एक थी तरु / भाग 27 / प्रतिभा सक्सेना

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'अरे, भाभी तुम यहाँ छिपी खड़ी हो, मैं सब जगह ढूँढ आई, ' कहती हुई रश्मि पास आ गई, ’अकेली खड़ी-खड़ी, क्या कर रही हो?’

'बाहर चबूतरे पर बडा मज़ेदार डिस्कशन हो रहा था। तीन-चार लोग थे, बाद में मास्टरजी और उनका लड़का भी आ गये थे।’

'चबूतरा पालिटिक्स हमरे यहाँ की खासूसियत है। हर मसला चाहे कहीं का, कैसा भी हो, पहले चबूतरे पर ही डिस्कस होता है।’

'हमारे यहाँ भी। हम जब छोटे थे रश्मि, 1947 से पहले की बात है, तब गान्धी जी का आन्दोलन ज़ोरों पर था। हमारे चबूतरे पर भी ऐसी ही गर्मागर्म डिस्कशन्स हुआ करते थे। आज सुन कर मज़ा आ गया। तब लोगों में जोश था। निष्ठा थी, कुछ उद्देश्य था। हाँ, । मास्टर जी के लड़के का नाम क्या है?’

'बबुआ का? अरुण चन्द्रा। मास्टर साहब ने अपने नाम के आगे से जाति तभी निकाल फेंकी थी। स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ कर कॉलेज छोड़़ दिया था। इनके भाई, चाचा वगैरा बड़ी अच्छी-अच्छी जगहों पर हैं। यह बिचारे रह गए। अब ल़ड़के को इस सब में पड़ने से मना करते हैं। कहते हैं पढ़ो-लिखो ज़िन्दगी बना लो। तुमसे कहना तो मैं भूल ही गई भाभी, माँजी तुम्हें कब से बुला रही हैं। सामान की लिस्ट बनाई जा रही है आज शाम तक सारा ताम-झाम धर्मशाला में पहुँच जाना है।’

तरु को मालूम है धर्मशाला सिर्फ तीन दिन के लिये मिली है। वैसे काफी बड़ी और खुली हुई है, कमरे भी काफ़ी हैं। रश्मि की बिदा के बाद ही खाली कर देनी होगी। छोड़़ते ही अगली पार्टी आ जायेगी। इन दिनों बहुत शादियाँ हैं,

घर में मेहमान काफ़ी आ गये हैं। हलचल बढ़ गई है।

आनेवाले अपनी-अपनी निगाह से तरल को तोल रहे हैं। अलग -अलग झुण्ड बना कर लोग छोटे-मोटे कामो में लगे हैं, साथ में बातें भी चल रही हैं।

लड़कियों में उत्सुकता है, असित भैया ने लव-मैरिज की है -ऐसा क्या है भाभी में?

'ऐसी सुन्दर तो नहीं है!’

'देखने में साधारण होते हुये भी अच्छी लगती है।’

'व्यवहार खूब अच्छा है।’

'खूब बातें करती हैं।’

'काम भी तो डट कर कर रही हैं।’

लड़कों का कहना कुछ और है -, 'सिर्फ गोरा रंग ही सब-कुछ नहीं। काली तो बिलकुल नहीं, कुछ गिरता रंग, पर बोल-चाल, व्यवहार कितना अच्छा है। बार-बार मिलने-बोलने का मन करता है।’

'ढंग भी खूब है, ऐसा कि घर बाहर हर जगह निभ जायें। प्रभाव पड़ता है कि मिले हैं किसी से।’

' हाँ, कुछ है जो अपनी तरफ खींचता है।’

'मन का साथी मिल जाय तो क्या बात है!’

तरल चुनौती सी खड़ी है सबके सामने। कुछ-कुछ रिमार्क कानों में पड रहे हैं।

'लड़का इतना हैण्डसम। बीबी और बढ़ कर मिल सकती थी?'

'चलो, जो है सो ठीक है। असित भाई कौन गोरे हैं उनसे तो साफ़ ही है रंग।’

तरल को खुद लग रहा है शादी के बाद उसका रंग काफ़ी खुल गया है।

' मिला-जुला तो कुछ भी नहीं।’।’किसी बड़ी-बूढ़ी का रिमार्क था, ’भई, कुछ जमा नहीं, पता नहीं काहे पर रीझ गया!’

'पागल हुई हो लव-मेरिज में कुछ मिलता है? बस लड़की मिलती है।’

तरु को याद है असित ने कहा था, ’तुम मुझे अच्छी लगती हो। तुम्हारे बिना मैं कैसे रहूँगा?’

वह सोच लेती है और किसी को अच्छी लगूँ, न लगूँ क्या फ़र्क पड़ता है!

