद वह कहीं बाहर जा रही है। चाहती है हफ्ते भर में तरु नोट्स बना ले फिर विस्तार से उसके साथ डिस्कस भी कर ले। तरु ने हामी भर ली है।

तरु रात को एक बजे तक जागती है, दिन में लगकर बैठने का समय नहीं मिलता। इस एक किताब में पूरा मैटर है, अब इस पेपर के लिये कहीं और भटकने की जरूरत नहीं। काफी प्रश्न बनते हैं जी-जान से तरु उनके उत्तर का मैटर तैयार करने में जुटी है।

एक दिन सिर मे दर्द होने लगा। उसने किताब खिसका दी और दस बजे से पहले ही सो गई।

सुबह किताब मेज पर नहीं थी।

"मेरी किताब कहाँ गई?”

संजू उठाता तो बता देता, पिता तो उठाते ही नहीं। फिर किताब कहाँ गई?

"अम्माँ, मेरी किताब मेज़ पर रखी थी?”

"मुझे परेशान मत करो।”

"मैंने यहीं रखी थी, तुमने उठाई है क्या।”

"हाँ मैनें उठाई है। एक-एक बजे तक जग कर तन्दुरुस्ती चौपट कर रही हो। ऐसी क्या जरूरत है किताबें पढ़ने की?”

"मेरे पढ़ने से तुम्हारा क्या नुक्सान है?”

एक वो पढ़ती थीं उनने बड़ा सुख दिया, एक तुम दोगी।”उनका इशारा शन्नो की ओर था।

मैंने ऐसा-वैसा कुछ नहीं किया। मैं घर का काम भी कर लूँगी।”

"लड़का कहाँ मिलेगा इतना पढ़ा-लिखा? और उसकी माँगे पूरी करने को पैसा कहाँ से आयेगा?”

"वो सब बाद की बातें हैं, वो किताब मीना की है जल्दी वापस करनी है।”

"दिमाग तुम्हारे भी बढ़ते जा रहे हैं। मेरा कहा सुनती नहीं हो। फिर कहोगी नौकरी करूँगी।”

"। पर वो किताब मुझे वापस करनी है।”

"तुम सुनोगी नहीं तो यही होगा।”

"वह लाइब्रेरी की किताब है। मैं उससे माँग कर लाई हूँ। उस पर फ़ाइन पडने लगेगा। मुझे देना है।”

"मैं नहीं जानती।”

तरु गिड़गिड़ाने लगी है। अम्माँ किताब नहीं देतीं।

वह नहीं देंगी उन्हे झक चढ़ गई है।

उसने सारा खोज डाला।

अब क्या करूँ मैं?

तरु परेशान। अभी डेढ सौ पेजेज़ के नोट्स बनाने को पड़े हैं। कल सुबह वापस करनी है किताब! कैसे होगा?

"किताब दे दो अम्माँ, बता दो कहाँ रखी है।”

वे चुप हैं कुछ बोलती ही नहीं।

तरु खीझ रही है, उन पर कोई असर नहीं होता।

तीसरा पहर बीत गया तरु क्या करे?

"अम्माँ। मुझे किताब चाहिये”

"तुम मरो जाकर किताब के पीछे --।”

वह बिल्कुल निरुपाय हो गई। क्या करे अपना सिर पटक ले!

"कुछ और कर लो अम्माँ, मुझे मार लो, पीट लो। किताब दे दो।”

"मेरी किताब देदो, अम्माँ।”

किताबों से कुछ नहीं होगा। जिन्दगी भर पछताओगी। तुम मेरा कहा बिल्कुल नहीं सुनती हो।”

वे पढ़ाई के सख्त खिलाफ हैं। तरु पर कुछ असर नहीं पड़ता। उसे सिर्फ एक धुन है--पढ़ना है, पढ़ना है। बी। ए। पास करना है। वह और सब कर लेती है, पढाई के बारे में कुछ नहीं सुनती। गुस्सा आने पर अम्माँ खूब उल्टा-सीधा बकती हैं, तब थोड़ी देर के लिये किताब बन्द कर रख देती है।

पर आज तो उन्होंने किताब छिपा दी है।

तरु रो रही है। रोते-रोते कह रही है,”किताब उसकी है, मुझे किताब दे दो।”

"रोओ, खूब रोओ,” अम्माँ गुस्से में आ गई हैं,” ज़िन्दगी भर रोओगी तुम। देख लेना। रोए नहीं चुकेगा!”

कुछ देर बक-झक कर वे मन्दिर चली गईं।

बावली-सी तरु घर भर में चक्कर लगा रही है।

सब जगह ढूँढ चुकी। किसी तरह चैन नहीं पड़ रहा। कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा। फिर नये सिरे से खोज शुरू हुई।

मसाले के डब्बे के पीछे वह क्या चमक रहा है?

वही है, वही है किताब!

तरु उठाती है साड़ी के पल्ले से पोंछती है।

अब सुबह का इन्तजार नही करेगी। रात में ही काम निपटा कर संजू से किताब भिजवा देनी है। नहीं तो कहीं उन्होने फिर उठा ली तो!

दस बजे तक संजू से भिजवा दे? पर समय ही कितना है?

सिर्फ छः घन्टे और शाम के खाने की व्यवस्था भी उसी बीच!

जल्दी-जल्दी सारा काम खत्म करती है। मन में बड संशय है। हो पायेग या नहीं? नहीं हुआ तो मीना क्या कहेगी? फर उससे किताब माँगने की हिम्मत कैसे पडेगी? डेढ सौ पेज! नहीं हो पायेगा तो। ?

नहीं हो पायेगा। लिखना किसी तरह नहीं हो पायेगा! पढ़ लूँ। फिर याद करके लिखूँगी -तय कर लिया उसने।

बाहर के दरवाज़े बन्द कर दिये, किताब खोल कर बैठ गई। साथ के कागज़ पर सिर्फ मेन प्वाइन्ट्स, नंबरवाइज़!

घड़ी की सुइयाँ बराबर आगे बढ़ रही हैं। तरु ने दृढ़ निश्चय कर लिया है। पूरा करना ही है। पढ़ रही है वह। पढ़े जा रही है। -एक चित्त! पन्ने एक-एक कर पलटे जा रहे हैं। दस, बीस, तीस पचास, सत्तर, सौ!

अरे, अभी पचास और हैं! सिर को झटका देकर वह फिर जुट गई। दस बजने में आठ मिनट बाकी हैं। , वह संजू को किताब पकड़ा आई, भैया जल्दी से पहुँचा दो।”

संजू को भेज वह गिने हुए प्वाइन्ट्स लिखने बैठी।

चारों तरफ कहीं कुछ नहीं है, किसी का भान नहीं, किसी पर ध्यान नहीं। संजू कब आया कब गया उसे कुछ पता नहीं। इधर-उधर क्या हो रहा है होश नहीं। कितने भी बज जायें अब कोई चिन्ता नहीं। वह लिख रही है। लिखती जा रही है, सिर्फ़ लिखती जा रही है। सब याद आता जा रहा है जैसे दिमाग़ में पढ़े हुए पन्ने कहीं लिख गये हों और तरु उतारती जा रही हो!

हाँ, सिर्फ मस्तिष्क बोल रहा है, तरु लिख रही है। कलम चल रही है--और कहीं कुछ नहीं। कहीं कोई नहीं! अकेली तरु और उसकी चलती हुई कलम!

कहीं कुछ नहीं हो रहा है इस समय!