एक थी तरु / भाग 9 / प्रतिभा सक्सेना

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स्वतंत्र होने के बाद देश को कितने धक्के लगे। बढ़े हुए उत्साहों पर पानी पड़ता गया। सारा ढाँचा वैसा का वैसा ही। जनता की आशायें टूटती रहीं, चाहा था कुछ और पर कुछ और मिलता चला गया। मनो में और मूल्यों में गिरावट। बढ़ती हुई नारेबाज़ी। और खोखला होता चला गया जीवन!

नियम कानून ढीले पड़ते गए। सत्ता के लिये दाँव-पेंच बढ़ते रहे, विश्वास टूटते रहे मूल्यों में गिरावट आती गई।

हर मन पर किसी न किसी रूप में निराशा की छायाएँ, कहीं असंतोष, कहीं कुंठा कहीं आक्रोश। जो मौका निकाल कर कोई न कोई बहाना लेकर कहीं न कहीं फूट पड़ता है।


बीचवाले कमरे की दीवार पर भारत का एक बड़ा-सा नक़शा टँगा रहता था। पिताजी गौतम के लिए लाए थे, भूगोल पढ़ते पर बहुत काम आता था। देश का विभाजन होने के बाद वह नक़शा उतार दिया गया।

'एक बार तरु ने कहा था पिताजी दूसरा नकशा। ?'

'नहीं, टूटा-फूटा देश देखना अच्छा नहीं लगता।’

तब से वह दीवार खाली पड़ी है।

अम्माँ लगातार बोले चली जा रही हैं।

गोविन्द बाबू उठे और अपनी फाइलें खोलकर बैठ गये। वे वहाँ भी पहुच गईं।

"पराई लड़की को लाकर, तुमने उसे सताने के सिवा और क्या किया?”

अपना उल्लेख वे हमेशा पराई लड़की कह कर करती हैं।

उनके भतीजे मुंडन का निमंत्रण आया है। वे उत्साह से जाने का प्रोग्राम बनाने लगीं थीं। क्या लेना है, क्या देना है कैसे क्या करना है सारे विवरण तय कर रहीं थीं। पर गोविन्द बाबू की ओर से कोई उत्साह नहीं। उन्होंने कहा,”क्या करूं। छुट्टी नहीं मिल रही। मजबूरी है।”

फिर वे शन्नो, गौतम और तरु से चलने के लिये कहने लगीं। पर तीनों का इम्तहान पास है पढ़ाई में हर्ज होगा। बस संजू साथ जाने को तैयार है। अभी छोटा है न।

असल में बात छुट्टी या पढ़ाई की नहीं।

डेढ़ साल पहले मामा की बेटी की शादी मे सब लोग गये थे बडे उत्साह से, चाव से भरे हुये पहुँचे थे। लेकिन सब गड़बड़ हो गया। एक-एक दिन पहाड़ बन गया था -काटना मुश्किल!

शुरुआत तो हर बार की तरह हुई थी। अम्माँ अन्दर जाकर सबसे चिपट-चिपट कर रोईं। ,”तुम सबने मुझे भेज कर भुला दिया। कोई मेरी सुध नहीं लेता। जिऊँ चाहे मऱूँ किसी को चिन्ता नहीं। मुझे वहाँ सबकी बहुत याद आती है। मैं बेचैन हो जाती हूँ।”

"काहे बेचैन हो जाती हो, बीबी जी, तुम्हारा अपना घर है, समझदार बच्चे हैं, राज करती हो।”

"राज करती हूँ!। तुम लोग क्या जानो कैसा राज करती हूँ।”

मौका पाते ही वे अपनी बहनों, भौजाइयों से खुसुर-पुसुर करने लगतीं। अपने भाइयों से बार-बार कहतीं,”तुम्हीं लोग उन्हे समझाओ।”

"सब हो जायेगा, शादी तो निपट जाने दो।”

