एक थी तरु / भाग 12 / प्रतिभा सक्सेना

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अरे, आप यहीं है, हमने तो समझा चली गई हैं?’

मेडिकल स्टोर पर बिल चुकाती तरल नें चौंक कर सिर उठाया। रायज़ादा की बहू, विनती नाम है, पास आ गईं थीं, ’उस दिन पार्टी के बाद से आप दिखाई नहीं दीं।’

रुपये गिन कर थमाती तरल ने सिर हिला कर विश किया, ’मैं कहाँ जाऊँगी, यहीं की यहीं।’

' हमने सोचा ट्राँसफ़र करा लिया, जहाँ सर्विस है। असल में हमारा निकलना भी कम ही हो पाता है।’

ध्यान से देखते हुए बोलीं’क्या कुछ तबियत ख़राब।’

'नहीं, नहीं मैं ठीक हूँ। ये दवाएँ तो अम्माँ की।’

'लग तो आप भी काफी़ झटकी -सी। पर अम्माँ को क्या हो गया?

'स्ट्रोक पड़ गया था। बेड पर हैं’

'अच्छा? तभी। लेकिन कैसे?’

तरु ने दोहराया, ’कैसे?

क्या बतायेगी अशेष ग्लानि!

विनती सहानुभूति प्रकट कर रहीं थीं।

'पहले आपके पिता जी गए अब माताजी बिस्तर पर। बिचारी को झटका लगा होगा। स्ट्रोक तो।’ शायद तरु कुछ कहे, कुछ रुकीं वे।

वह तो सिर झुकाए खड़ी है।

स्ट्रोक अचानक ही पड़ता है जानती हूँ। हमारे फूफाजी, तो दो साल से बेड पर हैं।’

महिला बोले जा रहीं हैं।

क्या बोल रही है। तरु समझ रही है या नहीं?

फिर उन्होंने कहा, ’ एक दिन वर्मा जी आए थे पूछ रहे थे आपको। कि कहाँ हैं आजकल।’

'वर्मा जी?’

' आपसे परिचय कराया तो था पार्टीवाले दिन। असित वर्मा वही एम आर।’

“हाँ, हाँ, याद आ गया।”

"आपसे मुलाकात हुई होगी फिर कभी।”

"हाँ, मिल जाते थे कभी-कभी ट्रेन में, उनका एरिया उस तरफ़ ही है न।’

'आप छुट्टी लिए हैं शायद?’

बताया तरु नें। कुछ भी नियमित नहीं रहा। अक्सर ही छुट्टी पर। कभी गौतम चले आते हैं, संजू भी है पर उसके बस का कहाँ। पढ़ाई भी तो है। एक विधवा चाची हैं कुछ दिन को आ गई हैं, बस चल रहा है किसी तरह।

'सच में बड़ी मुश्किल है सर्विसवाली औरतों की। ऊपर से ये रोज़-रोज़ की दौड़।’

तरु क्या कहे!

'अच्छा चलूँ, घर के काम सारे पड़े होंगे।’

'हाँ, हाँ, चलिये आप तो। आते हैं हम किसी दिन। कुछ ज़रूरत हो तो हम लोग हैं न’

'ज़रूर, जरूर!’

जल्दी में थीं दोनों। चल दीं फ़ौरन।

कानों में गूँज रहा है -”पहले आपके पिता जी गए अब माताजी बिस्तर पर।”

क्रोध से विकृत चेहरा लिए माँ की मुद्रा सामने आ गई।

उस दिन अपने आवेग पर नियंत्रण कर लिया होता तो आज को यह पछतावा नहीं होता।

रोक नहीं सकी अपने को। क्यों?

क्या कर लिया कह कर?

लेकिन अपने आप हो गया -कब का रुका बाँध बिना जाने-समझे फूट पड़ा उस दिन!

एक मात्र सखी मीना भी दोष देने लगी थी। माँ, माँ होती है तरु, वह तुम्हारा सदा भला चाहेगी तुम उनकी सुनती क्यों नहीं। उन्होंने खु़द मुँह खोल कर मुझसे कहा कि तुम्हें समझाऊँ।

तरु चुप, कोई उत्तर नहीं, कोई समाधान नहीं। बस बात टाल देना।

अब तो कहीं ठौर नहीं बचा!

पर अब, जब सब बीत चुका है। स्थितियाँ बदल गई हैं, मैं आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही?

