एक थी तरु / भाग 16 / प्रतिभा सक्सेना

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नव-रात्रियों के सुहाने दिन।

जैसे सारा परिवेश एक सूक्ष्म -चेतना से अनुप्राणित हो उठा हो। जगन्माता के अनेक रूपों की स्तुतियाँ, हवन, रतजगे। चारों ओरनई ऊर्जा का दिव्य-प्रवाह!

माँ के रूप में नारी का कोई रूप अग्राह्य नहीं, कोप में भी करुणा छिपी है जिसके, उस विराट् जगन्माता के कितने रूप, कितने नाम! इस संसार में मातृत्व के बिखरे कण उसी की अभिव्यक्ति। परा प्रकृति कीक्रीड़ा में, विकृति कहाँ से आ गई!

फिर यह इतनी अशान्ति क्यों?

दुख पिता की पीड़ा के लिए है, -माँ, ऐसा व्यवहार क्यों -इतनी करुणाहीन क्यों?

और इसीलिए माँ के प्रति असंतोष!

'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति!’

सुप्त आक्रोश जब जागता है चैन नहीं लेने देता। मन थिर नहीं रहता,

असित का ध्यान बार-बार आता है -उस दृष्टि का नेह मन स्निग्ध कर जाता है।

पर टिकता वहाँ भी नहीं। रात की निस्तब्ध गहराइयों में निरंकुश हो चाहे जहाँ चल देता है।

पहली बार नींद कब उचटी थी? याद आता है तरु को -बहुत छोटी थी, एक रात अचानक नींद खुल गई। घुटी-घुटी सी सिसकियों की आवाज़! रजाई के अन्दर अम्माँ रो रही हैं -क्या हो गया इन्हें?

पिता के स्वर कानों में पड़े -

'सो क्यों नहीं जातीं? क्यों बेकार खुद भी परेशान हो रही हो, दूसरे को भी परेशान कर रही हो?’

'कभी मन का पहना नहीं, कभी बच्चों को अच्छा खिलाया-पहनाया नहीं। मैं तुमसे कुछ नहीं माँगती। बस मुझे नौकरी कर लेने दो। मैं सबको खुश देखना चाहती हूँ। बच्चों को तरसते देखना मुझसे सहन नहीं होता। तुम तो सुबह से घर से निकल जाते हो, तुम्हें क्या पता। मैंने जितना पढ़ा-लिखा है उस पर जब मिल रही है तो क्या नुक्सान है?’

पिता बिल्कुल चुप हैं।

“सुन रहे हो, तुम्हें क्या परेशानी है?’

वे बिगड़ उठे, ’हाँ, हाँ, थू-थू कराओ मुझ पर! मैं तो नकारा हूँ। खिला-पहना नहीं सकता! जीना मुश्किल कर दिया! दिन भर खट कर आता हूँ और यहाँ रात को चैन से सोने को भी नहीं मिलता। तुम्हारे कहने से मैंने अम्माँ, दद्दा से भी पूछा जब उनने भी साफ़ मना कर दिया तो मै क्या करूँ?’

उन्हें क्या पता यहाँ का हाल! कैसे घर चलता है मैं ही जानती हूँ। फिर आगे भी जुम्मेदारियाँ।’

पिता चिल्लाये, ’मैं तो मर गया हूँ! तुम्हीं सम्हालोगी जुम्मेदारियाँ! अब नौकरी का नाम लिया तो घर छोड़़ कर निकल जाऊँगा। राज हो जायेगा तुम्हारा, दुनिया भर को दिखाती फिरना अपनी खूबसूरती, खूब पहनना ओढ़ना।’

फिर वे उठकर दूसरे कमरे में चले गये थे कह कर, ’ यहाँ तो तुम यही सब मचाती रहोगी, मुझे नहीं सोना यहाँ।’

सहमी हुई तरु चुपचाप लेटी रही, सिसकियाँ क्रमशः धीमी होकर थम गईं।

सुबह अम्माँ को चुपचाप काम करते देखा उसने।

एक बार और सुना था उसने पिता को चिल्लाते हुये, ’मैं खटकता हूँ, लो, खून पी लो मेरा। पैसा चाहिये तुम्हें, जहर दे दो मुझे और करो जाकर जो चाहो।’

पिता खा -पी कर चले जाते थे काम पर। सारी समस्यायें घर पर अम्माँ के साथ रह जाती थीं; बाल-बच्चे खाना -पीना, पढाई -पहनाई, तीज-त्योहार, आये-गये सब उन्हें सम्हालना था। कमाई कुछ बहुत नहीं थी। कुछ ओवर-टाइम भी करते थे। कोई लत नहीं थी उन्हें, बस चाय पीने का शौक था, सिगरेट पी लेते थे पर बहुत कम, बच्चों के सामने तो कभी नहीं।

