एक थी तरु / भाग 6 / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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पिता से जुड़ी बहुत-सी घटनाएँ तरु को याद हैं।

बहुत छोटी थी, उनका नाम तरु ने दूसरों से सुनकर जाना था’गोविन बाबू'। यह तो बाद में बड़े होने पर समझी कि उनका नाम गोविन्द प्रसाद है।

संजू तरु से छोटा है, साथ का वही है -मेल के लिए भी और लड़ाई के लिए भी। शन्नो और गौतम काफ़ी बड़े, उनसे तरु का कोई ताल-मेल नहीं बैठता।

दोनों छोटे हैं अक्सर पिता के आस-पास रहते हैं। वैसे उनके पास समय ही कितना, सुबह से शाम तक दफ़्तर की नौकरी।

गोविन्द बाबू के लेटते ही संजू पहुँच जाता है।

"पिताई, खन्ती -मन्ती,” वह बड़े लाड़ में आकर कहता है,”फिर हम तुम्हारे पाँवों पर कूदेंगे।’

उनकी टाँगें बहुत दर्द करती हैं। एक-एक टाँग पर तरु-संजू को खड़ा कर रौंदवाते हैं तब चैन पडता है।

"अच्छा, आओ।”

पीठ के बल लेटकर उन्होनें तलवे जमीन पर टिकाये और दोनों पाँव घुटने खड़े कर जोड़ लिए। संजू ने घुटनो पर ठोड़ी जमा ली और टाँगों पर औंधा लेट गया। वे उसे ऊपर -नीचे झुलाने लगे और गाने लगे --

"खन्ती मंती खंत खताई।

कौड़ी पाई

कौडी घसियारे को दीन्हीं,

घसियारे ने घास दीन्हीं,

घास गाय को दीन्हीं,

गाय ने दूध दीन्हा,

दूध की खीर पकाई,

सब घर ने खाई,

आरे धरी, पिटारे धरी,

आई घूस, ले गई मूस,

(पाँव पूरी ऊँचाई तक उठाकर )

लडके-लडके नीम पे,

लडकियाँ-लडकियाँ धम्म!

(पांव पूरे नीचे आ गये)

"पिताई और धम्म, धम्म। लक्कियाँ धम्म।’'

लडकियाँ धम्म करने मे संजू बडा खुश होता है, खिलखिलाकर हँसने लगता है। उसे लगता है वह नीम पर है तरु’धम्म' हो गई। जीत की खुशी में उलकी आँखे चमक उठती हैं।

पहले तरु झूलती थी। तब पिता कहते थे,”लड़कियाँ-लड़कियाँ नीम पे, लड़के-लड़के धम्म, 'तब तरु खुश होती थी संजू का मुँह बन जाता था।

अब तरु उतनी छोटी नहीं रही।

" अच्छा, अब तुम हमारे पाँव दबाओ।”

संजू पाँव पर खड़ा हो गया और चल-चल कर दबाने लगा।

"तरु, गौतम क्या कर रहा है?"

"भइया पढ़ रहे हैं, पिताजी।” तरु आकर खडी हो गई।

"चौके मे क्या हो रहा है।”

"जिज्जी अम्माँ के लिये पानी गरम कर रही हैं।”

"जाकर शन्नो से कहो एक कप चाय बना दे, मेरा सिर दर्द कर रहा है।”

शन्नो ने सुन लिया आकर बोली,”पिताजी दूध बिल्कुल नहीं है। शर्माइन का लड़का माँगने आया था, अम्माँ ने सब दे दिया।”

पढ़ाई से बार-बार तरु का मन हट जाता है।

गौतम भैया कैसे लग रहे हैं -देख-देख कर हँसी छूटती है। नाक के नीचे हल्की-हल्की मूछें उगने लगी है; उन पर पसीने की बूँदें अटक गई हैं। कैसी अजीब शकल लगती है।

तरु फिर देखती है, ज़ोर से हँसी आती है उसे। शन्नो उसे हँसते देख रही हैं।

जिज्जी भी तो गौतम भइया को देख रही हैं, इन्हें मज़ा क्यों नहीं आ रहा -उसने सोचा। वह भाई की ओर देखती है, फिर शन्नो की ओर और जोर से हँस पडती है। अब गौतम की नाक पर भी पसीने की बूँदें चमक रही हैं।

ये जिज्जी क्यों नहीं हँसतीं? अभी अम्मा ने डाँटा है। किसी बात पर नहीं हँसेंगी वे। उसने मन-ही-मन समाधान कर लिया। पता नहीं संजू कहाँ है, क्या कर रहा है -इस समय वह भी होता तो कितना मज़ा आता। ऐसे मौकों पर दोनों में खूब पट जाती है।

