एक थी तरु / भाग 8 / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शन्नो उस दिन बहुत रोई थी। आँखें सूज गईं थीं। माता-पिता दोनों बहुत क्रोध में थे। बार-बार शन्नो पर चिल्लाते रहे।

" तारा वहाँ क्यों पहुँचा? ज़रूर तुम्हारी शह रही होगी! नहीं तो लड़कियों के स्कूल के बाहर उसका क्या काम! उसकी तो बाहर कहीं नौकरी भी लग गई है, फिर यहीं क्यों मँडराया करता है? नाक कटा कर छोड़़ेगी, चुड़ैल!”

थोड़ी ही देर में शन्नो बोली,”उसके राखी बाँधूँगी।”

अम्माँ चिल्लाईं,”एक छोड़़ दो-दो सगे भाई हैं, फिर क्या जरूरत है परायों की? उनकी हमारी कौन बराबरी?न जात न बिरादरी ऊपर से बदनाम लोग हैं।’

“पैदा होते ही मर क्यों नहीं गई-" अम्माँ कहे जा रही हैं,”जा, निकल जा घर से, मर जा के। पढ़ने जाती है वहाँ कि ----" उसकी किताबें -कापियाँ निकाल-निकाल कर बिखेर दीं थीं, और बड़बड़ाती जा रही थीं, ’चिट्ठी-पत्री की नौबत आ गई। देखो तो ज़रा, वो तो टाइम से पता लग गया। भाग जाती चुड़ैल तो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहते! बस, बन्द करो इसका पढ़ना-लिखना।’

शाम को तरु खेलकर लौटी तब भी वे रो रहीं थी। रात हो गई। उस कमरे में घुप्प अँधेरा, उनकी सिसकियों की आवाज गूँज रही है।

पिता ज़ोर से कहते है,”अब क्या रो-रो कर जान देनी है --"

तरु अम्माँ के पास पहुँची,”अम्माँ, उन्हें इतना क्यों डाँटती हो? तुम नाराज़ नहीं होओगी तो वे झूठ नहीं बोलेंगी।”

"तू समझती नहीं, शन्नो बहोत चालाक है।”

लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना बिल्कुल बेकार है उहोंने निष्कर्ष निकाला था -हाईस्कूल पास हो गई, बहुत है।

और फिर इतनी सुन्दर शन्नो एक दुजहे को ब्याह दी गई।

पिता ने आज सुबह एक फेरीवाले से टोकरी भर आँवले खरीद लिये हैं।

आँवले की गुठली निकाल कर जमाया गया मुरब्बा उन्हें बहुत पसन्द है। दालचीनी, बंसलोचन, इलायची, कालीमिर्च और जाने क्या-क्या मसाले डलवा कर देर तक चाशनी में पकवाते हैं।

अम्माँ ने अँगीठी जला कर उबालकर रख दिये। काम पर जाने से पहले पिता गुठलियाँ अलग करवाते रहे। बच्चे अपनी-अपनी तैयारी में। शाम की रसोई अब तरु के जिम्मे है। शन्नो गई उनकी ड्यूटी तरु के सिर आ गई।

शाम को थके हुये पिता ने घर में पैर रक्खा, तुरंत अम्माँ ने शिकायत की,”देखो, इसने क्या किया है!”

इशारा संजू की ओर था।

चीनी की चाशनी में पकाया गया आँवले का पाक जमीन पर बिखरा पडा था। संजू के पाँव की ठोकर से आँगीठी से गिर कर सब फैल गया था। उसने अपनी धुन में पलट कर देखा तक नहीं, खेलने चला गया। अम्माँ ने उठाया नहीं, सब वैसा ही पड़ा रहने दिया।

उनकी सारी मेहनत बिखरी पड़ी है ऊपर से बिखरे-राख कोयलों में पलटी हुई अँगीठी।

पिता एकदम क्रोधित हो उठे। आवाज़ दी,”संजू, ऐ संजू”

संजू आया।

" नालायक कहीं का, अंधा बन कर चलता है।”

उन्होंने आपा खो दिया, पास पड़ी कँटीली छड़ी उठा ली और सटाक्-सटाक् मारना शुरू कर दिया।

संजू के हाथों में, पाँवों में नील उभर रहे हैं, खून छलक रहा है, वह उछल-उछल कर चिल्ला रहा है पर पिता मारे जा रहे हैं -बिना रुके, पागल से!

अम्माँ बचाती नहीं, मुँह लपेट कर कमरे में जा लेटी हैं।

वे थक जाते हैं, छड़ी फेंक कर बाहर चले जाते हैं।

दिन भर की थकान, भूख और क्रोध!

उनकी वे आँखें! वह दृष्टि तरु के हृदय में गहरी उतर गई है।

वह एकदम गुम!

संजू के खून की बूँदें फर्श पर पड़ी हैं। वह रोना-चिल्लाना भूल गया है, बुत बना खड़ा है।

तरु बिल्कुल चुप है। रात को लेटी तो उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। धीरे-धीरे सिसकती वह जाने कब सो गई।

पिता संजू के लिये कमीज़ का कपड़ा लाये हैं। उसे पसन्द नहीं आता, अब नौवीं कक्षा में पहुँच गया है -बढ़िया और साधारण का अंतर समझ में आने लगा है।

"मैं नहीं पहनूंगा इसकी कमीज़।”

'क्या ये खराब है?”

संजू पिता से भी लंबा निकल आया है। तरु आशा से उसकी ओर देख रही है, मन ही मन मना रही है -भइया, कह दे अच्छा है!