तरु सोच रही है अगर मुझे हर बात में अपना मन मारना पड़े, अगर मेरी कोई इच्छा पूरी न हो, कुछ करना चाहूँ और सारे शौक उसाँसों में बदल जायें। ऊपर से बच्चे पैदा होते रहें, अभावों में जीते रहें। न ढंग का खिला पाऊँ, न पहना पाऊँ। दिन-रात वही देखती सहती -रहूँ, सारी क्षमतायें बेकार हो जायें और योग्यतायें कुण्ठित। तो मुझे कैसा लगेगा?

पगला जाऊँगी मैं तो!

अगर मैं उबर सकती हूँ, तो अभावों मे क्यों जिऊँ? क्यों हो जाऊँ वंचित, कुण्ठित, असंतुलित!

अम्माँ बहुत सुन्दर थीं, शन्नो जिज्जी से भी सुन्दर। वे बहुत शौकीन थीं और बहुत गुणी। उनके खाने का स्वाद! कुछ भी बना दें उँगलियाँ चाटते रह जाओ। उनकी सेंकी ठंडी रोटियाँ, तरु को जिज्जी की ताज़ी गरम रोटियों से ज्यादा स्वादिष्ट लगती थीं। काम करने और ढंग से रहने का भी खूब सलीका था उन्हें। जिस चीज मे हाथ लगा दें सुन्दर हो जाये। तरु को याद आ रहा है वह टाट का टुकड़ा, जो सुन्दर आसन में परिणत हो गया था।

कहीं से एक पार्सल आया था। अम्माँ ने उस पर लिपटा हुआ टाट बड़े सम्हाल कर खोला, यत्नपूर्वक सीधा करके बड़ा सा आयताकार टुकड़ा निकाल लिया। फटी साड़ियों की बॉर्डरों से रंगीन तागे निकाल कर उन्होंने उस पर डबल क्रास-स्टिच से कढ़ाई कर ली, पुराने कपड़े का अस्तर टाँक दिया।

देखते रह गये थे सब लोग! कहीं-कहीं पोस्ट-ऑफिस की सील की छाप झलक जाती थी, पर उस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता था।

शन्नो जिज्जी ने कहा था, ’अम्माँ, नये टाट पर बनातीं तो ये निशान नहीं आते, एकदम ताजा और खूबसूरत लगता।’

'नया टाट, नई तारकशी?’

अम्माँ के मुँह से निकला, ’उसमें कितने पैसे खर्च होते! यह तो मुफ़्त में बन गया। एक पैसा नहीं खर्च हुआ। उस पैसे से घर की जरूरतें पूरी होंगी।’

मनचाहे ढंग से सौन्दर्य की सृष्टि करने की लालसा उनने मन में दबा ली थी, पर उनके मुख पर एक छाया-सी उतर आई थी। तब पतली-पतली सलाइयों से गठे-गठे स्वेटर बुनने का चलन था, साइकिल की तीलियों पर उनके बुने हुये स्वेटर, पड़ोस के घरों मे माँग-माँग कर देखे जाते थे। मोहल्ले की औरतें उनसे सीखने, सलाह लेने को उत्सुक रहती थीं। ओ, अम्माँ, तुम साधारण क्यों नहीं थीं? और फिर तो तुम लगातार असामान्य होती चली गईं!

अब तो वह सब बीत गया है, फिर क्यों उद्वेग जागता है मन में! जब बहुत दिनों तक अच्छी तरह रह लेती है अपने शौक पूरे करने का संतोष होने लगता है, तब किसी अकेले प्रहर मे अनायास कोई उद्विग्नता सिर उठाती है, मन अशान्ति से भर जाता है, तरु को लगने लगता है निश्चिन्त जीवन जीकर वह कोई गुनाह किये जा रही है। कुछ बार-बार उमड़ता है, जो चैन नहीं लेने देता।

अब तो वह सब समाप्त हो गया, फिर बार-बार मैं वहीं क्यों पहुँच जाती हूँ?मन का एक कोना रिक्त होकर रह गया है, मौका पाते ही पुराने प्रतिबिम्ब वहाँ उभर आते हैं। पिता की बहुत याद आती है तरु को, पर आज अम्माँ की बातें मन में उमड़-उमड़ कर आ रही हैं।