शन्नो तीखी नजरों से तरु को देख रही हैं, और वह हँसे चली जा रही है। हँसी रुकती नहीं। वह अपनी किताब उठाकर आड़ में जा बैठती है। वहीं से झाँक-झाँक कर देख लेती है कि पसीने की बूँदें अभी मूछों पर ही अटकी हैं या टपक गईं। बार-बार हँस उठती है वह।

शन्नो आकर गौतम के पास बैठ गई, वे तरु की ओर इशारा कर कुछ कह रही हैं। तरु के कानों में कुछ शब्द पडे, ’देखा गौतम इस चुड़ैल को।’

"क्यों तरु, हमेशा ऐसे ही फ़साद खड़े किया करती है', गौतम दहाड़े।

शन्नो ने जोड़ा, ’चुगलखोर कहीं की, झूठी, बत्तमीज़!"

लाल-लाल आँखें किये गौतम तरु को घूर रहेा हैं। पसीने की बूँदों से भरा उनका चेहरा और अजीब लगने लगा है।

पर अब तरु की हँसी समाप्त हो गई है।

"मैनें क्या किया?"

"और झूठ बोल-बोल कर अम्माँ से उनकी डाँट पड़वा, ऊपर से बैठ कर हँसी उड़ा। अब से मत बैठा कर हम लोगों के कमरे में।”

"मैनें क्या किया?"

"हमेशा अम्माँ से जिज्जी की चुगली लगाती है। भाग यहाँ से।”

"झूठा नाम मत लगाओ! मैं तो यहीं बैठूँगी। देखो अम्माँ बेकार में मुझे--।”

तरु को चिल्लाते देख शन्नो ने दखल दिया,”चिल्ला क्यों रही है? बैठ हमारे सिर पर।”

फिर गौतम की ओर घूमी,”मत कह गौतम, वह फिर शिकायत करेगी और वो मेरे पीछे पड जायेंगी!”

गौतम कुछ कह नहीं रहे, आग्नेय दृष्टि से तरु को घूरे जा रहे हैं। तरु वहीं अड़ी बैठी है।

"नहीं जायेगी। अच्छा जा, अब मुझसे मत बोलना।”

"अच्छा,”तन कर उसने जवाब दिया,”नहीं बोलूँगी।”

फिर तरु और गौतम की बोल-चाल बन्द -महीनों के महीनों। तरु भी एक ही अड़ियल है, अपने आप बोलेगी नहीं और कहीं बाहर जाकर अगर गौतम को ही बोलना पड़े तो ऐसे जवाब दे देगी जैसे दीवारों से बात कर रही हो। गौतम बड़े ठहरे उन्हे भी बोलने में अपनी हेठी लगती है।

"तरु, ऐसा नहीं करते। वो बडे भाई हैं, 'अम्माँ समझाती हैं।

तरु अम्माँ से शिकायतत क्यों करे! अपने आप निपट लेगी। उसे लगता है बड़े हैं तो क्या हमेशा मेरे ऊपर बेकार नाराज होते रहें? जिज्जी मेरे खिलाफ भरती हैं और वे बिगड़ना शुरू कर देते हैं। एक बार पूछ भी तो लें मैनें कुछ किया भी है या नहीं?जब पहले ही डाँट लेते हैं तो मैं काहे को असली बात बताऊँ? मैं क्या फ़ालतू हूँ जो बिना पूछे अपनी सफ़ाई देने पहुँच जाऊँ?”

गौतम भइया अपनी किसी बात पर डाँटें तो भी ठीक, पर जहाँ जिज्जी ने चढ़ाया उनकी आँखें लाल, जैसे खाने को दौड़ पडेंगे। और शन्नो जिज्जी भी! इतनी बड़ी हैं खुद नहीं कह सकतीं मुझसे? हमेशा उनसे डँटवाती रहती हैं। मैं तो अपनी बात पर खुद निपट लूँ, दूसरों को बीच में क्यों डालूँ?

तरु को गुस्सा तो यह है कि जो उसने किया नहीं उस के लिये सिर्फ जिज्जी के कहने में आकर डाँटना-बिगडना शुरू कर दिया! नहीं मैं बिल्कुल नहीं बोलूँगी।

अम्माँ उसके हाथ गौतम के लिये कुछ भेजती भी हैं तो पास रख कर चली आती है। वे जबर्दस्ती कुछ कहलातीं तो पास खड़ी होकर, बिना नाम लिये, बिना संबोधन किये बोल देती है।

शन्नो बार-बार समझातीं हैं,”तू छोटी है तरु। तुझे बोलना चाहिये। उसने अगर ज़रा सा डाँट दिया तो क्या हो गया?”