पास के कमरे से आवा़ज़ें आ रही है, ’अब लाला काहे को पहचानेंगे! अब तो सब भूल गये। जब इन्टर व्यू देने आये थे हमारे पास, तो इनसे कहते थे -दादा हमे टाई बाँधना सिखा दो। इन्हीं ने सिखाया था ढंग-सहूर। पर अब काहे को याद होगा!’

बाहर आँगन से तरल सुन रही है। खूब ठसकेवाली जिठानी हैं, फुफुआ सास की बहू। पढी-लिखी नहीं तो क्या हुआ, पैसा तो है। सबको कुछ न कुछ सुनाते रहने का अधिकार है उन्हें!

'रहने दो भाभी, ’ किसी ने टोका, ’बाहर आँगन मे तरु भाभी हैं।’

'हैं तो हम क्या करें, ’ उन्होने इठलाकर कहा, ’तब भाभी-भाभी करते मुँह नहीं थकता था असित लाला का। मैं कोई झूठ बात कह रही हूँ क्या? अब कोई नहीं पूछता कहाँ दादा, कहाँ भाभी।’

रश्मि ने तरल के पास आकर बताया था, ’इनकी ऐसी ही आदत है, हरेक से कुछ न कुछ शिकवा है इन्हें। चाहती हैं सब इनके गुन गाते इनके चारों तरफ घूमते रहें।’

तरु का उत्साह फीका पड गया।

असित ने बताया था -जाता था तो कभी खाली हाथ नहीं जाता था, घी, खोया। आम। अमरूद भर-भर कर पहुँचाता रहता था। तब लाला-लाला करते पीछे घूमती थीं। अब दादा का प्रमोशन हो गया है न, रुतबा बढ गया, ऊपर की आमदनी के ज़रिये बन गये। तब तो कहीं जाना होता था तो मुझे लिख देती थीं। टिकट के पैसे भी मैं कभी नहीं लेता था। पहुँचा आता था सो अलग। नौकरी लगने पर सबसे पहले उन्हीं को उनकी पसन्द की साड़ी खरिदवाई थी। और मैं करता था, तब इनके मान का भूखा था न!

'पर उस सब को उनने अपना अधिकार समझ लिया। अब पोस्टिंग दूर हो गई तो नहीं जा पाता, तब से बड़ी शिकायतें हैं। वे चाहती हैं और सबको छोड़़ उन्हीं के हिसाब से चलूँ, सौतेला-सौतेला याद दिलाती रहती थीं। पर अब मेरा भी तो कुछ फ़़र्ज़ है।’

असित को याद है-आते-जाते कुछ न कुछ लेकर ही उनके घर रुकता था, बस एक बार एक हफ़्ते रहा था, जब पिता का दूसरा ब्याह हुआ था। पर कहती फिरती हैं सौतेली माँ के मारे हफ़्तों हमारे पास पड़े रहते थे।

तरु का मन ऊबने लगा है-पहले की विपन्नता और असहायता की याद दिला-दिला कर लोग अपनी कृपा से तरु को अवगत कराना चाहते हैं।

'ऊँह। क्या करना है मुझे इन सबसे! चार दिन बाद सब अपने-अपने घर होंगे। बस रश्मि की शादी अच्छी तरह निपट जाये, ’ यही मना रही है तरल।

'भाभी, तुम्हें पता है, ये लोग सगापन दिखा-दिखा कर, फुसला-फुसला कर तुम्हारे बारे में टोहती रहती हैं। थोड़ी सी बुराई कर दूँ तो मगन हो जायेंगी।’

'तो कर दो न। उनके मन की भी हो जाये।’

'अरे, फिर एक की दस इधर -उधर लगायेंगी, और बढ़ा-चढ़ा कर तुम्हारे कान भरेंगी।’

रात को तरु ने असित से कहा था, ’सुनते हो, मैंने तुम्हें बहका लिया है।’

'कहने दो उन्हें, ’ उसे अपने में समेटते हुये कहा असित ने, ’मुझे तुम्हारे सिवा और कोई नहीं चाहिये था।’

इस स्पर्श के साथ एक और स्नेह भरा स्पर्श तरु के मन को छू जाता है, जिसका आकर्षण कभी कम नहीं होगा, अपने मन में ही दोहराती है-'अब मुझे कुछ नहीं करना’। यही तो असित ने कहा था’, तुम बहुत कर चुकीं, अब मुझ पर छोड़़ दो अब तुम्हें कुछ नहीं करना है।’

हाँ, असित तुमसे मुझे दुखों ने जोड़ा है, सुख के स्वप्नो ने नहीं। यह लेई इतनी कच्ची नहीं कि जरा से ताप से खुल जाये।

एक आश्वस्ति जो अंत तक सम्हाले रहेगी!

निश्चिन्त पलकें मुँद जाती हैं।