तरु उलझ जाती है अपने में ही। समय रुक जाता है, मन उन्हीं भँवरों में चक्कर खाने लगता है।

बात मीना ने शुरू की थी।

उसने तरु से पूछा था,”क्यों इन शर्मा जी में और तेरे पिता मे तो अच्छी दोस्ती थी? तेरी अम्माँ ने तो हफ्तों उनके घर खाना भेजा है। अब क्या हो गया? दोनो मियाँ-बीवी हमेशा कुछ -न-कुछ बुराई करते रहते हैं?”

"इन लोगों की बातों में कौन पडे मीना, अम्माँ से कुछ बात हुई होगी।”

"तेरी अम्माँ कितनी एफ़ीशियेन्ट हैं तरु! तू कितनी भाग्यशाली है। जब मेरा वे इतना ध्यान रखती हैं तो तेरा कितना रखती होंगी! मुझे तो ईर्ष्या होती है तुझसे --यहाँ तो अपनी माँ की शकल तक याद नहीं!”

मीना का शर्माइन से दूर का रिश्ता है। तरु को पिता के दफ़्तर की बहुत सी बातें मीना से पता लग जाती हैं।

आजकल उनसे बहुत गल्तियाँ होने लगी हैं। बड़े बाबू उनसे सीधे मुँह बात नहीं करते, साहब अलग नाराज हैं, ट्रान्सफ़र कराने पर तुले हैं।

तरु आशा से भर उठी --हो जाय उनका यहाँ से ट्रान्सफर! इस घर गृहस्थी से कहीं अलग जाकर रहें। तब वे समय से खायेंगे, सोयेंगे। चैन से रहेंगे। तब दिन-रात उन्हें यह सब नहीं झेलना पडेगा!

कितना अच्छा हो ट्रान्सफ़र हो जाय उनका। फिर तो बाकी लोग गौतम भइया के पास चले जायेंगे और पिता किसी नई जगह पर। नई जगह में एकदम सब के रहने की व्यवस्था थोड़े ही हो पायेगी।

पर वह नौबत ही कहाँ आ पाई। उन्होंने पहले ही बिस्तर पकड़ लिया। एक दिन ऑफ़िस से लौ़टे तो बाहर ही गिर पड़े। फिर वे उठ नहीं पाये शायद उनकी उठने की इच्छा ही खत्म हो गई थी।

"मीना ने पूछा था,”तरु तेरे पिता मित्तर बाबू की पार्टी में नहीं गये?”

"मित्तर बाबू की पार्टी कब हुई?”

"तुम लोगों को कुछ बताते भी नहीं क्या? उनके बड़े बाबू थे न, उनका ट्रान्सफ़र हो गया --।”

"अरे हाँ, कहा तो था, मैं कुछ ऐसी धुन में रहती हूँ, मेरे ध्यान से उतर गया। उस दिन उन्हें खूब तेज बुखार था,”

"धुन में तो तू रहती है, यह तो मैने भी मार्क किया है। पर ये शर्मा लोग भी अजीब हैं। कुछ भी कह देते हैं।”

"क्या कहा?”

"जाने दे, क्या करेगी सुनकर, बड़े वैसे लोग हैं।”

"फिर भी पता तो लगे।”

"कह रहे थे गोविन्द बाबू बडे मक्खीचूस हैं। चन्दा नहीं देना चाहते इसलिये पार्टी में नहीं आये। --पर तू क्यों फ़ील करती है?लोग तो कुछ भी बोल देते हैं।”

तरु ने कुछ नहीं कहा, लम्बी-सी सांस खींच कर रह गई।

ए, तरु बुआ, तुम्हें माँ ने बुलाया है।”

"अच्छा थोड़ी देर में आऊँगी।”

विपिन पीछे पड़ गया,”नहीं, अभी चलो।”

वह साथ लिये बिना जाने को तैयार नहीं।

"अच्छा, चल रही हूँ।”

घर जाकर उसने आवाज लगाई,”माँ, बुला लाया।”

विपिन की माँ ने बताया, सुबह से शोर मचा रहा है,”तुम बुआ को बुलाओ’। मैने चिढ़ाने को कह दिया, ’नहीं बुलाऊँगी’ तो मुझसे लड़ पडा। मुझसे भी ज्यादा वो तुम्हें चाहता है तरु।”

वह बैठी-बैठी मुस्करा रही है।

"लेकिन आज बुलाया क्यों है?”

