एक थी तरु / भाग 15 / प्रतिभा सक्सेना

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असित कई बार इंगित कर चुका है, पर वह असित के सामने सीधी-सीधी बात करते घबराती है। मन-ही-मन कहती है -मैं तुम्हारी आभारी हूँ कि तुमने मुझे प्यार किया। पर मैं तुम्हें सुख -शान्ति नहीं दे सकूँगी, मैं जो स्वयं इतनी अशान्त हूँ। कुछ ऐसा है जो मुझे कहीं चैन नहीं लेने देता। पीछे जो छोड़ आई हूँ उससे मेरी मुक्ति नहीं होती। जीवन भर जिस ज्वाला में मुझे दग्ध होना है उसकी आँच तुम्हें क्यों लगने दूँ? मैने तुम्हें चाहा है इसलिये तुम्हें उस अशान्ति का हिस्सेदार नहीं बना सकती असित, अपना संतप्त मन मैं तुमसे नहीं बाँट सकती। वह जो मेरा है, मुझे ही झेलना है, तुम्हारे ऊपर नहीं लादूँगी।

उस दिन तरु का हाथ पकड लिया था असित ने, “जीवन में बहुत खोया है तरु, पर अब मेरी हिम्मत जवाब देने लगी है। अब कुछ मिला है उसे खोकर कैसे रहूँगा? तुम मुझे छोड़़कर कहीं मत जाना। ---मैं बहुत अकेला होता जा रहा हूँ। तुम्हें नहीं खो सकता। नहीं, किसी तरह नहीं!”

हाथ नहीं छुड़ा पा रही तरल। बहुत दिनों से इसी उलझन में है। सोचती रहती है चुपचाप। बार-बार असित का ध्यान आता है। वह अच्छा लगता है। पर उसकी समझ में नहीं आता वह गृहस्थी कैसे करेगी? भीतर की घोर अव्यवस्था औऱ बाहर सब सुचारु रूप से चलाना -कैसे संभव हो सकेगा? मन को चैन नहीं होता तो सारे सुख निरर्थक हो जाते हैं, उनकी ओर हाथ बढ़ाने का प्रयत्न भी कैसे करूँ?

"मैं तुम्हें बुरा लगता हूँ?”

"नहीं।”

"फिर?”

"मैं क्या करूँ, समझ नहीं पाती। अब तक का अनुभव यही है कि कोई रिश्ता स्थाई नहीं होता। माता-पिता भाई -बहन, समय के साथ सब बदल जाते हैं।”

"वे संबंध जीवन भर के लिये नहीं होते। वे तो अलग-अलग स्थितियाँ हैं -सन्तान होने की भाई-बहन होने की। दूसरी तरफ संबंध प्रगाढ़ होते ही वे स्थितियाँ बदलने लगती हैं पर एक रिश्ता ऐसा भी है जो जीवन भर बाँधे रखता है वह नहीं बदलता।”

"असित जी, मेरा स्वभाव अलग है। आप चाहेंगे जैसा सब करते हैं, वैसा मैं भी करूँ। मैं न कर पाई तो ---?फिर आपको असन्तोष होगा। मैं गृहस्थी की सीमा में अपने को सीमित न रख पाई तो --?'

तरु को लगता है पति बन कर आदमी वह नहीं रहता जो अन्यथा होता है पत्नी पर पूरा नियन्त्रण और स्वामित्व चाहता है और मैं ऐसी हूँ कि जो ठीक लगता है वह कहे बिना, करे बिना, नहीं रह पाती। घर बने और रोज़-रोज़ किट-किट हो तो घर बनाने से क्या फ़ायदा? ---लेकिन विग्रह की बात पहले से कारण बना कर प्रस्तुत कैसे करे?

"मैं बँध कर नहीं रह सकती,” तरु ने कहा,”। मुझे बँध कर रहने में ऊब लगती है। मैं ऐसे नहीं रह सकती, अपने मन का कुछ करना जैसे पढ़ना, लिखना, घूमना फिरना, मन चाहे तो नौकरी करना, या और कुछ --।”

"तुम अपने को अलग रख कर क्यों सोच रही हो? घर तो दोनों का होगा, दोनों का ही मन रहे तभी तो घर है।”

घर की एक कल्पना है तरु के पास -ऐसा घर नहीं चाहिये जहाँ बाकी सब पराये हो जाते हों। सीमित स्वार्थ के आगे सब रिश्ते टूट जायें। रिश्ते, जो पहले औरों से टूटते है फिर आपस में ही टूटने लगते हैं। सब अलग-अलग होकर बिखर जाते हैं -अकेले-अकेले! औरों से रिश्ते टूटने के बाद जब आपसी रिश्ते टूटते हैं तो वही होता है जो मेरे साथ हुआ, असित के साथ हुआ।

"कैसा घर बनना है, यह तो तुम्हारे सोचने की बात है, जो करना है वह तुम्हारे हाथ में है। मैं सहयोग दूँगा, बाधा नहीं।”

तरल के होंठों पर बड़ी मधुर मुस्कान छा गई है।”

"क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा।”

"बहुत कर चुकीं तुम, अब तुम्हें कुछ नहीं करना है।”

यह क्या सुन रही है तरल!

