एक थी तरु / भाग 2 / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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बाहर अथाह अंधकार ट्रेन भागी जा रही है। थ्री-टियर के इस डब्बे में सब सो गये लगते हैं। रह-रह कर उठती खर्राटों की आवाजें सन्नाटे को भंग कर देती हैं, नहीं तो वही एक-रस पहियों की घड़घड़ाहट और भाप की सिसकारियाँ।

असित को नीचे की बर्थ मिली है। ठण्डी हवा के डर से मुसाफ़िरों ने सारी खिड़कियों के दरवाज़े बन्द कर दिये हैं। इतने लोगों की साँसें और ताज़ी हवा बिल्कुल भी नहीं -उसे घुटन-सी लगने लगती है। सिगरेटों का धुआँ वातावरण मे घूम रहा है, निकलने की राह ढूँढता-सा।

असित ने अपनीवाली खिड़की आधी खोल दी, सरसराती हुई ठण्डी हवा का झोंका भीतर घुस आया, रोंगटे खड़े हो गये, उसने कंबल अच्छी तरह लपेट लिया। रात का डेढ़ बज रहा है, उसे वैसे भी नींद देर से आती है, ट्रेन में तो ठीक से सो ही नहीं पाता

पेड़ों के धुँधले आकार उल्टी तरफ दौड़े चले जा रहे हैं। कहीं-कहीं रोशनी के बिन्दु चमक कर, शीघ्र ही आँखों से ओझल हो जाते हैं। रह जाता है वही अशेष अँधेरा और धुँधले आकाश में टिमटिमाते थोडे-से सितारे।

शीतान्त की सूखी, उजाड़ हवायें निर्बाध चल रही हैं -डाले़ं झकझोरती, पत्ते गिराती, जमीन पर पड़े सूखे पत्तों को खड़खड़ाती, बटोरती, उडाती हुई।

ट्रेन में यों ही सफर करते अनगिनती रातें गुजर जाती हैं। कभी-कभी असित को लगता है, जैसे उसके पाँवों में सनीचर है जो कहीं टिकने नहीं देगा। यों ही चक्कर काटते सारी जिन्दगी बीत जायेगी। और ऐसा है भी कौन जो उसे रोक ले, बाँध कर रख ले!

अपनेपन की क्या परिभाषा है वह आज तक नहीं समझ पाया। परायों ने अपनापन दिया और जिन्हें दुनिया में अपना कहा जाता है, उनसे मिला सिर्फ शिकायतें, उलाहने, नसीहतें! वे समझना नहीं चाहते सिर्फ समझाना चाहते हैं, अपनी दृष्टि से उसे वह सब दिखाना चाहते हैं जिसे उसने खुली आँखों से देख कर अच्छी तरह समझ लिया है। उनकी बातें असित के गले नहीं उतरतीं इसलिये वह उनसे दूर भागता है, अवकाश का कोई क्षण उनके साथ बिताना नहीं चाहता। उनके साथ बिताया गया समय उसके मन पर बोझ बन जाता है, जो बहुत देर तक उसे ढोना पडता है। उसने चुनी भी है यह घूमनेवाली नौकरी-एक प्रसिद्ध फर्म का मेडिकल रिप्रोजेन्टेटिव, महीने में जिसके बीस दिन टूर पर बीतते हैं।


कभी-कभी कैसी अजीब बातें करने लगते हैं घर के लोग! बड़ी बहिन का ब्याह हो गया, जब मिलती हैं शिकायत करने लगती हैं -"भइया, तुम्हें तो किसी से लगाव नहीं, मेरे घर से होकर निकल जाते हो! एकाध दिन रुकने का मन नहीं होता? ----हाँ, सोचते होगे भाञ्जे -भाञ्जी कुछ फर्माइश कर देंगे! "


बच्चों की फर्माइशें पूरी करने में तो आनन्द आता है पर बड़ों की दिन-रात की नसीहतें कहाँ तक झेले। वह सोचता है कहता कुछ नहीं। कोई भी बात होने पर सुनने को मिलता है-मामा हो और अच्छे-खासे कमाऊ! कर नहीं सकते क्या?


फिर श्यामा की शिकायतें शुरू हो जाती हैं, " मुझे तुम्हारे लिये कितना लगता है तुम समझ नहीं सकते! शुरू से कितना करती रही हूँ तुम्हारे लिये --अब तुम अच्छा-खासा कमाने लगे हो, मुझे तो बड़ी खुशी होती है! "


अच्छा-खासा कमाने वाला! हाँ, उनके हिसाब से तो अच्छा खासा ही है। ठाठ भी हैं। पर यह पेशे की जरूरत है। न चाहूँ तो भी मुझे ऐसा रहना पड़ेगा-अप-टू-डेट, एकदम कसा-कसाया, चौकस। अपने फैशनेबुल होनेके बारे मे सुनकर उसे हँसी आती है मन-ही-मन, पर कुछ कहना बेकार सो चुप लगा जाता है।


रिश्तेदार हमेशा समझाते हैं कि अब उसे क्या करना चाहिये। उनकी पसन्द की गई लडकी से शादी कर ले, दान-दहेज अच्छा मिलेगा पैसे की कमी नहीं रहेगी घर में! वे खोद-खोद कर पूछते हैं तुम्हारा खर्च क्या है?घर में कितना देते हो, अलग एकाउन्ट खोला?