"मेरे मायके सिंधारा आया है। तुम्हारे लिये फल और मिठाई अलग निकाल गया है।”

घन्टे भर बाद तरु लौटी तो मीना बैठी इन्तजार कर रही थी। अम्माँ बडे प्यार से पास बैठी उसे पापड़ी खिला रहीं थीं।

"अम्माँ जी, मेरी तो इच्छा होती है, रोज आपके पास आया करूँ।”

"तो आया करो न। तुम तो मुझे बहुत अच्छी लगती हो।”

मीना ने तरु से कहा था,”तेरी माँ कितनी वात्सल्यमयी हैं। तेरे घर आती हूं तो तुझे जो प्यार मिला है उसका थोड़ा-सा भाग मैं भी पा लेती हूँ। तू भाग्यशाली है तरु। पर तू कितनी अजीब है, तेरी कुछ बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। तुम लोग उनका ध्यान नहीं रखते।”

अनमनी सी तरु ने पूछा,”उनने कुछ कहा है क्या तुझसे?”

"कुछ खास नहीं मुझे इतना प्यार करती हैं इसलिये कह बैठीं। पर तेरी तो माँ हैं। तुझे उनकी बात माननी चाहिये। माँ से बढ़ कर दुनियां में कोई और रिश्ता नहीं होता। और तू अपने पिता को भी समझा।”

"पर कुछ बता भी तो। बात क्या है? बिना बताये कैसे समझूँगी?”

"यही कह रहीं थीं कि बाहर के लोग तो खूब आदर मान देते हैं पर अपने घर में कोई कदर नहीं करता। मैं तेरी सहेली हूं इसलिये मुझसे समझाने को कहा, और तेरे पिता किस टाइप के हैं तरु?”

तरु के चेहरे का तनाव देख कर वह रुकी, ,”मुझे क्या पता तरु, ऑफ़िस के लोग तो कहते थे पर खुद तेरी अम्माँ ने जब कहा तो मैंने तुझसे ---।”

"मीना, ऊपर से जो लगता है वही सच नहीं होता। वास्तविकता क्या है इसे कौन जानता है?”

"ऐसी क्या बात है जो तू मुझे भी नहीं बता सकती?”

"तू जान ले इतना सब बताने की सामर्थ्य मुझमे नहीं है। सब कुछ इताना अजीब, इतना अविश्वसनीय है। मै खुद नहीं समझ पाती--।”

"जाने दे तरु। तुझसे बहुत इन्टीमेट हूँ और माँ का प्यार मिल गया इसलिये कह दिया। अरे हाँ, वो किताब पढ़ ली तूने? कल वापस करनी है।”

तरु विपिन को बच्चा समझ कर व्यवहार करती है, तो उसे अच्छा नहीं लगता। मुख-मुद्रा से जाहिर करने से काम नहीं चला तो उसने स्पष्ट किया,”बुआ, मैं बच्चा नहीं हूँ। इतना छोटा नहीं हूँ, जितना तुम समझती हो।”

“बड़े पते की बात बोलने लगा है। यह तो बडी अच्छी खबर है कि तू बड़ा हो गया।”

"मज़ाक की बात नहीं। मुझे बहुत सी ऐसी बातें मालूम हैं जो तुम्हे भी नहीं पता।”

"अच्छा! क्या मालूम है?”

वह कुछ क्षण सोचकर बोला,”नहीं, वह सब तुम्हें नहीं बताऊंगा। लड़कियों को ऐसी बातें नहीं बताते।”

"तुझसे कौन कहता है ऐसी बातें?”

"हमारे साथ के लड़के। हम बड़े लड़के सब तरह की बातें करते हैं।”

तरु ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा!

वह किशोर विपिन कब युवा हो गया, तरु ने ध्यान ही नहीं दिया था। आज अचानक अपने से एक मुट्ठी ऊँचे विपिन को अपने सामने खड़ा देखा, जिसमे यौवन के चिह्न स्पष्ट दिखाई देने लगे थे।

"हाँ, विपिन, सच में तुम बडे हो गये हो!”

एक दिन विपिन ने बताया’अब हम लोग चले जाएँगे, पिता जी का ट्रांस्फ़र हो गया है।’

तरु के मुँह से निकला, अरे, तुम चले जाओगे!’

'जाना पड़ेगा, बुआ तुम मुझे याद करोगी न १'

'वाह तुझे कैसे भूल सकती हूँ’ उसका कंधा थपक कर तरु ने आश्वस्त किया, ’कब जाना है?’

'अभी नहीं। अभी तो अम्माँ को सेशन पूरा करना है।

तरु क्या कहे!

