एक थी तरु / भाग 1 / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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प्रकृति की रचना का कितना सुन्दर दृष्य है -भाई-बहिन का जोड़ा! निर्मल हास से प्रकाशित दो अनुरूप चेहरे जिनमे कहीं कुछ आरोपित नहीं, सहज-स्वाभाविक। समाज ने नहीं निसर्ग ने जोडा है इन्हें। दुनिया की कुरूपताओं और विकृतियों से बेख़बर, निश्चिन्त। माता-पिता-पुत्र, पति-पत्नी भाई-भाई सबके संबंधों पर कवियों की लेखनी चली है पर भाई-बहिन के संबंध की सहजता और सुन्दरता पर किसी कवि की उक्तियाँ याद नहीं आ रहीं तरल को।

उस कोठी के मालिक ने पीछे की तरफ कई कोठरियाँ बनवा दी हैं, एक मे महरी दूसरे मे माली और तीसरे मे एक रिक्शेवाला रहता है। कोठी के मालिक और अड़ोस-पड़ोस के घरों में काम करते हैं ये लोग! नाटू रिक्शेवाला अधिकतर अकेला ही रहता है। दिन भर रिक्शा चलाता है, रात गये आता है तब उसकी कोठरी से खाँसने की आवाज सुनाई देती रहती है तरु को। एकाध बार तरु को बैठा कर लाया तब से पहचानने लगी है वह। गाँव में रह रहे अपने घर-परिवार के पास दो-तीन महीनों में चक्कर लगा आता है।

महरी के दो बच्चे ब्रजमती और कन्हैया झिंझरीवाली ईंटों की दीवार पर चढ़ कर इधर ही झाँक रहे हैं। ब्रजमती के रूखे भूरे बाल उसके साँवले-सलोने चेहरे के चारों ओर बिखरे हैं और आँखों मे काजल है-एक में खूब गहरा, दूसरी मे हल्का। महरी के चारो बच्चे साँवले हैं पर सबसे अच्छी लगती है ये ब्रजमती, खूब सुडौल नाक-नक्श और चेहरे पर भोलापन, खूब सौम्य। तरु को देखते ही जाने क्यों कांशस हो कर झेंप जाती है और हल्के से मुस्करा देती है। पर कन्हैया उतना ही जंगली है। चलेगा तो रास्ते के कंकडों को ठोकर मार -मार कर उछालता हुआ। साथ के लड़कों से उसकी लड़ाई भी बहुत होती है। अब तो किसी ठेलेवाले के साथ काम करने लगा है, बड़ा चालाक हो गया है। हमेशा कुछ-न-कुछ बोलता रहेगा। ब्रजमती तीसरे नंबर पर, उससे पाँच साल छोटी है पर बडी शान्त। सबसे छोटी मुनिया बड़ी रूनी और जिद्दी है, अक्सर ही जमीन मे लोट-लोट कर रोती रहती है। और गोद का छोटावाला तो अभी किसी गिनती मे है ही नहीं।

विवाह की धूमधाम ने कोठी की काया ही पलट दी है। पड़ोस के परिवार ने शादी के लिये उस कोठी का कुछ भाग महीने भर को किराये पर ले लिया है। महरी यही है बिरजो की अम्माँ। महरी की जड़ें भी गाँव मे ही हैं, फसल कटने के दिनों मे महरा को छोड़ कर पूरा परिवार चला जाता है।

इस कोठी की झाड़ियाँ रंगीन बल्बों की रोशनी में चमक रही हैं। रंग-बिरंगी कनातें और पण्डाल, कालीन और कुर्सियों की कतारें, साइड मे लॉन से थोडा उधर, मेजों पर खाने का प्रबंध -तीन सौ लोगों के खाने की ए-वन व्यवस्था-वेज-नानवेज दोनों। सजे सजाये बैरे, हर मेज़ पर खाना गर्म रखने का पूरा इन्तजाम। लोगों को कॉफ़ी पहुँचाने और खाली कप बटोरने के लिये बैरे इधर उधर घूम रहे हैं।

गेंदे और मोगरे की झालरों से मंच सजा है, जयमाल पड़ चुकी है। वधू मंच पर रखी सिंहासनाकार कुर्सी पर वर के पास बैठा दी गई है। दोनों बहुत सज रहे हैं -सबके आकर्षण का केन्द्र। कैमरों की रोशनी बार-बार चमक उठती है। दीवार के पार चेहरों की संख्या बढ़ गई है। लोग खाने की मे़ज़ों की ओर बढ़ने लगे हैं। मिसेज रायज़ादा, जो मेज़बान घर की बहू हैं तरल से कह रही हैं, ’चलिये न, खाना खा लीजिये। "

इतने में रायज़ादा आगे बढ़ आये, ’ इनसे मिलिये ये तरल जी, और ये हैं हमारे परम मित्र असित वर्मा।’

दोनों के हाथ जुडते हैं।

'आपको कहीं देखा है!’