वे सबकी सहानुभूति बटोरना चाहती हैं।

अपने पति की आलोचना कर उन्हें नीचा दिखाकर अपने अनुसार चला कर वे उन्हें सुधारना चाहती हैं। गोविन्द बाबू में बहत कमियाँ हैं। वे चाहती है वे उनके कहे अनुसार चलें जैसा वे बताएँ, तत्परता से करते रहें। उनके मायकेवालों से कुछ सीखें, उनसे सलाह-मशविरा करें। जहाँ उन्हे लगा कि वे अपने मन से कुछ कर रहे हैं, उनके शिकवों -शिकायतों का दौर चालू हो जाता है। उनका खयाल है सबके सामने ज़लील किये जाने पर वे उनकी बात मानने को विवश हो जायेंगे। गोविन्द बाबू पहले हँसी में टालने की कोशिश करते, फिर उठ कर कहीं चल देते। पर अम्माँ को धुन सवार हो गई तो हो गई। वे बच्चों को भेज-भेज कर उन्हें बुलवातीं और फिर कहना शुरू कर देतीं।

"देखो, हर समय पीछे मत पड़ी रहा करो वे नाराज हो उठे,” चार लोगों के बीच से बार-बार बुलवाते तुम्हें शरम नहीं आती?”"

'यहाँ भी तुम मेरी नहीं सुनोगे? और लोग भी तो हैं कैसी अच्छी तरह रहते हैं। किसी को मनमानी करते देखा है?”

"क्या मनमानी करता हूँ? तुम क्या चाहती हो तुम्हारे उठाये उठूँ। बैठाये बैठूँ। तुम्हारे इशारों पर नाचूँ। ये मेरे बस का नहीं है।”

उन्होने रोना-धोना मचा दिया।”देख लो भैया, यहाँ मेरी नहीं सुनते तो वहाँ क्या करते होंगे तुम्ही समझ लो। इनके सताने से देखो मेरा क्या हाल हो गया है।”

उन्होंने शिकायतों के ढेर लगा दिये। किसी तरह उनकी बहनें उन्हे वहाँ से ले गईं तो मामला शान्त हुआ।

फिर शादी के ऐन पहले, दूसरी घटना घटी।

उस दिन अम्माँ कहीं गईं थीं। उनकी दोनों छोटी बहनें पहन-ओढ़ कर गोविन्द बाबू से बतियाने बैठ गईं।

तरु को तो यहाँ आकर पता लगा कि हँसी-मजाक में उसके पिता पीछे नहीं हैं। कितने सहज रूप से हँसते-बोलते हैं। राधा और शकुन दोनों सालियाँ उनके साथ बैठने बोलने-बतियाने का अवसर ढूँढती हैं। जीजा से मसखरी करने का उल्लास उनके चेहरों पर छलक रहा है।

"जीजा, तुम्हारी बातें सुनने को तरस गये हमलोग।”

"क्यों साढू साहब से तृप्ति नहीं होती?”

"वे ठहरे दूकानदार आदमी, उनसे तो बस हिसाब-किताब करवा लो और इसकेवाले” उसने छोटी बहन की ओर इशारा किया,”इतना कम बोलते हैं जैसे हम लोगों से परहेज़ हो।”

गोविन्द बाबू ने शकुन की पीठ पर धौल जमाया,”क्यों अपने दुलहा को इस से बोलने को मना कर रखा है तुमने?”

"मैं क्यों मना करूँगी, वे तो मुझसे ही गिन्-चुने शब्द बोलते हैं।”

"कौन से गिने-चुने शब्द, ज़रा बताना तो।”

ज़ोरदार ठहाका लगा।

" शकुन, तुम्हारे हाथ का पान खाये तो युग बीत गये। हम तो स्वाद ही भूल गये।”

"अभी लो जीजा, पर पान मुफ़त में नहीं खिलायेंगे। फिर बाज़ार ले चलना पड़ेगा बताये देते हैं पहले से।”

"अच्छा तो पान बेचने लगी हो और वह भी बाजार के लिये! रही तो फिर, चलना बाजार।”

"जीजा हम भी चलेंगे।” दूसरी कहाँ पीछे रहने वाली!