"मेरा यहां से जाने का मन नहीं है। वहाँ पता नहीं कैसा लगेगा? पर जाना तो पड़ेगा ही। हम लोग इम्तहान के बाद जायेंगे अभी तो बाबू जी अकेले जा रहे हैं।”

जाने के पहले वह आकर काफ़ी देर बैठा रहा। फिर चलते-चलते कह गया,” मैं फिर तुमसे जरूर मिलूंगा, बुआ।”

पिता की मृत्यु बाद मन्नो एक महीने के लिये विदेश से आई थीं। बहुत रो रही थीं -छः महीनों से आने का प्रोग्राम बन रहा था, पर हर बार कुछ न-कुछ रुकावट आ जाती थी। उन्हें क्या पता था कि इतनी देर हो जायेगी कि पिता मिलेंगे ही नहीं। कोई ऐसी बीमारी भी तो थी नहीं।

अम्माँ का हाल देख कर उन्होनें तरु से कहा था,”इनका दुख तो अब कभी दूर नहीं हो सकता। कितनी कमजोर हो गई हैं। अचानक पड़े दुख से इनकी तो मति ही बौरा गई।”

तब तरु का ध्यान भी गया था कि पिता की मृत्यु के बाद वे बहुत दुर्बल हो गईं हैं। वे किसी से कुछ कहती नहीं चुपचाप बैठी रहती हैं। मन्नो खोद -खोद कर तरु से पूछती हैं -पिता को क्या हो गया था?”

तरु टुकड़े -टुकड़े कर उत्तर देती रही। क्या कहे, क्या न कहे! वह सब क्या मुँह से कहा जा सकता है?

कभी अधपेट खा लिया, कभी बिल्कुल भूखे, धँसी -धँसी आँखें और विवश क्रोध! जो अपने को ही खाता चला जा रहा है। इतना भी दम नहीं कि चिल्ला कर डाँट दें। दिन भर कैसे काम करते होंगे! वह सब सोचना भी आसान नहीं है। सोचती है तो रातों की नींद उड़ जाती है। हफ्तों मन अशान्त रहता है। जो सोचना भी दुःसह है उसे कैसे कहा जा सकता है? उसे तो सिर्फ अनुभव किया जा सकता है -ऐसा अनुभव जो किसी से बाँटा नहीं जा सकता। स्मृतियों का भारी बोझ मन पर ज्यों का त्यों धरा है। साझीदार कोई नहीं, कहीं नहीं!

मन्नो पूछती हैं, तरु बोल नहीं पाती। सोचती है और रो पड़ती है। क्या -क्या बतायेगी? चाय पीने की आदत थी उन्हें और अम्माँ कोंचने से कभी चूकती नहीं थीं। वे बराबर कुछ न कुछ बोलती रहती थीं। चाय को लेकर क्या-क्या नहीं कह डालती थीं चाय नुक्सान करती है, पेट जलाती है इसीलिये वे दूध पीती थीं -उनका स्वास्थ्य अच्छा था। लेकिन पिता बाहर रहते थे उन्हे चाय की लत सी हो गई थी। घर में चाय बनना मुश्किल। उन्हें तलब लगती थी सिर दर्द करता था, आँखों में धुन्ध सी छाने लगती थी। और वे निढाल बैठे रहते थे।

पहले तरु अम्माँ से चोरी -छिपे बना देती थी। पर एक दिन अचानक उन्होने चाय पीते पकड़ लिया, फिर तो तरु की शामत आ गई और उनकी जो लानत -मलामत हुई!

कुछ भी कहने से छोड़़ती नहीं वे ऐसे मौकों पर। उन्हे झूठा करार दे कर छिप-छिप खाने पीने का आरोप लगा दिया। उसके बाद से तरु कितनी ही जिद करे वे सामने आई चाय पीने को भी तैयार नहीं होते थे। अरे, एक बात है क्या, जो कह डालेगी वह? ऐसी बातें जिनकी यादें घंटों मन पर बोझ-सी धरी रहती हैं, और ऐसी कितनी -कितनी बातें!

"मुझसे मत पूछो जिज्जी, मैं नहीं बता पाऊँगी।”

अम्माँ के सामने कोई कुछ नहीं पूछता, कुछ नहीं कहता। उनके लिये न सुबह, सुबह है, न शाम, शाम। समय के विभाग महत्वहीन हो गये हैं। जब जो चाहती हैं करती हैं। तरु सन्न-सी सब देखती है। शन्नो चली गईं, मन्नो चली जायेंगी। उसे तो यहीं रहना है।

पर रहा नहीं जा रहा अब घर में जैसे। सारी स्थितियाँ उसके लिये असहनीय हो उठी हैं। घर मे बैठे-बैठे क्या करे? गौतम से कह सुनकर उसने टाइपिंग का कोर्स ज्वाइन कर लिया।