असित ऊब जाता है इस सब से। उन लोगों के पास जाने का मन नहीं होता। वैसे भी उसका रिजर्वेशन होता है -बीच में उतरना संभव नहीं होता। सब के लिये करने की कोशिश करता है पर किसी को संतुष्ट नहीं कर पाता। कमाई का एक चौथाई रख बाकी सौतेली माँ के हाथ में पकड़ा देता है। उसकी अपनी जरूरतें टी। ए। वगैरा से ही पूरी हो जाती हैं। श्यामा से राखी बँधवाने जाता है, बाबूजी और राहुल की शर्ट का कपड़ा खरीद लाता है। घर के छोटे-मोटे काम जो उसके बस के हैं करता रहता है, छोटे भाई-बहिन की पढ़ाई के बारे में पूछता रहता है, रश्मि की चुटिया पकड़ना भी नहीं भूलता। कहाँ कोई कमी रह जाती है?

फिर प्यार किसे कहते हैं?क्या परिभाषा है उसकी? उसे तो लगता है दुनिया के रिश्ते बदलते रहते हैं। इन्हीं माँ के सामने पहले बड़ी घबराहट होती थी, अब कुछ नहीं लगता। सगी बड़ी बहिन श्यामा पहले बहुत ध्यान रखती थीं, अब शायद उसका बदला पाना चाहती हैं। पिता पितृत्व को भुनाना चाहते हैं, छोटे भाई-बहन आते ही किस गिनती में हैं?


असित को याद है बचपन में उसके भूखे रहने पर श्यामा खाना नहीं खाती थी, सौतेली माँ के उकसाने पर पिता उसे पीटते थे तो रोती थी। और अब?अब सुबह चाय पीकर निकल जाता है। फिर किसी को उसकी चिन्ता नहीं होती। सब सोच लेते हैं बाहर खा-पी लेता होगा पैसा है जेब में। हाँ खाना तो पड़ता ही है पर क्या जी भरता है उससे!

सौतेली माँ चाहती हैं वह उनकी पसन्द की हुई लडकी से विवाह कर ले। जो आयेगा उससे रश्मि का दहेज पूरा होगा। पर असित वहाँ करने को बिल्कुल तैयार नहीं। उस पर लादे गये एहसानो का ब्यौरा पहले ही वहाँ पहुँच चुका होगा, इसलिये वहाँ सहज संबंध नहीं बन पायेंगे।

माँ जो हैं सो तो हैं, पर असित को अपने पिता पर सोच लगता है। कितने क्रूर हो गए थे वे! क्या जवान पत्नी के तुष्टीकरण के लिए उससे भी अधिक निर्दय हो कर पहली के बच्चों पर अत्याचार करते थे?सुधा तो तीनों में सबसे बडी थी, पूरा घर सम्हालती थी लेकिन कितना क्रूर व्यवहार होता था उसके साथ!।

सुधा को मारने-पीटने के बाद युवा पत्नी के साथ उनकी वे कामुक चेष्टाएँ। उन्हें दरवाज़ा बंद करने का भी होश नहीं रहता था या सौतेली माँ को इसमें अधिक संतोष मिलता था?

उनके तलुये सहलाना उनके बालों में तेल डालना। एक अधेड़ आदमी का यह सब करना, उफ़ उन्हें यह भी नहीं लगता था, बड़े-बड़े बच्चे सब देख -सुन रहे होंगे।

कहाँ भाग कर चला जाए समझ में नहीं आता था।

श्यामा और असित छोटे थे -उन्हें अक्सर ही हफ़्तों के लिए रिश्तेदारों के पास भेज दिया जाता था और सुधा उनकी चाकरी करने को रोक ली जाती थी। ज़रा सा चूकने पर दुत्कार-फटकार, मार-पीट और खाना बंद। हमेशा सहमी-सहमी सी रहती थी। इतनी दुर्बल होकर वह इतना काम कैसे कर लेती थी असित आज भी सोचता रह जाता है।


घर का माहौल जिस अजनबीपन से भरा है उसमें उसकी गृहस्थी बसे वह यह सोच नहीं पाता।

ऐसी अजीब परिस्थितियों में बचपन कटा है, इसीलिये स्वभाव भी विचित्र हो गया है। उसे लगता है वह कैसे पल गया! पला या जबरदस्ती बड़ा होता गया?

पहले श्यामा के मन में उसके लिये ममता थी, पर ममता का स्रोत भी धीरे-धीरे सूख जाता है।

कोई स्टेशन आया है, गाड़ी रुक रही है।

सुबह पड़ेगा गाज़ियाबाद -शायद दो-चार दिन रुकना पड़े। फिर यात्रा, यात्रा और यात्रा।

"गरम चाय, चाए ए गरम --। "

एक कुल्हड़ चाय पीने की इच्छा हो आई।

साइड की बीचवाली बर्थ से कोई उठ रहा है, नीचे उतर कर पूछ रहा है ", मनो, एई मनो, चाय पियोगी? "

"अरे बाबा, यहाँ कहाँ मिलेगी ढंग की चाय? "

बोलनेवाली मनो ही होगी। रजाई हिली, बिखरे बाल और टेढी बिन्दीवाला चेहरा बाहर निकल आया। बीच की बर्थवाले ने मनो की लटकती रजाई को सीट के ऊपर किया।

"न पियो, मुझे तो मिट्टी के कुल्हड़वाली चाय बड़ी सोंधी लगती है। "

"हाँ, उसमें घुला गुड़ और सोंधा लगेगा। "

"चलेगा, वह भी चलेगा। "

आसित ने सिर आगे बढ़ा कर आवाज दी, "एई, चायवाले! "

बीच की बर्थवाले ने कहा, "भाई साहब, एक चाय इधर भी। "

मनो ने रजाई मुँह तक खींच ली है।