अब तक तो यही सुनती आई है -तुम्हें यह करना है, तुमने यह नहीं किया। तरु, तुम इतना और कर डालो। न घर चैन, न बाहर चैन! आज यह कैसी नई बात-

' तरु तुम्हें कुछ नहीं करना है!’

यह कौन समाधान दे रहा है? कैसे अस्वीकार कर दे? तरु का मन भीग उठा है।

असित समझा रहा है -मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ भी तो होती हैं। उन्हें दबाने से अस्वाभाविकता और कुण्ठायें ही उत्पन्न होंगी। प्रकृति के नियम तो पूरे होंगे ही। मेरे घरवाले मेरे पीछे पड़े हैं, तुमसे भी कहा जा रहा होगा, या घर के लोग ढूँढ-खोज में लगे होंगे। उस जुए में किसे कैसा साथ मिल जाये, उससे अच्छा क्या यह नहीं कि हम जिसे समझते हैं उसे ही स्वीकार कर लें?”

"मुझे थोड़ा समय दीजिये, सोचने -समझने का --।”

"ठीक है, मैं इन्तजार करूँगा।”

पिछली बार जब असित रिजर्वेशन की बात करने तरल के पास गय़ा था तो मेज़ पर पड़ी किताबें पलटते तरु का बी। ए। का एडमिशन कार्ड निकल पड़ा था। असित ने उठा लिया।

स्टोव पर चाय बनाती तरु ने देखा -उसमें लगे उसके फ़ोटो को ध्यान से असित देखता रहा था।

उसके जाने के बाद तरु ने अपनी फ़ोटो उठा ली -आज असित की आँखों से अपने को देखना चाहती है वह!

अपनी फ़ोटो ध्यान से देखे जा रही है। दृष्टि उसकी नहीं असित की हो गई -आँखें असित की हो गईं, यह तरु नहीं असित है। फ़ोटो में तरु है। तरु असित की निगाहों से अपनी फ़ोटो देख रही है, देखे जा रही है। आँखें, नाक, मुँह, माथा ठोड़ी। अब तक इतने ध्यान से किसी ने देखा था क्या?

असित की दृष्टि का राग आँखों में उतर आया है। एक खुमार सा तन-मन पर छा गया! उसी में तरु खो गई। अब तक जो नहीं देखा था वह भी दिखाई देने लगा -पलकों का एक-एक बाल, भौंहों की पंक्ति, आँखों का रंग, ठोड़ी के पास का तिल, ऊपर के होंठ का झुकाव, नीचे का कटाव, नाक की ढलान, अपलक कहीं और देखती दृष्टि!

ओ, असित क्या मिला तुम्हें इस चेहरे में, इन आँखों में, जिनकी दृष्टि भी तुम्हारे आमने-सामने नहीं, कहीं दूर खोई है?

कानों में बार-बार कोई कहता है’अब तुम्हें कुछ नहीं करना है, अब तुम्हें कुछ नहीं करना है, ’

असित के शब्द संतप्त मन पर शीतल प्रलेप-सा लगा जाते हैं।

"एक तरैया पापी देखे, दो देखे चण्डाल----"

बुआ द्वारा कही हुई कहावत तरु को याद आती है। पर उसे दिखाई देता है रोज, शाम को पहला तारा।

दिन ढलने लगता है, सूरज अपनी किरणों का जाल समेट अस्ताचल में समा जाता है और धूसर होते आसमान में साँझ का पहला तारा टिमटिमाने लगता है। वह और ढूँढती है, सारा आकाश खँखोल डालती है तब दूसर सितारा दिखाई देता है, बिना पलक झपकाये फिर खोजती है पर तीसरा कहीं नहीं मिलता। एक ही निगाह में एक और सितारा पाने की कोशिश करती है पर कहीं नहीं पाती। एक ही निगाह में तीन सितारे दिखाई दे जाँय ऐसा कभी नहीं होता।

'तीन तरैया राजा देखे,

सब देखे संसार!”

सब तारे रात भर आकाश में टिमटिमा रहते हैं पर शाम के आकाश में कभी भूले से भी उसे एक नजर में तीन तारे नहीं दिखते। मैं पापी हूं? नहीं तो रोज ही क्यों दिखाई देते हैं एक या दो तारे!