“जो हमें अच्छा पान खिलायेगा उसी को ले जायेंगे।”

दोनों पान लगाने दौडीं।

"राधा ने शकुन से कहा,”हमारी जिज्जी पता नहीं क्यों खफ़ा रहती हैं। जीजा तो बड़े खुशमिजाज हैं। हाँ, उनके सामने जरूर बुझे-बुझे-से रहते हैं।”

"हमारी बहन ज़रूर हैं पर जो उनके साथ रहे वही जान सकता है, दूसरा क्या जाने। उनकी कभी पटी है किसी से? बस अपना ही अपना, अपने से आगे कभी सोचती हैं कुछ? पल्ले सिरे की शक्की और झक्की। हमें तो उनके साथ रहते घबराहट होती है, पता नहीं वहां कैसे-क्या करती होंगी।”

"दिखाई तो दे रहा है। एक न एक तमाशा खड़ा कर हँसाई करवाती हैं। वो तो जीजा में बड़ी समाई है नहीं तो---।”

बीड़े लेकर दोनों पहुँचीं।

"जीजा, पान।”

"अरे वाह क्या लज्जतदार पान लगाया है। आज तक ऐसा पान नहीं खाया। हम तो घाटे मे रह गये शकुन।”

"कैसा घाटा?”

"जिसे घरवाली बनना था वह साली बन गई और साली बन कर पराये घरवाली बन गई।”

हँसते हुये गोविन्द बाबू ने शकुन-राधा को हाथ पकड़ कर बैठा लिया।

"अरे!” राधा के मुँह से निकला, उसने देख लिया था रमा जिज्जी तमतमाया चेहरा लिये कमरे में आ खडी हुई हैं।

"क्यों नही,” वे गोविन्द बाबू से बोलीं,”मैं तो तुम्हें काँटे जैसी खटकती हूँ!”

वे आगे बढकर सामने आ गई थीं।”बडी देर से लीलायें देख रही हूँ। मेरे पान की तो कभी तारीफ़ नहीं की तुमने? वही तो मै कहूं क्यों यहां ठहाके लग रहे हैं।”

अपनी बहनों को वे तीखी नज़र से देख रही थीं। ,”चुड़ैलें मेरी बहने हैं कि सौतें! अपने दूल्हा को उधर भेज दिया और पराये मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाये जा रहे हैं। और तुम्हें भी ज़रा शरम-लिहाज नहीं।” उन्होने पति की ओर घूम कर कहा।

शकुन ने सफ़ाई देने की कोशिश की तो बुरी तरह डपट दिया। राधा ने तेज पडकर चुप कराना चाहा तो आपे से बाहर हो गईं। बवेला मच गया। तमाम रिश्तेदार इकट्ठे हो गये। राधा -शकुन रोती हुई उठीं और चली गईं।

भौजाई ने शान्त कराने की कोशिश की तो उन्हीं पर उबल पडीं।

गोविन्द बाबू पर लगनेवाले लाँछनों की कोई सीमा नहीं। रिश्तेदार समझाने या दूसरा पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते तो और उग्र रूप धारण कर लेती हैं।

रिश्तेदारों से भरा घर, तरह-तरह की बातें होने लगीं।

उसके बाद से गोविन्द बाबू कमरे में चुपचाप बैठे रहते थे, सालियाँ -सलहजें पास नहीं फटकतीं। तरु की अम्माँ से भी लोग कतराने की कोशिश करते पर वे किसी न किसी को घेर कर अपना दुखड़ा सुनाने बैठ जातीं, इधर-उधऱ चर्चायें होतीं। इन लोगों को देखते ही सब पर चुप्पी छा जाती।


शन्नो-गौतम उखड़े-उखड़े-से घूमते। सिर उठाना मुश्किल लगता। बाद के तीन दिन ऐसे कटे जैसे पहाड।

और अब फिर वहां जाने की बात चली है।

उन्होंने गौतम से कहा,”तुम चलो मेरे साथ। अरे, ऐसे मौकों पर ही तो अपनो से मिलना-जुलना होता है। और लोगों का ढंग देख कर कुछ सीखोगे।”

पर गौतम को वहाँ जाकर अपनापन लगता ही नहीं। बल्कि अम्माँ भी पराई लगने लगती हैं। पिछली बार उन्होंने उसकी कोई शिकायत बड़े मामा से की थी और उन्होंने उसके कान खींचे थे सबके सामने।

शन्नो को उनके साथ जाने मे बिल्कुल रुचि नहीं।

औरों के बच्चों को देख-देख कर सिहाती हैं,”देखो सुधा उपनी माँ का कितना ध्यान रखती है! गोपू कितना सीधा है हर काम अपनी माँ से पूछ कर करता है।” और अपने बच्चों पर शिकायत भरी नजरें डाल उनकी खामियाँ दिखाने को तत्पर रहतीं। लड़कियों के बीच से बुला कर शन्नो को पूरियाँ बेलने बैठा देती , बिस्तर उठाने -रखने के लिये गौतम को तैनात करती और चाय के प्याले धोने को तरु को प्रस्तुत कर देती हैं। अम्माँ बस उस घर की लड़की रह जाती है और ये लोग बिल्कुल फ़ालतू!