"हाँ, तुम दोनों बड़े हो तो मिल कर बेकार में डाँटोगे! नहीं, मुझे न डाँट सुननी है, न बोलना है।”

वाह, जिज्जी दोनों ओर से भली बन गईं और मैं बुरी। उसे और खीझ लगती है।

" देखो जिज़्जी, तुम्हीं ने मेरा झूठ नाम लगाकर डँटवाया। मै क्यों बोलूं?तुम लोगों का गलत काम भी ठीक? बडे हो इसलिये?"

तरु को लगता है शन्नो खुद तो अलग हो जाती हैं, दूसरों को लड़वा देती हैं। भैया भी कभी मुझसे नहीं पूछते। --न पूछें! मैं क्यों अपने आप सफ़ाई देने पहुँचूँ?

एक तो कुछ किया नहीं ऊपर से अपने आप सफ़ाई!

ऊँहुँक्।


घर में घुसते ही बाहर वाले कमरे (बैठक) से महिलाओं के वार्तालाप के स्वर सुनाई देने लगे। गोविन्द बाबू कमरे में जाते-जाते रुक गये और आँगन की ओर चले आये।

रसोई में शन्नो प्याले-प्लेटें सामने रखे पतीली के पानी में शक्कर घोल रही थी। चौके के दरवाजे पर खडे होकर उन्होने पूछा,”कौन आया है?”

"मथुरा परशादिन और उनकी भौजाई।”

सामने-सामने तो वे लोग उनसे चाचीजी कहते हैं, पर पीठ पीछे इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझते -मथुरा परशाद की पत्नी, इसलिये मथुरा परशादिन, आपस मे वे लोग ऐसे ही काम चलाते हैं।

वे दूसरे कमरे मे कपड़े बदलने चले गये। आवाज़ लगाई,” गौतम।”

"वह मिठाई लेने गया है।”

शन्नो चौके में बैठी भुनभुना रही है, ’अम्माँ की सहेलियों के मारे और मुश्किल! इनके घर जाओ तो हमेशा टालू मिक्शचर (चाय केसाथ जब कोई चलता-फिरता रोज़मर्रा का बज़ारू मिक्शचर चला कर छुट्टी पा ले उसे इन लोगों ने यह नाम दे रखा है)।’

कोई यहाँ आयें तो अम्माँ खातिरदारी में जुट जाती हैं। शन्नो को घुसा देती हैं चौके में -नमकपारे बनाओ, पापड़ तलो, चाय बनाओ, और खुद उनके पास बैठी बतियाती रहेंगी। उनकी प्लेटों मे भरती चली जायेंगी, जिद कर -कर के खिलाती रहेंगी। और वो भी तो किसी न किसी को साथ लेकर हाज़िर हो जाती हैं -कभी बहन आई है कभी भतीजी आई है। आज भौजाई आई हैं। जो आता है लेकर सीधी यहाँ चली आती हैं-अपनापन दरशाती हुई। शन्नो फालतू है न बनाने-खिलाने को!

कहती हैं, ’अरे, मेहमान हैं। कौन हमारे यहाँ बार-बार आएँगे!'

गौतम से मिठाई का पैकेट पकड़ती, शन्नो ने बताया,”पता है आज क्या बोलीं?आते ही कहना शुरू किया, ’जिज्जी, देखो तो कौन आया है! हम ने कहा हमारी जिज्जी बडी मोहब्बतिन हैं, चलो मिला लायें। अरे एक ही तो घर है जहाँ अपना-सा लगे है।’। और यह तरु चुड़ैल कहाँ जाकर मर गई? काम के टाइम हमेशा ग़ायब! गौतम, जरा आवाज़ तो लगा।”

आवाज के प्रत्युत्तर में पड़ोस के आँगन से जवाब आया,”आती हूँ।” और धूल भरे पाँव लिये भागती हुई तरु आकर खड़ी हो गई।

"आज फिर मथुरा परशादिन! किसे लाई हैं इस बार?”

"अरे, हैं उनकी भौजाई। तरु तू प्याले -पोंछ कर ट्रे में लगा फिर बैठ कर नमकपारे बेल।”

शन्नो ने कढाही आँच पर रख दी।

" जिज्जी, पहले पिताजी को दे आऊँ?”

नहीं। पहले उधर, नहीं तो वे नाराज होंगी।”

शन्ने अम्माँ से खीजी होती है तो’वो' कहकर काम चला लेती है।

"वो लोग तो बातों में मगन हैं उन्हे क्या पता चलेगा, जिज्जी।”

गोविन्द बाबू खाट पर बैठे चाय पी रहे हैं। शन्नो थोडे नमकपारे प्लेट में रख लाई। ,”पिताजी, नाश्ता!"

वे मुट्ठी में थोडे नमकपारे उठा लेते हैं।”तुम लोगों के लिये हैं या नहीं?"

"अभी तो काफी हैं।”

अम्माँ कभी नहीं सोचतीं। घर में किसी के लिये बचे या नहीं, बस बाहरवाले संतुष्ट रहें और उनकी तारीफ़ करते रहें!