कमरे के आगे छत पर बैठी तरल सोच रही है -एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, रोज ही एक सितारा, या फिर दो, बस!

पापी तो हूँ ही। देखते -देखते सब कुछ बिखर जाय, घर चौपट हो जाय, सब कुछ छिन्न-भिन्न हो जाय! एक आदमी भूखा-प्यासा पड़ा रहे!। पहनना-ओढ़ना, बोलना, बात करना, मान-सम्मान सबसे वंचित कर दिया जाय। अकेला, चुपचाप सब सहन करता रहे, तन-मन से छीजता रहे, और एक दिन यों ही दम तोड़ दे। सामने -सामने सब घटता रहे और देखनेवाला दर्शक बना देखता रहे, तो पापी, चाण्डाल कोई दूसरा होगा क्या?

ऑफ़िस से आकर अकेली कमरे से बाहर छत पर आ बैठती है वह। कोई साथ नहीं। ऑफ़िस में उसके सिवा तीन महिलायें और हैं, उसी के सेक्शन में। दो विवाहित एक क्वाँरी। सब अपने-अपने परिवार में लीन।

शाम पड़े लौटती है तरल, थकी हुई निष्प्रभ -सी।

रात को अक्सर स्वप्न में देखती है-पिता आये हैं, वे भूखे हैं।

तरु पूछती है, ' पिताजी खाना परोसूं?’

वे कुछ बोलते नहीं वापस लौट जाते हैं।

जितनी बार आये भूखे ही चले गये। उन्हें खाना किसी ने नहीं दिया। तरु ने पूछा तो वे कुछ नहीं बोले।

तरु चुपचाप देखती है। वे आते हैं उसकी ओर देखते रहते हैं और उसके बोलते ही चले जाते हैं। मन चीख़ -चीख़ कर रोता है -क्यों नहीं कुछ कर पाती मैं? किसी पर मेरा बस नहीं। न जिन्दगी में रहा, न सपने में!

कैसे असहनीय दिन थे वे। रातें भी शान्ति से नहीं गुजरतीं थी।

अम्माँ की आवाजों से तरु की नींद खुल जाती थी, चुपचाप पड़ी-पड़ी देखती रहती थी -वे बकझक कर रही हैं। पानी पीने के बहाने उठ कर देखती थी तरु -पिता का चुपचाप मुँह ढाँक कर लेटे रहना भी उन्हें सहन नहीं होता। वे चादर खींच कर खोल देतीं चादर हटते ही जो चेहरा निकलता था उसका स्मरण! स्मरण से भी रोंगटे खडे हो जाते हैं। शब्द नहीं हैं। ऐसे शब्द भाषा मे बने ही नहीं जो उस मूक सन्ताप को, उस दहला देनेवाली यंत्रणा को व्यक्त कर सकें।

रात में भी वे उन्हे चैन नहीं लेने देंगी। खुद तो दिन में सो लेती है, खुद तो समय से खा लेती हैं। तरु का बनाया खाना बडी उदारता से सबको बाँट देती हैं। बाहरवालों के लिये बड़ी संवेदनशील, बड़ी करुणामयी, बड़ी स्नेहमयी बन जाती हैं। सबकी सहानुभूति पा लेती हैं। और पिता? वह सोच नहीं पाती। पिता की वेदना की सीमा निर्धारित नहीं कर पाती।

वह घड़ी देखती है -दो बजते हैं, फिर तीन बजते हैं वह घबरा कर चीख़ उठना चाहती है, 'तुम इस हड्डियों के ढाँचे को भी साबित नहीं रहने दोगी!’

न मर्यादा का ध्यान, न श्लीलता-अश्लीलता का होश! वे बोलते -बोलते थकती भी नहीं। वे क्यों थकेंगी, उन्हें कहाँ दिन भर दफ्तर में काम करना है! उन्हें तो घर में भी किसी काम से मतलब नहीं उनकी हर ज़रूरत पूरी होनी चाहिये नहीं तो। क्या कुछ नहीं कर डालें!