मीना की भी शादी हो गई। तरु ने नौकरी के लिये अर्जियाँ भेजना शुरू कर दिया। मीना के पति ने अपने भाई से कह कर उसे एक जगह नियुक्ति पत्र दिलवा दिया।

गौतम ने शन्नो से सलाह माँगी

"करने दो ब्याह के लिये ही कुछ जुड़ जायेगा। और आजकल सर्विसवाली लड़की की शादी में आसानी रहती है।”

पता लगने पर अम्माँ ने विरोध किया,”मैं जानती थी, तुम यही करोगी। पढ़-लिख कर नौकरी के लिये तैयारी की थी तुमने?/"

"तो घर में बैठे-बैठे क्या करूं?नौकरी करने में नुक्सान क्या है?”

'लाज-शरम सब बेचकर निकल जाओ।”

तरु कुछ बोली नहीं। वे बड़बड़ाती रहीं। जब देखा कोई असर नहीं पड रहा है तो अँतिम निर्णय दे दिया,”तुम कहीं नहीं जाओगी।’

"मै कोई अकेली तो नहीं। कितनी लड़कियाँ कर रही हैं।”

"उन्होने मेरा कहा न मान कर तुम्हें पढने की छूट दी। उन्हीं ने सिर चढ़ाया है। मेरी तो एक नहीं सुनते थे।”

पिता पर आक्षेप सुनकर तरु का मुँह तमतमा उठा,”अगर उनके साथ इतना न किया जाता तो वे अभी नहीं मरते।”

"अच्छा तो मेरी वजह से मर गये? मैंने मार डाला?”

"हमेशा उन्हें दोषी ठहराया। हमेशा अपमानित किया, दूसरों की निगाहों में इतना गिरा दिया। कभी चैन से नहीं रह पाये वे।”

आँखों से आँसू बहते जा रहे हैं, वह कहती जा रही है,”बिना खाये कोई कितना चल सकता है वे दिन-दिन भर भूखे रहते थे, तुम खाने के समय क्लेश मचाती थीं। सुबह दो रोटी खालीं तो खा लीं, और सारे दिन सारी रात कुछ नहीं। बताओ दोपहर और शाम को खाना उन्होने महीनों नहीं खाया और किसी को कोई फ़र्क नहीं पडा। ऊपर से तुम दिन-रात झगड़ा मचाती थीं। उनकी चाय छुड़वा दी ---" वह सिसकी भर-भर कर कहती जा रही थी,” चाय नहीं, नाश्ता नहीं, कुछ नहीं। उन्हें जाड़ा-पाला कुछ नहीं लगता था! भरे जाडे उन्होंने एक दोहर ओढ़कर निकाल दिये। उनके कपडे फाड़ देती थीं तुम और वे नये बनवाते भी नहीं थे।”

तरु की हिचकियाँ बँध गई हैं, वह रुक-रुक कर बोलती जा रही है,”तुमने उनका चेहरा देखा था कभी? उनका हड्डी रह गया शरीर देखा था? उनकी धँसी हुई आँखें देखीं थीं? वे कैसे चलते थे तुम्हें मालूम है? तुम भूखी रह सकती हो क्या? ऐसा चेहरा मैंने आज तक किसी का नहीं देखा ऐसी आँखें ---।”

अम्माँ का चेहरा क्रोध से विकृत हो उठा, वे झपट पडीं,”चुड़ैल कहीं की। इसीलिये पैदा किया था मैने तुझे?”

उन्होने आगे बढकर तरु के बाल पकड़ लिये,”मैं हत्यारी हूँ? मैंने उन्हें मार डाला, ला तेरी भी गर्दन मरोड दूं!”

"हाँ, लो, मरोड़ दो गर्दन। इस रोज़-रोज़ की अशान्ति से छुट्टी मिले। पिता जी मर गये, मुझे भी मार डालो!”

अचानक उनकी पकड़ ढीली पड गई, बढ़े हुये हाथ हवा में लहराये, आँखों मे अजीब सा भाव आया, वे सम्हलने की कोशिश में लड़खड़ाईँ और गिर पडीं।

"अरे रे रे, यह क्या?”

तरु ने झुक कर सम्हाला। मुँह खुला अजीब पथराई सी दृष्टि। लगता है बेहोश हो गईं।

भाग-दौड मच गई, गौतम डाक्टर को बुला कर लाये।

"पैरालिसिस का अटैक है एक तरफ का शरीर सुन्न हो गया है।

ओह, क्या हो गया यह!

पैसा पानी की तरह बह रहा है। अब घर का खर्च चलना तरु के नौकरी किये बिना संभव नहीं।