'हाँ जरूर देखा होगा। इसी शहर में रहती हूँ।’तरल आगे बढ़ गई। प्लेट हाथ में उठाये किसी की पुकार सुन पीछे घूमी, पता नहीं किसने बुलाया वह खाना परोसने लगी।

ट्रेन की घटना उसके ध्यान में फिर से आ गई। स्लीपर मे अपनी सीट ढूँते समय अटैची किसी से टकरा गई थी। तेज-सी आवाज आई थी-

'अभी हड्डी टूट जाती तो। ?'

'वह अचकचा कर देखने लगी, ’वेरी सॉरी!’

'हुँह, सॉरी! हमसे कुछ हो जाता तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता। और खुद ऐसे अंधाधुन्ध चलती हैं। आगा-पीछा देखे बिना।’

'देखिये बिगड़िये मत। ऐसा ही है आप मेरे पाँव पर अटैची पटक कर बदला ले लीजिये, ’ वह रुक कर खड़ी हो गई।

'जाइये, जाइये, बस बहुत हो गया।’

कह रहा है कहीं देखा है! देखा क्यों नहीं होगा! ट्रेन की बदमज़गी क्या इतनी जल्दी भूली जा सकती है!

'इन्तजार करेंगी तो करती ही रह जायेंगी, आगे बढ़ चलिये।’पास मे खडी एक सौम्य सी तरुणी ने तरल को आगे बढा दिया।

'अरे असित दा, आप यहाँ कहाँ से?’

'सुमी तुम? अकेली हो या वो भी हैं?’

'आये हैं वो उधर।’

तरु ने आगे बढ कर परोसना शुरू किया, और अपनी प्लेट लेकर साइड में जाकर खडी हो गई। अचानक उसकी निगाह दीवार के पार जा पडी। एक साथ कई जोड़ी आँखें खाने की प्लेटों पर लगी हैं। तरु का चम्मच पुलाव की ओर बढ़ रहा है, शेरू की आँखों मे चमक आ गई है, ब्रजमती और कन्हैया भी इधर ही देख रहे हैं। मेहमान चल-फिर कर खा रहे हैं बच्चों की और किसी का ध्यान नहीं है।

'अरे, आप ये कोफ्ते लीजिये, ’ किसी ने चमचा भर कोफ्ते उसकी प्लेट में डाल दिये। रसा बह-बह कह हलुये और सूखी सब्ज़ी में समाया जा रहा है, घी उतराते शोरबे से सब कुछ सन गया है। तरु को लग रहा है दीवाल पार से बच्चों की निगाहें खाने पर लगी हुई हैं। सारी प्लेट कोफ्ते के चिकनाई भरे रसे में डूबी है। मुँह मे कौर रखना मुश्किल हो गया है।

'अरे आप खाइये न।’

ढेर सा खाना सामने रखा है, खाने की पूरी छूट है फिर बार-बार कहने की क्या जरूरत है! तरु को खीझ लग रही है पता नहीं लोग अपनी पसंद की चीजें दूसरों की प्लेटों मे क्यों भर देते हैं!

पास ही सुमी खडी है। उसने सिर उठा कर तरु की ओर देखा, ’अपने हिसाब से अपने आप लेना अच्छा रहता है। कोई परस न दे इसीलिये प्लेट लेकर मै दूसरी तरफ़ चली गई। "

दोनों की आँखें चार हुईं -यह कैसे मेरे मन की बात समझ गई तरल ने सोचा वह भी उसी ओर बढ़ गई।

घी से तर शोरबे में डूबी कोई चीज वह खा नहीं पायेगी, एकाध कचौरी खाकर प्लेट को यों ही नीचे रख देगी। और लोगों की प्लेटों मे भी आग्रहपूर्क जो डाला जा रहा है उसमें से भी बहुत सा वैसे ही फिंक जायेगा, कुर्सी पर भरी प्लेटें लिये बैठे बच्चे थोड़ा खायेंगे और बहुत छोड़़ेंगे। और वे बच्चे दीवार पार से देखते रहेंगे।

'छोले मे थोड़ी चटनी और प्याज मिलाओ तो मजेदार लगते हैं', दो बच्चे बातें कर रहे हैं। दोनो उठे और अपनी-अपनी प्लेट लेकर मेज़ की ओर बढ़ गये। दीवार के पार से आवाज आई, ’छोले हैं, दहीबडे़, कचौड़ी, पुलाव। , '