आज जब अपने ऊपर सोच कर देखा तो बहुत कुछ स्पष्ट होने लगा है।

अपनी जिन योग्यताओं पर उन्हें गर्व था जिस कौशल पर विश्वास था, वे कुण्ठित होते जा रहे थे, अपने को कहाँ प्रमाणित कर सकीं थीं वे! वे सिसकियाँ और हिचकियाँ तरु के मन को मथे डाल रही हैं। एक दिन नहीं दो दिन नहीं महीनों, बरसों, कैसी यंत्रणा से गुजरी होंगी! उबरने का कोई रास्ता नहीं, आशा की कोई किरण नहीं, और उत्तरदायित्वों के पहाड़ छाती पर सवार। जब तक हो सका खींचती रहीं वे, फिर जो घटता गया, उसे रोकना किसी के बस मे नहीं रहा। उनकी सारी आशायें चन्दन पर टिकीं थीं। चन्दन बड़ा होगा, उसकी कमाई से घर का रूप बदल जायेगा, बहू आयेगी। जिठानी और ननदों की तरह मैं बड़ी बन कर रहूँगी, भरी पुरी गृहस्थी में पुत्रवधू से सम्मान पाते हुये। पर चन्दन कहाँ रहा?, सारी आशाओं पर पानी फेर कर चला गया।

उनने कब चाहा होगा कि एक के बाद एक बच्चे पैदा होते चले जायें। पर हम लोग पैदा होते गये और वे झेलती गईं। अभावों की मार सबसे अधिक गृहिणी को त्रस्त करती है। सबकी जरूरतें मुँह बाये खडीं और ताल-मेल बैठाती अकेली स्त्री। किससे कहे क्या करे?

यह बात नहीं कि उन्हें बच्चों से प्यार नहीं था। पास लिटा कर कहानियाँ सुनाती थीं, अनेक तरह की चर्चायें करतीं थीं -जानकारी देने वाली, मानसिक स्तर ऊँचा उठाने वाली, एक विचार परंपरा विकसित करनेवाली। एक स्तर था उनका जिसके लिये पूरे जी जान से जुटी रहीं।

पर यह सब कौन जान सकता है जीवन की किताब में अंकित कुछ घटनाएं कुछ तारीखें गिने-चुने विवरण ही तो पढ़नेवाला पढ़ता है। और वहाँ लिखा है -

सोलह वर्ष की उमर नें गोविन्द प्रसाद से विवाह। कुछ वर्ष ससुराल की जद्दोजहद में। नई बहू बनी नये परिवार में अपनी जगह तलाशती एक लड़की, दसवाँ करते-करते जिसकी पढ़ाई छुड़ा दी गई है। जो अपनी शिक्षिकाओं की प्रशंसा पाती, आगे के सपने बुनने लगी थी।

अध-बिच में ही एक नए घर की नींव पड़ी और नई गृहस्थी की गाड़ी जुत गई।

पहिये आगे बढ़ते रहे, गाड़ी में नन्हें नन्हें सवार आने लगे।

पर जीवन के इतिहास में यह सब नहीं लिखा जाता। वहाँ

जो हिसाब दर्ज होता गया वह सिर्फ़ इतना -दो साल बाद एक लड़की पैदा हुई, उसके पौने का होते-होते। एक और, जो कुछ दिन बीमार रह कर चल बसा, फिर साल भर में अबॉर्शन, , फिर लड़की, दो साल के अंदर एक और सड़का, । उसके बाद लंबी बीमारी। फिर लड़की, उससे अगली बार जुड़वाँ, जिनमें से एक ज़िन्दा बच गया। माँ हद की चिड़चिड़ी, लगातार अस्वस्थ रहनेवाली।

अधिक डिटेल्स की ज़रूरत भी नहीं!

गाड़ी खिंचती चली जा रही थी।

द्वितीय विश्व-युद्ध की विभीषिका। स्थितियाँ तेज़ी से बदल रहीं थीं।

ताल -मेल बैठाने की अम्माँ की कोशिशों में कोई कमी नहीं, बाह्य संचालन में कोई बाधा नहीं -पर कभी-कभी असहज-सा गतिरोध उभरने लगा। आंतरिक व्यवस्था में रुकावटें आ कर खड़ी हो जातीं।

हर ओर से टकरा कर आशाओं -आकांक्षाओं का अस्तित्व क्या गुमनाम अँधेरों में ऐसे ही विलीन हो जाता हैं -!

कुंठित प्रखरताएँ या तीक्ष्ण धार के अवांछित मोड़!

काल की गति रुकती कहाँ है -हिचकोले खाती रहे गाड़ी पर चलने से कैसे रुक जाय!