"अरे तुम लोग मेरे बच्चों को भी रास्ते पर लाओ। मैं इनकी माँ हूँ, पर ये मेरी बिल्कुल नहीं सुनते।”

सुन कर लोग वहाँ से टल जाते हैं, कुछ पीछे-पीछे मुस्कराते हैं। कोई उन्हें नहीं समझ पाता, वे क्या चाहती हैं। बच्चों के लिये ब्याह का उत्सव फीका पड जाता, वे मुँह छिपाये-छिपाये घूमते -हतप्रभ से।

वे शन्नो से कहतीं, ’देखो, सुधा साँवली है पर कैसी दमकती है। एक तुम हो बुझी-बुझी-सी। तुम्हारी करतूतों का ही नतीजा है।”

पिता अब वहाँ कभी नहीं जायेंगे --बच्चे जानते हैं। बड़े मामा के साथ हुई बात-चीत ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी थी।

मामा ने पहले अम्माँ से पूछा,”आखिर, रमा तुम्हें परेशानी क्या है?

"भइया मुझे आराम ही कौन सा है?जब से गई हूँ मुझ पर जो बीत रही है, मैं ही जानती हूँ”

"कुछ पता भी तो हो।”

"वे मेरी बिल्कुल नहीं सुनते। और अब तो बच्चे भी मेरे कहे में नहीं। दिन-रात झींकती हूं मैं।”

"क्या करते हैं वे?”

"अब एक बात हो तो बताऊँ। बाहरवाले मुझे कितना मानते हैं, कितनी तारीफ़ें करते हैं पर घरवालों के लिये मैं कुछ नहीं। कोई मेरे पास बैठ कर हँसी -खुशी से बात भी नहीं करता।”

"कहीं कुछ है क्या? लगते तो ऐसे नहीं है।”

"तुम उन्हें क्या जानोगे, उन्हें मैं जानती हूँ। मुझे उनके रंग-ढंग बिल्कुल अच्छे नहीं लगते।”

"क्यों बीबी जी, बैठते उठते तो होंगे? या वह भी छोड़ रखा है। ?”भौजाई बीच में बोली।

"क्या बताऊँ तुम्हें हविस पूरी करते थे अपनी, अब तो मतलब भी बहुत कम रखते हैं।”

"अच्छा मैं बात करूँगा।” मामा ने आश्वस्त किया।

मामा ने अपनी बहन के दुखों की शिकायत की उन्हें समझाने की कोशिश की। पिता दबनेवाले नहीं थे। वे भी उखड़ गये। गर्मा-गर्मी बढ गई। अम्माँ बीच में पहुँच गईं और लानत-मलामत करने लगीं। मामा गुस्से में बोले,”क्या हाल कर दिया बिचारी का। इसीलिये शादी की थी, हमने?”

"किस लिये की थी और क्या करना चाहिये यह आप अपनी बहन को समझाइये। उनके लिये ज्यादा ही दर्द लगता हो और मुझसे आप सबको शिकायतें हैं तो रख लीजिये अपने पास सब पता चल जायेगा।

अम्माँ वहीं रह गईं। दस दिन बाद मामा की चिट्ठी आई -रमा यहाँ नही रह पा रही हैं इन्हें लिवा ले जाओ। और पन्द्रहवें दिन उनका भतीजा आकर पहुँचा गया।


और अब वे फिर जाने के लिये सब पर जोर डाल रही हैं।

पिता ने स्पष्ट कर दिया,”मुझे अभी छुट्टी नहीं मिल सकती। और मेरे जाने-आने में बेकार पैसा खर्च होगा। उससे अच्छा है तुम वहाँ का देना-लेना अच्छी तरह कर लेना।”