'और चटनी भी, ’कन्हैया की आवाज।

तरु को लगा उधर खड़े बच्चे मुँह चला रहे हैं। डेढ़ हाथ की दूरी पर दीवार के पार से शेरू, कन्हैया, ब्रजमती और दो बच्चे और सब देख रहे हैं, मेज पर रखेी सामग्री को, खाते हुये लोगों को, और बर्बाद होते खाने को भी देख रहे हैं। इस जगमगाती रोशनी में सब साफ़ दिखायी दे रहा है, बार-बार उनके मुँह चलने लगते हैं।

महरी बीमार है छोटे बच्चे को लेकर कब की सो गई। जब तरु इधर आ रही थी, उसका छोटा बच्चा रो रहा था ब्रजमती कह रही थी, ’अम्माँ, जे अऊर दूध माँगत है।’

'अरे दुलाई मे दुबकाय के थपक दे, भरक के अभै सोय जाई।’

बडी देर तक बच्चा रिरियाता रहा था और महरी ब्रजमती को डाँट रही थी, ’धियान तो खेल महियाँ लगा है, नेक चुपाय नाहीं लेत है।’

'भूखा है अम्माँ, हमाल कपडन पे मुँह मार रहा है।’

'आग लगी है ओहिका पेट मे। कहाँ से दूध लाई भर-भर के?’

महरी बीमार है दूध उतरता नहीं। बच्चा परेशान करता है तो गुस्सा उतरता है ब्रजमती पर।

मिसेज़ कपूर साथ खड़ी महिला से कह रही हैं, ’बाबा रे बाबा, हमारा बेटा तो मुश्किल कर देता है। एक दिन पेपरवाला नहीं आया और ही आसक्ड मी अ थाउजेन्ड क्वेश्चन्स। हमें तो एक ही काफी है। वी कान्ट अफोर्ड अनदर।’

दूसरी बोली, ’बच्चे पैदा करना और पालना कोई आसान काम है? हम तो इन दो में ही भर पाये भइया। उन्हे सम्हालते-सम्हालते रो देते हैं। नौकर है, आया है फिर भी फुर्सत नहीं मिलती।’

'पता नहीं लोग तीन-तीन चार-चार कैसे मैनेज कर लेते है।’

'अरे, आप ताज्जुब करेंगी, हमारी कामवाली के छः हो चुके हैं और फिर फूली घूम रही है, बिल्कुल तन्दुरुस्त।’

'लाइक वाइल्ड ग्रोथ। , 'मिसेज कपूर के शब्द थे, ’इन लोगों के हो भी जाते हैं पल भी जाते हैं। न खाने को, न पहनने को जाड़ों मे नंगे घूमते हैं, फिर भी बीमार नहीं पडते।’

'पूछो मत। हर साल एक पैदा कर के भी जस की तस धरी रहती हैं। यहाँ तो पैदा करना मुश्किल और पालना तो और भी।’

'यहाँ तो एक पैदा करके ही ढोलक सा पेट हो गया, हुआ भी ऑपरेशन से। अपनी तो अब हिम्मत नहीं।’

मिसेज कपूर ने तीस की हो जाने के बाद शादी की है। एक ही लडका वह भी सिजेरियन से, बोलीं, ’हमे तो एक ही पालना मुश्किल है लोग जाने कैसे एफोर्ड कर लेते हैं। आई वंडर हाऊ डू दे मैनेज।’

'और बडी आसानी से इनके पैदा भी हो जाते हैं, न तकलीफ़, न कोई खर्चा! बाबा रे बाबा, हमें तो देख कर ताज्जुब लगता है। एक ही कुठरिया उसी मे बच्चे पैदा होते हैं, , मरते हैं, पलते हैं। जिन्दगी के सारे काम उसी जगह मे।

'हाऊ हॉरिबल!'वे सिर हिला कर काँपने का अभिनय करती हैं।

यहाँ जितनी भी औरतें हैं उनने बच्चा पैदा करने में बड़ी तकलीफें उठाई हैं। वैसे सब सुविधायें हैं उनके पास, नौकर, वाहन, बँगला, फ्रिज। टीवी। और ये महरी मालिन जो पैदा करने और पालने मे माहिर हो गई हैं, इनके अपने आप पैदा होते हैं, बड़े हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी चीज़ की अपेक्षा नहीं। इतनी आसानी से जन्मते हैं जैसे धरती की कोख से अँकुर।