कितना सामान घर में बनता था। आये गये को पास-पड़ोसियों को आग्रह कर कर के खिलाया जाता था, पर पिता नहीं खाते थे। कैसे खाते वे? महीने भर का सामान पन्द्रह दिन में खत्म होने पर फ़र्माइश तो उन्हीं से की जायेगी। ऊपर से सुनने को मिलेगा तुम नहीं खाते क्या? खाते बड़ा अच्छा लगता है, सामान लाते जान निकलती है।

वे नाश्ते की तश्तरी सामने से हटा देते थे। तब अम्माँ कहती थीं”न खा सकते हैं, न दूसरों को खाते देख सकते हैं उनके सामने मत ले जाओ।”

उनके लिये था सिर्फ दो समय का खाना शान्ति से मिल गया तो खा लिया, नहीं तो उठ कर चले गये। और बाद में तो वह भी नहीं -जैसे ज़िद चढ़ गई थी उन्हें कि तुम क्लेश मचाओगी तो मैं कुछ नहीं खाऊँगा।

जीवन के सत्य कैसे अजीब हैं, जिन पर विश्वास करना बहुत मुश्किल है। पर तरु करने लगी है। यहाँ जो कुछ घटता है, कहीं न कहीं अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है -ऐसी छाप जो समय के साथ भीतर उतरती चली जाती है, गहरे और गहरे। ऊपर से देखने में कहीं कुछ नहीं लगता पर भीतर जो अंकित हो गया है वह अपनी चुभन से कभी मुक्त नहीं होने देता।

जीवन में है क्या? तरल को लगता है कुछ नहीं है। एक के बाद एक बीतते क्षण, घंटे, दिन, महीने, वर्ष, एक के बाद एक, लगातार, अनवरत।

ऐसी मनस्थिति लेकर किसी को सुख -शान्ति दे सकती हूँ क्या? जो खुद अशान्त है वह दूसरे को और क्या देगा? यह क्रम आगे न बढ़े। नहीं, बिल्कुल नहीं!

व्याकुल हो तरु उठ कर खड़ी हो गई।

उसे याद आता है दस-बारह साल की एक लड़की फीके-से रंग की फ्राक पहने, , दूसरों के अच्छे-अच्छे वस्त्रों को छिपी निगाहों से देखती है, जहाँ कोई उसकी ओर देखता है एकदम संकुचित हो जाती है।

अम्माँ उसे मामा के घर छोड़़ कर खुद चली गई हैं। हर क्षण उसे लगता है उसके खाने-पीने उठने बैठने साँस लेने तक पर औरों की नजरें रहती हैं। न वह ठीक से सो पाती है, न निश्चिन्त होकर कुछ कर पाती है। खाते पीते सहज नहीं हो पाती। कुछ काम करती है तो शंकित मन और विचलित हाथों से कुछ का कुछ कर बैठती है। हर समय उसे उसे जैसे कोई तोलता रहता है। हमेशा सहमी सी रहती है। खाने बैठती है तो इच्छा होती है खाती चली जाये, पर हाथ रोक कर उठ आती है। किसी चीज से उसका मन नहीं भरता। एक चिर अतृप्ति उसके साथ-साथ चलती है।

पर अब क्यों लगता है ऐसा? जीवन का एक छोटी सी अवधि जो कब की बीत चुकी है सारी जिन्दगी के आड़े क्यों आ जाती है? उसे याद है उसने सोच लिया था रोयेगी नहीं। चुपचाप सब झेलती रहेगी। किसी को कुछ नहीं बतायेगी, किसी से शिकायत नहीं करेगी।

सब भाई -बहिन घर में इकट्ठे हुये थे। मन्नो जिज्जी भी आईँ थीं उन दिनों, चिट्ठी से सब पता लगा था। बस एक तरु सब के बीच नहीं थी। हाँ, मुझे काहे को बुलायें? फ़ालतू हूँ मैं तो! मेरी याद किसी को काहे को आती होगी? नहीं रोऊँगी मैं भी। उन्हें याद करके बिल्कुल नहीं रोऊंगी।

तब के रुके हुये आँसू क्या अब आँखों में बर-बार उमड़ आते हैं?

रात बड़े अजीब-अजीब सपने आते रहे। देख असित आया है कह रहा है”मैने दो दिन से कुछ नहीं खाया तरु। बहुत भूखा हूँ। तुम भी नहीं पूछोगी मुझे?”

रुकिये, मैं खाना बनाने जा रही हूँ।”

फिर वह ग़ायब हो गया। तरु बदहवास सी घूम रही है। कोई बच्चा चीख -चीख कर रो रहा है -उसे लगता है बच्चा बीमार है, भूखा है। अरे, कौन अकेला छोड़़ गया इसे?

दृष्य बदल जाता है, सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आहट होती है, पिता जी आये होंगे, उन्हीं के चलने की आवाज है यह!

वे आकर चुपचाप खड़े हो गये --शरीर हड्डियों का ढाँचा, फटी लटकती कमी़, मटमैला पाजामा। तरु की ओर देखे जा रहे हैं। तरु सोच रही है आज फिर अम्माँ ने फाड़ डाली कमीज़!

'पिता जी खाना लाऊँ?”

कोई उत्तर नहीं।

वह थाली परोसने उठी। पिता कुछ क्षण खड़े देखते रहे, फिर लौट गये।

एकदम चले गये वे!