"हाँ, खराब है,” संजू कहता है।

पिता नाराज़ हो रहे हैं, संजू बाहर निकल गया। वे काफ़ी देर बड़बड़ाने के बाद चुप हो गये।

बहुत हताश लग रहे हैं।

तरु सोचती है -संजू चुपचाप कमीज़ बनवा लेता, तो क्या हो जाता!

पर उसके चाहने से कभी कुछ नहीं होता।

पड़ोस की स्कूल टीचर का लड़का विपिन तरु से अक्सर अंग्रेजी समझने आ जाता है। उसके समझाने से विपिन बड़ी जल्दी समझ जाता है। और विपिन की माँ अगर पढ़ाने बैठ जायें तो तूफ़ान खड़ा हो जाता है। उनके हाथ चलने लगते हैं। जरा-सी चूक पर धीरज खो जाता है -चटाक् से एक पड़ती है और फिर विपिन से गलती पर गलती होने लगती है। चाँटे भी चटाक्-चटाक् चालू रहते है।

अब विपिन अपनी अंग्रेजी लेकर सीधा तरु के पास चला आता है।

उसका मकान गली के उस पार तीसरावाला है। उसकी दादी कथा -कीर्तन में जाती हैं तो तरु की अम्माँ को भी आवाज़ लगा लेती हैं,"अरे दुलहिन, तैयार हो कि नहीं?"

घर के काम -धंधे में तरु की अम्माँ की रुचि नहीं। कथा-कीर्तन के शौक के साथ सामाजिक दायरा भी बढ़ चला है।

विपिन की माँ सिलाई में निपुण हैं। तरु उनसे अपने ब्लाउज़ कटवा लाती है। उस दिन वह शन्नो का ब्लाउज कटाने गई तो विपिन की पिटाई हुई थी। वह चीख़-चीख़ कर रो रहा था। किताबें-कापियाँ इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। तरु को आते देख उसने पाँव समेट लिये और रोना धीमा कर दिया।

तरु ने उसकी कापियाँ-किताबें समेट कर रखीं बोली,”भाभी, आप उसे पीटा मत कीजिये।"

" इत्ता बड़ा धींगडा हो गया, जरा पढ़ने में मन नहीं लगाता। सारे दिन स्कूल में दिमाग़ चटा कर आती हूं, इससे ये नहीं होता कि ज़रा अपने आप कोशिश करे। हर चीज़ बार-बार कहाँ तक दोहराती चलूँ?”

तरु ने, समझा-बुझा कर उसका काम पूरा कराया। वह कहने लगा,”तरु बुआ अब हम माँ से कभी नहीं पढेंगे।”

"फिर किससे पढ़ेगा?"

"तुमसे। माँ पूछती हैं तो हम सब भूल जाते हैं हमें तो इनका हाथ ही दिखाई देता है कि अब पड़ा, अब पड़ा। बुआ, तुम पढ़ाओगी न, हमें?"

संजू से साल भर पीछे था विपिन। वह तरु के पास पढने अक्सर ही आने लगा। पाँचवीं पास करते ही उसकी ट्यूशन के लिये मास्टर लगा दिया गया, फिर भी वह कुछ-न-कुछ पूछने अक्सर ही चला आता है। आज वह अंग्रेजी की पोएम पढ़ने आया है।

"मीनिंग याद कर लिये हैं कि नहीं?"

"हाँ।"

तरु अर्थ बताये जा रही है, विपिन का ध्यान कहीं और है। बार-बार वह उसके चेहरे की ओर देखने लगता है।

"दिमाग कहाँ चला गया तेरा? समझ ही नहीं रहा है, मैं बेकार बक रही हूँ।"

विपिन ने पूछा,”बुआ, अम्माँ ने तुम्हें डाँटा?"

तरु की पलकें भारी-सी हो रही हैं, चेहरा बड़ा बुझा सा है। विपिन की निगाहें उसी पर टिकी हैं।

"तुझे क्या करना? पढ़ना हो पढ़, नहीं भाग जा यहाँ से --।”

विपिन ने चुपचाप सिर झुका लिया। रुँआसा हो आया चेहरा देखकर तरु को तरस आ गया।

"बच्चे बड़ों की बातों मे नहीं पड़ते।”

बच्चा कहा जाना विपिन को अच्छा नहीं लगा, पर उसने कहा कुछ नहीं।

" ---और तू ये समझता है विपिन, कि मैं तुझे अपनी सब बातें बता दूँगी?"

"मत बताओ, मुझे मालूम है।"

"अच्छा! क्या मालूम है तुझे?"

"तुमने खाना बना कर रखा था, अम्माँ ने शर्मा जी के लड़के को सब दे दिया।”

"तुझे कैसे पता?”

"थोड़ी देर पहले मै आया था, तुम घर पर नहीं थीं। अम्माँ ने गप्पू को टिफिन में भर कर सारा खाना दे दिया। ---तुम्हें भूख लगी है न, बुआ। ?”

"नहीं तो--।”

पर विपिन ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, उठा और बाहर निकल गया।

अच्छा हुआ चला गया -तरु ने सोचा, सहानुभूति पाकर उलकी आँखें भर आईँ थी।

थोड़ी देर मे वह लौटा।

"कहाँ भाग गया था, पढाई छोड़कर?"

उसके हाथ में दोना है, वह तरु की ओर बढ़ा रहा है।

"लो बुआ, पकड़ो न।"

"ये क्या है?"

दोने में चार पूडियाँ और आम का अचार!

"अरे, ये क्यों लाया विपिन, चुरा कर लाया है?”

"चुरा के नहीं लाया। चौके में कोई था ही नहीं, किसी को पता भी नहीं।”

"अब से मत लाना कभी। मुझे भूख भी नहीं थी -और होती तो क्या खाना और नहीं बना लेती!”

"बुआ, जरूर खा लेना, तुम्हें मेरी कसम।"