अँगीठी की आँच में शन्नो का मुँह तमतमा रहा है। पल्ला कंधे पर सिमटा पडा है। वह मुट्टी में नमकपारे भर कर तेजी से आई है, झुक कर पिता की प्लेट में रखने लगी।

"बेसरम कहीं की। बाप के सामने किस बेहयाई से गिरी जा रही है और उन्हें मजा आ रहा है।”

अम्माँ नमकपारे की प्लेट लिये आँगन मे खडी हैं। शन्नो ने चौंक कर उनकी ओर देखा, उसके ऊपर जैसे घड़ों पानी पड गया। पल्ला ठीक करती वह चौके में लौट गई।

गोविन्द बाबू ने धीमे से प्रतिवाद किया,”काहे को तोहमत लगाती हो, वह अभी नमकपारे देने आई थी।”

"मैं सब देखती हूँ अन्धी नहीं हूँ।”

बाहर वाले कमरे से आवाज आई,”जिज्जी, अब कुछ और न लाना, बस दो गिलास पानी।”

वे लौट गईं।

शन्नो बहुत ख़ूबसूरत है-गोरा रंग, गोल चेहरा, धनुषाकार भौंहें, बड़ी-बड़ी काली आँखें, माथे पर बिखरी घुँघराली लटें और सुगढ़ गुलाबी होंठ। मुँह धोकर पोंछती हैं तो लाली छा जाती है चेहरे पर। तरु छिप-छिप कर उन्हीं को देखती रहती है। उनके जगमगाते सौंदर्य से अभिभूत है वह। अपनी सहेलियों से तारीफ करते नहीं अघाती,”देखो, मेरी जिज्जी कितनी सुन्दर हैं।”

उसकी सहेलियों की बडी बहनों में किसी की नाक मोटी है, किसी का मुँह बड़ा-सा, किसी के दाँत ऊँचे, अबारी चौडी या रंग गहरा। कोई शन्नो की तारीफ करता है तो तरु को गर्व होता है -मेरी जिज्जी हैं। अगर कोई कहे कि तरु की शकल कुछ-कुछ शन्नो से मिलती है, तो फूल उठती है वह।

शन्नो को सजने -सँवरने का भी बहुत शौक है। पर अम्माँ को उनका सजना जरा नहीं सुहाता। जहाँ वे सज कर खडी हुईं अम्माँ का डाँटना शुरू।

खिड़की के उस पार है विमली और तारा शंकर का घर। विमली की बड़ी बहिन मनोरमा से वे बात करती हैं तो भी अम्माँ एकाध चक्कर लगा जरूर जाती हैं। कभी काम में लगी होती हैं तो तरु से कहती हैं,”तरु, देख, उधर तारा तो नहीं खडा है?”

कभी-कभी होता भी है तारा। वह अपने दरवाज़े पर डटा होता है, शन्नो तो मनोरमा से ही बोलती रहती है। तरु जाकर खडी हो जाये तो वे भगा देती हैं,”क्या बड़ों के बीच सिर घुसाये खड़ी है। जा अपना काम कर।”

झिड़की खाकर तरु भाग आती है।

तारा बोलता कुछ नहीं, अभिभूत-सा देखता रहता है। बातें करने के बाद शन्नो अकेली -अकेली ही मुस्कराती रहती है।

अम्माँ तरु से पूछती हैं या फिर भेजती हैं तो कह देती है,”हम नहीं जाते, वे भगा देती हैं।”

चौके से अम्माँ बार-बार पता करवाती हैं -शन्नो कहाँ है? क्या कर रही है? कभी-कभी तरु की सूचना उनकी डाँट का कारण बन जाती है। तब शन्नो गौतम से कहती है-"यही चुड़ैल जाकर उनसे जड़ आती है और मुझे डँटवाती है। किसी से बात भी न करूँ क्या?”

और गौतम की आँखें लाल, भौंहें टेढी। तरु से वे बात भी ठीक से नहीं करते, जब बोलेंगे तिनक कर बोलेंगे।

अम्माँ की आदत है बहुत झींकती हैं। बात-बात में अपनी बड़ी बेटी को याद करती हैं। पर मन्नो तो विदेश जा बसी हैं। पाँच -छः साल में कहीं एक चक्कर लगता है। अम्माँ की बातों से ही तरु को उनका ध्यान आता है।’हमारी मन्नो तो गऊ थी। जहाँ बैठाल दो उठना भी नहीं जानती थी। लड़की क्या साक्षात् देवी थी। --ये शन्नो हमेशा जी जलाती है। न ढंग से काम कर, न रहने का सहूर!’

शन्नो पीछे-पीछे मुँह बिचकाकर कहती, ’मन्नो जिज्जी की कोई कम डाँट पड़ती थी? उन्हें भी खूब रुलाती थीं ये!”