"हाँ, मेरे मायकेवाले तुम्हे काँटे की तरह खटकते हैं, अभी अपने भाई होते तो दौड़े चले जाते।”

"वहां भी कहाँ चैन से रहने देती हो --।” गहरी सांस भर कर वे बोले थे।

उनकी बक-झक लगातार चलती है। पिता उठ कर बाहर चले जाते हैं।

कई दिन यों ही बीत जाते हैं। फिर वे मायके जाने को तैयार हो जाती हैं। गौतम को पहुँचाने जाना पड़ता है। कुछ दिन बाद ही वे अपने भतीजे के साथ वापस लौट आती हैं पता चलता है वहाँ किसी से उनकी पटरी नहीं बैठी।

'हत्यारा!’

अम्माँ पिता से कहती हैं।

क्यों कहती हैं ऐसी बात?

बड़ी पुरानी बातें हैं ये सब। अम्माँ के बड़बड़ाने से धीरे-धीरे वह समझ पाई है। तब उनकी शादी को कुछ ही साल हुये थे। पिता के बहुत-से दोस्त थे तब। कहीं ताश का अड्डा जमता कहीं मीट-मछली का प्रोग्राम। मन्नो बहुत छोटी थी और एक लड़का उससे भी छोटा। उसका नाम बडे चाव से रखा था चन्दन -जिसकी गन्ध सारे वातावरण को गमका दे!

चन्दन साल भर का भी नहीं था शायद। कमज़ोर शुरू का, बीमार रहने लगा। पिता दवा ला कर दे देते। घर में ज्यादा बैठने की आदत थी नहीं। दफ़्तर या मित्र मण्डली। ताश के खेल में समय का ध्यान ही नहीं रहता था उन्हें।

"अम्माँ कहतीं लड़का बीमार है घर पर ही रहो न।”

"मेरे घर पर रहने से क्या हो जायेगा? दवा ला ही दी है। जरूरत समझो तो पण्डिताइन को भेज देना फौरन् आजाऊँगा। वे सब इन्तजार कर रहे होंगे।”और वे घर से निकल जाते।

चन्दन की हालत बिगड़ती गई।

अम्माँ की समझ में नहीं आता क्या करें। पिता से कहतीं तो कहते,”तुम नाहक परेशान होती हो। दाँतों के निकलने मे मन्नो भी तो मरते-मरते बची थी। ऐसे क्या बच्चे बीमार नहीं पडते।”

एक दिन डॉक्टर दवा देकर गया, कह गया दवा के बाद डेढ-दो घंटे पानी मत देना। लड़के का गला सूखता रहा। वह मम्-मम् करता रहा।

"नहीं बेटा, थोडी देर और ---" अम्माँ बहलाती रहीं। उसकी बेचैनी बढने लगी जीभ सूख गई, आँखों की दृष्टि अजीब होने लगी। अम्माँ ने उठाकर पेट से चिपका लिया। बच्चे की दशा बिगड़ रही थी। जीभ प्यास से ऐँठ रही थी। उसने करुण दृष्टि से देखा और जीभ निकाल कर अस्फु़ट स्वर से पानी माँगा। अभी पानी कैसे दे दें? पौन ही घंटा हुआ है। कहीं कुछ हो गया तो?

पर होना कहाँ रुक पाया था?

फिर उसने पानी नहीं माँगा। आँखें खुली की खुली रह गईं -अम्माँ की ओर देखती हुई। घर पर अकेली वे और एक छोटी सी बच्ची -मन्नो, वह भी सो गई थी। रात के दस बज रहे थे। फिर वे ज़ोर से चिल्लाईं। पड़ोसी दौड़े। पिता आये। पर तब कुछ नहीं हो सकता था।

"प्यासा चला गया मेरा बेटा,"अब भी वे हमेशा कहती हैं। ,”उसकी वे निगाहें दिन-रात मेरे मन में चुभती हैं। कलेजे में हूक उठती है। इन्हीं की लापरवाही से चला गया मेरा लाल! प्यास से तड़प-तड़प कर मर गया। अरे हत्यारे पापी! तुम्हें भुगतनी पडेगी इसकी सजा ---।”